Tuesday, 22 December 2020

योग्यता के मायने -

इंजीनियरिंग के पहले सेमेस्टर में एक सीनियर सर का नाम सुना था, जब नाम सुना था तब तक वो किसी बढ़िया काॅलेज में मोटी तनख्वाह खाने वाले प्रोफेसर हो चुके थे‌। अपने समय के गोल्ड मेडलिस्ट रहे, उनका नाम जब स्वर्ण अक्षरों में अंकित हुए एक बोर्ड में देखा था, उस समय बड़ा गर्व महसूस हुआ था‌। प्रोफेसर साहब इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के विद्वान टाइप के रहे, विद्वान क्या उनका बेसिक अच्छा था, इंजीनियरिंग की भाषा में कहूं तो सिलेबस के लिहाज से उनके सारे फंडे क्लियर थे। भाषाई खिलंदड़ी का ककहरा तो मैंने इंजीनियरिंग के दौरान ही सीखा।

प्रोफेसर साहब अव्वल दर्जे के नशेड़ी थे, यानि आज भी हैं, काॅलेज हो या ट्यूशन हर जगह दारू पीकर ही बच्चों को पढ़ाते हैं, लोगों ने बताया कि इंजीनियरिंग के दौरान भी दारू गांजा मारकर ही पेपर दिलाते थे। कहा जाता है कि उनके बहुत से बैकलाॅग पेपर थे, उन्होंने एक झटके में ही खूब सारे पेपर एक साथ क्लियर किये और इसी तरह गोल्ड मेडल भी लिया। लोग उनकी इस सफलता के पीछे किसी लड़की को नहीं बल्कि दारू और गांजे को जिम्मेदार मानते थे। वैसे पेपर क्लियर करने की जहाँ तक बात है, मैंने भी एक बार 13 पेपर ( 2 Mercy, 3 Pre-mercy, 3 Backlog, 5 Regular subject) क्लियर किए थे। ज्यादा नहीं बस औसत नंबरों से पास हुआ था। उस समय मैं जहाँ रहता था, रोड में टहलते हुए जो भी मिलता हाथ मिलाकर जाता, क्या सीनियर क्या जूनियर हर कोई बधाई देकर जाता, कोई-कोई एक दो सीनियर जिनका पेपर ही क्लियर नहीं हो पा रहा था, वे जबरदस्ती चाय नाश्ता तक करा देते और पूछते कि भाई कैसे किया ये चमत्कार? कुछ लोग कहते - भाई मचाए तो तुम ही हो। इतने लोग आए दिन पार्टी माँगते कि लगता मानो कौन सा तीर मार लिया मैंने। तब इतनी ज्यादा तारीफें मिली कि बस पूछिए मत। काॅलेज की लड़कियों के फ्रेंड रिक्वेस्ट तक आने लगे थे, खैर।। मैं तब भी यही सोचता था कि ये सब के सब इतना मुझे उछाल क्यों रहे हैं, वो भी इतने फालतू काम के लिए, कुछ दिन दो चार चीजें दिमाग में बिठा के कागज में उतार के पेपर पास कर लिया, उसमें क्या बड़ी चीज हो गई। 

इंजीनियरिंग करने वाले हमारे करेंट सीनियर्स हमें ज्ञान दिया करते कि पेपर साफ लिखकर आना, दो कलर का पेन इस्तेमाल करना, काले वाले से हेडिंग बनाना, अंडरलाइन करना और नीले वाले से लिखना। अच्छी राइटिंग ही नंबर पाने का मूलमंत्र है, पेपर भर के आना आदि आदि। यही तरीके थे, और आप यकीन मानिए ये तरीके काम भी करते थे, आज भी काम करते हैं। मुझे आजतक इसमें एक बात समझ नहीं आई कि इन चीजों का किसी व्यक्ति की योग्यता से क्या संबंध है‌। अब इसमें आप सिर्फ इंजीनियरिंग या किसी ग्रेजुएशन की पढ़ाई बस को मत देखिए। भारत में जितनी भी लिखित प्रतियोगी परीक्षाएँ होती है एक सरकारी कर्मचारी से लेकर कलेक्टर बनने तक, हर जगह यही तरीका काम करता है और आगे भी यही तरीका काम करता रहेगा।

Youtube Channel and Earning -

पिछले 50 से भी अधिक दिनों से जितने लोगों ने " यूट्यूबर हो क्या ? " पूछा है, अगर सचमुच होता तो अच्छे खासे लोग जुड़ जाते, लेकिन इन सब से दूर रहने की भी अपनी एक वजह है कि मैं अपना समय कहीं और दे रहा हूं। क्योंकि जितना समय वीडियो तैयार करने में लगना है, उतना समय मैं सोचता हूं लोगों से मिलूं, बातें करूं, और इन 50 दिनों में बहुत से नये पुराने लोगों से मिलना हुआ, उनसे इतना प्यार और अपनापन मिला कि लगता है यही तो असली कमाई है। मैं इसे लाखों व्यू लाइक कमेंट और उनसे मिलने वाले कुछ हजार रूपयों से बड़ी कमाई मानकर चल रहा हूं। मेरे लिए मेरा यूट्यूब चैनल और मेरी अर्निंग यही है।

Thursday, 17 December 2020

Leading towards a Social Break

उन सभी लोगों से निवेदन है कि कम से कम नये साल तक मुझे बेफिजूल के फोन मैसेज न‌ किए जाएं। ये समयावधि आप अपने सुविधानुसार बढ़ा भी सकते हैं, कोई आपत्ति नहीं होगी। संभव है कि फोन और मन दोनों कुछ समय तक सुप्तावस्था ग्रहण कर सकते हैं।

हमें अपने किसी भी कृत्य से किसी को समझने, समझाने, उपदेश देने, संचालित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, सरपरस्ती भी नहीं। कहीं जीवन जीने के बहुत अलग तौर-तरीके हो सकते हैं, उसमें भी व्यक्ति की एक सीमा होती है कि वह हिंसा को लम्बे समय तक ना झेले, खुद को अलग करता चले।

निर्मल वर्मा ने कहीं कहा था - भारतीय समाज ऐसा है कि कोई अगर कुछ समय एकांत में है तो समाज इस बात को हजम नहीं कर पाता है उल्टे उस पर तरह-तरह के प्रश्नचिन्ह लगाता है, अपनी चीजें थोपने लगता है।

बहुत पहले ही परिजनों को कह दिया गया था कि कोई बहुत अधिक इमरजेंसी हो, सुख या दु:ख की खबर हो, तभी याद करें, अन्यथा ना करें। क्या खाया, कहाँ रहा, इन सब रोजमर्रा के सवालों में ऊर्जा व्यर्थ ना करें। जिन‌ चीजों में दखल, सलाह की जरूरत हो तो याद करें वरना मुझे अकेला छोड़ दें। खुशी होती है कि वे समझते हैं।

आने वाले समय में शायद कुछ चीजें एक्सट्रीम हो जाएं, बहुत कुछ उथल-पुथल हो जाए, क्या पता कैसा जो होता है, सब हमेशा की तरह अस्तित्व के सहारे है। सबके जीवन की अपनी अपनी विद्रूपताएँ होती हैं, इधर भी हैं। सबको अपनी-अपनी सढ़ी गली विद्रूपताएँ मुबारक। वैसे इतने दिनों में एक दोस्त मिला, और वो मैं ही था, और ये कंपनी ठीक लगी। कोशिश रहेगी कि सोशल‌ मीडिया में निरंतरता बनी रहे, न भी हो तो भी कोई समस्या नहीं क्योंकि किसी प्रकार की कोई बाध्यता है नहीं। 

सांत्वना वाले कमेंट नहीं करेंगे, और सवाल-जवाब नहीं करेंगे, इसके लिए आप सभी का धन्यवाद।

Wednesday, 16 December 2020

All India घूमने के लिए कुछ निहायती जरूरी चीजें -

1. नेलकटर - क्योंकि घूमते हुए तेजी से नाखून बढ़ते हैं।

2. वाशिंग पाउडर - कम पकड़े रखो और धोते चलो।

3. कपड़े धोने का ब्रश - ये सिर्फ उनके लिए जरूरी है जिन कामचोरों को हाथ से कपड़ा धोना नहीं आता।

4. साबुन और साबुन रखने का एक डब्बा - क्यों क्योंकि इससे हैण्डवाश और बाॅडीवाश दोनों काम एक साथ हो जाएगा। हैण्डवाश का डब्बा धोखा है, छलावा है, और बहुत महंगा भी है।

5. एक ताला और चाबी का सेट - इसकी जरूरत तब समझ आएगी जब कभी किसी धर्मशाला में रूकना हो।


ये कुछ बहुत ही जरूरी चीजें हैं बाकी आप फिजूल की चीजें जितनी चाहे अपने साथ ले सकते हैं। बाकी ये जो हीरो लोग चाकू लेकर ट्रिप में घूमते हैं भगवान जाने इनको किनसे खतरा होता है, एक तो कुछ सूतिए जंगलों में ट्रैकिंग करने वाले चाकू तो ऐसे लेकर घूमते हैं जैसे चाकू से भालू चीता मार लेंगे। ये सब फिजूल के दिखावे हैं बाबा। 

आखिर में यही कि जितना कम सामान रहेगा, उतना सफर आसान रहेगा, जितनी अधिक जरूरतें होंगी, उतना तू हैरान रहेगा।

Tuesday, 15 December 2020

भारत भ्रमण का 45वाँ दिन - अनुभव

आज 45वाँ दिन है, इतने दिनों में जो एक अच्छी चीज हुई है वो यह है कि मुझे मेरे आसपास की सढ़न पहले से कहीं अधिक सफाई से दिखने‌ लगी है, सोचता हूं उन चंद लोगों को उनके भीतर पल रहे जहर से, ढोंग से अवगत करा दूं फिर सोचता हूं जो पहले से ही रसातल में हैं वे अपने आपको बचाना तो छोड़िए, खुद आपको गड्ढे में खींचने की कोशिश करते हैं, अपनी मानसिक सढ़न थोपने की कोशिश करते हैं, इसलिए बेहतर है कि एक निश्चित दूरी बनाकर रखी जाए। असल में उन्हें खुद नहीं पता होता है कि जिंदगी जीना कैसे है। कुछ समय के लिए ऊपरी दिखावा कर लेते हैं कि जिंदगी का आनंद वही ले रहे, बाद में जब दिखावे का कवच फूटने लगता है तो उसे दबाने के लिए अपनी पूरी सढ़न रूपी ऊर्जा झोंक देते हैं। सुख-दुख, आनंद, निराशा आदि जीवन के कुछ मूलभूत तत्वों को कैसे जिया जाता है इसकी उन्हें समझ ही नहीं होती है, और यही लोग आपको जिंदगी जीने के तरीके सिखाते फिरते हैं। खुद गले आते तक समस्याओं में डूबे रहेंगे लेकिन फिर भी इन्हें पूरे संसार का भला करना होता है‌। भारत का समाज मोटा-मोटा ऐसा ही है।

Monday, 14 December 2020

विवाह मंथन

 1. जानवर भी अपने बच्चों को पाल पोसकर बड़ा करते हैं।

2. सिर्फ बच्चे पैदा कराने के लिए सूली पर मत चढ़ाइए। शादी करते हैं, सिर्फ इसलिए शादी नहीं करनी है।

3. जबरदस्ती जब चेहरा और फिगर देख के ही शादी करवाना है तो जिससे मर्जी चाहे करवा लीजिए, कोई आपत्ति नहीं।

4. वर्तमान में शादी के लायक मेरी अपनी कोई सेटिंग नहीं है, बस इतनी सी बात है कि अभी मन नहीं है।

5. जिन रिश्तेदारों को बहुत अधिक शक हो रहा हो उनके लिए उचित मूल्य पर विक्की डोनर बनके खुद को सिध्द करने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है।

6. अपनी जाति में लड़की देखना बंद कर दीजिए, मेरा अपना मन है कि अगर मैं कभी शादी करूं, ऐसी अगर विवशता हो तो किसी पंजाबन या पहाड़न से ही शादी करूं, अन्यथा ना करूं। 


कोई लंका भेदी विभीषण टाइप का रिश्तेदार अगर प्रोफाइल में बचा हुआ है, तो मेरे घर तक ये पाइंट्स बेझिझक पहुंचा सकता है।

Saturday, 12 December 2020

मूंगफली वाला -

                  आज एक मूंगफली बेचने वाले के पास गया। सेडिस्टिक आनंद के लेन-देन के लिए बात नहीं लिखी जा रही है। चुपचाप दस रूपए की मूंगफली खरीदकर आ गया। मैं, मेरी जेब और मेरा पेट इससे ज्यादा उसका भला‌ नहीं कर सकता था। आज उस वृध्द के हिम्मत के सामने हर चीज बौनी नजर आने लगी, अभी पर्यटन स्थलों में खासकर ऋषिकेश में सन्नाटा है, लोग हैं ही नहीं, फिर भी इतनी बड़ी चुनौती के साथ बाजार में एक ठेला लगाकर सुबह से शाम टिके रहना। कितने ही लोग मूंगफली खा लेते होंगे। कितना बिकेगा, कोई भरोसा नहीं, फिर भी, सब कुछ अस्तित्व के सहारे। सोचता हूं ऐसे कितने पेशे होंगे जिनमें प्रतिदिन ऐसी चुनौतियाँ होती होंगी। सेवा और समाजकार्य का प्रपंच करने वालों के लिए ऐसे तमाम पेशे सेवा की श्रेणी में कभी नहीं आएंगे, क्योंकि यहाँ हर दिन रिस्क है। इनका बस चले तो मूंगफली, चाय, गोलगप्पे आदि में भी कुछ समाजकार्य का रस मिलाकर स्टार्ट-अप बना दें। खैर...

सफलता, चुनौती की आए दिन पेपर में छपने वाली मनोरम कहानियाँ फर्जी हैं, सब ढोंग है, छलावा है। किताब रट के एक जगह सुरक्षित कर लेने के तिलिस्म को ही जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष मानने वाले विषैले समाज से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।

Friday, 11 December 2020

My take on Backpacker Hostel and homestay -

अभी पिछले 40 दिनों की यात्रा में एक मित्र की संगत में 2 दि‌न एक बैगपैकर हाॅस्टल टाइप के होमस्टे में रहना हुआ।‌ मेरे लिए तो काफी महँगा हो गया। मेरा अपना अनुभव यह कहता है कि अगर आप बहुत ज्यादा बजट ट्रेवल कर रहे हैं, कुछ भी खा सकते हैं, कहीं भी सो सकते हैं, तो ये आपके लिए ये उतने अच्छे आॅप्शन नहीं हैं। ये खासकर उन लोगों के लिए है जो विदेश से आते हैं, विंटेज वाली, गाँव वाली लाइफ देखना चाहते हैं या फिर उन लोगों के लिए है जो शहरों में रहकर महीने का लाखों रूपया कमाते हैं, और जीवन में थोड़ा सुकून चाहिए होता है, तो उनके लिए ये आॅप्शन बहुत किफायती भी मालूम होता है, इसी में एक श्रेणी यह भी जोड़ लीजिए कि ये उनको भी बहुत पसंद आता है जिन्होंने कभी अपने जीवन में गाँव घर की जीवनशैली नहीं देखी होती है। अब मैं इनमें से एक भी श्रेणी में नहीं आता हूं, वैसे मैंने हर तरह का जीवन जिया है, मेट्रो सिटी वाली जीवनशैली से लेकर धूर आदिवाली इलाके की गाँव वाली जीवनशैली, जहाँ लोग रहने में भी कन्नी काटते हों, ऐसी जीवनशैली में लंबे समय तक प्योर देहाती की तरह रहना हुआ है। तो मुझे अभी तो इस बजट ट्रेवल में होमस्टे, बैगपैकर हाॅस्टल टाइप की जगहें पसंद नहीं आ रही है, जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि जब घर से निकला था तो सोचा यही था अधिकतर होमस्टे में ही रूकूंगा, कुछ होमस्टे टूरिज्म प्रमोशन टाइप का हो जाएगा। लेकिन मुझे कुछ इससे भी बहुत सस्ते विकल्प मिल गये इसलिए मामला स्किप हो गया। ऐसे विकल्प जहाँ अमूमन रहना लोगों को रास नहीं आता है, लेकिन मुझे पसंद है, मैं धर्मशालों में लंबे समय तक रूक सकता हूं।

Sunday, 6 December 2020

पिताजी का हार्ट अटैक -


मेरे पिताजी एक औसत सरकारी कर्मचारी रहे, अभी रिटायर्ड हैं। जब वे 57 साल के थे तब यानि आज से 5 साल पहले उन्हें हार्ट अटैक आया था। पिताजी ने आज तक कभी गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि को कभी हाथ नहीं लगाया, दूध वाली चाय भी नहीं पीते हैं और पिछले दो दशक से शाकाहारी हैं। खान-पान बहुत ही संतुलित रहा साथ ही खेतों में लगातार काम करते रहे, आज भी कुदाल, फावड़ा लेकर उतर जाते हैं, यह कहना गलत न होगा कि किसान पहले हैं, सरकारी कर्मचारी बाद में हैं। आज भी शारीरिक रूप से बहुत ही मजबूत हैं। मेरी तरह वे भी दुनिया जहाँ की अलग-अलग चीजें खाने के शौकीन हैं। घर के बाकी सदस्य हार्ट अटैक आया था ये मत खाइए वो मत खाइए कहकर बार-बार समझाइश देते रहते हैं, मैंने आजतक इस बारे में कुछ नहीं कहा और न ही आगे कभी कुछ कहूंगा क्योंकि मुझे पता है कि मेरे पिता के हार्ट अटैक का उनके खानपान से कोई संबंध ही नहीं था। 

लगभग तीन चार दशक पुरानी बात है। पिताजी दो भाई थे, उनका एकलौता छोटा भाई यानि मेरे चाचा पढ़ाई से कुछ खास कर नहीं पाए तो गाँव में ही खेती संभालने लगे। हमारे दादाजी जो प्राचार्य रहे, शुरू से ही उनका अपने छोटे बेटे के प्रति झुकाव अधिक था, अब पता नहीं किधर झुकाव था लेकि‌न उन्होंने अपने दोनों बेटों को जमीन बंटवारे के नाम‌ पर खूब लड़वाया। आपको भले यकीन न हो लेकिन दोनों भाइयों के बीच अगर खाई किसी ने पैदा की तो वह मेरे दादाजी ही थे। वे मेरे पिता से बहुत अधिक नफरत करते थे, जबकि योग्यता से लेकर सभी मामलों में मेरे पिता ठीक रहे फिर भी, यानि अपने माता-पिता के प्रति इतना प्रेम रहा, समर्पण भाव से उनके लिए इतना कुछ किया कि शायद ही माता-पिता अपने बच्चों के लिए इतना करते हों, बिल्कुल श्रवण अपने माता-पिता के लिए जैसे थे बिल्कुल वैसा ही समझ लीजिए। मेरे पिता आजीवन अपने माता-पिता को भगवान की तरह पूजते रहे। प्रताड़नाएँ झेलते रहे लेकिन एक पल के लिए पूजना नहीं छोड़ा। मेरे दादाजी ने मेरे पिता के ऊपर तमाम तरह की भावनात्मक और मानसिक हिंसाओं की बौछार कर दी, मेरे पिता सब कुछ प्रेमभाव से झेलते रहे, कभी एक शब्द जवाब न दिया, देते भी कैसे कभी सीखा ही नहीं था, बस प्रेम और समर्पण लुटाना सीखा था। जबकि चाचा इसके ठीक उलट रहे, उन्होंने कभी अपने माता-पिता का सम्मान नहीं किया शायद इसलिए भी वे इन मानसिक प्रताड़नाओं से वंचित रह गये। फिर एक दिन अचानक चाचाजी बिजली के झटके की वजह से चल बसे और ठीक उस के एक साल बाद दादाजी भी मस्तिष्क में लकवा की वजह से शांत हो गये। और दादाजी के जाने के कुछ महीने बाद ही पिताजी को हार्ट अटैक आया था।

