Saturday, 31 December 2022

स्वास्थ्य और नया साल -

हमारे चलने-फिरने या अन्य हर तरह की दैनिक गतिविधि में मशीन हावी हो चुका है। मशीनों की सहायता लेना ठीक है लेकिन हर चीज की अपनी एक सीमा होती है। नये साल में खूब सारे स्वास्थ्य संबंधी अपडेट आपको असहज कर सकते हैं, खूब सारे स्क्रीनशाट तैरते हुए मिलेंगे कि आज फलां ने इतना किलोमीटर पैदल चला, इसने इतनी किलोमीटर की दौड़ लगाई, इतना किलो वजन कम/अधिक करने का लक्ष्य रखा है आदि। खूब सारे कसमें वादे करते हुए लोग दिखेंगे, कुछ लोग अपना कहा पूरा भी करेंगे लेकिन जो अपने शरीर को लेकर सहज है सजग है उसे हमेशा भ्रम से बचना चाहिए। शरीर को मशीन बनने से बचना चाहिए, गलत धारणाएं पालने से बचना चाहिए। क्योंकि अपने शरीर का सबसे बड़ा चिकित्सक इंसान स्वयं होता है। 

आजकल कलाई बंद घड़ी आ गई है, जो आपकी एक एक चीज माॅनीटर करती है, आपके पैदल चलने के स्टेप से लेकर हार्ट रेट तक का लेखा जोखा आपको देती है। बहुत लोग ऐसी मशीनों के साथ सहज रहते हैं, बहुत सुविधा भी है, लेकिन मुझे बड़ी असहजता महसूस होती है, ऐसा लगता है मानो हर दिन कोई परीक्षा हो रही है, कोई माॅनीटर कर रहा है। अरे भाई इंसान डेटा नहीं है, इंसान संख्या नहीं है। अब इसमें समस्या यह आती है कि घड़ी लगाकर घूमने वाले का एक एक कदम उसके लेखा जोखा में शामिल होता है। उसके निवृति कक्ष जाने से लेकर सीढ़ी चढ़ने तक, हर एक गतिविधि जुड़ती है, ऊपर से एक मानसिक दबाव भी रहता है, जिससे वह दिन भर में 5 से 10 किलोमीटर चल ही लेता है। इस तरह से अगर एक सामान्य व्यक्ति का भी औसत देखें तो एक घर में रहने वाला भी दो चार कमरे और घर से बाहर आंगन में निकलने में ही 2-4 किलोमीटर पैदल चलता ही है। गाँव में रहने वाला व्यक्ति तो और अधिक पैदल चलता है। लेकिन जो घड़ी नहीं पहनता है, वह इन बड़े आंकड़ों को देखकर घबरा जाता है कि वह तो स्वास्थ्य के नाम पर कुछ भी नहीं कर रहा है।

दूसरा भ्रम पैदा होता है ट्रेडमिल से। आजकल बहुत से सुविधाभोगी आधुनिक परिवारों में ट्रेडमिल की सुविधा है। ट्रेडमिल में इंसान आराम से पैदल चलता है, कान में इयरफोन लगाए वह एक जगह रहकर खूब पैदल चल लेता है, दौड़ लेता है। आपको बाहर की हवा नहीं लगती है, जिससे आप जल्दी नहीं थकते हैं। कुल मिलाकर बहुत सुविधा वाली चीज है। इसमें भी वह आंकड़े में बहुत आगे निकल जाता है। इसे ऐसा समझा जाए कि कोई अगर मशीन में चलकर 10 किलोमीटर का आंकड़ा दे रहा है, और आप खुले वातावरण में 5 किलोमीटर भी चलते हैं, तो यह मानकर चलें कि आप मशीन वालों से एक कदम आगे है। बड़े बड़े आंकड़ों वाले स्क्रीनशाॅट अपलोड करने वाले अधिकतर मशीन वाले लोग हैं, इनसे बचिए। मशीन बनने से परहेज करिए। 

नये साल की शुभकामनाएँ।

Sunday, 25 December 2022

जिलाधीश को मिलने वाली सुविधाएँ बनाम भारतीय समाज का सामंती चरित्र -

जिलाधीश को मिलने वाली सुविधाएँ बनाम भारतीय समाज का सामंती चरित्र -

जिलाधीश के कार्य - 
भारत के जितने भी जिलाधीश हैं, चाहे वह छोटा या बड़ा जैसा भी जिला हो, जिनको भी एक जिले का दायित्व मिलता है, उन्हें लगभग 30 से 40 विभाग की माॅनिटरिंग करनी ही होती है, उसमें पुलिस विभाग, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजस्व, खाद्य, वन विभाग, पंचायत, कृषि, जल संसाधन, नगरीय प्रशासन, नगर पालिका , लोक निर्माण विभाग, आबकारी, महिला बाल विकास आदि होते हैं। इसके अलावा एक पूरे जिले के मुखिया के रूप में कानून व्यवस्था बनाए रखने एवं अन्य दायित्व भी होते हैं। 

जिलाधीश की सुविधाएं - 
प्रत्येक जिलाधीश को एक गाड़ी मिलती है, इनोवा तक। कहीं कहीं यह भी नहीं मिलता है। मुझे लगा कि इनोवा इसलिए मिलता है क्योंकि ऐसे ऐसे सुदूर गाँवों तक भी जाना होता है, जहाँ रास्ते जर्जर होते हैं, खड्डों से भरे होते हैं और इनोवा की लक्जरी सस्पेंशन की वजह से गड्ढे ना के बराबर महसूस होते हैं। कलेक्टर के पास एक से दो ड्राइवर होते हैं, जो रोटेशन में गाड़ी चलाते हैं क्योंकि सप्ताह भर खूब भागा दौड़ी वाला काम लगा रहता है। एक सुरक्षाकर्मी भी मिलता है ताकि कोई भी जिले के जिलाधीश की जब चाहे घेरेबंदी न कर ले, क्योंकि एक जिले का पूरा दायित्व जिलाधीश के कंधों पर होता है। उसके एक दस्तखत से चीजें इधर उधर हो सकती हैं। इसके अलावा जिलाधीश के अपने दैनिक दिनचर्चा की चीजों को आसान करने के लिए भी लोग होते हैं इसमें आप खानसामा से लेकर फाइल लाने ले जाने वाले चपरासी स्टेनो ये सब को जोड़ते चलिए।  

