आज एक मूंगफली बेचने वाले के पास गया। सेडिस्टिक आनंद के लेन-देन के लिए बात नहीं लिखी जा रही है। चुपचाप दस रूपए की मूंगफली खरीदकर आ गया। मैं, मेरी जेब और मेरा पेट इससे ज्यादा उसका भला नहीं कर सकता था। आज उस वृध्द के हिम्मत के सामने हर चीज बौनी नजर आने लगी, अभी पर्यटन स्थलों में खासकर ऋषिकेश में सन्नाटा है, लोग हैं ही नहीं, फिर भी इतनी बड़ी चुनौती के साथ बाजार में एक ठेला लगाकर सुबह से शाम टिके रहना। कितने ही लोग मूंगफली खा लेते होंगे। कितना बिकेगा, कोई भरोसा नहीं, फिर भी, सब कुछ अस्तित्व के सहारे। सोचता हूं ऐसे कितने पेशे होंगे जिनमें प्रतिदिन ऐसी चुनौतियाँ होती होंगी। सेवा और समाजकार्य का प्रपंच करने वालों के लिए ऐसे तमाम पेशे सेवा की श्रेणी में कभी नहीं आएंगे, क्योंकि यहाँ हर दिन रिस्क है। इनका बस चले तो मूंगफली, चाय, गोलगप्पे आदि में भी कुछ समाजकार्य का रस मिलाकर स्टार्ट-अप बना दें। खैर...
सफलता, चुनौती की आए दिन पेपर में छपने वाली मनोरम कहानियाँ फर्जी हैं, सब ढोंग है, छलावा है। किताब रट के एक जगह सुरक्षित कर लेने के तिलिस्म को ही जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष मानने वाले विषैले समाज से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।
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