दादाजी की हिंसा की बानगी के रूप में एक बात याद आती है, एक बार उन्होंने अपने ही बेटे को यानि‌ मेरे पिता को पत्र लिखा था, चार-पाँच पन्ने का पत्र रहा होगा, उसका सार यह था - तू नकारा है, बेकार है, क्या ज्यादा दिन जिएगा, तुझे तो अब तक मर जाना चाहिए था, तू मेरे लिए मर चुका है, बेटे के नाम पर कलंक है आदि आदि। अपने ही पिता के द्वारा यह पत्र पाकर वे कई कई दिन तक सो नहीं पाए, खामोश से हो गये थे, पता नहीं क्या कितना महसूस करते होंगे, कितनी उनको भीतर तक चोट पहुंची होगी। अपने पिता द्वारा ऐसा पत्र पाकर भी वे आजीवन उनकी सेवा करते रहे लेकिन अंदर ही अंदर उनको मानसिक पीड़ा तो होती ही होगी और ये पीड़ाएँ किसी न किसी तरीके से एक दिन बाहर निकलने का द्वार खोज ही लेती है। और हुआ भी यही, एक दिन अचानक ही मेरे पिताजी को दिल का दौरा पड़ गया। अगले ही दिन भर्ती कराना पड़ा, स्टैंट लगा, सब सही हो गया, अब चंगे हैं। रिटायरमेंट के बाद भी बेरोजगार नहीं है, खेती कर रहे हैं।

मुझे इस बात पर कोई भी संदेह नहीं है मेरे पिता के हार्ट अटैक का सबसे बड़ा या यूं कहें कि एकमात्र कारण उनके पिता द्वारा लगातार कई दशकों तक की गई भावनात्मक हिंसा है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह भी लगता है कि मेरे पिताजी अपने पिता द्वारा दी ‌गई प्रताड़नाओं को अब लगभग भूल चुके हैं। शायद मेरे दादाजी आज जीवित होते तो उन्हें वे और भी कोई बीमारी हो जाती, और इन बीमारियों का कारण शरीर न होता।

Thursday, 3 December 2020

A day well spent in Rishikesh

- All India Solo Winter Ride 2020 -

- Day 32 -

बहुत ‌कम ही ऐसे मौके आए हैं जब कभी ग्रुप फोटो डालने का मन किया हो। इस फोटो में बीच में प्रनीश है जो अभी 15 साल का ही है, कल संभवत: हमारे साथ ट्रैक करेगा, रिवर राॅफ्टिंग करेगा या फिर और पता नहीं क्या क्या। और दूसरा विवेक है, जो मुझे तुंगनाथ ट्रैक‌ पर पहली बार मिला था, वहीं दोस्ती हुई थी, प्रनीश विवेक का भांजा है जो कुछ दिन पहले ही अहमदाबाद से घूमने आया है। तो आज मैं रूद्रप्रयाग से ऋषिकेश के लिए निकला ही था कि विवेक ने फोन कर कहा कि "आ रहे हो न" और कुछ इस तरह हम फिर से ऋषिकेश में मिल‌ गये, मैंने अपने ठह



रने का जुगाड़ वैसे तो पहले से देख लिया था लेकिन वे जहाँ रूके हुए थे, उन्होंने मुझे भी वहीं बुला लिया। तुंगनाथ ट्रैक में असम का एक और दोस्त मिला था, जो आज सुबह ही मुझे रूद्रप्रयाग संगम में दुबारा मिल गया था, और फिर तीसरा इत्तफाक ये कि वो भी आज ऋषिकेश आया और मुझे फोन किया, उस असम वाले दोस्त की कहानी फिर कभी।

तो इस तस्वीर के अपलोड करने की सबसे बड़ी वजह यह है कि भले ही हम घूमते हुए एक दूसरे से मिले लेकिन आज हमने यात्रा आदि की बातें ना करते  हुए अचानक ही घंटों सामाजिक मुद्दों पर चर्चाएँ की। इससे पहले हम दोनों की बात ही नहीं हुई थी तो यही पहली बातचीत थी। सामाजिक मुद्दों को लेकर मेरी और विवेक की बातचीत ऐसी चली कि बस रूकने का नाम नहीं। बातचीत के शुरूआत में ही विवेक ने मेरी एक बात को सुनते ही पता नहीं क्या हुआ, मुझे बीच में ही रोक दिया और कहा रूकिए, ये फिर से रिपीट करना, ये प्रनीश को भी सुनना चाहिए और उसने 15 वर्षीय प्रनीश को भी मेरे कमरे में बुलाया और प्रनीश ने बड़ी उत्सुकता से हमारी बातें सुनी और अपनी सहभागिता भी दी, मुझे यह सब देखकर इतनी खुशी हुई कि बस क्या कहूं। और दोस्त की तरह हम तीनों लंबी लंबी चर्चाएँ करने लगे और रात को दस बजे गंगा किनारे खाना खाने के लिए गये। विवेक ने एक बात कही = "हम दूसरों की मदद करना ही क्यों चाहते हैं, पहले अपनी मदद तो कर लें, फिर दूसरों की मदद अपने आप हो जाएगी।" 

आज के दिन को आम से खास बनाने का शुक्रिया मेरे भाई।

" मेरे लिए जीवन में खूबसूरती के मायने बहुत बहुत अलग हैं, आपके लिए नदी पहाड़ बर्फ आदि हो सकते हैं, आप उसे देखकर चौड़े हो सकते हैं, लेकिन मैं इन चीजों को वहाँ के लोगों में, वहाँ के समाज में, वहाँ की संस्कृति में देखता हूं, महसूस करता हूं और इन सबके बीच जो रिश्ते बुनकर आते हैं, मेरे लिए वही खूबसूरत होता है, और इस खूबसूरती को वही समझ सकता है, इसका रसास्वादन वही कर सकता है जिन्होंने रिश्तों को ईमानदारी से जीया होता है। "

आज दोस्ती का दूसरा दिन।।

#allindiasolowinterride2020





Saturday, 7 November 2020

सद्गुरू बाबा -

सद्गुरू जैसे बाबाओं पर जैसे ही आप सवाल खड़ा करते हैं, स्वत: ही आप गलत नकारात्मक हो जाते हैं। इन जैसे बाबाओं ने ऐसा आभामण्डल बनाया होता है कि आप इनकी कोई गलती पकड़ ही नहीं सकते, ये बहुत ही ज्यादा स्मार्ट होते हैं। विद्वता के नाम पर इनके पास सिर्फ लच्छेदार तर्क होते हैं, उन्हीं तर्कों को तमाम तरह की उलझनों में जकड़ा हुआ भारतीय समाज विद्वता के डोस के रूप में ग्रहण करता जाता है और उनके मोहपाश में बँधता चला जाता है। सद्गुरू जैसे बाबा इसलिए भी बाकी फर्जी बाबाओं से खतरनाक हैं क्योंकि ये कोई गलती नहीं करते हैं, आपने कभी नहीं सुना होगा कि सद्गुरू से चूक हुई, गलत बयान दिया, बेबाक राय रखी, कुछ नहीं, कुछ भी ऐसा सुनने नहीं मिलेगा। असल में इनका चरित्र दीमक की तरह होता है, ये समाज को अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से काट काट के पीछे धकेल रहे होते हैं और समाज को पता भी नहीं चलने देते हैं। इनकी बातें इनके समाधान पानी के बुलबुले की तरह होता है और लोग हैं कि उस बुलबुले को ही बहता हुआ पानी समझ लेते हैं।

Friday, 6 November 2020

हत्या या आत्महत्या?

एक हमारे मित्र रहे। उम्र में बड़े थे, शादी हो चुकी थी, दो छोटे बच्चे (एक लड़का एक लड़की) भी थे। लेकिन रिश्तों के बीच खटास कुछ ऐसी आई कि पत्नी झगड़ के अपने मायके चली गई। साल भर का समय बीत गया, लड़का घर में अकेला रहा। लड़के की माता की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी तो अब घर में सिर्फ दो ही लोग रह गये थे, एक लड़का और उसके पिता, और दोनों में बनती भी नहीं थी, दोनों में बातें भी नहीं होती थी, पिता ने कभी लड़की और उसके घर वालों से बात कर मामला सुलझाकर बहू को लाने का प्रयास भी नहीं किया। लड़का आए दिन परेशान रहने लगा, आए दिन पत्नी से वापस लौटने की मिन्नतें करने लगा, पूरे लाॅकडाउन भर हमारे घर आता रहा, वह बहुत अकेला पड़ चुका था, इस उम्मीद से मेरे पिता के पास आता कि वे कम से कम एक अभिभावक की तरह उसकी पत्नी को वापस घर लौटाने में कुछ मदद करें, पिछले कुछ महीनों में मेरे पिताजी ही उसके लिए पिता की तरह हो गये थे, एक मित्र की तरह उसको सबल देते रहे। लेकिन कल सुबह उस लड़के ने सुसाइड कर लिया। उसकी लाश देखने के लिए बच्चों समेत उस लड़की का परिवार देखने आ गया। लड़के के पिता ने बेटे की मौत पर यह तक कह दिया कि जो होना था हो गया, छोड़ो हटाओ। जब से घरवालों ने यह खबर दी है मुझे पता नहीं क्यों बहुत गुस्सा आ रहा है - इस मूढ़ समाज पर, जो ऐसे अपने ही समाज के लोगों को हाशिए में मरने के लिए छोड़ देता है, और ये एक उदाहरण नहीं है। खैर, मेरी नजर में तो समाज परिवार पहले ही उन्हें किश्तों में मार ही रहा था, वो बात अलग है कि उन्होंने सुसाइड करके समाज का सारा आरोप खुद पर ले लिया।

Facebook Feeds - October 2020

ड्रीम11 से लाख गुना बेहतर ताश वाला जुआ है, उसमें समय की खपत कम होती है।

मिर्जापुर-2 में ईशा तलवार का ड्रेसिंग सेंस शानदार है, इतनी सुंदर साड़ियाँ शायद ही पिछले कुछ सालों में किसी फिल्म या वेब सीरीज में दिखी हो।

वांडरलस्टियों, गोप्रो एक्शन कैमरा लटकाकर डामर और सीसी रोड की वीडियो बनाना बंद करो यार।

ग्रेजुएशन खत्म होते तक सुसाइड वाले, आत्मदाह वाले, सल्फाश पोटाश खाने वाले, मच्छर मारने वाला लिक्विड पीकर जाने देने की कोशिश करने वाले, इस तरह के दर्जनों केस देखे, अधिकतर मामले ऐसे परिवारों से थे जो संपन्न थे, प्रतिष्ठित थे। कुल मिलाकर बात ये कि सारी सामाजिक समस्याओं का मूल हमारा परिवार होता है। जब तक परिवार में ये समस्याएँ रहेंगी तब तक मानसिक रोगियों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती रहेगी और सद्गुरू जैसे बाबाओं की दुकान चलती रहेगी।

गाड़ी खरीदने के बाद सबसे ज्यादा पूजा भारत में, फिर भी सड़क दुर्घटनाओं और उससे हो रही मृत्यु के मामलों में हम पूरी दुनिया में नंबर वन है।

जिन समाजों में "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" जैसे ढकोसले नहीं होते, ऐसे समाजों में ही स्त्रियाँ सबसे अधिक सम्मानित और सुरक्षित हैं।

Roadies के इंटरव्यू का स्तर सिविल सेवा परीक्षाओं के इंटरव्यू से कहीं बेहतर होता है।

KBC जैसे शो अश्लीलता के मामले में Big Boss से भी कहीं आगे की चीज है।

रिया के लिए मारो मारो चिल्लाने वाली सारी आवाजें फिलहाल रेपिस्टों की तरफ शिफ्ट हो गई है।

Facebook Feeds - September 2020

आरोग्य सेतु एप्प का क्या हुआ? कोई खबर?

जो कोरोना पिछले छह महीनों से नहीं रूका,वो एक हफ्ते के लाॅकडाउन से क्या रूकेगा#Raipur

हमारे यहाँ माता-पिता इतने महान हुआ करते हैं कि जब वे अपने बच्चों की पिटाई करते हैं तो उस पिटाई के बीच कहीं बच्चा पलटवार ना कर दे इसलिए सुरक्षा के लिए कहानी ऐसी गढ़ दी गई, संस्कार ऐसे ठूंस दिए गए कि बच्चे मार तो खा सकते हैं लेकिन माता-पिता पर हाथ नहीं उठा सकते और न ही उन्हें रोक सकते हैं। अगर किसी बच्चे ने गलती से माता-पिता पर हाथ उठा दिया या उन्हें मारने से रोकने‌ की कोशिश की तो पाप लगता है, और यही पाप आगे चलकर बुढ़ापे में हाथ कांपना, लकवा मारना आदि बीमारियों के रूप में परिलक्षित होता है, इस बात को अगर सच मान लिया जाए तो फिर यही लाॅजिक उन माता-पिता पर भी लागू हो जो आजीवन अपने बच्चों के ऊपर मानसिक शारीरिक हिंसा करते हैं।

लोगों का पूरा ध्यान खाली बन्दर (डाॅक्टर) पर है।असली मदारी (नेता,अधिकारी) मजे में हैं।


सचमुच लोकतंत्र होता, सचमुच सरकार संवेदनशील होती तो जनगणना की तर्ज पर अभी तक घर-घर जाकर टेस्टिंग का काम शुरू हो जाना चाहिए था। 

यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोक है ही नहीं, अगर है भी तो उसे हर छोटी सी बात में लाइन में लगवा दिया जाता है। हमें अपनी जान भी बचानी है, लाइन लगाकर भीड़ भी हम बढ़ाएं और दूसरों की जान भी खतरे में डालें। छल क्यों नहीं लग जाता ऐसे लोकतंत्र को।

एक ओवरहाइप्ड अभिनेत्री के आफिस ध्वस्त होने की खबर का राष्ट्रीय मुद्दा बन जाना और उस पर चर्चा करना उतना ही वीभत्स है जितना वो हथिनी के मरने की खबर या अमिताभ के अस्पताल का फुटेज या फिर सुशांत वाला मामला। हर नई खबर जो कि वास्तव में खबर ही नहीं, पहले से कहीं अधिक हाई वोल्टेज ड्रामे के साथ पेश की जाती है ताकि आमजन उसी के ईर्द-गिर्द भुलभुलैया में चक्कर लगाता रहे और असल मुद्दे पीछे छूटते रहें।

मैं अगर उस अभिनेत्री के जगह मैं होता तो क्या पता बिना दोषसिध्दि के इतना अपमान झेलकर कहीं केरोसिन डाल के खुद को जला न लेता। मीडिया चैनल आदि को हटाकर देखा जाए तो सबसे तकलीफदेह इन सबमें यह है कि महिलाएँ ही सबसे अधिक उस लड़की के‌ लिए हिंसा दिखा रही हैं, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम कितने ह्रदयहीन, कितने असंवेदनशील समाज के रूप में आगे बढ़ते जा रहे हैं।

रिया को जेल भेजना स्वागत योग्य कदम है, अभी के समय में उनके लिए सबसे महफूज जगह वही है।

माना जाता है कि जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार शोषण झेला हो, उनके डीएनए में गुलामी शोषण का तत्व रह जाता है, ठीक उसी तरह प्रिविलेज क्लास के पास भी उस प्रिविलेज से आई भाषा, कला, वाणी, वाकपटुता, भाषायी चातुर्य, रटंत विद्या, राज-नीति आदि आदि विरासत के रूप में ही डीएनए से मिलती रहती है।

काढ़ा, एंटीबायोटिक आदि से बचें, कोरोना सिर्फ और सिर्फ इच्छाशक्ति से ही मरेगा।

कल से लोग कह रहे कि जीडीपी फलां परसेंट नीचे चला गया, इस बात से घोर असहमति है, मुझे तो उल्टे ग्रोथ दिखाई देता है। जिनको खरीददारी करनी है, कर ही रहे हैं, रूपए का प्रवाह बना हुआ है, लोग बाइक, कार, घर, सोना सब जमकर खरीद रहे, पिज्जा बर्गर दारू सब ऑनलाइन मंगवा रहे तो कैसे जीडीपी नीचे जाएगा भाई। ये सब वर्तमान सरकार को नीचा दिखाने की साजिश है। अब लोग तर्क देंगे कि मजदूर, किसानों, निम्न वर्ग आदि की हालत बद से बदतर हो चुकी, कितनों का धंधा बैठ गया, कितनों की नौकरी छीन गई, तो भाई आपको पता होना चाहिए कि ये सब जीडीपी में काउंट नहीं होता है।

Facebook feeds - August 2020

सड़क 2 फिल्म का ट्रेलर वीडियो डिसलाइक करने में और मन की बात का वीडियो डिसलाइक में एक समानता है वो यह कि दोनों घटनाएँ आजाद भारत में एक विशिष्ट तरह की क्रांति लेकर आई हैं, अब वनटच से घर बैठे सब कुछ हो जाएगा। जैसे उस फिल्म की वीडियो डिसलाइक करने से नेपोटिज्म खत्म हो गया, ठीक वैसे ही मन की बात की वीडियो डिसलाइक करने से रातों रात ही राष्ट्रीय चेतना अनुप्राणित हो गई, युवाशक्ति जागृत हो गई।

दस बजे तक जब होटल खुल सकते हैं तो परीक्षा भी हो सकती है और बस ट्रेन भी चल सकती है।

नासा से बहुत पहले हमारे दादाओं ने UFO देखा हुआ था, बस वे उसे सफेद भूत कहा करते थे।

पत्थरों को हटाकर चूल्हा बना रखा है, शहर में थोड़ा सा गाँव बचा रखा है।

एंटी डिप्रेशन कैंपेन चलाने वाला समाज ही आज उसकी जीवित प्रेमिका को मारने पर उतारू है।

बच्चा भ्रष्टाचार वहीं से सीख जाता है जब उसे होमवर्क के एवज में चाॅकलेट दिया जाता है।

पूरा देश सरकारी कंट्रोल में है, एक फेसबुक के कंट्रोल कर देने पर कैसा आश्चर्य....!

हम भारतीयों की पाचनशक्ति कमजोर होने की एक बड़ी वजह बार-बार थूकना और कुल्ला करना है।

कभी-कभी लगता है जैसे भारत युवाओं का देश बस सरकारी आँकड़ों में है। क्योंकि जैसी फुर्ती यूरोपियन और अन्य कुछ विकसित देशों के 40 पार के उम्र के लोगों की होती है, उतनी फुर्ती वाला जीवन भारत के 25 के उम्र के युवा भी न जीते होंगे। जैसे भारत में लोकतंत्र बस कागज में दिखाने के लिए है, ठीक वैसे ही युवाओं का देश भी बस संख्याबल दिखाने तक सीमित है।

बादशाह और प्रतीक कुहड़ सरीखे गायकों को सुनने वाले को ही Bandish Bandits जैसी फैंसी वेब सीरीज में शास्त्रीय संगीत नजर आ सकता है‌।

जब हम मुस्कुराते हैं, तो हमारी आँखें भी मुस्कुराती हैं।#मास्कमय_जीवन

न तुम्हें 4 करोड़ की स्काॅलरशिप मिलती, न तुम्हारी मौत पर इतना हंगामा होता।

सिविल सेवकों को हमेशा ये देश समाज के लिए ही कुछ करना क्यों होता है?