भारतीय समाज का सामंती चरित्र - 
आज के समय में एक सरपंच ग्राम सचिव से लेकर एक छोटा व्यापारी या एक छोटे से कालेज का नवनर्मित युवा नेता भी एक ठीक ठाक कार मैंटेन करता है। कुछ लोग ड्राइवर भी रखते हैं। लोवर मिडिल क्लास में भी बहुत से घरों में काम करने के लिए कर्मचारी रखते हैं, खानसामा रखते हैं। यह सब बताने का अर्थ यह है कि जैसे ही भारत के समाज में लोगों के पास थोड़ी आर्थिक संपन्नता आती है, वह तुरंत सामंतवाद को जीने लग जाता है, वह उन राजसी सुविधाओं को जीने लगता है जो एक जिलाधीश को दिया जाता है, कई बार यह भी देखने में आता है कि एक जिलाधीश से कहीं अधिक मात्रा में राजसी सुविधाओं का भोग करते हैं। ऐसा नहीं है कि जिलाधीश के पद ने ही अलग से इन सुविधाओं का भोग करने की शुरूआत की।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -
इतिहास की बात करें तो हजारों वर्षों से हमारे यहाँ यही व्यवस्था चल रही थी, अंग्रेज आए उन्होंने भी इन चीजों को देखा। उन्होंने इस माॅडल में जितना परिवर्तन करना था किया। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं की स्थिति इन बड़े मामलों में आमूलचूल परिवर्तन किए ताकि जीने लायक स्थिति तो करके जाएं, क्योंकि इंसान जीवित रहेगा तो ठोक पीट के अपने लिए रास्ता निकाल‌ ही लेगा। लेकिन इसके बावजूद जो मूल ढांचा था वह इतना जड़ था, सामंतवाद की जड़ें इतनी गहरी थी, तो अंग्रेजो ने भी उसी माॅडल के अनुरूप अपना प्रशासनिक ढांचा बनाया और आराम से दो सौ साल रह के गये। आज भी वही ढांचा कायम है। अब आप इसमें जिसको दोष देना चाहें दे सकते हैं, वैसे जहाँ तक दोष देने की बात है तो सबसे पहले हमें खुद को, पहले से चली आ रही पुरातन व्यवस्था को दोष देना चाहिए जिसकी खराबियों के प्रति हमारा मोह खत्म हो ही नहीं पाता है, मानों गूणसूत्र में समा चुका है।

मेरी धारणा - 
बहुत लंबे समय तक मैं इस धारणा पर टिका रहा कि एक जिले के जिलाधीश तमाम तरह की राजसी सुविधाओं से लैस रहता है, अनाप शनाप शक्तियाँ होती है, सामंतवाद की घुट्टी पीता रहता है, समाज के खोखलेपन में योगदान देता है, खोखले आदर्शों को जीकर महानता का स्वांग रचता है, सफेद घोड़ा होता है आदि आदि। लेकिन आज मेरी धारणा अलग है। हमें खुद से सवाल करने की जरूरत है कि क्या इस देश में सिर्फ एक जिलाधीश का पद ही सामंती होता है, क्या एक जिलाधीश के पद के अलावा देश में मौजूद सारे पद, सारे लोग, उनकी मानसिकता ऐसी नहीं होती है।

ध्यान से देखें तो समझ आता है कि जो रौब एक जिलाधीश लेकर चलता है, उसी तरह से एक नवनियुक्त कालेज के युवा नेता या व्यापारी भी अपने भीतर एक आदमी रखता है, चाहे वह प्यून हो या कोई और, उसे किसी को फोन करना है, तो प्यून को फोन करके बोलेगा, फिर ड्राइवर या प्यून कहता है कि फलाना भैया बात करेगे। अब इस पूरे प्रोसेस को समझिए। ठीक यही प्रोसेस कलेक्टर भी जीता है, जैसे उसके सामने प्यून या स्टेनो रहता है तो कहता है कि फलां को फोन लगाइए और बात करवाइए, इसमें कई बार यह संभावना रहती है कि एक जिलाधीश के पास हर विभाग के नये अधिकारी का नंबर नहीं है या नंबर खोज के लगाने में समय जाया होगा, अब प्यून या स्टेनो सेवा के लिए है ही इसलिए तुरंत स्टेनो को कह देता है। ठीक उसी तरह एक छुटभैया नेता या व्यापारी भी इसी सामंतवादी भाव को जीने का सुख लेता है। इसी तर्ज में भारत का हर व्यक्ति अपने अपने स्तर पर प्रयासरत रहता है। व्यवस्था की यही ताकत है, वह जड़ है, अपने गुणधर्मों से सबको अपने भीतर समाहित कर लेती है और किसी को इस बात का पता तक नहीं चलता है।

