Thursday, 22 October 2020

असली चोर कौन?

1947 के बाद से भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीन स्तंभों में अगर किसी स्तंभ के हिस्से थोड़े बहुत आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के तत्व आए, तो वह सिर्फ और सिर्फ व्यवस्थापिका थी। इसके ठीक उलट कार्यपालिका वैसी ही चलती रही जैसी आजादी के पहले थी और समय के साथ और सढ़ती गई , इसे आप सशक्त होती गई, ताकतवर होती गई मानकर चलें। जबकि व्यवस्थापिका और कमजोर होती गई। इसलिए आज भी जब मौका पड़ता है, लोग आगे आकर " नेता चोर हैं" , "संसद में चोर उचक्के बैठते हैं" , "इन्होंने देश बेच दिया" ऐसे वाक्य कहते हुए सारा ठिकरा व्यवस्थापिका पर फोड़ते हैं। लोग बात-बात पर थोक के भाव में नेताओं को, संसद को चोर की संज्ञा दे जाते हैं। अब चूंकि लोकतांत्रिक मूल्य इन्हीं के पाले में आए तभी तो आज भी जनता बिना खौफ के इनके साथ उठने बैठने का साहस रखती है, गलती दिखी तो सवाल कर लेती है, डांट लेती है, गालियाँ करती है, उनके घर के बाहर धरना देती है, ज्यादा हुआ तो इनके कपड़े पर स्याही छींट देती है और मौका पड़े तो जूता फेंक के मार भी देती है।

लेकिन वहीं देखिए कार्यपालिका के तत्व यानि सरकारी नुमाइंदों (कर्मचारी, अधिकारी आदि) को कभी चोर की संज्ञा नहीं दी जाती है, भले वे पद में रहते हुए आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे रहें, कितने भी करोड़ों अरबों रूपयों का सांठ गांठ करते रहें, निलंबित होते रहें, लोगों की जिंदगी तबाह करें, समाज की अवनति का मूल कारण बनते रहें फिर भी वे समाज की नजर में सम्मानीय होते हैं, पूजनीय होते हैं, और तो और उन्हें निडर और मजबूत व्यक्ति की संज्ञा भी मिल जाती है।

दारू, रूपया, साइकिल बाँटने वाले नेता आज चुनाव प्रचार में जनता के सामने कोरोना की वैक्सीन बाँटने की बात कर रहे हैं, आप फिर वही करेंगे, नेताओं को गरियाएंगे, लेकिन यह क्यूं भूलते हैं कि ऐसे उलूल-जूलूल आइडिया उन्हें कोई सचिव स्तर का अधिकारी ही दे रहा होता है, सब कुछ उन्हीं का किया कराया होता है, नेता तो महज कठपुतली मात्र होता है, कार्यपालिका जैसा उसे नचाती है, वैसा वह नाचता है। लेकिन चूँकि लोकतंत्र है, नेता चुन कर आता है तो सर्वोच्चता के नाम पर उसे ही आगे कर दिया जाता है तो आपको भी यही महसूस कराया जाता है कि देश की सारी समस्याओं के पीछे नेता जिम्मेदार हैं।

नेताओं के पास गलतियाँ करने के बहुत कम अवसर होते हैं, उसने एक गलती की, जनता और मीडिया उसका नाम उछालने लग जाती है, कलंकित करने लगती है। वहीं सरकारी मुलाजिम कितनी भी गलतियाँ करे, लोगों को प्रताड़ित करे, उनका काम ना करे, ऐसी स्थिति में इनका हिसाब जनता नहीं कर सकती है। इस कारण किसी सरकारी मुलाजिम से सीधे मुंह बात भी नहीं की जा सकती, उससे अलग से मिला नहीं जा सकता, उसे डांटा नहीं जा सकता, उसकी शिकायत नहीं की जा सकती, उनका मीडिया ट्राइल नहीं हो सकता,