Facebook Feeds - July 2020

भारत में 700+ जिले, हर जिले में थोड़ा-थोड़ा कोरोना, डेटा मेनीपुलेशन भी गजब चीज है।

कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान जो बच्चन साब को चोट लगी थी,आजकल उसे ClickBait कहते हैं।

माता-पिता अपनी हिंसा बच्चों को हस्तांतरित करने का एक मौका नहीं छोड़ते हैं, खुद जितने मशीनी होते हैं अपने बच्चों को भी वैसा ही बना डालते हैं, इसमें आधार बनता है परिवार, समाज, देश, संस्कृति आदि। इन्हीं टूल्स को काम में लगाकर बच्चे की बुध्दि को संकुचित करने का काम किया जाता है। और मजे की बात ये कि उन्हें अपनी इस गलती का इंच मात्र भी आभास नहीं हो पाता है, उन्हें लगता है बच्चा अगर उनकी तरह रोबोट नहीं बन पाया तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा। उन्हें लगता है कि उन्होंने जिस ढर्रे पर पूरा जीवन जिया है, जीवन जीना उसे ही कहते हैं, उसके अलावा भी कोई जीवन होता है, इसकी न तो उन्हें समझ होती है, न ही ऐसी दृष्टि होती है, इसलिए ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है वे अग्रगामी हैं, लेकिन असल में होते वे पश्चगामी ही हैं। ऐसी मानसिकता ही समाज को, देश को पीछे ढकेलती है। शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य, सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार यह सब बहुत बाद में आता है, इन सारी समस्याओं की जड़ हमारा अपना परिवार होता है, सब कुछ इसी का विस्तार तो है, हम जब तक इस सच्चाई को नहीं स्वीकारेंगे, तब तक उल्टी दिशा में गंगा बहती रहेगी।

हिन्दी पट्टी के व्यक्ति के मस्तिष्क में एक "राजनीतिक विश्लेषक" Inbuilt होता है।

विद्रूपताओं के दौर में जब-जब पहाड़ों की ओर देखा, इन पहाड़ों ने यही सिखाया कि दुनिया में एक रूपए भी बिना जी तोड़ मेहनत के या फिर बिना भ्रष्टाचार के हासिल नहीं हो सकता है।

जिस देश की महिलाओं को अंत्येष्टि में रोने के लिए प्याज और स्प्रे का सहारा लेना पड़ता हो उस देश के बच्चों का भविष्य कैसा होगा।

पहाड़ में पहाड़ जैसा मजबूत कुछ होता है तो वह है पूर्वजों की बनाई पगडंडियाँ।

हमारे यहाँ माता-पिता अपने बच्चों की तनख्वाह कुछ हजार रूपए बढ़ाकर ही बताते हैं।

जैसे हमारे यहाँ धार्मिक जड़ताएँ हैं, ठीक वैसी ही जड़ता खान-पान को लेकर भी है। सुधार के नाम पर हम ऊपरी काम ही करते हैं, आमूलचूल प्रयोगों से हमारी रसोई आज भी अछूती है।

NCERT ने धर्मनिरपेक्षता, योजना आयोग, पंचवर्षीय योजना, लोकतांत्रिक अधिकार, फूड सिक्योरिटी, नागरिकता, संघवाद, राष्ट्रवाद, भारत के आर्थिक विकास का बदलता स्वरूप, पड़ोसी देशों से संबंध, लिंग, जाति, धर्म, लोकतंत्र की चुनौतियाँ इन सब टाॅपिक को छात्रों के सिलेबस का बोझ कम‌ करने के मकसद से हटा दिया है।

एक बात समझ नहीं आ रही कि लोग आखिर इस अभूतपूर्व फैसले का विरोध क्यों कर रहे हैं?

सामाजिक पिछड़ेपन का बीजारोपण, संग्रहण एवं विस्तारण पिछड़े समाजों द्वारा संभव ही नहीं।

भारत में अनगिनत प्रेम कहानियों की मौत सरकारी नौकरी न मिलने की वजह से हो जाती है।

गाँव में काम करने के शौकीन युवाओं को शाम ढलते तक शहर लौटना ही होता है।

मैं एक दि‌न अपनी सारी RTI, PIL अपने साथ ले जाऊंगा, जो इन कवियों पर मुझे लगानी थी।

कुछ युवा घर की जिम्मेदारियों का वहन इसलिए भी करते हैं ताकि आगे चलकर अपनी बदमाशियों को जस्टिफाई कर सकें।


My thoughts on Gopro Action Cam -

सबसे पहली बात - गो प्रो एक्शन कैमरा है, एक्शन कैमरा है, एक्शन कैमरा है। गोप्रो का कैमरा जब लाँच होता है तो उसके साथ जो विज्ञापन वाली वीडियो आती है उसमें कोई पैराग्लाडिंग कर होता है, कोई स्केटिंग कर रहा होता है, कोई ऊंचाई से छलांग रहा होता है, स्कूबा डाइविंग, सर्फिंग आदि आदि। यानि इन सब फुटेज के माध्यम से अच्छे से समझा दिया जाता है कि एक्शन कैमरे किस काम में लाए जाते हैं, और दूसरे देशों के लोग एक्शन कैमरे का सदुपयोग भी करते हैं, हमेशा उससे कुछ अनूठा काम कर जाते हैं, जो शायद हमारे बस का भी नहीं। इसलिए भी हम भारतीय गोप्रो जैसे कैमरों की खूब फजीहत करते हैं, उससे रोड की वीडियो बनाते हैं, अरे भाई रोड की वीडियो बनाने में कौन सी क्रिएटिविटी होती है यार, मुझे तो आजतक समझ नहीं आया, वैसे ये काम कुछ हद तक दूसरे देशों के लोग भी करते हैं लेकिन वहाँ उनके इस काम‌ में सचमुच एक्शन दिखता है, मेहनत दिखती है, क्रिएटिविटी दिखती है। 

मैंने अपने सोलो राइड में एक्शन कैमरा नहीं लटकाया है, बस कुछ ठंड के कपड़े साथ हैं, यहाँ तक कि DSLR वगैरह भी साथ नहीं है, क्योंकि जितना कम सामान रहेगा, उतना सफर आसान रहेगा। असल मकसद घूमना है, लोगों से मिलना है, लेकिन लेकिन, जिस उम्मीद से कुछ दोस्त डिमांड कर रहे कि वीडियो बनाओ तो सोच रहा कैमरा लटका लूं, अब लोगों को डामर और सीसी रोड देखनी है तो वही सही, लेकिन अब जब वीडियो बनानी ही है तो कुछ उससे रचनात्मक कर जाने की एक जिम्मेदारी बढ़ जाएगी, खुद को भी तो भीतर से लगना चाहिए न कि कुछ ढंग का हो रहा, बाकी लाखों करोड़ों व्यू पाने का क्या है वो तो टिकटाॅक यूट्यूब के काॅमिक वीडियो को भी मिल जाते हैं।

Thursday, 29 October 2020

हम क्यों घूमना चाहते हैं?

पिछले कुछ समय से जितने भी वाॅटरफाल देखा, उनमें से सबसे खूबसूरत और सबसे अधिक गंदगी वाला वाॅटरफाल यही था। गंदगी के पीछे पहला कारण ये कि ये घने जंगल के बीचों बीच है तो मंदिर बन नहीं सकता, कोई पुजारी लगातार समय नहीं दे सकता, यानि कोई रोक टोक नहीं। दूसरा और सबसे बड़ा कारण गंदगी का है - "एक छत्तीसगढ़ी गाना" । साल भर पहले यानि जून 2019 में एक गाना यहाँ शूट किया जाता है, बहुत सुंदर गाना, संगीत की लयबध्दता भी उतनी ही शानदार, मतलब ये पहला ऐसा छत्तीसगढ़ी गाना होगा जिसे देश दुनिया के लाखों लोगों ने पसंद किया। मजे की बात ये कि जब उस गाने की शूटिंग हुई थी तब इस वाॅटरफाल में एक बूंद पानी नहीं था, यानि उस पूरे गाने में वाॅटरफाल जैसा कुछ दिखा ही नहीं। फिर भी उस गाने के रिलीज होने के बाद से गंदगी का ग्राफ ऐसा बढ़ा कि उसने इस मामले में गाने के व्यूवर्स के बढ़ते ग्राफ को भी पीछे छोड़ दिया।उस जगह घूमने जाने वाले अधिकांश लोगों की मानसिकता यही रही कि हम एक ऐसे जगह में घूमने जा रहे जहाँ एक गाने की शूटिंग हुई है, ऐसा लद्दाख में हुआ, शिमला, मनाली, नैनीताल में हुआ‌, ये लिस्ट बहुत लंबी बनाई जा सकती है।

असल में हम जहाँ कहीं भी जाते हैं, हम गंदगी करते नहीं हैं, हमसे हो जाता है, हमारी जीवनशैली (खान-पान के तरीके आदि) इतनी भयावह तो हो ही चुकी है कि हमारी उपस्थिति मात्र ही किसी जगह को नुकसान पहुँचाने के लिए काफी होती है।



Thursday, 22 October 2020

असली चोर कौन?

1947 के बाद से भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीन स्तंभों में अगर किसी स्तंभ के हिस्से थोड़े बहुत आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के तत्व आए, तो वह सिर्फ और सिर्फ व्यवस्थापिका थी। इसके ठीक उलट कार्यपालिका वैसी ही चलती रही जैसी आजादी के पहले थी और समय के साथ और सढ़ती गई , इसे आप सशक्त होती गई, ताकतवर होती गई मानकर चलें। जबकि व्यवस्थापिका और कमजोर होती गई। इसलिए आज भी जब मौका पड़ता है, लोग आगे आकर " नेता चोर हैं" , "संसद में चोर उचक्के बैठते हैं" , "इन्होंने देश बेच दिया" ऐसे वाक्य कहते हुए सारा ठिकरा व्यवस्थापिका पर फोड़ते हैं। लोग बात-बात पर थोक के भाव में नेताओं को, संसद को चोर की संज्ञा दे जाते हैं। अब चूंकि लोकतांत्रिक मूल्य इन्हीं के पाले में आए तभी तो आज भी जनता बिना खौफ के इनके साथ उठने बैठने का साहस रखती है, गलती दिखी तो सवाल कर लेती है, डांट लेती है, गालियाँ करती है, उनके घर के बाहर धरना देती है, ज्यादा हुआ तो इनके कपड़े पर स्याही छींट देती है और मौका पड़े तो जूता फेंक के मार भी देती है।

लेकिन वहीं देखिए कार्यपालिका के तत्व यानि सरकारी नुमाइंदों (कर्मचारी, अधिकारी आदि) को कभी चोर की संज्ञा नहीं दी जाती है, भले वे पद में रहते हुए आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे रहें, कितने भी करोड़ों अरबों रूपयों का सांठ गांठ करते रहें, निलंबित होते रहें, लोगों की जिंदगी तबाह करें, समाज की अवनति का मूल कारण बनते रहें फिर भी वे समाज की नजर में सम्मानीय होते हैं, पूजनीय होते हैं, और तो और उन्हें निडर और मजबूत व्यक्ति की संज्ञा भी मिल जाती है।

दारू, रूपया, साइकिल बाँटने वाले नेता आज चुनाव प्रचार में जनता के सामने कोरोना की वैक्सीन बाँटने की बात कर रहे हैं, आप फिर वही करेंगे, नेताओं को गरियाएंगे, लेकिन यह क्यूं भूलते हैं कि ऐसे उलूल-जूलूल आइडिया उन्हें कोई सचिव स्तर का अधिकारी ही दे रहा होता है, सब कुछ उन्हीं का किया कराया होता है, नेता तो महज कठपुतली मात्र होता है, कार्यपालिका जैसा उसे नचाती है, वैसा वह नाचता है। लेकिन चूँकि लोकतंत्र है, नेता चुन कर आता है तो सर्वोच्चता के नाम पर उसे ही आगे कर दिया जाता है तो आपको भी यही महसूस कराया जाता है कि देश की सारी समस्याओं के पीछे नेता जिम्मेदार हैं।

नेताओं के पास गलतियाँ करने के बहुत कम अवसर होते हैं, उसने एक गलती की, जनता और मीडिया उसका नाम उछालने लग जाती है, कलंकित करने लगती है। वहीं सरकारी मुलाजिम कितनी भी गलतियाँ करे, लोगों को प्रताड़ित करे, उनका काम ना करे, ऐसी स्थिति में इनका हिसाब जनता नहीं कर सकती है। इस कारण किसी सरकारी मुलाजिम से सीधे मुंह बात भी नहीं की जा सकती, उससे अलग से मिला नहीं जा सकता, उसे डांटा नहीं जा सकता, उसकी शिकायत नहीं की जा सकती, उनका मीडिया ट्राइल नहीं हो सकता,

स्याही फेंकना तो मतलब निरा स्वपन हुआ। मूल व्यवहारिक हकीकत यही है। आपको कहीं ढूंढने से भी ऐसी खबर नहीं मिलेगी कि "फलां व्यक्ति ने काम न होने की वजह से नाराज होकर जिलाधीश के गाल पर तमाचा जड़ा", यह असंभव चीज है, क्योंकि अगला सुपरमैन जैसी ताकत से लैस होता है। इसलिए आज भी भारत में माता-पिता अपने बच्चों को इसी तरह का सुपरमैन बनाने की ख्वाहिश रखते हैं, जिसके पास बेरोकटोक भरपूर पाॅवर रहे, चौतरफा भ्रष्टाचार कर रूपया भी अनाप-शनाप छाप ले और साथ ही समाज की नजर में सम्मानीय भी रहे। यह काॅम्बो पैकेज लंबे समय के लिए इन्हीं पदों में ही मिलता है, नेता होने में ऐसी सुविधाएँ नहीं है, इसलिए देश के युवाओं का एक बहुत बड़ा तबका नेता नहीं बल्कि अधिकारी होना चाहता है। और ऐसे में देश जश्न मनाता है कि "लो रिक्शेवाले का बेटा बना अधिकारी", तालियाँ। 

अपने गिरेबान में झांककर एक बार पूछिएगा कि जैसा सम्मान आप किसी एक युवा को अधिकारी बनने पर देते हैं ठीक ऐसा सम्मान आप किसी जनप्रतिनिधि को क्यों नहीं दे पाते हैं, जबकि वह सीमित समय के लिए आता है और ज्यादा मेहनत करके आता है। 

भारत के विधायकों और सांसदों के पास ताकत और अधिकार के नाम‌ पर सिर्फ और सिर्फ अधिकारियों को फोन कर चमकाने धमकाने के अधिकार होते हैं, इससे ज्यादा उनके पास कोई अधिकार नहीं होता है। ये बात जनता अच्छे से जानती है इसलिए वह नेताओं से ढेला भर भी उम्मीद नहीं रखती है, जब मन किया कुंठा निकालने के लिए बस गाली देने के लिए उनका इस्तेमाल करती है, ऐसा करते हुए एक दिन नेताओं को हाशिए में ढकेल देती है।

भारत की जनता को यह अच्छे से पता होता है कि सरकारी मुलाजिमों के पास बहुत ताकत होती है, इतनी कि मौका मिलते ही वह ऐसा तंग करेंगे कि जीना दुभर हो जाएगा, और वे ऐसा जीवन भर मरते दम तक कर सकते हैं ये भी जनता जानती है,  इसलिए जनता इनके सामने आजीवन दुबककर रहती है, वह आज भी सरकारी दफ्तरों में एक डर के भाव से जाती है, अपने छुटपुट काम के लिए भी पहचान खोजती है, लिंक खोजती है ताकि असुविधाओं से वह बच सके। भले ही सब सही हो, साफ सुथरा काम करवाना हो फिर भी उसे जबरन गुलाम निरीह जैसा महसूस कराया जाता है, चूंकि सिस्टम ही ऐसा है, तो यह स्वयंमेव होता जाता है। 

सरकारी मुलाजिम व्यक्तिगत रूप से कैसा भी चरित्र का रहे, कितना भी बड़ा तोपचंद ईमानदार जैसा क्यों न हो, वह सिस्टम का हिस्सा बनकर लोगों को कीड़ा ही समझता है, उसे समझना पड़ता है, नहीं समझेगा तो एक दिन भी काम नहीं कर पाएगा, जरा सा भी आत्मबोध हुआ तो उसे अगले ही दिन इस्तीफा देना पड़ जाएगा। इसलिए सिस्टम में रहते हुए या तो वह खामोश हो जाता है, लाइमलाइट से दूर हो जाता है या फिर इन सब चीजों को ढँकने के लिए कभी वह पैदल चलकर महानता का ढोंग करता है, कभी साइकिल चलाकर महान हो जाता है, कभी जमीन में बैठकर खाना खाने से महान हो जाता है, कभी ट्यूबवेल का पानी पीने से महान हो जाता है, कभी काम के सिलसिले में बाइक में बैठने से महान हो जाता है तो कभी खेत में पाँव रखने से महान हो जाता है, ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, यही व्यवस्था है, यही कार्यपालिका का मूल सामंती चरित्र है जिसे भारत का परिवार, भारत का समाज बड़े आदर भाव से देखता है, इसी से मुक्ति पाने की जरूरत है, और उन सारे उपद्रव मूल्य रूपी अधिकारों को शिथिल करने की जरूरत है तभी सही मायनों में गुलामी की जंजीरें टूटेंगी।

Wednesday, 21 October 2020

पुनर्विवाह -

A - तो क्या उसके बाद दुबारा शादी करने का विचार नहीं आया? 
B - सच बताऊँ?
A - बता..
B - मैं आजकल सोच ही नहीं पाती हूं।
A - पर क्यों?
B - समाज का तो पता ही है, दुबारा संभव नहीं।
A - वो ठीक है, मैंने मन का कहा।
B - अब विवाह संस्थान से दूर रहना ही ठीक लगता।
A - ये भी ठीक है, तुम्हारे यहाँ दुबारा ना जुड़ने की ढील भी है।
B - सही कहा, धन्य हो ऐसी प्रथाओं का जिनके‌ कारण यह संभव हो रहा।
A - पूजनीय बना दे तू इन प्रथाओं को।
B - हेहे, और क्या, जातिवादी तो नहीं हूं औरों की तरह।
A - अब ये बात कहाँ से आ गई?
B - कैसी बात कर रहा, गहरे से जुड़ी हुई है।
A - लेकिन इसका विवाह संस्थान से क्या संबंध?
B - लड़कियों में शादी के तुरंत बाद ये डिसआर्डर ज्यादा देखने में आ रहा..
A - जातिवाद का? वो भी शादी के बाद?
B - हाँ जी, शादी होते ही हार्मोनल बदलाव की तरह जातिबोध होने लगता।
A - बावा, ये नया था।
B - नया क्या, हमें खुल के जीना भी न आया यार।
A - सही बात।