जिलाधीश को अगर प्राप्त सुविधाएं न मिले उस स्थिति में क्या होगा -
एक जिलाधीश जो तीन चार दर्जन विभाग की माॅनिटरिंग करता है, पूरे जिले के मुखिया का दायित्व संभालता है, दुनिया के किसी जिलाधीश के ऊपर काम का इतना दबाव नहीं रहता है, भारत का जिलाधीश एक अलग ही प्राणी होता है। कहने का अर्थ यह है कि उसका एक-एक मिनट कीमती होता है, थोड़ी भी फुर्सत नहीं रहती है, ऐसी स्थिति में अगर वह समाज में चले आ रहे सामंतवाद को किनारे कर सुबह से उठकर अपने सारे कपड़े धोएगा, खुद सब्जी खरीदने जाएगा, फिर अपने लिए नाश्ता खाना बनाएगा, बच्चों के लिए टिफिन पैक कर खुद गाड़ी भी चलाएगा, अपने आफिस का सारा काम-काज भी अकेले देखेगा, किसी भी विभाग से कोई फाइल चाहिए होगी, खुद जाएगा। सोच कर देखिए अगर एक जिलाधीश यही सब में रोजमर्रा का जीवन जी रहे एक व्यक्ति की तरह उलझा रहेगा तो फिर उसके ऊपर जो बाकी विभागों और जिले को संभालने के लिए ऊर्जा चाहिए वह कहाँ से आएगी। ये मेरा बहुत छिछला सा आब्जर्वेशन है जिसका आप खंडन करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि मैं खुद इस बात को या इस पोस्ट में लिखी जा रही बात को पूरे अधिकार से अंतिम मानकर नहीं चल रहा हूं।

आजादी का समय -
पहले मैं इस धारणा को भी मानता रहा कि आजाद देश के लिए व्यवस्था का निर्माण करने वाले नेहरू गाँधी को भी यह सब अव्यवस्था क्यों नहीं दिखी। या कानून बनाने वाले कानून मंत्री को क्यों नहीं दिखाई दिया। असल में उनको दिखा था। और उन्हें यह अच्छे से पता था कि भारत के आम लोग की पहली पसंद ही सामंतवाद है, उन्हें पता था कि प्रेम, विनम्रता, अहिंसा, लोकतांत्रिक भाव इन मूल्यों के लिए समाज में जगह बहुत कम है, इसीलिए वे आजीवन इन्हीं जीवन मूल्यों को आत्मसात कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे। उन्हें पता था कि भारत के आम‌ लोगों को यह अच्छा लगता है कि कोई उनको दबा कर नीचा दिखा कर रखे, या उनके इशारे पर गाड़ी का दरवाजा खोल दे या ऐसा कुछ काम कर दे। उनके ऐसे किसी आदेश की पालना कर दे जिसमें राजसी भाव हो, इस तरह से उन्हें किसी को अपने नीचे रखकर काम कराकर राजसी भोग वाले भाव को जीने में या ऐसा होता देखकर अपार खुशी मिलती है, क्योंकि सदियों से समाज में यही चला आ रहा होता है। इसलिए उस समय के जनवादियों ने आम लोगों के बीच ही जितना बन पड़ा जागरूकता का प्रचार-प्रसार किया, क्योंकि गाँधी जैसे लोग यह जानते थे कि आम लोग ही व्यवस्था का निर्माण करते हैं, जैसे लोग होते हैं, जैसी उनकी मानसिकता होती है, व्यवस्था उसी अनुरूप ही तैयार होती है। 

पूरी दुनिया दूसरी दिशा में आगे बढ़ रही थी, पुनर्जागरण के दौर के बाद नये-नये आविष्कार हो रहे थे, स्वतंत्रता समानता बंधुत्व जैसे जीवन मूल्यों को परिभाषित कर मानवीय मूल्यों की नयी गाथा रची जा रही थी, लेकिन हम उसी पुरानी व्यवस्था को नये कलेवर में स्वीकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। और ऐसा हो भी क्यों न, जब कपड़ा धोने के लिए हमारे पास जाति है तो हमें वाशिंग मशीन का आविष्कार करने की क्या जरूरत। लोहे की कटिंग करने के लिए लेथ मशीन का आविष्कार हम नहीं कर पाए, क्योंकि हमारे पास उसके लिए भी एक जाति मौजूद थी। लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के नाम पर हमारे पास आस्था का जखीरा था। खैर...

दादाजी कहा करते - राजशाही व्यवस्था कहाँ खत्म हुई है, बस नाम बदला है, अब राष्ट्र स्तर के राजा को पीएम, राज्य स्तर के राजा को सीएम और जिले स्तर के राजा को डीएम कहा जाता है। बाकी मानसिकता के स्तर पर सब कुछ वैसा ही है, लोकतंत्र कागज से नहीं इंसान के अपने भीतर से पैदा होता है, कैसी भी व्यवस्था हो, एक अकेला इंसान भी चाहे तो वह उस व्यवस्था में रहते हुए अपने भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों को जी सकता है।

अंत में यही कि एक जिले के जिलाधीश को वैसी ही सुविधाएं मिलती है, जैसा समाज में लंबे समय से प्रचलन में चला आ रहा होता है। इसलिए भी समाज कभी भी उस व्यवस्था के खिलाफ जाकर उसका विरोध नहीं करता है, बल्कि उसके प्रति लगाव और मोह रखता है, क्योंकि खुद भी उन्हीं जीवन मूल्यों को जीता रहता है। 

इति...

स्त्रियों की वर्तमान स्थिति में पोथी पुराण की भूमिका -

स्त्रियों की आज जो स्थिति है, उसका कारण पीछे का एक लंबा इतिहास रहा है। जब भी आप स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार/शोषण की खबर सुनें या जब भी आपकी बहन मित्र पत्नी माता को कोई घूरे या बुरी नजर से देखे तो इतिहास पर एक झलक जरूर डाल लीजिएगा क्योंकि कारण वहीं छुपा हुआ है। प्राचीन काल के श्रुति परंपरा से लेकर आज हमने डिजिटल युग तक की दूरी तय कर ली है। भोजपत्र से स्मार्टफोन तक हम पहुंचे हैं, लेकिन कुछ चीजें जस की तस हैं। वैसे भी एक मानसिकता के बनने में और उसे बदलने में दशकों सदियों का समय लग जाता है। अब जैसा पढ़ेगा इंडिया, वैसा बनेगा इंडिया।

इतिहास की कुछ झलकियाँ पढ़ लीजिए -

मनुस्मृति :
(अध्याय-9, श्लोक-45 ) - पति पत्नी को छोड़ सकता है, गिरवी रख सकता है, बेच सकता है.

