Monday, 21 September 2020

हत्या -

हत्या -


शहर में आए हुए उस परिवार को अभी कुछ महीने ही हुए थे। चार लोगों का सुखी परिवार रहा, प्रथम दृष्टया ऊपरी तौर पर देखने में यही मालूम पड़ता था। पिता एक अच्छी सरकारी नौकरी में थे, कालेज में प्रोफेसर रहे। बच्चों की शिक्षा को लेकर जितने वे सजग रहते, बच्चे ठीक उसके विपरित। प्रोफेसर साहब उसी मानसिकता के हिमायती रहे कि डाँट डपट से, ताने से बच्चों को ठीक कर लेंगे। कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों पर शारीरिक हिंसा करते हुए उन्हें ठीक करने, सुधारने के पक्षधर होते हैं, इसके विपरित कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो समाज की नजरों में अत्यधिक सभ्य, सुशील, प्रतिष्ठित, सम्मानित और विनम्र होने की छवि बनाकर चलते हैं, ऐसे माता-पिता अक्सर बच्चों को निरंतर मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं, प्रोफेसर साहब यही दूसरे केटेगरी वाले रहे।


उनकी एक बेटी जो थी, वह अपनी निजी रूचियों से लेकर घर के काम में और पिताजी के ताने सुनने से लेकर पढ़ाई करने में, हर मामले में औसत रही, इस वजह से भी पिता का मौन समर्थन करती रही। लेकिन उनका बेटा उम्मीद से ठीक उल्टी दिशा में चल निकला, अपने भीतर की बची-खुची ईमानदारी को जुटाकर उसका मन छोटी उम्र से ही प्रतिक्रिया करने लग गया, अपने हिस्से का खुला आसमान ढूंढने लग गया। वो बात अलग रही कि बच्चे की यह प्रतिक्रिया समय, काल, परिस्थिति, पारिवारिक दबाव इन कारणों से कभी भी सही दिशा में निरूपित नहीं हो पाई।


जिस तरह का हमेशा से घर में एक मानसिक दबाव का माहौल बनाया गया, इस वजह से वह अपने पिता से बहुत पहले ही दूर हो चुका था। दबाव के विपरित वह ऐसा गया कि अब उसे अपने ही घर में दो वक्त का भोजन करना भी नागवार गुजरता। छोटी सी उमर में वह एक ऐसी प्रताड़ना झेलने को विवश कर दिया गया था जिसे न वह खुद प्रताड़ना समझ पाया था, न ही समाज।बची-खुची कसर तब पूरी हुई जब उसने घर से थोड़े-थोड़े रूपए चुराने लगा, चुराना भी क्या कहें उसे, अपनी सीमित जरूरतों के लिए चंद पैसे घर से बिना बिताए ले लेता था। शुरूआत में वह उतने ही रूपए लेता रहा जितने में वह बाहर जाकर कुछ खरीद कर खा सके क्योंकि घरेलू दबाव ऐसा बना रहा कि पिता ने कभी इस पक्ष पर सोचा ही नहीं कि बच्चों का यह शौक भी पूरा किया जाए कि उन्हें उनके मन मुताबिक कभी कुछ खिला दिया जाए, कुछ खरीददारी कर लिया जाए, बच्चों को मशीन न मानकर कभी उनसे प्रेमपूर्वक व्यवहार कर लिया जाए, उनके साथ बैठकर बातें की जाए, उनके साथ हँसी ठिठौली ली जाए, उनकी बातें सुनी जाए, लेकिन प्रोफेसर साहब तो थे जिद्दी, कैसे अपने बच्चों की या पत्नी की सुनते, अपने अहं को सर्वोपरि मानकर उसी हिसाब से अपनी जिंदगी के पहिये घुमाते रहे।