Thursday, 1 October 2020

हाथरस रेप केस और हमारा मीडिया -

जब निर्भया केस हुआ था, तब हम इंजीनियरिंग के फाइनल इयर में थे। उस समय फेसबुक में इतना कचरा नहीं फैला था, विज्ञापन नाम की चीज नहीं थी, क्योंकि फेसबुक उतना प्रचलन में भी नहीं था। वेब पोर्टल भी उतने नहीं थे, गिने चुने वेब पोर्टल और वही चुनिंदा न्यूज चैनल। चैनलों में तू तू मैं मैं अभी की तुलना में थोड़ा तो कम ही था। यह सब इसलिए बता रहा क्योंकि उस घटना के पहले दिन से अगले एक दो महीनों तक मैंने खूब न्यूज देखा था। सारे वेब-पोर्टल वेबसाइट आदि नाप लिया था, खूब यूट्यूब और न्यूज चैनलों को फोन और लैपटाप में देखा, कई बार कैफे से दर्जनों मीडिया फुटेज डाउनलोड करके लाता और देखता, अलग ही चूल मची हुई थी। सब कुछ अच्छे से याद है, आतिफ असलम ने "अब कुछ कुछ करेगा पड़ेगा" नाम का एक क्रांतिकारी गाना भी उसी समय लांच किया था, मैं कई दिन तक रोज उस गाने को सुनता रहा। इंटरनेट तब खूब महंगा हुआ करता, फिर भी मैंने जमकर पैसे खर्च किए। 1 GB के बहुत से कूपन वाॅलेट में लेकर घूमता था, मैं तब से फोन में न्यूज देखने लग गया था, लैपटाप में कनेक्ट करके खोज खोज कर देखा करता। वो ऐसा समय था, जब मेरे साथ के युवा 1 GB का कूपन महीने भर चला लेते थे।
उस समय हर कोई रेप के बारे में बात करने लगा था। निर्भया केस चूंकि थोड़ा ज्यादा वीभत्स हो गया था तो लोग बड़े आनंद से दिन रात जिक्र करते रहते, अपनी खोखली संवेदना परोसते रहते, एक‌ अलग तरह का‌ मुद्दा जो मिल गया था। कोई फाँसी मांग रहा था, तो कोई पुलिस को कोस रहा था, तो कोई सरकारी तंत्र को लेकर फायर हो रहा था, लेकिन खुद के समाज में परिवार में खराबी है, इस पर किसी का ध्यान नहीं था। ऐसे भी मित्र इस विषय पर चर्चा करते पाए जाते जो एक दिन पहले खुद किसी लड़की से बदतमीजी छेड़छाड़ किए रहते थे, मतलब घोर आश्चर्य। अरे! दूसरों का क्या कहा जाए हम खुद भी कोई कम बदतमीज नहीं था, जिसको जो मन किया बोल जाता था, काॅमन सेंस नाम की चीज ना के बराबर थी। जैसा समाज था, उसी समाज के ही तो हम बाॅय-प्रोडक्ट थे, कुछ गुण तो आने ही थे। लेकिन इतनी काॅमन सेंस तब भी थी कि मोमबत्ती जलाने वालों के साथ तब भी खड़ा होना शर्म का काम लगता था, चूतियापा तो लगता ही था साथ ही एक अजीब किस्म का अपराध बोध महसूस होता था। 
तो इस पूरे प्रोसेस में एक चीज जो मैंने नोटिस की थी वो यह कि जैसे ही निर्भया प्रकरण हुआ था। उसके बाद से ही देश के अलग अलग कोनों से रेप और छेड़छाड़ वाली खबरों की बाढ़ सी आ गई थी, हर दूसरे दिन कोई न कोई रेप की खबर, क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय न्यूज चैनल, हर जगह न्यूज में रेप की खबरें छाई हुई थी। लगभग दो तीन महीने तक रूक रूककर यह सिलसिला चलता रहा फिर धीरे से बंद हो गया। 
अब चूंकि उस समय फेसबुक एकदम नया था, तो यहाँ इन सामाजिक मुद्दों पर ज्ञान पेलने और संवेदना व्यक्त करने की बाढ़ नहीं आई थी। लेकिन निर्भया केस, अन्ना आंदोलन और केजरीवाल के राजनीति में प्रवेश और 2014 के चुनाव के बाद जो सोशल मीडिया का कबाड़ा होना शुरू हुआ, वह आज तक बदस्तूर जारी है।
महीनों तक न्यूज छानते छानते एक चीज स्पष्ट हुई थी कि रेप जैसी घटनाएँ हमारे समाज में निरंतर होती रहती है। क्योंकि जब निर्भया रेप केस हुआ था, उसी के कुछ समय बाद उससे कहीं अधिक भयावह एक रेप केस की घटना छत्तीसगढ़ के एक गाँव में हुई थी, लेकिन चूंकि गाँव की घटना थी, नार्थ इंडिया या दिल्ली के आसपास का इलाका नहीं था, इसलिए मामला दब गया, किसी वेब पोर्टल तक में नहीं आ पाया, खैर। एक चीज तो स्पष्ट है कि इस देश में जब भी कभी निर्भया रेप केस या हाथरस रेप केस जैसा कुछ हटके कुछ ट्रिगर करने जैसा वाकया सामने आता है तो पूरे देश में रेप की घटनाओं की कवरेज अचानक ही बढ़ जाती है।

Tuesday, 22 September 2020

छत्तीसगढ़ के भूतपूर्व स्वास्थ्य सचिव को पत्र -

प्रति,

भूतपूर्व स्वास्थ्य सचिव,

छत्तीसगढ़ शासन


प्रणाम,

आशा है आप ठीक होंगी। सबसे पहले आपके भारत छोड़ने के फैसले पर आपको कोटिश: साधुवाद। आपने बहुत सही समय पर यह फैसला लिया है, आप कब हमारे राज्य में सेवा देने हेतु आईं इसकी मुझे ठीक-ठीक जानकारी नहीं है, लेकिन कुछ दिनों पहले आपने विदा लिया है, इसकी बखूबी जानकारी है। आप चाइल्ड केयर लीव लेकर अपने परिवार के साथ आने वाले दो साल तक जर्मनी में हैं, यह जानकर बेहद खुशी हुई, वैसे भी सबका अपना निजी जीवन होता है, इसलिए आपके इस फैसले का सम्मान‌ करता हूं, आपने अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देकर समाज के सामने एक नजीर पेश की है। छत्तीसगढ़ में बतौर स्वास्थ्य सचिव अपने कार्यकाल‌ के दौरान खासकर पिछले छह महीनों में कोरोना को लेकर आपने जो लोगों के लिए अभूतपूर्व कार्य किया है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, राज्य की जनता उसके लिए हमेशा आभारी रहेगी। यकींन मानिए आपके द्वारा लिए गए दूरदर्शी फैसलों का फल अभी हमें मिल रहा है, अभी उसके परिणाम देखने को मिल रहे हैं, उम्मीद है आॅनलाइन माध्यमों से आप तक भी ये सुखद परिणाम‌ पहुंचते होंगे। मैं लोगों को समझाता हूं कि डाॅक्टर्स, नर्स, हेल्थवर्कर्स की तारीफ करना बंद कर दें, क्योंकि असली योध्दा तो आप ही थीं, लेकिन इत्तफाक देखिए कि आपके जाने के बाद आज आपको कोई नहीं पूछता। पीड़ा होती है यह देखकर कि जब प्रदेश की जनता स्वास्थ्य सेवाओं और लाॅकडाउन का विरोध करने लग जाती है, भूल जाती है कि इतनी बेहतर व्यवस्था बनाने वालों ने पिछले छह महीनों में दिन रात कितनी मेहनत की है। मैं तो इसमें यह भी मानता हूं कि आप ही की वजह से हममें ये समझ पैदा हुई कि पूरे देश में जब अनलाॅक हो रहा है, तब हम पूरी जागरूकता के साथ मीडिया, सामाजिक संस्थान, प्रदेश की जनता सबको विश्वास में लेते हुए कैसे लाॅकडाउन के नये-नये अभिनव प्रयोग सतत् रूप से करते रहें। काश आज आप यहीं होती तो आपको गर्व महसूस होता, आप देखतीं कि कैसे जिले स्तर के सरकारी मुलाजिमों ने पहले से कहीं बेहतर लाॅकडाउन करके दिखाया है।

आशा करता हूं निकट भविष्य में भी आप ट्विटर के माध्यम से राज्य की खबर लेती रहेंगी और अपना बहुमूल्य मार्गदर्शन राज्य को प्रदान करती रहेंगी।


धन्यवाद।।

Monday, 21 September 2020

हत्या -

हत्या -


शहर में आए हुए उस परिवार को अभी कुछ महीने ही हुए थे। चार लोगों का सुखी परिवार रहा, प्रथम दृष्टया ऊपरी तौर पर देखने में यही मालूम पड़ता था। पिता एक अच्छी सरकारी नौकरी में थे, कालेज में प्रोफेसर रहे। बच्चों की शिक्षा को लेकर जितने वे सजग रहते, बच्चे ठीक उसके विपरित। प्रोफेसर साहब उसी मानसिकता के हिमायती रहे कि डाँट डपट से, ताने से बच्चों को ठीक कर लेंगे। कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों पर शारीरिक हिंसा करते हुए उन्हें ठीक करने, सुधारने के पक्षधर होते हैं, इसके विपरित कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो समाज की नजरों में अत्यधिक सभ्य, सुशील, प्रतिष्ठित, सम्मानित और विनम्र होने की छवि बनाकर चलते हैं, ऐसे माता-पिता अक्सर बच्चों को निरंतर मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं, प्रोफेसर साहब यही दूसरे केटेगरी वाले रहे।


उनकी एक बेटी जो थी, वह अपनी निजी रूचियों से लेकर घर के काम में और पिताजी के ताने सुनने से लेकर पढ़ाई करने में, हर मामले में औसत रही, इस वजह से भी पिता का मौन समर्थन करती रही। लेकिन उनका बेटा उम्मीद से ठीक उल्टी दिशा में चल निकला, अपने भीतर की बची-खुची ईमानदारी को जुटाकर उसका मन छोटी उम्र से ही प्रतिक्रिया करने लग गया, अपने हिस्से का खुला आसमान ढूंढने लग गया। वो बात अलग रही कि बच्चे की यह प्रतिक्रिया समय, काल, परिस्थिति, पारिवारिक दबाव इन कारणों से कभी भी सही दिशा में निरूपित नहीं हो पाई।


जिस तरह का हमेशा से घर में एक मानसिक दबाव का माहौल बनाया गया, इस वजह से वह अपने पिता से बहुत पहले ही दूर हो चुका था। दबाव के विपरित वह ऐसा गया कि अब उसे अपने ही घर में दो वक्त का भोजन करना भी नागवार गुजरता। छोटी सी उमर में वह एक ऐसी प्रताड़ना झेलने को विवश कर दिया गया था जिसे न वह खुद प्रताड़ना समझ पाया था, न ही समाज।बची-खुची कसर तब पूरी हुई जब उसने घर से थोड़े-थोड़े रूपए चुराने लगा, चुराना भी क्या कहें उसे, अपनी सीमित जरूरतों के लिए चंद पैसे घर से बिना बिताए ले लेता था। शुरूआत में वह उतने ही रूपए लेता रहा जितने में वह बाहर जाकर कुछ खरीद कर खा सके क्योंकि घरेलू दबाव ऐसा बना रहा कि पिता ने कभी इस पक्ष पर सोचा ही नहीं कि बच्चों का यह शौक भी पूरा किया जाए कि उन्हें उनके मन मुताबिक कभी कुछ खिला दिया जाए, कुछ खरीददारी कर लिया जाए, बच्चों को मशीन न मानकर कभी उनसे प्रेमपूर्वक व्यवहार कर लिया जाए, उनके साथ बैठकर बातें की जाए, उनके साथ हँसी ठिठौली ली जाए, उनकी बातें सुनी जाए, लेकिन प्रोफेसर साहब तो थे जिद्दी, कैसे अपने बच्चों की या पत्नी की सुनते, अपने अहं को सर्वोपरि मानकर उसी हिसाब से अपनी जिंदगी के पहिये घुमाते रहे।


बेटे द्वारा की गई चंद रूपयों की चोरी को, जिसे कायदे से चोरी कहना भी मूर्खता होगी, इसे उसकी भोली माता हमेशा से छुपाती रहती और पिता तक यह बात पहुंचने न देती। पिता जो चरित्र से एक शक्कीमिजाज, मक्खीचूस इंसान रहे, उनमें शुरूआत से अपने ही परिवार के लोगों के प्रति औरंगजेब जैसा अविश्वास रहा, कुल मिलाकर यही उनका मूल चरित्र रहा, वे अपनी तनख्वाह तक खुद छिपाकर रखते, हिंसा के स्तर पर जाकर एक एक रूपए का हिसाब रखते, यहाँ तक कि अपनी धर्मपत्नी को भी इस बात की जानकारी न होने देते। एक दिन क्या हुआ कि बेटे को पिताजी के तिजोरी की भनक लग गई और उसमें भी उनके बेटे ने पिन से स्टेपल किए हुए रूपयों की गड्डी से अपनी जरूरत के मुताबिक ईमानदारी से एक पचास रूपए का नोट निकाल लिया, पिता को तो पता चलना ही था, उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी पर शक की सुई घुमाई, पत्नी ने हमेशा की तरह छिपाने की लाख कोशिश की लेकिन बात उभर कर बाहर आ गई, उन्होंने बेटे को बैठाकर खूब सुनाया, चूंकि पिताजी ने विनम्रता का चोगा उढ़ा हुआ था तो वे अपने बच्चों पर कभी हाथ नहीं उठाते थे, सिर्फ मानसिक प्रताड़ना देते थे। छोटे बच्चों में मार का असर कुछ पहर तक ही होता है, लेकिन मानसिक प्रताड़ना लंबी दूरी तय करती है, कहीं अधिक दिमागी उथल पुथल करती है।


उनका एकलौता बेटा छोटी उम्र से ही कुछ अलग ही दिखने लगा था, चेहरे का रंग हल्का पीला गोरा लेकिन उस चेहरे में किसी प्रकार की कोई चमक कोई ऊर्जा नहीं, कद काठी से भी औसत, आटे की लोई जैसा उसका शरीर। ऐसा लगता मानो मानसिक प्रताड़ना झेलते-झेलते पूरा शरीर कृशकाय होने की दिशा में गतिमान है। वह भी अपनी बहन की तरह पढ़ाई और अन्य गतिविधियों में औसत ही रहा। पिता को अपनी उम्मीद के मुताबिक कभी बच्चों से कुछ नहीं मिल‌ पाया, बच्चे भी परेशान रहने लगे कि हम ऐसा क्या कर जाएं कि पिता हमसे खुश होकर हंसते, मुस्कुराते कभी बात कर लें। प्रोफेसर साहब रूटिन तरीके से दूसरे परिवारों के बच्चों से तुलना करके अपने बच्चों को छोटा महसूस कराते रहे। बच्चों में जो थोड़ा बहुत आत्मविश्वास रहा, संभावनाओं के अंकुर रहे, वह फूटने के पहले ही दम तोड़ने लगे। पिता को अपने बच्चो में कुछ भी ऐसा दिखाई नहीं पड़ रहा था कि जिसे प्रस्तुत कर वे समाज के बीच सीना चौड़ा करते हुए अपना गौरवगान कर सकें। वे भी व्यथित रहते कि समस्या कहाँ है, चूक कहाँ रह गई, जबकि वे खुद समस्याओं का पहाड़ बनकर बीच में खड़े थे। उन्हें यह अहसास भी कैसे होता, मन के कोमल भावों पर पहले ही उन्होंने ताला जड़ दिया था, उनके लिए रूपया ही जीवन की सबसे कीमती चीज रही, प्रेम नाम की कोई वस्तु भी होती है, इसकी उन्हें कभी समझ ही नहीं रही, इसलिए इन बहूमूल्य जीवन तत्वों से वे आजीवन वंचित रहे।


यहाँ प्रोफेसर साहब के चरित्र के बारे में कुछ और बातें करना बेहद जरूरी है। अब चूंकि वे सरकारी प्रोफेसर थे, इसमें से आने वाली मोटी तनख्वाह, ऊपर से छोटा सा परिवार था, गाँव में अच्छी खासी खेती किसानी भी थी, यानि यह कि पैसों की कोई कमी नहीं थी, संपन्न थे। फिर भी एक एक रूपए के हिसाब के लिए पड़ोसियों से बहस कर लेते, रेहड़ी (ठेलेवाला) वालों से दो चार रुपए के लिए खूब मोलभाव करते, कुतर्क कर अपने को सही पेश करके ही दम लेते। छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, हर कोई इनकी इस नीचता या यूं कहें कि इनके इस काइयाँपन के सामने झुकने में ही अपनी भलाई समझता। बाहर के लोगों का तो चलिए एक बार समझ में आता है, वे पैसों के मामले‌ में अपने घरवालों के लिए भी किसी मुंशी लाला से कम नहीं थे। छोटी से छोटी चीज का ऐसा पाई-पाई हिसाब माँगने लगते कि उनके परिवार के सदस्य भी घबरा जाते। इस वजह से भी घर का कोई सदस्य कभी अपने शौक या जरूरतों के लिए कोई चाहकर भी पैसे न माँग पाता। और संभवत: बेटे का हिम्मत करते हुए बिना बिताए घर से पैसे ले लेने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा हो। प्रोफेसर साहब सब्जियों की खरीददारी करने बाजार भी जाते तो शाम को ही जाते क्योंकि वह समय ऐसा होता है जब आखिर में बची हुई सढ़ी गली सब्जियाँ कम‌ दाम‌ में मिल जाती हैं, दो रूपए कहीं कम दाम में सब्जियाँ मिल जाएँ इसके लिए वह पूरा बाजार छान मारते, भले ही इसमें घंटे भर का समय क्यों न लग जाए। वे खासकर उन सब्जियों को अधिक खरीद मात्रा में खरीदते जिनका मूल्य कम है, इस वजह से वे कई बार पोषकतत्वों से भरपूर अलग-अलग प्रकार की सब्जियाँ खरीदने से वंचित रह जाते।


जब जब माता-पिता के संज्ञान में यह बात आई कि बेटा चोरी-छिपे घर से रूपए लेता है और बाहर की चीजों पर खर्च करता है, उन्होंने बेटे की इस हरकत को सबके सामने इस तरीके से पेश करना शुरू किया कि बेटा आवारा है, चोर है, गलत संगत में जा चुका है। इसमें मुख्य भूमिका में पिता रहे, माता पीछे पीछे मौन समर्थन देती रही। और जिस गलत संगत के नाम‌ पर वे अपने बेटे को निकृष्ट, चरित्रहिन घोषित करते रहे, उस चरित्रहीनता के नाम‌ पर बेटा करता क्या था, घर का खाना नहीं खाता था, घर में नहीं रहता था, हमेशा आवारागर्द लोगों के साथ बाहर घूमता रहता था, चूंकि माँगने पर भी घर से जेबखर्च नहीं मिल पाता इसलिए घर से कुछ रुपए लेकर हमेशा बाहर की चीजें खाता था, जबकि बाहर की चीजें खरीदकर खाना कभी उसके शौक में शुमार थी ही नहीं; घर के दबाव ने ही अनायास यह दूसरा रास्ता खोल दिया था। और जब बेटा उस रास्ते चल‌ निकला तो फिर वापस लौट नहीं पाया, उसकी जिव्हा को बाहर के खाने की लत हो गई। उस बालमन का दुर्भाग्य देखिए कि उसका मन अब बाहर के खाने में रस ढूंढने लगा, अपनापन ढूंढने लगा, स्वाद खोजने लगा। घर का खाना वह खाता भी तो पिता की उपस्थिति और उनसे डर की वजह से, जिसमें उसे रत्ती भर आनंद न आता, बस पेट भरने के लिए वह खा लेता। कई बार तो ऐसा भी होता कि पिता की अनुपस्थिति में भी वह माँ का मन रखने के लिए हल्का भोजन घर में कर लेता और बाहर जाकर पेट भर कुछ तली हुई चीजें खा लेता और मन तृप्त करता, यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा। बेटा बड़ा हो रहा था, उम्र और घर से उसकी दूरियाँ समानांतर रेखा में चल रही थी, माताजी भी जड़वत बनी रहीं, सब कुछ देखते हुए भी कभी प्रतिकार नहीं कर पाई। निरंतर बच्चों की गलती छिपाते छिपाते अब उनमें भी कभी इतनी ईमानदारी पैदा नहीं हो पाई कि एक बार पूरी ताकत से इन सारी चीजों का विरोध कर जाए। इसीलिए कभी न तो वह अपने पति का विरोध कर पाईं, न ही अपने बेटे का पक्ष लेकर उसका समर्थन कर पाई। शायद नियति को भी यही मंजूर था। समय देख रहा था।


पानी बहुत अधिक बह चुका था। एक तरफ पिता के द्वारा दी जा रही मानसिक प्रताड़ना और दूसरी तरफ माँ से मिल रही मौन सहमति। इस वजह से वह अब बहुत आगे निकल चुका था, जहाँ से अब उसे वापस लाना असंभव की हद तक कठिन हो चुका था। अब उसने अपनी जरूरतों के लिए पैसे इकट्ठे करने के उन सारे तरीकों को आजमाना शुरू कर दिया जहाँ तक वो कर सकता था। वह इस भुलभुलैया में तो प्रवेश कर ही चुका था जहाँ आए रोज उसके सामने ऐसी नई नई जरूरतें पैदा होने लगी थी, जो कभी उसकी प्राथमिकता में भी नहीं थी, लेकिन इन जरूरतों को पूरा करने के लिए अब वह किसी तक जाने को तैयार था। इस पूरी प्रक्रिया में उसे कुछ साथी दोस्त भी मिलते चले गये जो उसका बेड़ा गर्क के लिए पर्याप्त मात्रा में उत्प्रेरक का काम करते रहे। बचपन में घर से अपनी छोटी छोटी जरूरतों के लिए दहाई की संख्या के नोट चुराने वाला वह बालक अब चौथाई संख्या की चोरी तक अपने हाथ लंबे कर चुका था और वह यह सब कुछ बड़े शातिराना तरीके से कर जाता। घरवालों को थोड़ी भी भनक न लगती।