ऐतरेय ब्राह्मण 
(3/24/27) वही नारी उत्तम है जो पुत्र को जन्म दे। 
(35/5/2/47) पत्नी एक से अधिक पति ग्रहण नहीं कर सकती, लेकिन पति चाहे कितनी भी पत्नियां रखे। 

आपस्तब 
(1/10/51/52) बोधयान धर्म सूत्र (2/4/6) शतपथ ब्राह्मण (5/2/3/14) जो नारी अपुत्र है उसे त्याग देना चाहिए। 

तैत्तिरीय संहिता 
(6/6/4/3) पत्नी आजादी की हकदार नहीं है। 

शतपथ ब्राह्मण 
(9/6) केवल सुन्दर पत्नी ही अपने पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी है। 

बृहदारण्यक उपनिषद् 
(6/4/7) यदि पत्नी सम्भोग के लिए तैयार न हो तो उसे खुश करने का प्रयास करो। यदि फिर भी न माने तो उसे पीट-पीट कर वश में करो।

मैत्रायणी संहिता 
(3/8/3) नारी अशुभ है। यज्ञ के समय नारी, कुत्ते व शूद्र को नहीं देखना चाहिए। अर्थात् नारी और शूद्र कुत्ते के समान हैं। 
(1/10/11) नारी तो एक पात्र (बरतन) समान है। 

महाभारत 
(12/40/1) नारी से बढ़कर अशुभ कुछ नहीं है। इनके प्रति मन में कोई ममता नहीं होनी चाहिए। 
(6/33/32) पिछले जन्मों के पाप से नारी का जन्म होता है । 

मनुस्मृति 
(5/157) विधवा का विवाह करना घोर पाप है। 

विष्णुस्मृति
स्त्री को सती होने के लिए उकसाया गया है।

शंख स्मृति
दहेज देने के लिए प्रेरित किया गया है। 

स्कन्द पुराण
नारी के विधवा होने पर उसके बाल काट दो, सफेद कपड़े पहना दो और उसको खाना केवल इतना दो कि वह जीवित रह सके। उसका पुनः विवाह करना पाप है। इसी कारण सती प्रथा का प्रचलन हुआ। विधवा औरत ने सोचा कि इससे अच्छा तो पति के साथ ही जलकर मरना।

Sunday, 11 December 2022

अश्वघोष बनिए

अश्वघोष का जन्म अयोध्या में माना जाता है। बौध्द महाकवि के रूप में विख्यात अश्वघोष के व्यक्तित्व के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती है, लेकिन इनका जो सबसे बड़ा योगदान रहा वो यह था कि इन्होंने गौतम बुध्द को वैश्विक पटल पर स्थापित किया‌। बुध्दचरित और बुध्द के जीवन से जुड़े अन्य ग्रंथ इन्होंने ही लिखे, अच्छे से डाक्यूमेंटेशन का काम किया। तभी जाकर आज हम बुध्द को जानते हैं। बुध्द के आज अस्तित्व में होने में अश्वघोष जैसे महाकवियों का बहुत बड़ा योगदान है। अश्वघोष न होते तो बुध्द की ख्याति होती ही नहीं। अश्वघोष ने डाक्यूमेंटेशन का काम न किया होता तो आज बुध्द की तमाम बातों से हम वंचित ही रह जाते। तेनजिंग नोरके माउंट एवरेस्ट चढ़ने वाला पहला आदमी बना, लेकिन क्या पता उससे पहले भी चढ़ाई करने वाला कोई होगा और उसने उस बात को कभी लोगों के बीच रखा ही नहीं होगा, यह सोचकर कि ये भी कोई बताने वाली चीज है। ऐसे ही होता है। धतूरे के फल में जहर होता है यह खाकर बताने वाला कौन था, हमें नहीं मालूम, क्योंकि डाक्यूमेंट नहीं किया गया। दुनिया में जिन लोगों के भीतर थोड़ी समझदारी रही है उन्होंने हमेशा अपनी चीजों का डाक्यूमेंटेशन का काम किया है, चाहे आप उसमें एक छोटे से उदाहरण के रूप में फ्रेम की हुई फैमिली फोटो को ही ले लीजिए, जिसमें नीचे सबके नाम लिखे हुए होते हैं। क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका खोजा और वास्को डि गामा ने भारत, इससे पहले भी इन भू-भागों का अस्तित्व था लेकिन इन्होंने उस खोज को ऐसा डाक्यूमेंट किया कि हमेशा के लिए दर्ज हो गये। बहुत से ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें गुमनामी से इतना लगाव होता है कि आते हैं और चुपचाप चले जाते हैं, कभी उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती है। जो भी कोई कुछ बेहतर कर रहा है, उसे अपनी चीजों का लेखा-जोखा तैयार रखना ही चाहिए। यह डिजिटलीकरण और सामान्यीकरण का युग है। अभी ऐसा हो रहा है कि आप जो काम कर रहे हैं, कोई दूसरा आपका 10% काम भी नहीं कर रहा होता है लेकिन वो व्यक्ति डाक्यूमेंटेशन के काम में इतना पारंगत होता है कि आपसे आगे निकल जाता है, आप पीछे रह जाते हैं और खुद के भीतर कमियाँ खोजने लग जाते हैं कि आखिर क्या चूक हुई, कहाँ कमी रह गई। अंततः आपको निराशा घेरने लगती है, तमाम तरह की नकारात्मकता आप पर हावी होने लगती है। दस प्रतिशत काम करने वाला अपने काम को सौ प्रतिशत बनाकर दिखा देता है, लेकिन आप शत प्रतिशत काम करने के बावजूद उस काम का दस प्रतिशत भी दिखा नहीं पाते हैं। कमी सिर्फ और सिर्फ डाक्यूमेंटेशन ना करने की है। आप काम तो करते ही हैं, और अगर आप अपने ही उस काम‌ को दस्तावेज के रूप में सहेज लें, तो इसमें क्या गलत है, आपको निराशा नहीं घेरेगी, आप अनावश्यक मानसिक अपवंचनाओं से बच जाएंगे और बदले में आपके पास अपने काम का एक दस्तावेज भी होगा। जिस तरह सरकारें मार्च के अंत में अपना हिसाब-किताब करती है, उसी तरह हम भी यह काम करें। हर उस व्यक्ति को जिसे थोड़ा भी यह लगता है कि वह जीवन में कुछ बेहतर कर रहा है उसे साल के अंत में पूरे साल का क्या हासिल रहा, इसे डाक्यूमेंट करना ही चाहिए, अपने भले के लिए करें। महाकवि अश्वघोष, कल्हण, टोडरमल इन लोगों ने यही काम किया था तभी हमारे पास आज एक विशद इतिहास है।