बेटे द्वारा की गई चंद रूपयों की चोरी को, जिसे कायदे से चोरी कहना भी मूर्खता होगी, इसे उसकी भोली माता हमेशा से छुपाती रहती और पिता तक यह बात पहुंचने न देती। पिता जो चरित्र से एक शक्कीमिजाज, मक्खीचूस इंसान रहे, उनमें शुरूआत से अपने ही परिवार के लोगों के प्रति औरंगजेब जैसा अविश्वास रहा, कुल मिलाकर यही उनका मूल चरित्र रहा, वे अपनी तनख्वाह तक खुद छिपाकर रखते, हिंसा के स्तर पर जाकर एक एक रूपए का हिसाब रखते, यहाँ तक कि अपनी धर्मपत्नी को भी इस बात की जानकारी न होने देते। एक दिन क्या हुआ कि बेटे को पिताजी के तिजोरी की भनक लग गई और उसमें भी उनके बेटे ने पिन से स्टेपल किए हुए रूपयों की गड्डी से अपनी जरूरत के मुताबिक ईमानदारी से एक पचास रूपए का नोट निकाल लिया, पिता को तो पता चलना ही था, उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी पर शक की सुई घुमाई, पत्नी ने हमेशा की तरह छिपाने की लाख कोशिश की लेकिन बात उभर कर बाहर आ गई, उन्होंने बेटे को बैठाकर खूब सुनाया, चूंकि पिताजी ने विनम्रता का चोगा उढ़ा हुआ था तो वे अपने बच्चों पर कभी हाथ नहीं उठाते थे, सिर्फ मानसिक प्रताड़ना देते थे। छोटे बच्चों में मार का असर कुछ पहर तक ही होता है, लेकिन मानसिक प्रताड़ना लंबी दूरी तय करती है, कहीं अधिक दिमागी उथल पुथल करती है।


उनका एकलौता बेटा छोटी उम्र से ही कुछ अलग ही दिखने लगा था, चेहरे का रंग हल्का पीला गोरा लेकिन उस चेहरे में किसी प्रकार की कोई चमक कोई ऊर्जा नहीं, कद काठी से भी औसत, आटे की लोई जैसा उसका शरीर। ऐसा लगता मानो मानसिक प्रताड़ना झेलते-झेलते पूरा शरीर कृशकाय होने की दिशा में गतिमान है। वह भी अपनी बहन की तरह पढ़ाई और अन्य गतिविधियों में औसत ही रहा। पिता को अपनी उम्मीद के मुताबिक कभी बच्चों से कुछ नहीं मिल‌ पाया, बच्चे भी परेशान रहने लगे कि हम ऐसा क्या कर जाएं कि पिता हमसे खुश होकर हंसते, मुस्कुराते कभी बात कर लें। प्रोफेसर साहब रूटिन तरीके से दूसरे परिवारों के बच्चों से तुलना करके अपने बच्चों को छोटा महसूस कराते रहे। बच्चों में जो थोड़ा बहुत आत्मविश्वास रहा, संभावनाओं के अंकुर रहे, वह फूटने के पहले ही दम तोड़ने लगे। पिता को अपने बच्चो में कुछ भी ऐसा दिखाई नहीं पड़ रहा था कि जिसे प्रस्तुत कर वे समाज के बीच सीना चौड़ा करते हुए अपना गौरवगान कर सकें। वे भी व्यथित रहते कि समस्या कहाँ है, चूक कहाँ रह गई, जबकि वे खुद समस्याओं का पहाड़ बनकर बीच में खड़े थे। उन्हें यह अहसास भी कैसे होता, मन के कोमल भावों पर पहले ही उन्होंने ताला जड़ दिया था, उनके लिए रूपया ही जीवन की सबसे कीमती चीज रही, प्रेम नाम की कोई वस्तु भी होती है, इसकी उन्हें कभी समझ ही नहीं रही, इसलिए इन बहूमूल्य जीवन तत्वों से वे आजीवन वंचित रहे।