पढ़ाई लिखाई के मामले में वह अपनी बहन से थोड़ा तेज रहा, यानि हर बार वह ठीक-ठाक नंबरों से पास हो जाता। कुछ इस तरह उसने इंटरमीडियट तक की पढ़ाई पूरी कर ली। अब इसके बाद उसे काॅलेज भेजने की तैयारी चल ही रही थी कि एक अनहोनी हो गई। लड़के को एक गंभीर बीमारी हो गई। इतनी गंभीर बीमारी रही कि महीनों तक अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, कई लाख रूपए खर्च करने पड़ गए। ध्यान रहे कि उम्र के इस पड़ाव तक लड़का नशे आदि से कोसों दूर था। उस गंभीर बीमारी की वजह से प्रोफेसर साहब की जितनी भी जमा पूंजी रही, लगभग सब कुछ बेटे के स्वास्थ्य पर खर्च हो गया। फिर भी कंजूस पिता ने इतना तो जमा करके रखा ही था कि आगे का जीवन बिना किसी बाधा के प्रवाह में चलता रहे, सो जीवन चलता रहा।


बेटा साल भर में ठीक होकर घर आ गया, लेकिन अभी भी उसकी महंगी दवाईयाँ चल ही रही थी। अब चूंकि प्रोफेसर साहब थे सरकारी मुलाजिम, तो उन्होंने बेटे के ठीक होने के पश्चात् अपना सारा ध्यान कागजी कार्यवाही में लगा दिया। वर्तमान में चल रहे दवाइयों के खर्च से लेकर पुराने इलाज का बिल, सारा हिसाब तैयार कर लिया और उन पैसों के लिए क्लेम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उनके सारे पैसे वापस आ गये। लेकिन बेटा अभी भी पूरे तरीके से घर नहीं लौट पाया था। 


अस्पताल और दवाईयों के इलाज से शरीर के आंतरिक हिस्सों की समस्याओं से तो छुटकारा पाया जा सकता है लेकिन मन का क्या करे इंसान। मन तो अभी भी वैसे ही घुटन महसूस कर रहा था जैसा पहले करता था। हाँ अब चूंकि लड़का बीमार था, दवाईयाँ चल ही रही थी, इसलिए भी एक सहानुभूति का पक्ष कुछ वर्षों तक बना रहा। इस बीच लड़के ने घर पर रहते हुए स्नातक स्तर की पढ़ाई ओपन यूनिवर्सिटी से पूरी कर ली। अब वह धीरे-धीरे ठीक होने लगा था, लेकिन कुछ चीजें मस्तिष्क के किसी कोने में अभी भी जस की तस जमी हुई थी, और वह थी घर से उसकी दूरी। और इस दूरी को रेखांकित करने में उसके‌ पिता ने महती भूमिका निभाई। अब चूंकि बेटा ग्रेजुएट हो चुका था, इसके बाद भी उसका घर पर रहना पिता को खटकने लगा। प्रोफेसर साहब तो अब अपने बेटे के साथ ऐसा व्यवहार करने लगे मानो सरकार से मेडिकल क्लेम का पैसा मिल जाने के बाद वह भूल ही गये हों कि कैसे मौत के मुंह से अपने बेटे को बचाकर लाए थे।  वह अब अपने बेटे को आए दिन नौकरी आदि के लिए ताने सुनाने लगे। बेटे की घुटन बढ़ने लगी, वह फिर घर से दूरी बनाने लगा, अब चूंकि स्वास्थ्य भी बेहतर होने लगा था तो फिर वही बाहर दोस्तों के साथ घूमना, उनके साथ खानपान। लेकिन उसकी तकदीर में ये खुशियाँ कहाँ लंबे समय तक टिकने वाली थी‌। एक और तूफान उसके जीवन में प्रवेश करने के लिए धीमे से तैयार हो रहा था। 


एक दिन अचानक क्या हुआ कि उस लड़के की तबियत फिर से बिगड़ने लगी। इस बार इतनी तबियत खराब हुई, ऐसी स्थिति होती चली गई कि माँ बाप और परिजनों ने भी आस छोड़ दिया। फिर भी लड़का अपनी इच्छाशक्ति से सब कुछ झेल गया और जिंदगी की रेस जीत गया।


जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी में सरपट दौड़ने लगी। वह दुबारा मरते मरते बचा था, इसलिए घरवाले उसके स्वास्थ्य के प्रति पहले से और अधिक सजग हो गये थे। वह भी यथासंभव घरवालों की आज्ञा का पालन करता रहा। और एक दिन वह पिता की अनुमति लेकर आगे की पढ़ाई करने शहर चला गया। महीने के खर्च के नाम‌ पर भी पिता उतने ही पैसे हिसाब करके उसे देते, जितने में उसका काम हो जाए, उसके अतिरिक्त एक रूपया भी नहीं। भले ही बेटे ने इतनी पीड़ाएं झेली, अपनी जवानी का एक बड़ा हिस्सा अस्पताल में बिता दिया, घरवालों का इतना मानसिक शोषण झेलने के बावजूद वह इस उम्मीद में जी गया कि अब सब बेहतर हो जाएगा। फिर भी अपने उस पाषाण ह्रदयी पिता के अहं के सामने उसका प्रेम, उसका समर्पण गौण ही रहा।


लड़का आगे की पढ़ाई पूरी कर घर लौट आया, और अब घर से ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा। अब जैसे जैसे वह बड़ा हो रहा था, शोषण और दबाव की मात्रा भी तो उसी अनुपात में बढ़नी थी और हुआ भी यही। इतना कुछ होने के बावजूद, इतनी संपत्ति, सुख सुविधाएँ होने के बावजूद वह निर्दयी बाप अधीर होकर फिर से आए दिन अपने बेटे के समक्ष नौकरी की उम्मीद का राग अलापने लगा और उसे प्रताड़ित करने लगा। लड़का मन मसोस कर रह जाता, उसे यही लगता कि वही गलत है, उसके‌ पिता एकदम सही हैं, उसे समझ ही न आता कि उससे चूक कहाँ हुई, उसने क्या पाप कर दिया।  जीवन के इस मोड़ पर आकर उसने पहली बार शराब को मुँह लगाया, आनंद के वास्ते नहीं, बल्कि मन का बोझ हल्का करने के लिए उसने ऐसा किया। कुछ इस तरह चंद मिनटों, चंद घंटों के लिए ही सही वह सब कुछ भुलाकर अपने वर्तमान में जीने का सुख पा लेता था।


एक दिन एक बड़ी अप्रत्याशित घटना घट गई जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। वह लड़का घर से भाग गया। कई दिनों तक नहीं लौटा, इस बीच घरवाले चिंता में पड़ गए, सब जगह पूछताछ की, कुछ परिचितों को खोजने के लिए लगा दिया, पुलिस में इसलिए नहीं कहा ताकि समाज में उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आए और शायद इसलिए भी पुलिस तक बात नहीं पहुंचाई होगी क्योंकि माता-पिता को अपनी दी गई प्रताड़ना पर पूरा विश्वास होगा कि बेटा उन्हीं की वजह से ही तो घर छोड़कर गया है। 


इस बीच वह समाज की नजरों में और खराब होता गया। उसके शराब पीने की खबरें भी चलने लगी। भगोड़ा, निकृष्ट, शराबी और न जाने क्या क्या। अपमान और अपवंचना के नाम पर उसके चरित्र के साथ काफी कुछ चीजें जुड़ चुकी थी। फिर भी उस लड़के के भीतर कहीं अपने माता-पिता के प्रति प्रेम और सम्मान का तत्व कुछ रह गया था, इसलिए कुछ दिनों के बाद वह घर लौट आया। अपने व्याकुल परिजनों को देखकर रो पड़ा और वादा किया कि वह भविष्य में कभी ऐसा कदम नहीं उठाएगा। 


इस बीच लड़का आए दिन अपने मित्रों के पास जा जाकर रोता था, उसे पता नहीं होता कि वह आखिर क्यों रो रहा है, क्यों परेशान है वो, वो बस रोता था, वह परिवार और समाज की नजरों में इतना बेकार हो चुका था कि उसे भी अब लगने लगा था वह दुनिया का सबसे खराब बेटा है, उसे अपनी पीड़ा की ठीक-ठीक समझ ही नहीं बन पा रही थी, इसलिए वह किसी से ढंग से कह भी नहीं पाता था, इसलिए कोई उसे उतना समझ भी नहीं पाता था, वह पूरी तरीके से अकेला पड़ चुका था, अब उसके मनोभाव सिर्फ दो तरह से ही पकड़ में आते थे, एक उसके चेहरे के भाव और दूसरा उसके आँसू। इस बीच शराब की डोस बराबर उसके दुर्बल हो चुके शरीर में जाती रही। और फिर एक दिन अचानक उसे तेज बुखार हुआ और बिस्तर में लेटे लेटे ही उसने अपना शरीर त्याग दिया।


समाज की नजर में तो यह बुखार से हुई मृत्यु ही कही जाएगी, क्योंकि जिस समाज में माता-पिता को महान मानते हुए उनके पाँव धोकर उन्हें भगवान की तरह पूजने की परंपरा चली आ रही हो वहाँ उनकी सारी गलतियाँ छिप जाती हैं। वह अपने बच्चों को कितनी भी कैसी भी प्रताड़ना दें, वह हिंसा की श्रेणी में नहीं आता है, अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। लोगों की नजर में हत्या का होना तभी माना जाता है, जब कोई व्यक्ति किसी की जीवनलीला समाप्त कर दे। ऐसी घटनाओं के पश्चात हम संवेदनशील समाज के लोग फाँसी की माँग भी कर लेते हैं, लेकिन इन जैसे लोगों का क्या जो आजीवन अपने बच्चों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हुए उनका जीवन नर्क बना देते हैं, पहले बचपन की हत्या, फिर युवावस्था की हत्या, इस पूरी प्रक्रिया में कोमल भावनाओं की हत्या, खिलखिलाते ख्वाहिशों की हत्या, सुंदर सपनों की हत्या, न जाने ऐसा कितना कुछ। लेकिन ऐसी हत्याओं को समाज कभी हत्या के रूप में देख ही नहीं पाता है, न ही ऐसे पढ़े-लिखे प्रबुध्दजनों के भीतर छुपे हिंसक प्रवृति के मनुष्य को फिल्टर कर अलग कर पाता है।


प्रोफेसर साहब समाज की नजर में भले मानुष थे, और उम्मीद भी यही है कि वे ऐसे ही आजीवन भले‌ मानुष बने रहेंगे, उन्होंने कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया, इस मामले में वे पक्के रहे। लेकिन यह कहना गलत न होगा कि उनकी वजह से आज उनका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। बेटे की मृत्यु के कुछ महीने बाद प्रोफेसर साहब वापस अपने राक्षसी स्वरूप में लौट आए। उन्होंने बेटे की मृत्यु के लिए आए दिन अपनी पत्नी को कोसना शुरू कर दिया, कभी-कभी तो अपनी पत्नी को यह तक कह देते कि तूने ही मेरे प्यारे बेटे को मुझसे छीन लिया, तू उसकी देखभाल नहीं कर पाई। मानवीय स्वभाव की भी यह विशेषता रही है कि मन के अंदर भरी हुई चीजें बाहर निकलने के अपने रास्ते खोज ही लेती है। अब चूंकि बेटी का विवाह भी कर लिया था, इसलिए घर में सिर्फ दो लोग रह गए थे, प्रोफेसर साहब की हिंसा झेलने के लिए अब बस घर में उनकी पत्नी रह गई थी। एक दिन उन्होंने तैस में आकर अपनी पत्नी को संपत्ति और अपने जीवन से बेदखल करने की बात कह दी, साथ ही दूसरा विवाह करने की धमकी भी दे दी। हालांकि उन्होंने अपने विवाह करने की धमकी वाली बात पर अमल नहीं किया लेकिन अपनी हिंसा, कुंठा, अहं या जो भी कह लें, इसको अपने जीवन का मूल तत्व मानते हुए आज भी वे उसी ठसक के साथ जीवन यापन कर रहे हैं।

Tuesday, 15 September 2020

टेस्टिंग किट के संबंध में डाॅक्टर मित्र की जुबानी -

सरकार के पास इतनी मात्रा में तो किट है ही प्रतिदिन हर राज्य जिसकी अपनी जितनी जनसंख्या है, उसका एक चौथाई टेस्टिंग कर सकता है, इस हिसाब से रोज करोड़ों टेस्ट पूरे देश में हो सकते हैं। लेकिन एक एक किट के पीछे सरकारी पेंच और उस पर भी जो ऊपरी बंदरबांट है वो तो बस पूछो मत‌। गिध्द की तरह नोचने बैठने हैं बस। किट भले ही पड़े पड़े खराब हो जाए लेकिन उपयोग सरकारी तरीके से ही होगा और सरकारी तरीका कितना तेज होता है, हम सब देख ही रहे हैं। अभी पूरे भारत में अधिकांशतः कोरोना टेस्टिंग सरकारी हाथों में ही है, तब जाकर टेस्टिंग की संख्या इतनी है, तो सोचिए अगर सचमुच लोगों का स्वास्थ्य इनकी प्राथमिकता होती तो रोज करोड़ों की संख्या में आराम से टेस्टिंग हो जाते। लेकिन बस वही चीज है, नियत की कमी है। अभी भी करोड़ों टेस्टिंग हो जाएगा, लेकिन सरकार चाहती ही नहीं कि ऐसा हो, सिस्टम जो ऐसा बना हुआ है। इसलिए आप देखिएगा अगर साल दो साल बाद जब विश्व में कोरोना की वैक्सीन आ भी जाएगी, तब भी हम भारतीयों तक पहुंचने में बहुत देर लगेगी। जब पूरा विश्व कोरोना मुक्त होकर अपनी अर्थव्यवस्था को आगे ले जा रहा होगा, हमारे यहाँ लोग वैक्सीन लगवाने के जुगाड़ खोज रहे होंगे। सरकार के हाथ में पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन तो होगी, लेकिन लोगों को उसके लिए भी लाइन लगना पड़ेगा, अतिरिक्त पैसे चुकाने होंगे, प्रताड़ना झेलनी होगी, सब कुछ वैसा ही होगा जैसा अभी टेस्टिंग को लेकर हो रहा है।

Sunday, 13 September 2020

सरकारी डाॅक्टर मित्र की जुबानी -

यार भाई स्थिति बहुत खराब है। जिन लोगों की तबियत खराब है वे लोग तो थोक के भाव निपट रहे, ये समझो कि लोगों को अब देख के समझ आ रहा कि ये चार दिन में निपटेगा, ये पांच दिन में, ऐसी स्थिति है, लाश भी सही समय से डिस्पोस नहीं हो पा रहा है, अधिकतर लोग तो जो मरीज को छोड़ गये हैं, वे समय पर वापस देखने भी नहीं आ रहे हैं, बाॅडी क्लेम करने वाला कोई है नहीं तो लाशों का ढेर भी लग जाता है, इसमें भी सरकारी प्रक्रिया, कौन बीच में खुद को फंसाए। यहाँ लगातार 48-48 घंटे काम करके हालत टाइट है बाबा। कोरोना से ऐसा नहीं रहा कि सिर्फ एकदम बीमार और बुजुर्ग ही निपट रहे, हर उम्र के लोग निपट रहे। मेरे दो सीनियर डाॅक्टर निपट गये, दोनों की उम्र 40 से 50 के बीच, कहीं कोई खबर नहीं, एक 25 साल का डाॅक्टर वो भी पॉजिटिव था, निपट गया, कहीं कुछ खबर नहीं, सब दबा दिया जा रहा है। सबका मुंह बंद कर दिया गया है, मीडिया वाले जो बड़े हीरो बन रहे कि सरकार हाय हाय, वेंटिलेटर नहीं है, बेड नहीं है आदि आदि। असल में ये भी गिध्द लोग हैं, मुंह में मोटा पैसा फेंक दिया गया है इसलिए एक सीमा में रहकर ही फड़फड़ा रहे हैं। अभी के समय में किसी मीडिया चैनल में कुव्वत ही नहीं जो असल वस्तुस्थिति को लोगों के सामने पेश कर सके। यानि सोचिए कि जो राजधानी की मीडिया इतनी जागरूक रही है कि शहर की एक नाली तक के अवैध निर्माण को पेपर टीवी में प्रमुखता से छाप के समाज का ठेकेदार बनती रही है, उसको क्या राजधानी में हो रही मौतों की, इस बंदरबांट की खबर नहीं होगी, लोगों की लाशों पर कमीशनखोरी का गंदा खेल जो चल रहा है, खैर छोड़िए इन बातों को। 

सरकारी अस्पताल में जो थोड़े ठीक हो रहे, उनको जबरन तुरंत तुरंत फर्जी नेगेटिव रिपोर्ट बना के वापस भेजा जा रहा, सब कुछ हमारे ही हाथों से हो रहा है क्या कहें अब, ऊपर से दबाव ही ऐसा है। ऊपर हमारे से बड़े जो हेड डाॅक्टर हैं वे बस वीडियो कांफ्रेसिंग में ऊपरी हालचाल ले रहे हैं और तो और यह भी कहा जा रहा कि तीन-तीन दिन में आप लोगों को परेशान करके भगाइए, मोटा मोटा यह कि नर्स स्तर के लोगों पर ही सब कुछ छोड़ दिया गया है, यही लोग अस्पताल चला रहे हैं, बाकी अधिकतर सीनियर डाॅक्टर साहब लोग तो अपने घरों में खुद को बंद किए हुए हैं। रही बात दवाई देने की, तो दवाई उन्हीं को दी जा रही है जो ठीक होने की स्थिति में आ गये हैं तो उन्हें आखिरी दिनों में दवाई खिलाकर विदा किया जा रहा है ताकि यह लगे कि दवाई से ठीक हुआ, जबकि वह ऐसे भी ठीक हो ही जाता बाकि जिनकी‌ स्थिति खराब है वे तो सीधे निपट ही रहे हैं जिनमें किडनी, सुगर, कोलेस्ट्राॅल, बीपी वाले सर्वाधिक हैं, हम देख के बता देते हैं कि फलां तीन दिन तक ही टिकेगा, बस औपचारिकता के लिए भर्ती करना पड़ता है ऐसी स्थिति है।

रही बात टेस्टिंग किट की और अन्य सुविधाओं की, तो फंड और सुविधाओं के नाम पर कोई कमी नहीं है लेकिन चौतरफा भ्रष्टाचार चल रहा है। टेस्टिंग अभी बस सरकारी अस्पताल में ही हो रहा, प्राइवेट में भले ही अनुमति दे दी गई है लेकिन ये मान के चलिए कि सब कुछ कागज में ही है, प्राइवेट वाले डाॅक्टर्स भी स्टाफ और अन्य चीजों की कमी का हवाला देकर पल्ला झाड़ रहे हैं।

मैं यह सब बताकर डरा नहीं रहा हूं या नकारात्मक बात नहीं कर रहा हूं, बस एक डाॅक्टर होने के नाते वस्तुस्थिति बताने की कोशिश रहा कि ये सब चल रहा है। एक चीज यह भी कहूंगा कि बीमारी से डरने की कोई बात नहीं है, लेकिन एकदम से बेफिक्र भी नहीं होना है, सतर्कता जरूरी है।

इलाज की बात करें तो ऐसा भी नहीं है कि हर जगह इलाज खराब है, बात असल में वातावरण का है, स्टाफ के रवैये का है, अभी एम्स और माना रायपुर के कोविड सेंटर में सबसे बढ़िया इलाज हो रहा है, बात गोली दवाई से इलाज से कहीं अधिक एक सकारात्मक और भयमुक्त माहौल तैयार करने‌ की है, और वह सिर्फ अभी के समय में इन दो जगहों में ही बेहतर है, लेकिन वही है सीटें फुल हैं, सीटें खाली भी हुई तो क्या गारंटी है कि‌ आपको यहीं ही भेजा जाए। खुद जो डाॅक्टर पाॅजिटिव हो रहे या यूं कहें कि जिनकी तबियत कुछ ठीक नहीं है, वे खुद होम आइसोलेशन तक नहीं ले पा रहे, जबरन जान जोखिम में डालकर ड्यूटी कर रहे हैं, वही ऊपर से दबाव, नौकरी जाने के खतरे और आपात स्थिति वाली धमकियाँ अलग। रसूख वाले लोग अस्पताल आकर आए दिन हल्ला मचाते हैं, सुनना‌ पड़ता हैं क्या करें, हम भी विवश हैं, हम खुद दिन रात नींद भूख त्याग कर काम‌ कर रहे। ऐसी स्थिति हो चली है कि कभी-कभी तो लगता है कि कहीं अचानक लोगों की भीड़ ही हम डाॅक्टरों पर सारा गुस्सा न उतार दे, सच बता रहा हूं ऐसी स्थिति बनने में देर नहीं है, रोज आए दिन इसका डेमो दिख ही रहा है।