Sunday, 20 November 2022

जैसी करनी वैसी भरनी -

कई साल पुरानी बात है। पढ़ाई के दिनों में एक शाम एक किराने की दुकान पर जाना हुआ था, कुछ सामान लेने गया था, सामान ले चुका था तब आखिर में याद आया कि दूध भी लेना है, तब अमूल दूध का पैकेट 20 रूपए का हुआ करता था। दुकान वाले को मुझे 10 रूपए लौटाने थे, मैंने कहा रूकिए एक दूध का पैकेट दे दीजिए, मैं 10 रूपए आपको दे रहा हूं। इसी बीच उस दुकान में भयानक भीड़ हो गई, उसने तब तक मुझे दूध का पैकेट दे दिया था लेकिन 10 रूपए देने के लिए मुझे बहुत इंतजार करना पड़ा। तब तक मेरे मन में चोर पैदा हो चुका था, जिस स्तर का चोर पैदा हुआ था, उसकी व्याख्या करने की कोशिश कर रहा हूं, मैंने सोचा, हटा जाने दे, इसे 10 रूपए नहीं दूंगा तो कौन सा इसका नुकसान हो जाएगा, ईमान से कह रहा हूं, मेरे मन में तब रंच मात्र भी यह ख्याल नहीं आया कि आज भीड़ है, कल दे जाऊंगा या बाद में दे जाऊंगा। मैं इस ख्याल के साथ अपने कमरे वापस लौटा कि अब नहीं देना है। 

कमरे में आया, पतीले में दूध गर्म किया, एक फोन आया या कहीं शायद मेरे ध्यान गया होगा, दूध उबलने लगा था, मैं जब तक पहुंचा, लगभग 50% दूध गिर चुका था। आधे बचे दूध को देखकर‌ मैं मुस्कुरा रहा था। वह मेरे लिए जीवन की बहुत बड़ी सीख थी, मैंने फिर दुबारा अपने अंदर कभी चोर पैदा नहीं किया, जब-जब पैदा हुआ तुरंत उसको लाइन में लाने की कोशिश की, क्योंकि समझ आ गया था कि सारा लेखा-जोखा यहीं होना है। अस्तित्व की उस अदृश्य शक्ति को शुक्रिया अदा किया कि तुरंत ही मेरी फाइल क्लियर हुई। कभी-कभी सोचता हूं कि क्यों 135 दिन की लंबी यात्रा में मेरे साथ एक अनहोनी नहीं हुई, न गाड़ी पंक्चर हुआ न कुछ। कुछ भी नहीं हुआ। बहुत खूबसूरत चीजें घटित हुई, यकीन नहीं होता है, एकदम पीछे मुड़ के देखता हूं तो जादू सा लगता है। 

वहीं मैं अपने आसपास देखता हूं, लोग अनहोनियों से घिरे रहते हैं, उनको दिखता नहीं है, वे समझ नहीं पाते हैं, उनका लेखा-जोखा अस्तित्व समय-समय पर करते रहती है, लेकिन उनको होश नहीं रहता है। एक करीबी हैं, अच्छे पद पर हैं, खूब बाहरी कमाई करते हैं, पूरा चौबीसों घंटे वही दो नंबरी काम वाले मोड में ही रहते हैं, जीवन में पारिवारिक सुख या किसी प्रकार का जीवन का सुख क्या होता है, मुझे नहीं लगता उन्होंने देखा भी होगा, अस्तित्व ने उनसे एक जवान बेटा दुर्घटना में छीन लिया, और एक बेटी दी, वह भी मानसिक रूप से विक्षिप्त। इतना कुछ देखने के बावजूद जीने के तरीके में कोई अंतर नहीं, उसी ढर्रे में आज भी और अधिक हिंसा से जीते हैं। एक और परिचित रहे, अपने आर्थिक लाभ के लिए खूब लोगों का अहित किया, एक बीमारी ने ऐसा जकड़ा कि सब बैलेंस हो गया‌। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। खैर, ऐसे अनेक उदाहरणों की लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है।

मैं पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ, स्वर्ग-नर्क, भ्रष्ट-ईमानदार जैसी किसी भी अवधारणा का हिमायती नहीं हूं। मैंने बस यह देखा है कि जिस किसी ने भी अपने व्यवहार में चोर को पैदा किया है, जिस किसी ने तीन-तिकड़म किया है, उसका तो मैंने बढ़िया से हिसाब होते देखा है। सब एकदम उस बीस रूपए के दूध पैकेट की तरह बराबर से हिसाब हो जाता है।