स्याही फेंकना तो मतलब निरा स्वपन हुआ। मूल व्यवहारिक हकीकत यही है। आपको कहीं ढूंढने से भी ऐसी खबर नहीं मिलेगी कि "फलां व्यक्ति ने काम न होने की वजह से नाराज होकर जिलाधीश के गाल पर तमाचा जड़ा", यह असंभव चीज है, क्योंकि अगला सुपरमैन जैसी ताकत से लैस होता है। इसलिए आज भी भारत में माता-पिता अपने बच्चों को इसी तरह का सुपरमैन बनाने की ख्वाहिश रखते हैं, जिसके पास बेरोकटोक भरपूर पाॅवर रहे, चौतरफा भ्रष्टाचार कर रूपया भी अनाप-शनाप छाप ले और साथ ही समाज की नजर में सम्मानीय भी रहे। यह काॅम्बो पैकेज लंबे समय के लिए इन्हीं पदों में ही मिलता है, नेता होने में ऐसी सुविधाएँ नहीं है, इसलिए देश के युवाओं का एक बहुत बड़ा तबका नेता नहीं बल्कि अधिकारी होना चाहता है। और ऐसे में देश जश्न मनाता है कि "लो रिक्शेवाले का बेटा बना अधिकारी", तालियाँ। 

अपने गिरेबान में झांककर एक बार पूछिएगा कि जैसा सम्मान आप किसी एक युवा को अधिकारी बनने पर देते हैं ठीक ऐसा सम्मान आप किसी जनप्रतिनिधि को क्यों नहीं दे पाते हैं, जबकि वह सीमित समय के लिए आता है और ज्यादा मेहनत करके आता है। 

भारत के विधायकों और सांसदों के पास ताकत और अधिकार के नाम‌ पर सिर्फ और सिर्फ अधिकारियों को फोन कर चमकाने धमकाने के अधिकार होते हैं, इससे ज्यादा उनके पास कोई अधिकार नहीं होता है। ये बात जनता अच्छे से जानती है इसलिए वह नेताओं से ढेला भर भी उम्मीद नहीं रखती है, जब मन किया कुंठा निकालने के लिए बस गाली देने के लिए उनका इस्तेमाल करती है, ऐसा करते हुए एक दिन नेताओं को हाशिए में ढकेल देती है।

भारत की जनता को यह अच्छे से पता होता है कि सरकारी मुलाजिमों के पास बहुत ताकत होती है, इतनी कि मौका मिलते ही वह ऐसा तंग करेंगे कि जीना दुभर हो जाएगा, और वे ऐसा जीवन भर मरते दम तक कर सकते हैं ये भी जनता जानती है,  इसलिए जनता इनके सामने आजीवन दुबककर रहती है, वह आज भी सरकारी दफ्तरों में एक डर के भाव से जाती है, अपने छुटपुट काम के लिए भी पहचान खोजती है, लिंक खोजती है ताकि असुविधाओं से वह बच सके। भले ही सब सही हो, साफ सुथरा काम करवाना हो फिर भी उसे जबरन गुलाम निरीह जैसा महसूस कराया जाता है, चूंकि सिस्टम ही ऐसा है, तो यह स्वयंमेव होता जाता है। 

सरकारी मुलाजिम व्यक्तिगत रूप से कैसा भी चरित्र का रहे, कितना भी बड़ा तोपचंद ईमानदार जैसा क्यों न हो, वह सिस्टम का हिस्सा बनकर लोगों को कीड़ा ही समझता है, उसे समझना पड़ता है, नहीं समझेगा तो एक दिन भी काम नहीं कर पाएगा, जरा सा भी आत्मबोध हुआ तो उसे अगले ही दिन इस्तीफा देना पड़ जाएगा। इसलिए सिस्टम में रहते हुए या तो वह खामोश हो जाता है, लाइमलाइट से दूर हो जाता है या फिर इन सब चीजों को ढँकने के लिए कभी वह पैदल चलकर महानता का ढोंग करता है, कभी साइकिल चलाकर महान हो जाता है, कभी जमीन में बैठकर खाना खाने से महान हो जाता है, कभी ट्यूबवेल का पानी पीने से महान हो जाता है, कभी काम के सिलसिले में बाइक में बैठने से महान हो जाता है तो कभी खेत में पाँव रखने से महान हो जाता है, ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, यही व्यवस्था है, यही कार्यपालिका का मूल सामंती चरित्र है जिसे भारत का परिवार, भारत का समाज बड़े आदर भाव से देखता है, इसी से मुक्ति पाने की जरूरत है, और उन सारे उपद्रव मूल्य रूपी अधिकारों को शिथिल करने की जरूरत है तभी सही मायनों में गुलामी की जंजीरें टूटेंगी।

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