#staypositive

#wewillfightcorona

Saturday, 12 September 2020

क्रिस्तियानो रोनाल्डो -

शीर्षक के रूप में सिर्फ इस फुटबालर का नाम लिखने का मकसद सिर्फ इतना है कि इस फुटबालर की कहानी बयां करने के लिए इसका नाम‌ लेना ही काफी है, इसका नाम ही पहचान है, इसे किसी क्लब के सहारे की कभी जरूरत नहीं पड़ी है। दुनिया का सबसे अच्छा फुटबालर कौन है यह सवाल हमेशा उलझा रहेगा जब तक मेस्सी के सामने रोनाल्डो नाम का भूखा शेर खड़ा है। जब रोनाल्डो के समकक्ष फुटबालर रिटायरमेंट की प्लानिंग कर रहे हैं, तो इधर यह एक ऐसा खिलाड़ी है जो दिनों-दिन जवान होता जा रहा है, 35 की उम्र में भी वही 20 की उम्र जैसी फुर्ती, गोल दागने की वही भूख, अगर यह सब किसी में है, तो वह सिर्फ और सिर्फ रोनाल्डो है। रोनाल्डो फुटबाल की दुनिया का एक ऐसा खिलाड़ी है जिसने क्लब की भावना से हटकर अलग-अलग जगह जाकर खुद को सिध्द किया। अपनी बात कहूं तो फुटबाल क्लब बार्सिलोना और मेस्सी का फैन होने के नाते हमेशा से एक जुड़ाव मेस्सी से रहा, इस वजह से भी कभी रोनाल्डो के कद का अहसास नहीं हो पाया। फिर एक दिन मेरी मुलाकात एक ऐसे दोस्त से हुई जो रोनाल्डो का फैन निकला, ध्यान रहे कि इससे पहले मैंने रोनाल्डो का खेल उतने ध्यान से कभी नहीं देखा था।


उस फैन ने जो कुछ बातें कहीं वह जस का तस यहाँ रख रहा हूं - " रोनाल्डो 6'2" यानि लंबी कद काठी का खिलाड़ी है, इसलिए वह कितना भी अच्छा ड्रिबल कर ले, कितना भी अच्छा मैदान में खेल ले, वह देखने में उतना अच्छा नहीं लगता है, वहीं मेस्सी छोटे कद का खिलाड़ी है, इसलिए वह जब फुटबाल को ड्रिबल करता है, पास देता है या फिर गोल दागता है, यह सब देखने में बहुत प्यारा लगता है, दूसरा यह कि रोनाल्डो मेस्सी की तरह भावुकता की आड़ नहीं लेता है, मैं यह नहीं कहता कि मेस्सी अच्छा नहीं है, उसका अपना अलग लीग है, लेकिन रोनाल्डो की भी कोई तुलना नहीं। रोनाल्डो अपने दोनों पैरों से उसी ताकत से गोल दागने की क्षमता रखता है, ऐसी क्षमता अभी के समय में दुनिया में और किसी फुटबालर में नहीं है, और फिर रोनाल्डो के हैडर की बात ना ही करें तो बेहतर, कोई आस पास ही नहीं है। वह हर फ्रंट में आगे है लेकिन भावुकता न दिखाने और अलग-अलग क्लब में खेलने की वजह से उसे वैसी ख्याति नहीं मिल पाई जैसी उसे मिलनी चाहिए। "


मेस्सी फैन होने के बावजूद मैं अपने मित्र की बातों से शत प्रतिशत सहमत हूं, वाकई 35 की उम्र में पावरफुल बाइसिकल किक सिर्फ रोनाल्डो ही दाग सकता है। रोनाल्डो की भूख अभी भी कम नहीं हुई है, वह फुटबाल के मैदान में अभी भी खुद को जिस तरीके से प्रस्तुत करता है, उससे तो यही लगता है कि ये खिलाड़ी 40 की उम्र तक उसी जूनुन के साथ गोल दागता रहेगा। 


Thursday, 10 September 2020

चंद शब्द इस मुल्क के प्रतिनिधित्वकर्ताओं और यहाँ के लोगों के लिए -

प्रतिनिधत्वकर्ताओं से स्पष्ट शब्दों में बस इतना ही कहना है कि हमारा शरीरापक्ष और मनसापक्ष दोनों आज आपसे विराम चाहता है। हम पूरे होशो-हवाश में कहते हैं कि हमारी इंद्रियाँ, ग्रंथियाँ, हमारा पूरा ये शरीर, इस शरीर के सारे अंग और साथ ही हमारा मस्तिष्क आपके और आपके लोक-व्यवहार के खिलाफ खड़ा है। अब चूंकि हम आपको सिरे से नकार रहे हैं इसलिए आप मेरे देशवासी, मेरे दर्शक, मेरे फैन्स, मेरे सवा सौ करोड़ लोग ऐसा कहकर हमारा इस्तेमाल करना बंद कीजिए। हम आपसे आपका यह अधिकार वापस लेते हैं।

इस मुल्क के वाशिदों से इतनी सी इल्तजा है कि थोड़े तो अपने और अपने देश समाज के लिए कुछ संवेदनशील हो जाइए। आनलाइन प्रतिक्रिया देकर लोकतंत्र की रक्षा करने वालों से आग्रह है कि अगर आप सचमुच कुछ ईमानदार जैसे हैं तो अपने आकाओं पर कटाक्ष करने, जोक बनाने या इनकी खामिया गिनाने के लिए भी इनका नाम मत लीजिए, न ही इनकी आवाज सुनाकर, इनकी तस्वीरें लगाकर इन्हें पेश करने की कोशिश कीजिए, इन्हें प्रचारित करना बंद कर दीजिए। अब जब आपको इनकी हरकतें इतनी ही नापसंद हैं तो इन्हें संज्ञा रूप में नकारिए, व्यक्तिगत न होकर संपूर्णता में नकारिए। वीडियो, फोटो, नाम‌, न्यूज, लिंक आदि का सहारा लेना बंद कर दीजिए। बता दीजिए कि अब हजम नहीं होता है, कहिए कि आप इन्हें पूरी तरह अस्वीकार करते हैं, कहिए कि इस मुल्क में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है जैसा चलना चाहिए, दिखा दीजिए कि आपको इनकी बातों में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं है। अगर आपको सच में इस देश की या इस देश के लोगों की थोड़ी भी चिंता है तो दिखा दीजिए इस महामारी रूपी आपातकाल‌ में इन सेलिब्रिटियों, नेताओं, अभिनेताओं/अभिनेत्रियों, मीडियाकर्मियों आदि को कि आप इन्हें सुनना, देखना, और यहाँ तक इनके साथ क्या-क्या हुआ यह जानना तक नहीं चाहते। इनके समर्थन विरोध में ट्विट करना, लिखना बंद कर दीजिए, इनके प्रचार का टूल बनना बंद कीजिए, अगर सचमुच नकारना है तो अच्छे से नकारिए। साफ-साफ बता दीजिए कि वे आपको नापसंद हैं, उनके तौर-तरीके हिंसक, असंवेदनशील, अमानवीय एवं अलोकतांत्रिक हैं, उनकी अभिव्यक्ति से, विचारों से आपको पीड़ा होती है, आप शर्मसार हो जाते हैं, इसलिए आप इनका खंडन‌ करते हैं। दर्शाइए कि आप एक स्वस्थ लोकतंत्र के हिमायती हैं। अगर वास्तव में आप सोशल मीडिया और आनलाइन प्लेटफार्म का सदुपयोग करते हैं तो इसे सही दिशा में घुमाइए।

और मुद्दे ट्रेंड कराने से अगर देश का भला होता है तो इस प्रचलित अलोकतांत्रिक व्यवहार के खिलाफ कुछ ट्रेंड कराइए ताकि रोज-रोज के इस शोर शराबे से इस देश के आमजन को मुक्ति मिले।

कोरोना पाॅजिटिव मित्र की जुबानी - 3

आज तेरह दिन हो चुके, कोरोना वाकई मजेदार बीमारी है। मजेदार इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि ये कब जाएगा और कब फिर लौट कर आएगा कह नहीं सकते। शरीर को बस अपने हिसाब से नचा रहा है, और इस नाच गान के एवज में पता नहीं क्या-क्या तोड़-फोड़ कर रहा होगा। गरम पानी का जैसा मैंने कहा था यह असल में शरीर को राहत दे रहा है, इसका अर्थ यह नहीं कि ये कोई दवाई या कोरोना भगाने का इलाज है, बस यह है कि सामान्य पानी पीने से बेहतर इंसान गरम‌ पानी पी ले।

शारीरिक लक्षणों की बात की जाए तो कुछ अलग चीजें हाथ लगी है, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कोरोना की वजह से जो मुंह का स्वाद जा रहा है इसमें सामान्य बुखार की तरह उतना अधिक मुंह का स्वाद नहीं गया है, सामान्य बुखार तो शरीर को पूरा कमजोर कर देता है, कुछ भी नहीं खिलाता है, लेकिन इसमें ऐसा है कि अगर आपने मजबूती से मन बना के खाना शुरू किया तो आप जी भर के खाना खा सकते हैं। एक बड़ा फर्क और बताता हूं फल बहुत अधिक स्वादिष्ट लग रहा है जो कि सामान्य बुखार में सबसे अप्रिय लगता है खिलाता ही नहीं है। मुझे नहीं पता कितनों के साथ ऐसा हुआ है लेकिन आप यकीन मानें मैं कुछ लोगों का फिडबैक लेकर ही बता रहा, यानि ये तो अच्छा है न कि हम फल का सेवन अधिक से अधिक करें, सेहत अपने आप दुरूस्त होती रहेगी।

शारीरिक लक्षणों में दूसरा ये कि जब भी शरीर कोई गतिविधि कर रहा है, यानि पैदल चल रहा है या सीढ़ी चढ़ उतर रहा है तो ऐसा लगता है मानो बीस तीस किलो का वजन पैरों में और कंधों में किसी ने लाद दिया हो, अलग ही किस्म की कमजोरी है। और ये कमजोरी इतनी अलग है कि आपको महसूस ही नहीं होने देगी कि आपको कोरोना या कोई बीमारी है, न शरीर में तपिश न कोई तापमान में खास बदलाव। कोरोना आपको रहेगा लेकिन इतने इसके लक्षण इतने सूक्ष्म हैं कि पकड़ना बड़ा मुश्किल है।

शारीरिक लक्षणों में तीसरा यह कि नींद खूब आ रही है, इतनी लंबी नींद आप लेंगे और उठने के बाद भी इतनी थकावट मानो आप पिछले दिन पत्थर तोड़कर आए हों। थकान भी रूक-रूक के महसूस होती है। आप लेटे हुए हैं तो लेटे ही हुए हैं, उठने की ताकत ही पैदा नहीं हो रही है। आप बैठे हैं तो सिर्फ बैठे हैं, उठ के खड़े होने का मन नहीं करेगा। उठ के खड़े हो गये तो लगेगा अरे मुझे तो कुछ भी नहीं हुआ, ऐसा धोखा दे रहा है कोरोना। आपको महसूस ही नहीं होने दे रहा कि वो आपके भीतर छुपा हुआ है। और जैसे ही आप पैदल चलने लगेंगे आपको लगेगा इतना भारी शरीर ये पैर कहाँ लेकर जाएगा, ध्यान रहे ये लक्षण बेहद ही सूक्ष्म हैं, सामान्य नहीं हैं, इसलिए बड़े आराम से अवलोकन करे इंसान, तभी पकड़ में आ रहा है।

शारीरिक लक्षणों में एक चीज और ये कि आँखे हमेशा मुरझाई सी दिखती है, चेहरे में ताजगी ही नहीं है, भले आप कितना भी आराम‌ कर लें या फिर नियमित रूप से भोजन इत्यादि करें, शरीर में फुर्ती महसूस नहीं होती है, इसलिए चेहरा बीमार सा लगता है।

मन मस्तिष्क की बात करें तो जैसे जीभ के स्वाद में परिवर्तन महसूस हो रहा है, ठीक कुछ ऐसा तंत्रिका तंत्र के साथ भी है, ऐसा लगता है दिमाग भी थोड़ा बहुत सुन्न हो जाता है, हमें पता ही नहीं चलने दे रहा है, शारीरिक लक्षणों में ही उलझा रहा है, जबकि शरीर मन से ही तो जुड़ा हुआ है, इच्छाशक्ति से ही जुड़ा हुआ है, इच्छाशक्ति अगर सुन्न न होने दिया जाए फिर तो इस कोरोना को शरीर को झेल ही लेना है। 

सुझाव के तौर पर यह कि जैसे गरम‌ पानी ले रहे, वैसे ही फल का रोजाना सेवन किया जाए, क्योंकि इन दो चीजों से शरीर को फायदा तो होना ही है, चाहे कोरोना की मात्रा कम ज्यादा जो भी हो, लेकिन फल को शरीर अच्छे से स्वीकार कर रहा है, इसलिए एक कोरोना पाॅजिटिव व्यक्ति के लिए तो फल लेना निहायत ही जरूरी है।

नोट - इसे आखिरी सत्य मानकर न चलें, यह चंद लोगों के अनुभव मात्र हैं, आपको अलग अनुभव भी हो सकते हैं। निवेदन है कि अपने और अपने आस पास के लोग जो कोरोना पाॅजिटिव हैं उनकी पूछ परख करते रहें और उनमें हो रहे शारीरिक मानसिक बदलाव को नोटिस करें।

धन्यवाद।

Tuesday, 8 September 2020

मेस्सी और बार्सिलोना

मेस्सी हमारे समय में फुटबाॅल की दुनिया का सबसे बड़ा ब्रांड है और फुटबाॅल क्लब ब्रासिलोना है उसका गढ़, उसका किला। वर्तमान में कोच के रूप में फुटबाल क्लब बार्सिलोना की अध्यक्षता चाहे कोई भी करे लेकिन उसे भी पता है कि जब तक इस क्लब में मेस्सी है तभी इस क्लब का अस्तित्व है। मेस्सी इस क्लब की पहचान ही नहीं वरन् इस क्लब का पर्याय बन चुका है, वह अपने ईशारों पर इस क्लब को संचालित करता है, वह जैसा चाहता है, उसके ईर्द-गिर्द चीजें संचालित होती हैं। इन गुजरते वर्षों में मेस्सी का कद बार्सिलोना के कद से कहीं बड़ा हो चुका है और इस बात को मेस्सी बखूबी समझता है तभी क्लब से रिटायरमेंट लेने का तमाशा करता है और क्लब भी वही करता है जो मेस्सी चाहता है, वो भी तब जब टीम को कोई दूसरी टीम बुरी तरीके से मात देती है जैसा कि अभी हाल फिलहाल में हुआ और बार्सिलोना यानि मेस्सी की टीम को 8-2 की शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इस हार के तुरंत बाद मेस्सी के बार्सिलोना छोड़ने की खबर को ऐसे प्रचारित किया जाता है कि दुनिया भूल जाती है कि मेस्सी की टीम‌ ने मैदान में इतना घटिया प्रदर्शन किया, वह सहानुभूति दिखाने लग जाती है कि मेस्सी अपने उस पुराने क्लब को छोड़ रहा है जहाँ से टिसू पेपर में मिले सहमति प्रस्ताव से उसने फुटबाॅल की दुनिया में ये मुकाम हासिल किया। ये ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि नैतिकता ताक पर है, बार्सिलोना की साख बचाने या यूं कहें कि अपनी साख बचाने के लिए मेस्सी ने बार-बार यह व्यूह रचना की है और हमेशा यह बहाना तैयार रहा कि कांट्रैक्ट अगले साल तक सुरक्षित है। शायद मेस्सी की यह व्यूह रचना इस बार सच भी साबित हो जाए, शायद एक साल बाद वह रिटायरमेंट भी ले ले। लेकिन एक चीज कभी नहीं बदलेगी वो यह कि मेस्सी सिर्फ और सिर्फ बार्सिलोना का ही रहेगा। और जिस दिन वह बार्सिलोना छोड़ेगा उस दिन से ही फुटबाॅल क्लब बार्सिलोना का नामोनिशान मिटना शुरू हो जाएगा।

Sunday, 6 September 2020

कोरोना पाॅजिटिव मित्र की जुबानी - 2

कोरोना पाॅजिटिव होते हुए दस दिन से अधिक हो चुका है, मैं तो सब कुछ भूलकर बस आराम कर रहा हूं, जिनको काम‌ करने की तीव्र महत्वाकांक्षा है, वो दवाई लेकर करें काम, मैं काम नहीं करने वाला, वैसे भी मेरा जीवन किसी के रूपयों की मोहताज नहीं है। आप देखेंगे कि अभी दफ्तरों में जितने प्रतिशत लोगों को बुलाया जा रहा है, उससे दुगुनी मात्रा में लोग पहुंच रहे हैं ताकि पैसे कमाने की रेस में पीछे ना रह जाएं, ऐसा करते हुए पूरे परिवार को, समाज को जोखिम में डाल रहे हैं। अब उसमें भी काम‌ करने के एवज में तुर्रा यह कि हम रिस्क लेकर लोगों का काम करने बैठे हैं, इसलिए भी उन्हें अतिरिक्त पैसे चुकाने होंगे। कुल मिलाकर मानसिकता यही है कि अभी नहीं कमाएँगे तो कब कमाएँगे। आपदा को अवसर में बदलना यही तो है। 


कोरोना बीमारी की बात करें तो एक बात मुझे समझ नहीं आती कि जिस बीमारी का इलाज ही मौजूद नहीं है, उसमें कैसे एंटीबायोटिक या कोई दवाई काम करेगा, ये तो उल्टे हमारे शरीर में बीमारी के प्रति प्रतिरोधकता के तत्व बनने से रोकेगा और शरीर को नुकसान पहुंचाएगा। 


कोरोना माहमारी में हमारी संस्कृति भी एक बहुत बड़ी बाधा बनकर हमारे सामने आ रही है, क्योंकि विश्वगुरू का दंभ भरने वाली प्रजा यह मानकर चलती है कि ऋषि मुनि, गुरू-शिष्य, वाली महान गौरवशाली परंपरा वाले देश के पास हर बीमारी का इलाज संभव है, इसलिए भी हम पूरी तरह से इस बात को मानने को तैयार ही नहीं हो पा रहे हैं कि इस बीमारी का इलाज ही नहीं है और झाड़ फूंक, तंत्र-मंत्र की तरह इसका भी इलाज गोली, काढ़ा आदि-आदि माध्यमों से साधने लग गये। दवाइयों का ओवरडोज चढ़ाकर हम शरीर की अपनी नैसर्गिक प्रतिरोध करने की क्षमता को हम ऐसे हत्तोसाहित करने में जुट गये हैं कि कुछ साल बाद कोरोना चला भी गया तो उसके बाद शरीर दुबारा एक सर्दी भी झेलने लायक ना बचे।


भारत के लोगों की मानसिकता जिस दर्जे की है, उस लिहाज से यही सलाह देना उचित दिखाई पड़ता है कि जैसे कोरोना पाॅजिटिव होने पर अमूमन सर्दी, खाँसी, बुखार, गले में खरास, मुंह का स्वाद जाना आदि आदि लक्षण आते हैं। तो इसमें इस बीमारी को हम ऐसे मानें कि यह सर्दी खांसी बुखार जैसी ही एक सामान्य बीमारी है और इसलिए उसे शरीर को अपने आप ठीक करने दें और इस प्रक्रिया में ज्यादा छेड़छाड़ ना करें। 


पिछले कुछ वर्षों में बात-बात में नाश्ते की तरह दवाई खाने का प्रचलन बढ़ा है क्योंकि पहले जो थोड़े समझदार मानवीय प्रवृति के चिकित्सक होते थे वे खुद एंटिबायोटिक लेने से मना करते थे। क्योंकि वे इस बात को समझते थे कि एंटीबायोटिक एकदम आपात स्थिति में ही शरीर को देना चाहिए ताकि शरीर अपने तरीके से लड़ना सीख सके।