अंत में यही कि जीवन अनमोल है, एक ही बार मिलता है, अच्छे से जीकर अपने हिस्से का ठीक तरीके से काम कर चले जाने में ही भलाई है। बाकी तो क्या ही है, अस्तित्व घात लगाए बैठा रहता है, आप कितना भी तीन-पाँच कर लें, साम्यावस्था में आ ही जाएंगे। 

Monday, 7 November 2022

Twitter Controversy - Part 3


तस्वीर में दिख रही प्रोफाइल जिसकी है, यह बहुत ऊँचे दर्जे का Satirist है, हिन्दी अंग्रेजी दोनों भाषाओं में गजब की पकड़ रखता है, ह्यूमर भी ऐसा कि भारत में इस लेवल के चुनिंदा लोग ही हैं। ट्विटर में इसके साढ़े सात लाख से अधिक फाॅलोवर हैं, और करोड़ों तक की रीच है, फिर भी इसके पास ब्लूटिक नहीं है, पता है क्यों? क्योंकि इसके पास पहचान वाला, रसूख वाला प्रिविलेज नहीं है। वहीं जिसके पास ब्लूटिक है, वह अपने आप में ब्रांड होता है, तमाम तरह की प्रिविलेज उसे मिल जाती है। कई ऐसे हजार दो हजार फाॅलोवर वाले अयोग्य, कुपढ़, मड़गिल्ले, भाषाई दरिद्रता से लबरेज लोग आपको मिल जाएंगे, जिन्हें ब्लूटिक मिला हुआ है, क्योंकि वे प्रिविलेज क्लास से आते हैं। एलाॅन मस्क ने इसी सामंती व्यवस्था को ध्वस्त किया है और सबको एक पटल पर लाकर रख दिया है। दुनिया भर की सरकारें कागज में समानता के अधिकार को परिभाषित पुर्नपरिभाषित करती रहती हैं, एलाॅन मस्क ने धरातल पर झटके में काम करके दिखा दिया है कि समानता कैसे लाई जाती है, लोकतंत्र को सही मायनों में कैसे जिया जाता है।

Twitter Takeover by Elon Musk - (डिजिटल युग की अभी तक की सबसे बड़ी परिघटना)

ट्विटर वाला जो भी मामला चल रहा है, वह इतना भी मामूली नहीं है, इसे अभी तक की डिजिटल युग की सबसे बड़ी परिघटना के रूप में देखे जाने की जरूरत है, इस घटना से बहुत कुछ अब बदलेगा। वैश्विक स्तर पर सबसे बड़े और सबसे प्रभावशाली सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्म, उसका कुछ ही दिनों में लोकतांत्रिकरण हो जाना, यह अपने आपमें बहुत ही सुखद है। इतिहास में इतने कम‌ समय में इतना बड़ा बदलाव कभी नहीं हुआ, यह डिजिटल युग में ही संभव हो सकता था, और मस्क ने यह करके दिखा दिया है।

एक बार सोच कर देखिए एक कंपनी के आधे से ज्यादा वर्कफोर्स को यूं चुटकी में लात मारकर भगा देना। उसमें भी जो उच्च पदों पर बैठे लोग थे, जो भारतीय भी थे, उनको सबको झटके में हटा देना। वैश्विक स्तर पर इतना बड़ा कदम एलाॅन मस्क ही उठा सकते थे। पहले ट्विटर का एक बहुत बड़ा वर्कफोर्स लोगों को ब्लूटिक बांटने के गोरखधंधे में शामिल था, सामंती मानसिकता को पोषित कर रहा था, एक से एक फर्जी चिंटू सरीखे लोगों को ब्लूटिक के माध्यम से विशिष्ट बनाया जा रहा था,  टाॅप लेवल भी इस पू्रे काम में शामिल था, मस्क ने सारे मवादियों को एक झटके में बाहर फेंक दिया। वे बार-बार सारी कंपनियों को दो टूक कह रहे, जितना चिल्लाना है, रोना धोना है, कर लो, जितना गाली देना है दे जाओ, लेकिन ब्लू टिक चाहिए तो इतना डाॅलर देना पड़ेगा। बात खत्म।

एलाॅन मस्क के ट्विट्स पढ़े जाने चाहिए, वे बार-बार Power to the people कह रहे हैं। पहले के ट्विट्स में यह भी साफ कह दिया है कि जमींदारी और सामंती मानसिकता वालों की दुकानदारी अब नहीं चलेगी, ऐसे सभी लोगों का सफाया उन्होंने नौकरी से निकाल बाहर करके कर ही दिया है। ट्विटर की पूरी की पूरी इंडिया टीम को परसों मस्क ने नौकरी से निकाल दिया, मजाक बात नहीं है‌। एलाॅन मस्क ने‌ जो ये आपरेशन किया है, इस दर्द से उबरने में संभ्रातों को लंबा समय लगना है। यानि सोचिए ये सारे कौन लोग होंगे, कैसा काम कर रहे होंगे जो उनका ये हश्र हुआ है, एलाॅन मस्क भारत के जातिवाद और पोंगापंथ को बहुत बढ़िया से समझते हैं, तभी उन्होंने सबको एक बार में साफ कर दिया है।

More power to Elon Musk 👏



Saturday, 5 November 2022

Technology and Innovations in India -

1. Indians can’t make anything like twitter or for that matter Amazon, Google or Meta . India and Indian companies have no presence in the top technology innovations of the world.

2. That India is an IT superpower is a misnomer. India is ranked a lowly 46 among 64 countries in global IT business in terms of competitiveness. We are producing a large number of poorly paid IT professionals who are fluent in English, but this will not make India an IT powerhouse.

