Friday, 6 November 2020

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भारत में 700+ जिले, हर जिले में थोड़ा-थोड़ा कोरोना, डेटा मेनीपुलेशन भी गजब चीज है।

कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान जो बच्चन साब को चोट लगी थी,आजकल उसे ClickBait कहते हैं।

माता-पिता अपनी हिंसा बच्चों को हस्तांतरित करने का एक मौका नहीं छोड़ते हैं, खुद जितने मशीनी होते हैं अपने बच्चों को भी वैसा ही बना डालते हैं, इसमें आधार बनता है परिवार, समाज, देश, संस्कृति आदि। इन्हीं टूल्स को काम में लगाकर बच्चे की बुध्दि को संकुचित करने का काम किया जाता है। और मजे की बात ये कि उन्हें अपनी इस गलती का इंच मात्र भी आभास नहीं हो पाता है, उन्हें लगता है बच्चा अगर उनकी तरह रोबोट नहीं बन पाया तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा। उन्हें लगता है कि उन्होंने जिस ढर्रे पर पूरा जीवन जिया है, जीवन जीना उसे ही कहते हैं, उसके अलावा भी कोई जीवन होता है, इसकी न तो उन्हें समझ होती है, न ही ऐसी दृष्टि होती है, इसलिए ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है वे अग्रगामी हैं, लेकिन असल में होते वे पश्चगामी ही हैं। ऐसी मानसिकता ही समाज को, देश को पीछे ढकेलती है। शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य, सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार यह सब बहुत बाद में आता है, इन सारी समस्याओं की जड़ हमारा अपना परिवार होता है, सब कुछ इसी का विस्तार तो है, हम जब तक इस सच्चाई को नहीं स्वीकारेंगे, तब तक उल्टी दिशा में गंगा बहती रहेगी।

हिन्दी पट्टी के व्यक्ति के मस्तिष्क में एक "राजनीतिक विश्लेषक" Inbuilt होता है।

विद्रूपताओं के दौर में जब-जब पहाड़ों की ओर देखा, इन पहाड़ों ने यही सिखाया कि दुनिया में एक रूपए भी बिना जी तोड़ मेहनत के या फिर बिना भ्रष्टाचार के हासिल नहीं हो सकता है।

जिस देश की महिलाओं को अंत्येष्टि में रोने के लिए प्याज और स्प्रे का सहारा लेना पड़ता हो उस देश के बच्चों का भविष्य कैसा होगा।

पहाड़ में पहाड़ जैसा मजबूत कुछ होता है तो वह है पूर्वजों की बनाई पगडंडियाँ।

हमारे यहाँ माता-पिता अपने बच्चों की तनख्वाह कुछ हजार रूपए बढ़ाकर ही बताते हैं।

जैसे हमारे यहाँ धार्मिक जड़ताएँ हैं, ठीक वैसी ही जड़ता खान-पान को लेकर भी है। सुधार के नाम पर हम ऊपरी काम ही करते हैं, आमूलचूल प्रयोगों से हमारी रसोई आज भी अछूती है।

NCERT ने धर्मनिरपेक्षता, योजना आयोग, पंचवर्षीय योजना, लोकतांत्रिक अधिकार, फूड सिक्योरिटी, नागरिकता, संघवाद, राष्ट्रवाद, भारत के आर्थिक विकास का बदलता स्वरूप, पड़ोसी देशों से संबंध, लिंग, जाति, धर्म, लोकतंत्र की चुनौतियाँ इन सब टाॅपिक को छात्रों के सिलेबस का बोझ कम‌ करने के मकसद से हटा दिया है।

एक बात समझ नहीं आ रही कि लोग आखिर इस अभूतपूर्व फैसले का विरोध क्यों कर रहे हैं?

सामाजिक पिछड़ेपन का बीजारोपण, संग्रहण एवं विस्तारण पिछड़े समाजों द्वारा संभव ही नहीं।

भारत में अनगिनत प्रेम कहानियों की मौत सरकारी नौकरी न मिलने की वजह से हो जाती है।

गाँव में काम करने के शौकीन युवाओं को शाम ढलते तक शहर लौटना ही होता है।

मैं एक दि‌न अपनी सारी RTI, PIL अपने साथ ले जाऊंगा, जो इन कवियों पर मुझे लगानी थी।

कुछ युवा घर की जिम्मेदारियों का वहन इसलिए भी करते हैं ताकि आगे चलकर अपनी बदमाशियों को जस्टिफाई कर सकें।


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