"किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।"
भारतीय संविधान के इस अनुच्छेद 15 को पढ़ाने वाले ही जब मिनट भर बाद इस अनुच्छेद के मूल भाव को अपनी अभिव्यक्ति से मटियामेट करते हुए पाए जाते तो दिमाग एक समय के लिए काम करना बंद कर देता था। आए दिन ऐसे विरोधाभास देखने मिल जाते थे, सिर्फ संविधान के अनुच्छेदों में ही नहीं, पृथ्वी और तारों के जन्म संबंधी भूगोल में भी, समाजवाद, पूंजीवाद और साम्यवाद के विश्लेषणों में भी, जीडीपी की गणना, गरीबी रेखा के तय मानकों और अर्थव्यवस्था की बोझिल परिभाषाओं में भी।
यूगोस्लाविया के बाद दूसरा सबसे बड़ा संविधान होने का गर्व पालने वालों पर तब से हँसी आती थी। इन सब से खुद को अलग करने जैसा कभी कुछ रहा ही नहीं। तैयारी क्यों छोड़ दी जैसे सवालों का मेरे पास आज भी कोई जवाब नहीं होता, क्योंकि मुझे याद ही नहीं आता कि मैंने इसे पकड़ा ही कब था। पीसीएस और यूपीएससी मेन्स लेखन की भाषाशैली की समझ वाले बूचड़ों के सुभीते के लिए यही कि छोड़ना एक ऐसी लंबी प्रक्रिया थी, जो शायद पहले दिन से शुरू हो चुकी थी जब लोग पकड़ना शुरू करते हैं या उस मोहपाश में बंधना शुरू करते हैं। वैसे किसी उपन्यास के अंदाज में कहें तो पूरी तरह छोड़ना शायद डेढ़ या दो साल बाद हुआ। लेकिन यह भी लगता है कि अगर किसी कारणवश तैयारी नहीं भी छोड़ता तो मस्तिष्क ने जो वाक्यों के बीच छुपे भावों को और उनके पीछे खेले जा रहे घटिया खेल को, दोहरे मापदंडों को, भाषाई पाखंड और घाघपने को जो देखना शुरू किया था, वह देखना तो तब भी जारी रहता, बस तब मशीनरी का हिस्सा होता तो खुलकर पब्लिक डोमेन में उतना कह न पाता। सरकारी मुलाजिमों की तरह जटिल ऊर्दू की कविताओं या संस्कृत के श्लोकों का सहारा लेकर लोगों को अपनी जटिलताएँ परोसता और उसी में सैकड़ों हजारों लाइक बटोरता। और इसके साथ ही खोखलेपन की पराकाष्ठा लांघ चुका होता लेकिन फर्क यह रहता कि वहाँ रहकर भी रोज रात को सोते समय मुझे इस बात का बराबर आभास होता रहता, इतना तो मैं जहाँ जाता हर जगह खुद को बचा ही लेता। लेकिन संख्याबल से इतर मेरी पूछ परख करने वाले तब भी उतने ही होते जितने अभी हैं, शायद कम भी हो सकते लेकिन ज्यादा तो बिल्कुल नहीं होते। बात सिर्फ पद, प्रतिष्ठा या हनक की नहीं है, आप वास्तव में जो हैं उसके लिए अगर आपकी पूछ होती है, वही असली कमाई है, बाकी सब ढकोसले हैं।
लोग भले ही मुँह उठा के नेगेटिव कह जाते हों, लेकिन सिस्टम के प्रति किसी प्रकार की कुंठा जैसी चीज तब भी नहीं थी, अब भी नहीं है। कभी-कभार के लिए खीज या कसक जैसा कुछ सकें तो बेहतर हो लेकिन कुंठा तो कभी थी ही नहीं, कुंठा का जब कुछ हासिल ही नहीं तो सोचने का सवाल ही नहीं होता है।
जहाँ तक बात सिस्टम या तंत्र की है तो हम अगर सिस्टम का हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से न भी हों तो क्या हुआ हम उससे अलग भी तो नहीं है, चौतरफा घिरे हुए हैं, प्रभावित होते रहते हैं, भले उतना आभास न हो पाता हो, लेकिन सिस्टम हमारे आसपास के वातावरण में डैने पसारे फैला तो रहता है, बस हम दिखाने वाले की भूमिका में न होकर देखने वाले की भूमिका में होते हैं। और देखने वाले की भूमिका साफ नियत से निभाने की अधकचरी कोशिश करने वाला नेगेटिव नहीं होता है। जिनमें रचनात्मकता और क्रियाशीलता का अभाव होता है उन्हें ही ऐसे लोग नकारात्मक दिखाई पड़ते हैं।
#बसयूँही
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