यहाँ प्रोफेसर साहब के चरित्र के बारे में कुछ और बातें करना बेहद जरूरी है। अब चूंकि वे सरकारी प्रोफेसर थे, इसमें से आने वाली मोटी तनख्वाह, ऊपर से छोटा सा परिवार था, गाँव में अच्छी खासी खेती किसानी भी थी, यानि यह कि पैसों की कोई कमी नहीं थी, संपन्न थे। फिर भी एक एक रूपए के हिसाब के लिए पड़ोसियों से बहस कर लेते, रेहड़ी (ठेलेवाला) वालों से दो चार रुपए के लिए खूब मोलभाव करते, कुतर्क कर अपने को सही पेश करके ही दम लेते। छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, हर कोई इनकी इस नीचता या यूं कहें कि इनके इस काइयाँपन के सामने झुकने में ही अपनी भलाई समझता। बाहर के लोगों का तो चलिए एक बार समझ में आता है, वे पैसों के मामले‌ में अपने घरवालों के लिए भी किसी मुंशी लाला से कम नहीं थे। छोटी से छोटी चीज का ऐसा पाई-पाई हिसाब माँगने लगते कि उनके परिवार के सदस्य भी घबरा जाते। इस वजह से भी घर का कोई सदस्य कभी अपने शौक या जरूरतों के लिए कोई चाहकर भी पैसे न माँग पाता। और संभवत: बेटे का हिम्मत करते हुए बिना बिताए घर से पैसे ले लेने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा हो। प्रोफेसर साहब सब्जियों की खरीददारी करने बाजार भी जाते तो शाम को ही जाते क्योंकि वह समय ऐसा होता है जब आखिर में बची हुई सढ़ी गली सब्जियाँ कम‌ दाम‌ में मिल जाती हैं, दो रूपए कहीं कम दाम में सब्जियाँ मिल जाएँ इसके लिए वह पूरा बाजार छान मारते, भले ही इसमें घंटे भर का समय क्यों न लग जाए। वे खासकर उन सब्जियों को अधिक खरीद मात्रा में खरीदते जिनका मूल्य कम है, इस वजह से वे कई बार पोषकतत्वों से भरपूर अलग-अलग प्रकार की सब्जियाँ खरीदने से वंचित रह जाते।


जब जब माता-पिता के संज्ञान में यह बात आई कि बेटा चोरी-छिपे घर से रूपए लेता है और बाहर की चीजों पर खर्च करता है, उन्होंने बेटे की इस हरकत को सबके सामने इस तरीके से पेश करना शुरू किया कि बेटा आवारा है, चोर है, गलत संगत में जा चुका है। इसमें मुख्य भूमिका में पिता रहे, माता पीछे पीछे मौन समर्थन देती रही। और जिस गलत संगत के नाम‌ पर वे अपने बेटे को निकृष्ट, चरित्रहिन घोषित करते रहे, उस चरित्रहीनता के नाम‌ पर बेटा करता क्या था, घर का खाना नहीं खाता था, घर में नहीं रहता था, हमेशा आवारागर्द लोगों के साथ बाहर घूमता रहता था, चूंकि माँगने पर भी घर से जेबखर्च नहीं मिल पाता इसलिए घर से कुछ रुपए लेकर हमेशा बाहर की चीजें खाता था, जबकि बाहर की चीजें खरीदकर खाना कभी उसके शौक में शुमार थी ही नहीं; घर के दबाव ने ही अनायास यह दूसरा रास्ता खोल दिया था। और जब बेटा उस रास्ते चल‌ निकला तो फिर वापस लौट नहीं पाया, उसकी जिव्हा को बाहर के खाने की लत हो गई। उस बालमन का दुर्भाग्य देखिए कि उसका मन अब बाहर के खाने में रस ढूंढने लगा, अपनापन ढूंढने लगा, स्वाद खोजने लगा। घर का खाना वह खाता भी तो पिता की उपस्थिति और उनसे डर की वजह से, जिसमें उसे रत्ती भर आनंद न आता, बस पेट भरने के लिए वह खा लेता। कई बार तो ऐसा भी होता कि पिता की अनुपस्थिति में भी वह माँ का मन रखने के लिए हल्का भोजन घर में कर लेता और बाहर जाकर पेट भर कुछ तली हुई चीजें खा लेता और मन तृप्त करता, यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा। बेटा बड़ा हो रहा था, उम्र और घर से उसकी दूरियाँ समानांतर रेखा में चल रही थी, माताजी भी जड़वत बनी रहीं, सब कुछ देखते हुए भी कभी प्रतिकार नहीं कर पाई। निरंतर बच्चों की गलती छिपाते छिपाते अब उनमें भी कभी इतनी ईमानदारी पैदा नहीं हो पाई कि एक बार पूरी ताकत से इन सारी चीजों का विरोध कर जाए। इसीलिए कभी न तो वह अपने पति का विरोध कर पाईं, न ही अपने बेटे का पक्ष लेकर उसका समर्थन कर पाई। शायद नियति को भी यही मंजूर था। समय देख रहा था।