एक दूसरी मजेदार बात हमारे यहाँ यह भी है कि लोग थोड़ा भी बीमार नहीं होना चाहते, खुद को हमेशा मजबूत बनाकर पेश करते रहना चाहते हैं ताकि जीवनरूपी अंधी रेस में वे कहीं पीछे ना रह जाएं इसलिए थोड़ा कुछ भी शरीर को हुआ उसे तुरंत दवाई, पेन किलर देना शुरू कर देते हैं। 


तीसरा एक पहलू यह कि मन से कमजोर ना बने इंसान, क्योंकि मन कमजोर हुआ तो शरीर कितना भी मजबूत रहे, संभालना मुश्किल हो जाता है। और मन अगर सही दिशा में है, अपनी खुद की इच्छाशक्ति को देख पा रहा है, पहचान पा रहा है तो कमजोर से कमजोर शरीर को भी लंबा खींच ले जाता है।


अंत में समाधान के तौर पर यही कहूंगा कि इंसान यह दिमाग में बिठा ले कि कोरोना की कोई दवाई मार्केट में नहीं है, इतना मानते ही वह गोली दवाई से स्वतः ही अलग हो जाता है, और जिसे भी कोरोना पाॅजिटिव हो, वह व्यक्ति दवाई के नाम पर सुबह और शाम सिर्फ और सिर्फ गर्म पानी का सेवन करता चले, क्योंकि मुझे इससे बड़ी राहत मिली है, ऐसा दावे से नहीं कह सकता कि कोरोना पूरी तरह चला गया, लेकिन पहले से काफी आराम है।

कोरोना पाॅजिटिव मित्र की जुबानी - 1

अपनी बात कहूं तो लक्षण बहुत ही सूक्ष्म हैं, यानि मौसमी सर्दी बुखार और कोरोना के कारण हो रहे सर्दी बुखार में फर्क वही कर सकता है तो ध्यान से देखना शुरू करे। एक चीज इसमें यह भी है कि कोई भी काढ़ा एंटीबायोटिक कुछ भी इसमें काम नहीं कर रहा है, कुछ भी नहीं, ये वायरस इतना ताकतवर है कि सबको काट दे रहा है, सब लेकर देख चुका हूं इसलिए भरोसे से कह रहा हूं, कुछ फर्क नहीं पड़ना है इन सब से, इस बीमारी से शरीर अपनी इच्छाशक्ति से लड़ गया वही सहारा है। आज लक्षण आते हुए तीसरा दिन है, टेस्टिंग जानबूझकर नहीं करा रहा हूं क्योंकि मैं स्पष्ट हूं कि ये सामान्य सर्दी बुखार नहीं है, कोरोना ही है, इसलिए दो तीन बार और संक्रमित होने से या कुछ और लोगों को संक्रमण देने से बेहतर घर पर ही रहा जाए। मेरे एक नानाजी निपट गये, कोई भी लक्षण नहीं, लेकिन टेस्ट हुआ तो पता चला कोरोना पाॅजिटिव थे। एक चीज इसमें यह भी समझ नहीं आती कि लोग पाॅजिटिव होने के बाद लक्षण नहीं आने पर खुश क्यों हो रहे हैं, या लक्षण आ भी रहा तो उन सूक्ष्म लक्षणों को गोलियों, काढ़े आदि से दबाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। ये अजीब किस्म की बीमारी है, ऐसा नहीं है कि ये है ही नहीं या सीधे जान लेकर मानेगा, लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ अंदर बदल तो नहीं रहा, एक कंफ्यूजन सा है, मतलब कुछ भी स्पष्ट कह नहीं सकता उस वायरस के बारे में। शरीर कुछ अलग ही तरीके से रियेक्ट कर रहा है, थोड़ा सा जीभ का स्वाद भी गया है शायद यह सब के साथ न भी होता हो, कुछ अलग महसूस हो रहा है, अलग तरह की कमजोरी है, सामान्य बुखार से बिल्कुल अलग है, जिसे स्पष्ट शब्दों में बता पाना संभव ही नहीं है।

Wednesday, 2 September 2020

पबजी बैन -

पबजी सिर्फ एक गेम नहीं था, एक नशा था, बहुत लोगों के लिए एक बिजनेस भी था, अभी-अभी एक पबजी नशेड़ी मित्र से बातचीत हुई तो पता चला कि इस गेम को खेलने वाले इतने बढ़ गये थे कि हर दस सेकेंड में आपके साथ आपके जोन के मुताबिक खेलने वाले चार अलग अलग लोग तुरंत जुड़ जाते थे, यानि एक बहुत बड़ी संख्या इससे जुड़ चुकी थी। दूसरी सबसे मजेदार चीज जो मित्र ने बताई वो यह कि इसमें खूब पैसा भी लगता था। पता नहीं कुछ स्कीन खरीदा जाता था, अलग अलग स्कीन खरीदने के लिए पैसे लगते थे, जैसे-जैसे लोग स्कीन खरीदने लगे, कंपनी स्कीन के दाम बढ़ाने लग गई। जो स्कीन पहले हजार रूपये तक मिलती थी उसका मूल्य धीरे-धीरे लाख तक पहुंच गया। यहाँ तक कि पबजी की स्कीन खरीदने के लिए बड़ी बड़ी यूट्यूब की शार्क मछलियाँ तो बकायदा अपने चैनल से लाखों रूपए स्कीन खरीदने में लगाती थी, और फिर वीडियो बनाकर बदले में उतने रूपए भी बना लेती थी। मतलब बहुत से लोगों का धंधा भी चौपट हुआ। एक तरफ रोजगार के आँसू भी इसी देश में बहाए जाते हैं, और वहीं दूसरी ओर एक पिद्दी से गेम‌ के फीचर्स के लिए लाखों करोड़ों रूपयों के वारे-न्यारे किए जाते हैं। धन्य है यह माटी।

Tuesday, 25 August 2020

साहित्यकार बनने के आसान नुस्खे -

- एक बड़ा सा कमरा लें, जिसमें बढ़िया से पुट्टी की गई हो,
- एक लकड़ी वाली पुरानी सी गिटार जुगाड़ें,
- शांतिदूत वाली वाइब दिखाने के लिए एक बुध्द जी की मूर्ति,
- दीवारों पर कुछ क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें,
- दो चार दिवंगत कवि लेखकों की तस्वीरें,
- प्रशस्ति पत्र का फोटो फ्रेम, अवार्ड आदि,
- एक दो प्रख्यात कलाकारों की पेटिंग,
- कागज से बने आकर्षक लैम्प,
- लाल पीले रंग से पुती लालटेन जिसमें बल्ब फिट होता हो,
- शोभा बढ़ाने के लिए कोई पुराना विंटेज रेडियो, टेप आदि,
- सुंदर महंगे दिखने वाले सोफे और उनमें चंद रंग-बिरंगे तकिए,
- आदिवासियों द्वारा बनाई गई जूट की कुर्सियाँ और कुछ धातुओं से बनी कलाकृतियाँ,
- एक बड़ा सा सफेद रंग का कम्प्यूटर या लैपटाॅप,
- कुछ प्लास्टिक वाले रंग-बिरंगे फूल, मनी प्लांट आदि,
- चाय काॅफी पीने के लिए टेबल में सुंदर कप और केतली, ये सामान तोहफे वाले हों तो और बेहतर,
- इन सब चीजों की सजावट करने के दौरान रंगों में लाल, पीले, नीले और सफेद रंग को विशेष प्राथमिकता दी जाए,
और अंत में कुछ लकड़ी के रेक भी बनवा लें और किताबें सजा लें,
अब खादी पहनकर या कुर्ता सदरी लगाकर हाथ में किताब लिए फोटो खिचवाएं...
आपके भीतर का साहित्यकार तैयार है।

इतिहासकार+जनवादी+क्रांतिकारी लेखक कैसे बनें -

1. कोई ऐसा ज्वलंत मुद्दा उठाएं जिसका लंबे समय से कोई समाधान न निकला हो। उदाहरण के लिए ऐतिहासिक व्यक्तित्व में नेहरू और गाँधी को ले लें, सामयिक समस्याओं में कश्मीर समस्या, नक्सल समस्या, पूर्वोत्तर की समस्या आदि।
2. इन विषयों पर पहले से लिखी गई किताबें, शोध पत्र-पत्रिकाएँ, पेपर कटिंग, मीडिया कवरेज, जर्नल आदि आदि चीजें जुटाएं।
3. अब इनमें से अपने किताबी शीर्षक के जरूरत के मुताबिक सामान उठा उठाकर टीपते चलें।
4. थोड़ा सा अनुभव और आंचलिकता का पुट डालने के लिए एक दो बार अमुक जगह जहाँ के बारे में किताब लिखी जा रही है, वहाँ की यात्रा कर आएं ताकि एक प्रमाण भी रहे।
5. अंत में कुछ महंगे भारी नामचीन साहित्यकारों से अपनी किताब के लिए नोट लिखवा लें, इन सारी चीजों को अच्छे से मिलाएँ, किताब तैयार है।

मैं तंत्र का हिस्सा न होकर भी तंत्र से अलग नहीं हूं -

"किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।"

भारतीय संविधान के इस अनुच्छेद 15 को पढ़ाने वाले ही जब मिनट भर बाद इस अनुच्छेद के मूल भाव को अपनी अभिव्यक्ति से मटियामेट करते हुए पाए जाते तो दिमाग एक समय के लिए काम करना बंद कर देता था। आए दिन ऐसे विरोधाभास देखने मिल जाते थे, सिर्फ संविधान के अनुच्छेदों में ही नहीं, पृथ्वी और तारों के जन्म संबंधी भूगोल में भी, समाजवाद, पूंजीवाद और साम्यवाद के विश्लेषणों में भी, जीडीपी की गणना, गरीबी रेखा के तय मानकों और अर्थव्यवस्था की बोझिल परिभाषाओं में भी।

यूगोस्लाविया के बाद दूसरा सबसे बड़ा संविधान होने का गर्व पालने वालों पर तब से हँसी आती थी। इन सब से खुद को अलग करने जैसा कभी कुछ रहा ही नहीं। तैयारी क्यों छोड़ दी जैसे सवालों का मेरे पास आज भी कोई जवाब नहीं होता, क्योंकि मुझे याद ही नहीं आता कि मैंने इसे पकड़ा ही कब था। पीसीएस और यूपीएससी मेन्स लेखन की भाषाशैली की समझ वाले बूचड़ों के सुभीते के लिए यही कि छोड़ना एक ऐसी लंबी प्रक्रिया थी, जो शायद पहले दिन से शुरू हो चुकी थी जब लोग पकड़ना शुरू करते हैं या उस मोहपाश में बंधना शुरू करते हैं। वैसे किसी उपन्यास के अंदाज में कहें तो पूरी तरह छोड़ना शायद डेढ़ या दो साल बाद हुआ। लेकिन यह भी लगता है कि अगर किसी कारणवश तैयारी नहीं भी छोड़ता तो मस्तिष्क ने जो वाक्यों के बीच छुपे भावों को और उनके पीछे खेले जा रहे घटिया खेल को, दोहरे मापदंडों को, भाषाई पाखंड और घाघपने को जो देखना शुरू किया था, वह देखना तो तब भी जारी रहता, बस तब मशीनरी का हिस्सा होता तो खुलकर पब्लिक डोमेन में उतना कह न पाता। सरकारी मुलाजिमों की तरह जटिल ऊर्दू की कविताओं या संस्कृत के श्लोकों का सहारा लेकर लोगों को अपनी जटिलताएँ परोसता और उसी में सैकड़ों हजारों लाइक बटोरता। और इसके साथ ही खोखलेपन की पराकाष्ठा लांघ चुका होता लेकिन फर्क यह रहता कि वहाँ रहकर भी रोज रात को सोते समय मुझे इस बात का बराबर आभास होता रहता, इतना तो मैं जहाँ जाता हर जगह खुद को बचा ही लेता। लेकिन संख्याबल से इतर मेरी पूछ परख करने वाले तब भी उतने ही होते जितने अभी हैं, शायद कम भी हो सकते लेकिन ज्यादा तो बिल्कुल नहीं होते। बात सिर्फ पद, प्रतिष्ठा या हनक की नहीं है, आप वास्तव में जो हैं उसके लिए अगर आपकी पूछ होती है, वही असली कमाई है, बाकी सब ढकोसले हैं।

लोग भले ही मुँह उठा के नेगेटिव कह जाते हों, लेकिन सिस्टम के प्रति किसी प्रकार की कुंठा जैसी चीज तब भी नहीं थी, अब भी नहीं है। कभी-कभार के लिए खीज या कसक जैसा कुछ सकें तो बेहतर हो लेकि‌न कुंठा तो कभी थी ही नहीं, कुंठा का जब कुछ हासिल ही नहीं तो सोचने का सवाल ही नहीं होता है।

जहाँ तक बात सिस्टम या तंत्र की है तो हम अगर सिस्टम का हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से न भी हों तो क्या हुआ हम उससे अलग भी तो नहीं है, चौतरफा घिरे हुए हैं, प्रभावित होते रहते हैं, भले उतना आभास न हो पाता हो, लेकिन सिस्टम हमारे आसपास के वातावरण में डैने पसारे फैला तो रहता है, बस हम दिखाने वाले की भूमिका में न होकर देखने वाले की भूमिका में होते हैं। और देखने वाले की भूमिका साफ नियत से निभाने की अधकचरी कोशिश करने वाला नेगेटिव नहीं होता है। जिनमें रचनात्मकता और क्रियाशीलता का अभाव होता है उन्हें ही ऐसे लोग नकारात्मक दिखाई पड़ते हैं।

#बसयूँही

माता-पिता बच्चों के प्रति हिंसा के लिए जिम्मेदार होते हैं -

माता-पिता अपनी हिंसा बच्चों को हस्तांतरित करने का एक मौका नहीं छोड़ते हैं, खुद जितने मशीनी होते हैं अपने बच्चों को भी वैसा ही बना डालते हैं, इसमें आधार बनता है परिवार, समाज, देश, संस्कृति आदि। इन्हीं टूल्स को काम में लगाकर बच्चे की बुध्दि को संकुचित करने का काम किया जाता है। और मजे की बात ये कि उन्हें अपनी इस गलती का इंच मात्र भी आभास नहीं हो पाता है, उन्हें लगता है बच्चा अगर उनकी तरह रोबोट नहीं बन पाया तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा। उन्हें लगता है कि उन्होंने जिस ढर्रे पर पूरा जीवन जिया है, जीवन जीना उसे ही कहते हैं, उसके अलावा भी कोई जीवन होता है, इसकी न तो उन्हें समझ होती है, न ही ऐसी दृष्टि होती है, इसलिए ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है वे अग्रगामी हैं, लेकिन असल में होते वे पश्चगामी ही हैं। ऐसी मानसिकता ही समाज को, देश को पीछे ढकेलती है। शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य, सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार यह सब बहुत बाद में आता है, इन सारी समस्याओं की जड़ हमारा अपना परिवार होता है, सब कुछ इसी का विस्तार तो है, हम जब तक इस सच्चाई को नहीं स्वीकारेंगे, तब तक उल्टी दिशा में गंगा बहती रहेगी।

दहेज -

पिता - चलो सगाई हो गई, अब कार एसयूवी ही लेना है।
पुत्र - बिल्कुल, लेकिन मेरे को नहीं लगता कि मिल पाएगा।
पिता - बड़ा खानदान है कैसे नहीं मिलेगा?
पुत्र - सुनने में आया कि वे कुछ और सोच रहे‌।
पिता - कैसे नहीं देंगे, अगर अभी नहीं मिला तो शादी के बाद लेंगे।
पुत्र - शादी के बाद कैसे?
पिता - बेटी तो घर आएगी, वो कब काम आएगी‌।
पुत्र - समझ गया।
पिता - उसको तू संभालना, बस हावी न हो पाए।
पुत्र - ठीक, मैं उसका देख लूंगा।
पिता - बाकी तो मैं संभाल‌ लूंगा।
पुत्र - ठीक है।
पिता - एसयूवी से कम में नहीं मानना है।
पुत्र - अरे बिल्कुल। लेकर रहेंगे।

Saturday, 22 August 2020

जाति धर्म का निम्नीकरण और हमारी युवा पीढ़ी

 आज का युवा भले जाति धर्म कितना भी मान ले, भले समर्थन के लिए क्षणिक हिंसा दिखा जाए, लेकिन अब उसमें जड़ताएँ कम होती दिखती है, बस करना है इसलिए कर जाता है, मन से कुछ नहीं होता है, बस एक दबाव की तरह झेल रहा होता है। एक बड़ा सु:खद परिवर्तन जो पिछले कुछ सालों में तेजी से देखने में आ रहा है वो यह है कि अब वह सारी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए अपने मन से शादी करना चाहता है, और कई बार अपने मन से शादी के बाद अपने मन के और भी काम करने का साहस जुटाता चला जाता है। जब वह अपने घर परिवार और आसपास के परिवेश में, सजातीय विवाह में, इन सब में रिश्तों को टूटते बिखरते मानवीय मूल्यों को तार-तार होते देखता है तो उसे एक सहज बोध यह होने लगता है कि इससे बेहतर तो यही है कि जिसे हम बेहतर जानते हैं, समझते हैं या जो हमें जानता है, बेहतर समझता है, सम्मान करता है आदि आदि, उसे के साथ ही आगे का जीवन बिताने का फैसला क्यों न किया जाए। भले अजीब लग सकता है लेकिन धीरे से ही सही इस सहज बोध ने जाति व्यवस्था को चीरना शुरू कर दिया है, आज का युवा बस अपने मन से एक बेहतर जीवनसाथी चुनना चाहता है, उसकी इस एक जिद ने ही आज जाति धर्म आदि को किनारे करना शुरू कर दिया है, भले औपचारिकताओं के स्तर पर आज के भारतीय सामाजिक परिवेश के अनुसार वह धर्म जाति को पकड़ कर चलता रहता है, लेकिन मन से स्वीकार करने लायक अब वो जकड़न उसमें बची ही नहीं है, कुछ पुराने बूढ़े(सोच के स्तर पर) आज भी जाति धर्म की रस्सी पकड़े हुए हैं लेकिन उनको ये नहीं पता कि हमारी पीढ़ी जाने अनजाने ही सही अब उस रस्सी को काट के फेंकने‌ पर ऊतारू है। 

Friday, 31 July 2020

भारत में वर्तमान में कोरोना से बचने के दस सूत्री उपाय -


1. आरोग्य सेतु एप्प अन्स्टांल करें।
2. अगर कोरोना के लक्षण महसूस करते हैं तो इस बात को पब्लिक ना करें और खुद को आइसोलेट कर लें।
3. कोरोना लक्षण के संकेत मिलने पर सरकारी मदद या अस्पताल में संपर्क ना करें, ऐसा कर आप सीधे-सीधे कोरोना को न्यौता दे रहे हैं।
4. हर हालत में होम आइसोलेशन को ही चुनें, यही कोरोना से आपकी रक्षा करेगा।
5. सरकार काढ़े और चंद गोलियों से आपका इलाज करेगी, कोशिश करें कि यह काम आप घर पर ही करें।
6. सर्दी, खाँसी, बुखार जैसी समस्या आने पर इसे अधिक से अधिक छुपाएँ, ताकि सरकार अपने फायदे के लिए आपको उठा कर ना ले जा सके।
7. आप एक इंसान हैं, इसलिए इंसान बने रहें, डेटा बनने से बचें।
8. मास्क और सेनेटाइजर का उतना ही इस्तेमाल करें जितना जरूरी है, प्रोपेगैंडा का शिकार ना बनें।
9. अगर आप कोरोना के इलाज के लिए लाखों रूपए फूंक सकते हैं तभी निजी अस्पतालों की शरण लें, अन्यथा घर पर ही इलाज करें।
10. अभी अगले कुछ महीनों के लिए अपने घर को ही दुनिया का सबसे बेहतरीन अस्पताल मानकर चलें।

पैसे बचाएँ, खुद को बचाएँ, अपने परिवार को बचाएँ, देश बचाएँ।
धन्यवाद।

Saturday, 18 July 2020

मृत्युभोज -

A - तुम्हारे यहाँ भीड़ थी?
B - हाँ अच्छी खासी भीड़ रही।
A - सामान्य दिनों की तरह?
B - हाँ, कुछ कुछ वैसा ही लगा।
A - अच्छा, मेरे यहाँ मामला थोड़ा फीका रहा।
B - नारियल कपड़े लेकर गये थे ?
A - नहीं, दस रूपए दे आया।
B - मचा दिए आप।
A - मचाए तो तुम हो बाबा, शेव करा आए।
B - हाँ, सोचा लगे हाथ वहीं करा लिया जाए।
A - सही है, खाना कैसा था?
B - बढ़िया था, कुल तीन सब्जियाँ रही।
A - इधर पनीर की सब्जी शानदार थी।
B - मैं जहाँ गया वहाँ मशरूम बढ़िया रहा।
A - अच्छा, नाश्ते में क्या था?
B - नाश्ता ठीक ठाक ही रहा, पकोड़े अच्छे थे।
A - मीठे में कुछ नहीं था?
B - था न, खोवे की जलेबियाँ थी।
A - इधर गुलाब जामुन था‌, मैं तो कुछ पैक कराकर ले आया।
B - इधर तो खीर भी बनी थी, मैं ग्लास भर पी गया।

Friday, 10 July 2020

Facebook Feeds - June 2020

कुछ युवा घर की जिम्मेदारियों का वहन इसलिए भी करते हैं ताकि आगे चलकर अपनी बदमाशियों को जस्टिफाई कर सकें। 

59 एप्प में से एक भी एप्प मेरे फोन में नहीं है, लेकिन मेरा फोन एक चाइनीज कंपनी का है। 

सबसे बड़े डेटा चोर ये प्रतियोगी परीक्षा वाले हैं जिनके कारण लाॅटरी वाले काॅल आते थे। 

एप्प बैन कर रहे, यहाँ इंसान पूरा का पूरा एक चाइनिस फोन यूज कर रहा उससे डेटा चोरी नहीं होगा, वाह क्या लाॅजिक है। 

वे हमारे लोगों को घुस कर मार जाते हैं और हम उनका एप्प बैन करने की नौटंकी करते हैं। 

Former CM Raman singh- Cali Cartel 
Bhupesh Baghel- Medellin Cartel 
बस इतना फर्क है। 

छत्तीसगढ़ में किधर ये "डैडी" वाला तकिया कलाम चलता है, जानने की उत्सुकता है बस। क्योंकि ये मामा भांचा रोगहा मरहा ये सब सुना है, लेकिन ये डैडी? 

