Sunday, 6 September 2020

कोरोना पाॅजिटिव मित्र की जुबानी - 2

कोरोना पाॅजिटिव होते हुए दस दिन से अधिक हो चुका है, मैं तो सब कुछ भूलकर बस आराम कर रहा हूं, जिनको काम‌ करने की तीव्र महत्वाकांक्षा है, वो दवाई लेकर करें काम, मैं काम नहीं करने वाला, वैसे भी मेरा जीवन किसी के रूपयों की मोहताज नहीं है। आप देखेंगे कि अभी दफ्तरों में जितने प्रतिशत लोगों को बुलाया जा रहा है, उससे दुगुनी मात्रा में लोग पहुंच रहे हैं ताकि पैसे कमाने की रेस में पीछे ना रह जाएं, ऐसा करते हुए पूरे परिवार को, समाज को जोखिम में डाल रहे हैं। अब उसमें भी काम‌ करने के एवज में तुर्रा यह कि हम रिस्क लेकर लोगों का काम करने बैठे हैं, इसलिए भी उन्हें अतिरिक्त पैसे चुकाने होंगे। कुल मिलाकर मानसिकता यही है कि अभी नहीं कमाएँगे तो कब कमाएँगे। आपदा को अवसर में बदलना यही तो है। 


कोरोना बीमारी की बात करें तो एक बात मुझे समझ नहीं आती कि जिस बीमारी का इलाज ही मौजूद नहीं है, उसमें कैसे एंटीबायोटिक या कोई दवाई काम करेगा, ये तो उल्टे हमारे शरीर में बीमारी के प्रति प्रतिरोधकता के तत्व बनने से रोकेगा और शरीर को नुकसान पहुंचाएगा। 


कोरोना माहमारी में हमारी संस्कृति भी एक बहुत बड़ी बाधा बनकर हमारे सामने आ रही है, क्योंकि विश्वगुरू का दंभ भरने वाली प्रजा यह मानकर चलती है कि ऋषि मुनि, गुरू-शिष्य, वाली महान गौरवशाली परंपरा वाले देश के पास हर बीमारी का इलाज संभव है, इसलिए भी हम पूरी तरह से इस बात को मानने को तैयार ही नहीं हो पा रहे हैं कि इस बीमारी का इलाज ही नहीं है और झाड़ फूंक, तंत्र-मंत्र की तरह इसका भी इलाज गोली, काढ़ा आदि-आदि माध्यमों से साधने लग गये। दवाइयों का ओवरडोज चढ़ाकर हम शरीर की अपनी नैसर्गिक प्रतिरोध करने की क्षमता को हम ऐसे हत्तोसाहित करने में जुट गये हैं कि कुछ साल बाद कोरोना चला भी गया तो उसके बाद शरीर दुबारा एक सर्दी भी झेलने लायक ना बचे।


भारत के लोगों की मानसिकता जिस दर्जे की है, उस लिहाज से यही सलाह देना उचित दिखाई पड़ता है कि जैसे कोरोना पाॅजिटिव होने पर अमूमन सर्दी, खाँसी, बुखार, गले में खरास, मुंह का स्वाद जाना आदि आदि लक्षण आते हैं। तो इसमें इस बीमारी को हम ऐसे मानें कि यह सर्दी खांसी बुखार जैसी ही एक सामान्य बीमारी है और इसलिए उसे शरीर को अपने आप ठीक करने दें और इस प्रक्रिया में ज्यादा छेड़छाड़ ना करें। 


पिछले कुछ वर्षों में बात-बात में नाश्ते की तरह दवाई खाने का प्रचलन बढ़ा है क्योंकि पहले जो थोड़े समझदार मानवीय प्रवृति के चिकित्सक होते थे वे खुद एंटिबायोटिक लेने से मना करते थे। क्योंकि वे इस बात को समझते थे कि एंटीबायोटिक एकदम आपात स्थिति में ही शरीर को देना चाहिए ताकि शरीर अपने तरीके से लड़ना सीख सके।


एक दूसरी मजेदार बात हमारे यहाँ यह भी है कि लोग थोड़ा भी बीमार नहीं होना चाहते, खुद को हमेशा मजबूत बनाकर पेश करते रहना चाहते हैं ताकि जीवनरूपी अंधी रेस में वे कहीं पीछे ना रह जाएं इसलिए थोड़ा कुछ भी शरीर को हुआ उसे तुरंत दवाई, पेन किलर देना शुरू कर देते हैं। 


तीसरा एक पहलू यह कि मन से कमजोर ना बने इंसान, क्योंकि मन कमजोर हुआ तो शरीर कितना भी मजबूत रहे, संभालना मुश्किल हो जाता है। और मन अगर सही दिशा में है, अपनी खुद की इच्छाशक्ति को देख पा रहा है, पहचान पा रहा है तो कमजोर से कमजोर शरीर को भी लंबा खींच ले जाता है।


अंत में समाधान के तौर पर यही कहूंगा कि इंसान यह दिमाग में बिठा ले कि कोरोना की कोई दवाई मार्केट में नहीं है, इतना मानते ही वह गोली दवाई से स्वतः ही अलग हो जाता है, और जिसे भी कोरोना पाॅजिटिव हो, वह व्यक्ति दवाई के नाम पर सुबह और शाम सिर्फ और सिर्फ गर्म पानी का सेवन करता चले, क्योंकि मुझे इससे बड़ी राहत मिली है, ऐसा दावे से नहीं कह सकता कि कोरोना पूरी तरह चला गया, लेकिन पहले से काफी आराम है।

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