पानी बहुत अधिक बह चुका था। एक तरफ पिता के द्वारा दी जा रही मानसिक प्रताड़ना और दूसरी तरफ माँ से मिल रही मौन सहमति। इस वजह से वह अब बहुत आगे निकल चुका था, जहाँ से अब उसे वापस लाना असंभव की हद तक कठिन हो चुका था। अब उसने अपनी जरूरतों के लिए पैसे इकट्ठे करने के उन सारे तरीकों को आजमाना शुरू कर दिया जहाँ तक वो कर सकता था। वह इस भुलभुलैया में तो प्रवेश कर ही चुका था जहाँ आए रोज उसके सामने ऐसी नई नई जरूरतें पैदा होने लगी थी, जो कभी उसकी प्राथमिकता में भी नहीं थी, लेकिन इन जरूरतों को पूरा करने के लिए अब वह किसी तक जाने को तैयार था। इस पूरी प्रक्रिया में उसे कुछ साथी दोस्त भी मिलते चले गये जो उसका बेड़ा गर्क के लिए पर्याप्त मात्रा में उत्प्रेरक का काम करते रहे। बचपन में घर से अपनी छोटी छोटी जरूरतों के लिए दहाई की संख्या के नोट चुराने वाला वह बालक अब चौथाई संख्या की चोरी तक अपने हाथ लंबे कर चुका था और वह यह सब कुछ बड़े शातिराना तरीके से कर जाता। घरवालों को थोड़ी भी भनक न लगती।


पढ़ाई लिखाई के मामले में वह अपनी बहन से थोड़ा तेज रहा, यानि हर बार वह ठीक-ठाक नंबरों से पास हो जाता। कुछ इस तरह उसने इंटरमीडियट तक की पढ़ाई पूरी कर ली। अब इसके बाद उसे काॅलेज भेजने की तैयारी चल ही रही थी कि एक अनहोनी हो गई। लड़के को एक गंभीर बीमारी हो गई। इतनी गंभीर बीमारी रही कि महीनों तक अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, कई लाख रूपए खर्च करने पड़ गए। ध्यान रहे कि उम्र के इस पड़ाव तक लड़का नशे आदि से कोसों दूर था। उस गंभीर बीमारी की वजह से प्रोफेसर साहब की जितनी भी जमा पूंजी रही, लगभग सब कुछ बेटे के स्वास्थ्य पर खर्च हो गया। फिर भी कंजूस पिता ने इतना तो जमा करके रखा ही था कि आगे का जीवन बिना किसी बाधा के प्रवाह में चलता रहे, सो जीवन चलता रहा।


बेटा साल भर में ठीक होकर घर आ गया, लेकिन अभी भी उसकी महंगी दवाईयाँ चल ही रही थी। अब चूंकि प्रोफेसर साहब थे सरकारी मुलाजिम, तो उन्होंने बेटे के ठीक होने के पश्चात् अपना सारा ध्यान कागजी कार्यवाही में लगा दिया। वर्तमान में चल रहे दवाइयों के खर्च से लेकर पुराने इलाज का बिल, सारा हिसाब तैयार कर लिया और उन पैसों के लिए क्लेम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उनके सारे पैसे वापस आ गये। लेकिन बेटा अभी भी पूरे तरीके से घर नहीं लौट पाया था। 