3. The mystery of not inventing or developing any public utility in India is not unique to the present era and so the inquiry has to transcend the matrix of a particular government or party. Indians have not invented anything worthwhile in the entire epoch of modern history.

4. If we just look at the items in our homes — bulb, fan, cooler, air conditioner, air purifier, OTG, microwave, pen, watch, phone, TV, radio, etc. We can’t attach a single invention to an Indian name. This proves that India being a no invention nation is not limited to IT.

5. Historically Indians have segregated work from knowledge. The dominant Indian belief considers manual labour a ‘lowly’ job to be done by ‘lowly people’. This also means that there is little technological brainstorming towards making manual labour easier.

6. Moreover, large swaths of the population engaged in manual labour have been historically kept out of the knowledge domain. This disconnect is detrimental to the advancement of technology, which only prospers at a workshop. 

7. James watt invented the steam engine in a workshop. Modern watch was invented by a locksmith. So was the printing press.

8. In India, however, these works have been done not by individuals but by castes, whose members have no access to knowledge. We had (and still have) a caste to wash clothes. The knowledgeable rishis in gurukuls never felt the need to make a machine to make their work easier.

9. The Indian idea of knowledge is grossly mistaken. We do not accept that the artisans, farmers, persons associated with animal husbandry or the tribes have produced any knowledge. The Indian idea of knowledge has religious connotations and puts a premium on memorising texts.

10. China has a tradition of writing texts, whereas in India, “mechanical rote learning of orally transmitted Vedas, Shrutis and Smritis” is considered the highest form of knowledge.

11. Professor Kancha Illaiah Shepherd, in his book Post-Hindu India argues that all knowledge produced in India belonged to the subaltern classes and tribes.

12. Traditionalism has killed the spirit of capitalism. The Hindu dogma of samsara (world) and karma (deed) has put shackles on the Indian mindset, making us believe that all individuals are born into a caste because of their deed in the previous life.

13. Sociologist Max Weber explains that, “So long as the Karma doctrine was unshaken, revolutionary ideas or progressiveness were inconceivable. The lowest castes, furthermore, had the most to win through ritual correctness and were least tempted to innovations.”

14. Weber goes on to argue that “it is extremely unlikely that the modern organization of industrial capitalism would ever have originated on the basis of caste system.”

15. He explains that since Hinduism holds any change in occupation as ritual degradation and bad karma, it is not capable of giving birth to industrial and technical revolutions.

16. Despite constitutional provisions of reservation, all centres of higher learning in India are mostly manned by members of the upper castes. Most professors at universities belong to this small caste group.

17. Journalist @RTIExpress of The Indian Express has reported that 95.2 per cent of professors, 92.9 per cent of associate professors and 66.27 per cent of assistant professors at India’s central universities belong to the general category.

18. Renny Thomas, while studying the upper caste domination in India’s scientific research institutions, undertook an ethnographic fieldwork at the Bengaluru-based Indian Institute of Science (IISc) and found that there is “a Brahminical identity to science in India”.

19. “They (Brahmin and upper caste scientists) have been perceived to be the natural inheritors of scientific practice.” This hegemony of the upper castes limits the catchment area for talent, and makes these places of learning incompetent and uncompetitive.

20. Unless these factors are acknowledged and efforts made to counter their prevalence, we can only dream about that day when the US or China will threaten to ban Indian apps. The Indian idea of merit and knowledge needs a catharsis.

21. Until we achieve it, we can be happy being a self-proclaimed IT guru and keep on supplying cheap coders to the world.

22. What’s a machine? Machines are things to make life easier, to make processes fast. Why will you invent if you have castes to do your works? If you have Washerman caste, why will you invent Washing Machine?

Friday, 4 November 2022

Hats off to Elon Musk for Democratization of Twitter -

पहले के समय में जो राजे रजवाड़े होते थे उसमें जो भी राजा के खास लोग होते थे या उस समय की व्यवस्था के खास लोग हुआ करते थे, जिसमें कुछ एक खास वर्ग के‌ लोगों का ही दबदबा था। उन्हें उपाधियाँ मिलती थी, ताकि मुख्यधारा की भीड़ से अलग उनका एक वर्चस्व कायम रहे, और लोग उनसे घबराएं या उनका ज्यादा सम्मान करें, पीढ़ी दर पीढ़ी बिना किसी योग्यता के घूम रहे इन लोगों को महान विशिष्ट मानते हुए चलें। देखने में आता है कि राजा भी अपने नाम‌ के साथ राजबहादुर, बाजबहादुर आदि आदि पदवी लेकर चलता था और अपने मंत्रियों, सेनापतियों और अपने विश्वस्त भाट चारणों को पदवी देकर उन्हें हमेशा के लिए भरपूर पाॅवर और प्रिविलेज से लाद देता था।

आज के डिजिटल युग में चूंकि लोकतंत्र की अवधारणा है, लेकिन फिर भी कुछ एक देशों में और हमारे देश में भी इस डिजिटलीकरण के युग में भी राजा-प्रजा वाली सामंती व्यवस्था आज भी कायम है। ट्विटर जैसे डिजिटल प्लेटफाॅर्म में ब्लू टिक लेकर घूमना एक तरह से एक पदवी एक टैग लेकर घूमना ही था, जिनके पास ब्लू टिक न हो उनकी नजर में ब्लू टिक वाला महान विशिष्ट प्रबुध्द माना ही जाता है। यहाँ भी राजे रजवाड़े वाले समय की तरह अब तक कुछ एक खास तबके के लोगों का यानि अपर कास्ट का ही दबदबा था।

