Saturday, 22 August 2020

जाति धर्म का निम्नीकरण और हमारी युवा पीढ़ी

 आज का युवा भले जाति धर्म कितना भी मान ले, भले समर्थन के लिए क्षणिक हिंसा दिखा जाए, लेकिन अब उसमें जड़ताएँ कम होती दिखती है, बस करना है इसलिए कर जाता है, मन से कुछ नहीं होता है, बस एक दबाव की तरह झेल रहा होता है। एक बड़ा सु:खद परिवर्तन जो पिछले कुछ सालों में तेजी से देखने में आ रहा है वो यह है कि अब वह सारी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए अपने मन से शादी करना चाहता है, और कई बार अपने मन से शादी के बाद अपने मन के और भी काम करने का साहस जुटाता चला जाता है। जब वह अपने घर परिवार और आसपास के परिवेश में, सजातीय विवाह में, इन सब में रिश्तों को टूटते बिखरते मानवीय मूल्यों को तार-तार होते देखता है तो उसे एक सहज बोध यह होने लगता है कि इससे बेहतर तो यही है कि जिसे हम बेहतर जानते हैं, समझते हैं या जो हमें जानता है, बेहतर समझता है, सम्मान करता है आदि आदि, उसे के साथ ही आगे का जीवन बिताने का फैसला क्यों न किया जाए। भले अजीब लग सकता है लेकिन धीरे से ही सही इस सहज बोध ने जाति व्यवस्था को चीरना शुरू कर दिया है, आज का युवा बस अपने मन से एक बेहतर जीवनसाथी चुनना चाहता है, उसकी इस एक जिद ने ही आज जाति धर्म आदि को किनारे करना शुरू कर दिया है, भले औपचारिकताओं के स्तर पर आज के भारतीय सामाजिक परिवेश के अनुसार वह धर्म जाति को पकड़ कर चलता रहता है, लेकिन मन से स्वीकार करने लायक अब वो जकड़न उसमें बची ही नहीं है, कुछ पुराने बूढ़े(सोच के स्तर पर) आज भी जाति धर्म की रस्सी पकड़े हुए हैं लेकिन उनको ये नहीं पता कि हमारी पीढ़ी जाने अनजाने ही सही अब उस रस्सी को काट के फेंकने‌ पर ऊतारू है। 

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