अस्पताल और दवाईयों के इलाज से शरीर के आंतरिक हिस्सों की समस्याओं से तो छुटकारा पाया जा सकता है लेकिन मन का क्या करे इंसान। मन तो अभी भी वैसे ही घुटन महसूस कर रहा था जैसा पहले करता था। हाँ अब चूंकि लड़का बीमार था, दवाईयाँ चल ही रही थी, इसलिए भी एक सहानुभूति का पक्ष कुछ वर्षों तक बना रहा। इस बीच लड़के ने घर पर रहते हुए स्नातक स्तर की पढ़ाई ओपन यूनिवर्सिटी से पूरी कर ली। अब वह धीरे-धीरे ठीक होने लगा था, लेकिन कुछ चीजें मस्तिष्क के किसी कोने में अभी भी जस की तस जमी हुई थी, और वह थी घर से उसकी दूरी। और इस दूरी को रेखांकित करने में उसके‌ पिता ने महती भूमिका निभाई। अब चूंकि बेटा ग्रेजुएट हो चुका था, इसके बाद भी उसका घर पर रहना पिता को खटकने लगा। प्रोफेसर साहब तो अब अपने बेटे के साथ ऐसा व्यवहार करने लगे मानो सरकार से मेडिकल क्लेम का पैसा मिल जाने के बाद वह भूल ही गये हों कि कैसे मौत के मुंह से अपने बेटे को बचाकर लाए थे।  वह अब अपने बेटे को आए दिन नौकरी आदि के लिए ताने सुनाने लगे। बेटे की घुटन बढ़ने लगी, वह फिर घर से दूरी बनाने लगा, अब चूंकि स्वास्थ्य भी बेहतर होने लगा था तो फिर वही बाहर दोस्तों के साथ घूमना, उनके साथ खानपान। लेकिन उसकी तकदीर में ये खुशियाँ कहाँ लंबे समय तक टिकने वाली थी‌। एक और तूफान उसके जीवन में प्रवेश करने के लिए धीमे से तैयार हो रहा था। 


एक दिन अचानक क्या हुआ कि उस लड़के की तबियत फिर से बिगड़ने लगी। इस बार इतनी तबियत खराब हुई, ऐसी स्थिति होती चली गई कि माँ बाप और परिजनों ने भी आस छोड़ दिया। फिर भी लड़का अपनी इच्छाशक्ति से सब कुछ झेल गया और जिंदगी की रेस जीत गया।


जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी में सरपट दौड़ने लगी। वह दुबारा मरते मरते बचा था, इसलिए घरवाले उसके स्वास्थ्य के प्रति पहले से और अधिक सजग हो गये थे। वह भी यथासंभव घरवालों की आज्ञा का पालन करता रहा। और एक दिन वह पिता की अनुमति लेकर आगे की पढ़ाई करने शहर चला गया। महीने के खर्च के नाम‌ पर भी पिता उतने ही पैसे हिसाब करके उसे देते, जितने में उसका काम हो जाए, उसके अतिरिक्त एक रूपया भी नहीं। भले ही बेटे ने इतनी पीड़ाएं झेली, अपनी जवानी का एक बड़ा हिस्सा अस्पताल में बिता दिया, घरवालों का इतना मानसिक शोषण झेलने के बावजूद वह इस उम्मीद में जी गया कि अब सब बेहतर हो जाएगा। फिर भी अपने उस पाषाण ह्रदयी पिता के अहं के सामने उसका प्रेम, उसका समर्पण गौण ही रहा।