भारत में कोरोना की वजह से सबसे ज्यादा Education Industry प्रभावित हुआ है। 

रोचक जानकारी और ज्ञानवर्धक बातें लिखने वालों से कहीं बेहतर पनवाड़ी के चाचा लोग हैं। 

ब्लाॅक अनब्लाॅक करना बंद हुआ यानि रिश्तों का अंत हुआ।  

कवि- माथा चूमना आत्मा चूमने जैसा है। 
कवियित्री- चाटकर सीधे मोक्ष क्यों नहीं पा लेते।  

कुछ कवि अपने पीछे कविताएँ छोड़ जाते हैं और कुछ जीवन भर का अवसाद, सड़न और ढेरों मकान। 

सद्गुरु जैसे बाबा रामरहीम और आसाराम जैसे बाबाओं से कहीं अधिक समाज के लिए खतरनाक है। 

हम भारतीय इंसान को दूर से देखकर ही बता देते हैं कि वो अच्छे घर का है या बुरे घर का है. 

हिन्दी साहित्यकार - क्या तुम इस बार की सर्दियों में मेरा कंबल बनाना पसंद करोगी? 
शिष्या - मैं सोच रही हूं कि आपकी लिखी किताबें जलाकर आपको ताप दे जाऊँ।  

अंग्रेजी में लेखन करने वाले कुछ लोग हिन्दी वालों का जितना सम्मान करते हैं, उतना हिन्दी लेखन वाले कभी नहीं कर पाते हैं। हिन्दी के साथ यह एक बहुत बड़ी समस्या है। 

"पढ़ा-लिखा होकर उसने ऐसा गलत काम कर दिया।" कभी-कभी समझ नहीं आता है कि ये किसी गलत काम या सही काम का पढ़े-लिखे और अनपढ़ होने से संबंध क्या है?  

योगगुरू - साल भर पिज्जा बर्गर खाने वाले आज योग करता हुआ फोटो अपलोड करके ज्ञान देंगे। 
शिष्य - ठीक है फिर आज आप पिज्जा, बर्गर खाएंगे।   

ऐसा है, ग्रहण तब से लगा हुआ है जब हम सबने मिलकर थाली बजाई थी। 

हिंदी की दुर्गति के लिए अंग्रेजी नहीं, हिन्दी के मठाधीश कहीं अधिक जिम्मेदार हैं। 

किराए के पैसों के लालच में जब तक लोग घर बनाते रहेंगे, रेत माफिया पैदा होते रहेंगे। 

बच्चों को अगर मारेंगे नहीं तो वे बिगड़ जाएंगे।अधिकांशत: आज भी इस बात को सही मानते है।  

चाइनीज फूड के शौकीन लोग चाहें तो चीन के विरोधस्वरूप वासेपुर फिल्म के पीयूष मिश्रा की तरह खुद को कोड़े मार लें। 

हमारे यहाँ बच्चों को देश का भविष्य भी कहा जाता है और उन्हें जमकर कूटा भी जाता है। 

माता-पिता इतने क्यूट होते हैं कि वे भलाई के नाम पर बच्चों से बहुत कुछ करा जाते हैं। 

खुदखुशी करने वाले अगर कायर हैं तो ये आजीवन खोखली जिंदगी जीने वाले कहाँ से बहादुर हैं?  

ये सही समय है कि अब हम यह सहजता से स्वीकार लें कि हमारे बीच का लगभग हर दूसरा व्यक्ति किसी न किसी मानसिक समस्या से ग्रसित है। 

मुँह में मास्क और हाथ में सेनेटाइजर, शरीर के बाकी हिस्सों से कोरोना फैलाने का प्रमाणपत्र है। 

वाम विचारधाराओं के चक्कर में भारतीय युवा दो तरीकों से तबाह होते हैं - पहले वे जो क्राँति के नाम पर भिखारियों की तरह जीवन यापन करते हैं, दूसरे वे जो इसके ठीक उलट सिंगल माल्ट पीते यूटोपिया के सपने देखते हैं। 

रिश्तों की शुरूआत भले झूठ से हुई हो, लेकिन उनका अंत हमेशा सच के साथ ही होता है। 

सफलता का बाजार व्यापक है, जिन्हें जरूरत नहीं यह वहाँ भी जाकर उन्हें असफल दिखाता है। 

विशिष्ट बनने का सामाजिक दबाव एक समय के बाद सफलता प्रेमियों को अवसाद में ढकेल देता है। 

भारत में एक हाथी से कहीं अधिक वीभत्सता से इंसानों को मारा जाता है। #lockdown  

शिकारी समाज ने हाथी के सूंड में बम फोड़ा है। राज्य को घेरने में ऊर्जा व्यर्थ मत करिए। 

छात्रों को पास करके "जनरल प्रमोशन" शब्द तो ऐसे जोड़ा जा रहा जैसे वे सरकारी नौकर थे। 

ये कैसी "आत्मनिर्भरता" है, जो पहले "PM Cares Fund" बनाके खुद ही पैसे माँगती है। 

विरोध जताना ही है तो हमारी तरह चीर-फाड़ कीजिए, काला फोटो लगा के क्या ही कर लीजिएगा। 

मौत 1 हो या हजार, सरकारें कैसे जस्टिफाई कर ले रही हैं? - A Govt. Corona Warrior  

इंजीनियरिंग वालों को फोकट पास नहीं किया जाएगा, उन्हें फर्रा लेकर ही पेपर दिलाना होगा। 

आॅड-ईवन की तरह अब लेफ्ट-राइट दुकानें खुल रही। मतलब कितना मनोरंजन कराओगे प्रभु। 

चलो मान लिया जी, कोरोना से बड़ा खतरा चीन, नेपाल और पाकिस्तान हैं। अब युध्द करा ही दो। 

सरकार धार्मिक स्थलों को अगले 6 माह बंद रखे, मैं अपनी कमाई का 50% देने को तैयार हूं।

Friday, 3 July 2020

Narcos Mexico - Explained in Hindi

#NarcosMexico

Miguel Angel Felix Gallardo अपने समय से बहुत आगे था, पाब्लो एस्कोबार की तरह वह सिरफिरा नहीं था। खून-खराबे से उलट वह साफ-सुथरे तरीके से व्यापार करने पर जोर देता रहा, और आजीवन उसने यही किया, उसने जबरदस्त व्यवस्था तैयार की, ऊपर से लेकर नीचे सबको उस बिजनेस चेन में जोड़कर रखा। जब तक वह रहा पूरे मेक्सिको के ड्रग व्यापार को उसने नियंत्रित किया हुआ था, इतना जबरदस्त नियंत्रण की लोकतांत्रिक व्यवस्था से भी उम्दा, शायद मेक्सिको की नियति में यही लिखा था। 

फेलिक्स हमेशा से ड्रग व्यापार में मेक्सिको की संप्रभुता का हिमायती रहा, इसलिए उसने एक बड़ा फैसला लिया, जिस कोलंबिया से मेक्सिको तक कोकीन की सप्लाई होती था, उसने उस चेन को तोड़ डाला, उसने ड्रग की एक बड़ी खेप‌ को रंगे हाथ पकड़वा दिया, यह इतना कोकी‌न था कि कोलंबिया और मेक्सिको दोनों जगह के ड्रग माफिया कमजोर से पड़ गये‌। उसके बाद से आजतक इतना कोकीन कहीं नहीं पकड़ा गया। उधर पाॅब्लो एस्कोबार अपने अंतिम दिन गिन रहा था और इधर फेलिक्स मेक्सिको को मजबूत करने में लग गया था, फेलिक्स के अलावा कोई और दूसरा मेक्सिको में हो ही नहीं सकता था जो कोलंबिया से टक्कर ले सके, उसे करना था सो उसने कर दिया। फेलिक्स ने अपने साथियों को कहा कि उसने ही ये कोकिन पकड़वाया है, मेक्सिको के लोगों के एकछत्र राज के लिए, मेक्सिको को मजबूत करने के लिए, लेकिन इस बात पर किसी ने उसका साथ नहीं दिया। अंतत: फेलिक्स को जेल जाना पड़ा, शायद फेलिक्स एकलौता ऐसा ड्रग माफिया रहा जिसके पकड़े जाने में एक भी गोली नहीं चली, फेलिक्स था भी वैसा, बिना हिंसा का सहारा लिए विशुध्द बिजनेस करने वाला। पाब्लो एस्कोबार के रहते कोलंबिया में व्यापक स्तर पर हत्याओं और हिंसा का दौर चला, जो उसके जाने के बाद बहुत हद तक कम भी हो गया। अब एक पहलू इसमें यह भी है कि एस्कोबार के रहते हुए क्राइम कंट्रोल में रहा, यानि क्राइम सिर्फ एस्कोबार के गुर्गे ही करते रहे, चाबी उन्हीं के हाथ में रही, लेकिन एस्कोबार की मौत के बाद हजारों छोटे-छोटे ड्रग माफिया पैदा हो गये, जिन्हें धीरे से कोलंबिया सरकार ने बहुत हद तक कंट्रोल कर लिया। लेकिन मेक्सिको की स्थिति बिल्कुल अलग थी,वहाँ तो Sinaloa निवासी फेलिक्स था, उसके रहते मेक्सिको में हिंसा की छुटपुट घटना भी ना के बराबर हुई, उसकी तरह सुव्यवस्थित तरीके से ड्रग का व्यापार शायद ही कोई निकट भविष्य में कर पाए। उसके जेल जाने के बाद मेक्सिको में स्थिति उल्टी हो गई, हिंसाओं का ऐसा दौर चला जो आज भी बदस्तूर जारी है और आगे भी जारी रहेगा।

जेल में एक अमरीकी अफसर ने  फेलिक्स से कहा - सारा खेल पता है तुम्हें, फिर भी तुम आज यहाँ इस जेल में हो। इस पर फेलिक्स ने जवाब में कहा - "हम Sinaloans हैं", हम लोगों को हमेशा ज्यादा ही चाहिए होता है, हम ऐसे ही हैं। और आप यह मान कर चलें कि मेरे एक के जाने के बाद आप मेक्सिको को सँभाल नहीं पाएंगे, DEA और अमेरिकी खुफिया विभाग को तो मेरा शुक्रिया अदा करना चाहिए। जो पिंजरा इतने सालों से बँधा हुआ था, वह अब खुल गया  है, सारे खुले सांड अब बाहर आएंगे, मेक्सिको कभी इन सब से उबर नहीं पाएगा, अभी तो तुम्हें असली तांडव देखना है। देखना कैसे थोक के भाव में ड्रग लार्ड पैदा होंगे और तुम कुछ कर भी नहीं पाओगे, नहीं संभाल पाओगे, जब हाथ पर हाथ धरे रह जाओगे, तब मेरी यह बात तुम्हें समझ आएगी। आज फेलिक्स की एक एक बात सही साबित हो रही है।


Tuesday, 30 June 2020

टिकटाॅक, एप्प बैन और डेटा चोरी -

इस पोस्ट का एप्प बैन के समर्थन या विरोध से कोई लेना देना नहीं है, इसलिए समर्थन या विरोध का डंडा चलाने वाले यहीं से पढ़ना बंद कर सकते हैं।
एप्प बैन में बाकी बैन हुए एप्स का पता नहीं, लेकिन खासकर टिकटाॅक जैसे पाॅपुलर एप्प का बंद होना राष्ट्रीय मुद्दा बनना ही था‌। हम इस टेक्निकल चीज पर नहीं जाते हैं कि जब टिकटाॅक या अन्य चाइनिज एप्प से डेटा चोरी होता है तो यह सब अभी क्यों सरकार को याद आया आदि आदि। ये काम समर्थन विरोध करने वालों पर छोड़ देते हैं। हम जमीनी बात करने की कोशिश करके देखते हैं। 

वास्तव में देखा जाए तो इस भीषण महामारी के दौर में भी जहाँ हमारे सामने समस्याओं का पहाड़ खड़ा है, ऐसे समय में इन मुद्दों का राष्ट्रीय महत्व का बन जाना ही हमारे लिए एक बड़े शर्म की बात है। अब इस पर न उलझिएगा कि सरकार ने किया, मीडिया ने किया, अरे भाई हम सब ने किया, सबका बराबर योगदान होता है ट्रेंड करने में। सरकार मीडिया उत्प्रेरण का कार्य करती है‌।

आप यह भी देखेंगे कि इस मुद्दे में हर कोई अपने हिसाब से तेल गरम कर रहा है, मौज ले रहा है लेकिन शायद बहुत कम लोग, थोड़े ही लोग इस बात को देख पा रहे होंगे कि टिकटाॅक एक ऐसा एप्प बन चुका था जिसने मनोरंजन के सहारे ही सही बहुत लोगों के लिए राहत का काम किया, एक बहुत बड़ी आबादी को शांत किया, प्रफ्फुलित किया, उमंगों को मधुर बनाया। मनोरंजन से काफी आगे निकल चुका था यह एप्प, ऐसा मुझे कहीं कहीं लगता है। उन युवाओं की बात नहीं कर रहा जो फूहड़पने पर उतारू रहे, ऐसे लोग कहाँ नहीं है, लेकिन इनके अलावा भी टिकटाॅक में एक बड़ी आबादी उनकी रही जो अपने मानसिक संतुलन के लिए किसी बाबा या आश्रम की चौखट में जाया करते थे। आप छंटनी करना शुरू कीजिए कि वे कौन लोग हैं जो टिकटाॅक चलाते हैं, बहुत कुछ समझ आ जाएगा। मुट्ठी भर बदमाशी कर रहे युवाओं के हिसाब से राय मत बनाइए। ऐसे लोग हर जगह भरे पड़े हैं। 

आप अपने आस पास देखना शुरू करेंगे तो आपको समझ आएगा कि टिकटाॅक जैसे एप्प बहुत सी ऐसी महिलाओं के लिए वरदान का काम कर रहे थे जो तलाकशुदा हैं, लगातार घरेलू हिंसा झेलती हैं या अन्य किसी तरीके से आए दिन शोषण का शिकार होती हैं, इनके लिए टिकटाॅक हँसकर सब कुछ भुला देने का एक प्रभावी माध्यम बन चुका था। आप कंटेंट, गाने, संगीत, वीडियो इन सब में उलझे रहेंगे तो आपको मेरी यह बात वैसे भी समझ नहीं आएगी। आप सामने वाले की हँसी और आनंद के पीछे वर्षों से चले आ रहे मानसिक सामाजिक शोषण को कुचलता नहीं देख पाते हैं तो यह आपकी समस्या है। 

अब डेटा चोरी पर आते हैं जिसे आधार बनाकर एप्प बैन की ये नौटंकी की गई है। यानि यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि जिस देश के लोगों को सरकार ने कभी महज एक डेटा से ज्यादा कुछ समझा नहीं, आज उसी सरकार को उन्हीं लोगों का डेटा चोरी हो जाने की सबसे अधिक चिंता है।

डेटा चोरी का अभी तक का सबसे वीभत्स उदाहरण आधार कार्ड है। हैकर जूलियन असांजे ने तो भारत में आधार कार्ड लांच होने के दो साल पहले ही कह दिया था कि भारत अपने लोगों की निजता पर हमला करने के लिए जल्द ही कुछ पहचान पत्र जैसा तरीका अपनाएगी और हुआ भी यही। इस पर नहीं जाते हैं कि आधार कार्ड का अर्थ कैसे डेटा चोरी हो गया। अभी हाल फिलहाल का उदाहरण लेते हैं, आरोग्य सेतु एप्प, डेटा चोरी का इससे बढ़िया मासूम उदाहरण और क्या लेंगे। फ्रेंच हैकर एलिएट एल्डरसन ने तो मानो पूरी खोलकर रख दी कि कैसे सरकार इस महामारी में, इस व्यापक आपदा के समय में भी डेटा चोरी का काम धड़ल्ले से कर रही है। 

चलिए इन दोनों उदाहरणों को छोड़ देते हैं, बहुत टेक्निकल चीजें हैं। एक आसान सा उदाहरण लेते हैं, आपमें से अधिकतर युवा राज्य स्तर, केन्द्रीय स्तर की अलग-अलग प्रतियोगी परीक्षाओं का हिस्सा बने होंगे, बैंकिंग, रेल्वे, व्यापंम, एसएससी, पीसीएस, सिविल‌ सेवा आदि। आपने कभी ध्यान दिया कि परीक्षा समाप्ति के पश्चात, परीक्षा में अनुपस्थित युवाओं को एक दो दिन के पश्चात् लाॅटरी या कार जीतने वाले फोन कहाँ से आते हैं, फोन करने का यह ठेका किस बीपीओ को मिलता है। या फिर जिस दिन परीक्षा परिणाम आते हैं तो जिनका चयन नहीं हो पाता है, उन घायल क्षुब्ध लोगों के नाम का डेटा लीक कौन करता है, उन्हें लाॅटरी वाले फोन कहाँ से आते हैं। कभी आपने सोचा है कि कौन हैं वे लोग जो आपको झूठे सपने बेचने का काम करते हैं, आपको बोलरो, स्काॅर्पियो जीतने का बम्पर आॅफर देते हैं और बदले में 5000-10000 रूपए के अग्रिम भुगतान की माँग करते है। सरकार के अघोषित तथाकथित चाटुकार सरीखे आरटीआई कार्यकर्ताओं की गर्दन पकड़ के आप पूछिएगा कि क्यों वे लोग चयन आयोगों से यह नहीं पूछते हैं कि छात्रों का डेटा लीक आखिर कौन करता है? पता करवाइएगा कि निजता का हनन कर लाखों करोड़ों रूपए का यह डेटा बेचने का कारोबार आखिर किनके रहम-ओ-करम पर होता है। चीन को हम बाद में संभाल लेंगे, पहले घर का मामला ठीक कर लिया जाए।