लड़का आगे की पढ़ाई पूरी कर घर लौट आया, और अब घर से ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा। अब जैसे जैसे वह बड़ा हो रहा था, शोषण और दबाव की मात्रा भी तो उसी अनुपात में बढ़नी थी और हुआ भी यही। इतना कुछ होने के बावजूद, इतनी संपत्ति, सुख सुविधाएँ होने के बावजूद वह निर्दयी बाप अधीर होकर फिर से आए दिन अपने बेटे के समक्ष नौकरी की उम्मीद का राग अलापने लगा और उसे प्रताड़ित करने लगा। लड़का मन मसोस कर रह जाता, उसे यही लगता कि वही गलत है, उसके‌ पिता एकदम सही हैं, उसे समझ ही न आता कि उससे चूक कहाँ हुई, उसने क्या पाप कर दिया।  जीवन के इस मोड़ पर आकर उसने पहली बार शराब को मुँह लगाया, आनंद के वास्ते नहीं, बल्कि मन का बोझ हल्का करने के लिए उसने ऐसा किया। कुछ इस तरह चंद मिनटों, चंद घंटों के लिए ही सही वह सब कुछ भुलाकर अपने वर्तमान में जीने का सुख पा लेता था।


एक दिन एक बड़ी अप्रत्याशित घटना घट गई जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। वह लड़का घर से भाग गया। कई दिनों तक नहीं लौटा, इस बीच घरवाले चिंता में पड़ गए, सब जगह पूछताछ की, कुछ परिचितों को खोजने के लिए लगा दिया, पुलिस में इसलिए नहीं कहा ताकि समाज में उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आए और शायद इसलिए भी पुलिस तक बात नहीं पहुंचाई होगी क्योंकि माता-पिता को अपनी दी गई प्रताड़ना पर पूरा विश्वास होगा कि बेटा उन्हीं की वजह से ही तो घर छोड़कर गया है। 


इस बीच वह समाज की नजरों में और खराब होता गया। उसके शराब पीने की खबरें भी चलने लगी। भगोड़ा, निकृष्ट, शराबी और न जाने क्या क्या। अपमान और अपवंचना के नाम पर उसके चरित्र के साथ काफी कुछ चीजें जुड़ चुकी थी। फिर भी उस लड़के के भीतर कहीं अपने माता-पिता के प्रति प्रेम और सम्मान का तत्व कुछ रह गया था, इसलिए कुछ दिनों के बाद वह घर लौट आया। अपने व्याकुल परिजनों को देखकर रो पड़ा और वादा किया कि वह भविष्य में कभी ऐसा कदम नहीं उठाएगा। 


इस बीच लड़का आए दिन अपने मित्रों के पास जा जाकर रोता था, उसे पता नहीं होता कि वह आखिर क्यों रो रहा है, क्यों परेशान है वो, वो बस रोता था, वह परिवार और समाज की नजरों में इतना बेकार हो चुका था कि उसे भी अब लगने लगा था वह दुनिया का सबसे खराब बेटा है, उसे अपनी पीड़ा की ठीक-ठीक समझ ही नहीं बन पा रही थी, इसलिए वह किसी से ढंग से कह भी नहीं पाता था, इसलिए कोई उसे उतना समझ भी नहीं पाता था, वह पूरी तरीके से अकेला पड़ चुका था, अब उसके मनोभाव सिर्फ दो तरह से ही पकड़ में आते थे, एक उसके चेहरे के भाव और दूसरा उसके आँसू। इस बीच शराब की डोस बराबर उसके दुर्बल हो चुके शरीर में जाती रही। और फिर एक दिन अचानक उसे तेज बुखार हुआ और बिस्तर में लेटे लेटे ही उसने अपना शरीर त्याग दिया।


समाज की नजर में तो यह बुखार से हुई मृत्यु ही कही जाएगी, क्योंकि जिस समाज में माता-पिता को महान मानते हुए उनके पाँव धोकर उन्हें भगवान की तरह पूजने की परंपरा चली आ रही हो वहाँ उनकी सारी गलतियाँ छिप जाती हैं। वह अपने बच्चों को कितनी भी कैसी भी प्रताड़ना दें, वह हिंसा की श्रेणी में नहीं आता है, अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। लोगों की नजर में हत्या का होना तभी माना जाता है, जब कोई व्यक्ति किसी की जीवनलीला समाप्त कर दे। ऐसी घटनाओं के पश्चात हम संवेदनशील समाज के लोग फाँसी की माँग भी कर लेते हैं, लेकिन इन जैसे लोगों का क्या जो आजीवन अपने बच्चों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हुए उनका जीवन नर्क बना देते हैं, पहले बचपन की हत्या, फिर युवावस्था की हत्या, इस पूरी प्रक्रिया में कोमल भावनाओं की हत्या, खिलखिलाते ख्वाहिशों की हत्या, सुंदर सपनों की हत्या, न जाने ऐसा कितना कुछ। लेकिन ऐसी हत्याओं को समाज कभी हत्या के रूप में देख ही नहीं पाता है, न ही ऐसे पढ़े-लिखे प्रबुध्दजनों के भीतर छुपे हिंसक प्रवृति के मनुष्य को फिल्टर कर अलग कर पाता है।


प्रोफेसर साहब समाज की नजर में भले मानुष थे, और उम्मीद भी यही है कि वे ऐसे ही आजीवन भले‌ मानुष बने रहेंगे, उन्होंने कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया, इस मामले में वे पक्के रहे। लेकिन यह कहना गलत न होगा कि उनकी वजह से आज उनका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। बेटे की मृत्यु के कुछ महीने बाद प्रोफेसर साहब वापस अपने राक्षसी स्वरूप में लौट आए। उन्होंने बेटे की मृत्यु के लिए आए दिन अपनी पत्नी को कोसना शुरू कर दिया, कभी-कभी तो अपनी पत्नी को यह तक कह देते कि तूने ही मेरे प्यारे बेटे को मुझसे छीन लिया, तू उसकी देखभाल नहीं कर पाई। मानवीय स्वभाव की भी यह विशेषता रही है कि मन के अंदर भरी हुई चीजें बाहर निकलने के अपने रास्ते खोज ही लेती है। अब चूंकि बेटी का विवाह भी कर लिया था, इसलिए घर में सिर्फ दो लोग रह गए थे, प्रोफेसर साहब की हिंसा झेलने के लिए अब बस घर में उनकी पत्नी रह गई थी। एक दिन उन्होंने तैस में आकर अपनी पत्नी को संपत्ति और अपने जीवन से बेदखल करने की बात कह दी, साथ ही दूसरा विवाह करने की धमकी भी दे दी। हालांकि उन्होंने अपने विवाह करने की धमकी वाली बात पर अमल नहीं किया लेकिन अपनी हिंसा, कुंठा, अहं या जो भी कह लें, इसको अपने जीवन का मूल तत्व मानते हुए आज भी वे उसी ठसक के साथ जीवन यापन कर रहे हैं।

2 comments:

  1. JANE-ANJANE HI SAHI MAGAR BAHUT SARI CHIZE HAMARE MAA-BAAP DWARA HUM PAR BEMATLAB THOP DIYE JAATE HAI, YA HUMSE UN CHIZO KE LIYE EXPECT KIYA JATA HAI JIN CHIZO KE LIYE HUM TAIYAR NAHI HOTE, AUR AISI KUNTHIT PARWARISH KI JATI HAI JISE HUM CHAH KE BHI BHUL NHI PAATE, GHAR SE PYAR DULAAR NA MILNE PAR HAM O PYAR DULAAR BAHAR KI CHIZO ME KHOJNE LAG JATE HAI, AUR HUM USS CHHAKKAR ME GALAT CHIZO KO APNANE LAG JATE HAI, AUR KAB ZINDAGI NARK ME CHALI JATI HAI PATA NAHI CHALATA

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    1. बिल्कुल सही कहा भाई।

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