आप ट्विटर में देखिएगा कई ऐसे लोग आपको मिल जाएंगे जिनके बमुश्किल हजार दो हजार फाॅलोवर होंगे, उनके ट्विट्स की कोई खास रीच नहीं होगी, ढेला भर योग्यता नहीं होगी लेकिन फिर भी उन्होंने ब्लू टिक ले रखा है। क्योंकि ब्लू टिक का अब तक का पैमाना चाटुकारिता ही था, जिसकी पहुंच जिसका रसूख, जो जितना अधिक भाटगिरी कर सकता है, उसे ब्लू टिक मिल जाता था, और वह झटके भर में विशिष्ट बन जाता था, एलन मस्क ने इस घटिया सामंती व्यवस्था को बुरे तरीके से तोड़ दिया है। इसलिए यह तबका एलन मस्क से बेहद नाराज है क्योंकि मस्क ने एक झटके में ट्विटर को सामंती से लोकतांत्रिक बना दिया है। अब कोई भी योग्य व्यक्ति 8 डाॅलर/प्रतिमाह देकर ब्लू टिक ले सकता है, तथाकथित एलीट क्लास को ये बात बहुत ज्यादा चुभ रही है, भारत के लिए तो यह बड़ा सुखद बदलाव है।

अपने आसपास आप देखिएगा जो भी आपको एलन मस्क का विरोधी मिलेगा, मुद्रा कमाने का विरोधी मिलेगा, आर्थिक सशक्तीकरण का विरोधी मिलेगा, उसे आप सीधे-सीधे इस राजे-रजवाड़े सामंती व्यवस्था का समर्थक ही मानिए।



Wednesday, 12 October 2022

विपश्यना का असर -

एक हमारे परिचित रहे। लंबे समय से गृह कलह से परेशान से रहे, जैसा कि अमूमन बहुत से घरों में होता है। बूढ़े की उम्र 65 के आसपास थी। अंतर्मुखी स्वभाव के थे। जिस उम्र में इंसान सामाजिकता खोजता है, उस उम्र में एकदम खामोश हो गये। उनकी खामोशी मानो घर वालों के लिए समस्या ही बन गई। उनकी खामोशी को पागल जैसी बीमारी समझ अलग-अलग इलाज खोजने लगे। बतौर इलाज घर के सदस्यों को किसी ने विपश्यना का आईडिया दे दिया। घरवाले खुशी खुशी दस दिन के लिए किसी एक विपश्यना सेंटर में छोड़कर आ गये। विपश्यना में वैसे भी मन साधने के लिए जबरन दस दिन बातें न करना, बहुत ही कम भोजन करना, और एकदम जेल की तरह दस दिन का कोर्स पूरा करने‌ की बाध्यता होती है। जेल कहने का कारण यह भी है, कि विपश्यना सेंटर में जाने के बाद बिना कोर्स किए बाहर आना बहुत मुश्किल होता है, जो भी लोग बीच में छोड़कर आते हैं, उनका अनुभव बहुत खराब होता है। 

बूढ़े अंकल विपश्यना पूरा कर जब घर लौटे तो कुछ दिन‌ बाद कोर्स का असर दिखने लगा। वे अंतर्मुखी से बहिर्मुखी स्वभाव के हो चुके थे, एक बार बात करना शुरू करते तो फिर रूकते नहीं थे, शुरूआत के एक दो सप्ताह बहुत अधिक बात करने‌ लगे, चिढ़चिढ़ाने भी लगे थे, फिर अचानक से एकदम गुमसुम से हो गये। कुल मिलाकर उनका व्यवहार अजीब सा हो गया था। फिर एक दिन हमेशा के लिए चुप हो गये। अगर विपश्यना में वे न जाते तो शायद...खैर।।।

Friday, 7 October 2022

गपोड़ी -

गाँव में एक पड़ोस के दादाजी थे, बचपन में जब कभी गर्मी की छुट्टियों में गाँव जाना होता तो वे हम बच्चों से अपनी पीठ पर चलने को कहते जैसा कि अमूमन गाँवों में होता है और उस 15-20 मिनट के काम के बदले में हमें 50 पैसे या 1 रूपये का मेहनताना मिल जाता था। रूपए तो कम ही मिलते थे, कई बार वे हमें प्रिया सुपारी खिला देते थे, तब प्रिया सुपारी खूब चलता था, उस सुपारी का स्वाद गजब ही था, 90's वाले जिसने भी खाया है, उसे याद होगा। 

दादाजी की पीठ पर चलने का कार्यक्रम जब खत्म हो जाता, तो उनकी कहानियों और दंत कथाओं का दौर चलता था। एक बार उन्होंने बताया (जैसा उन्होंने तब बताया था, वही सब याद करके लिखने‌ की कोशिश कर रहा हूं) कि बतौर टीचर एक बार वे इलाहाबार नेहरू के घर गये थे, बताते कि चाय प्लेट की शकल में घर है, खूब सारे कपड़े जूते रखे हैं आदि, नेहरू अपने बाल में जो तेल लगाते थे वो इटली से आता था, नेहरू और उसके पापा का कपड़ा धुलने के लिए इंग्लैण्ड जाता था आदि आदि। तब हमारा बालमन यह नहीं सोच पाता था कि कपड़ा धुल के कितने दिन में वापस आता होगा। 
दादाजी भूत वाली कहानियाँ भी खूब सुनाया करते, एक बार उन्होंने बताया कि रात को शहर से गाँव की ओर आ रहे थे, पीपल के पेड़ में एक औरत हाथ में दिया लिए हुए खड़ी थी और रोते हुए मेरी मदद करो कह रही थी, उसके‌ पैर पीछे की ओर मुंह किए हुए थे, एक मैं और मेरा पुलिसवाला दोस्त, हम दोनों अपनी राजदूत मोटरसाइकिल में थे, पुलिसवाले दोस्त ने कहा आओ भाई जाकर देखते हैं, जैसे ही हम लोग पास में गये, हमने देखा कि वह अपने आसपास इंसानी गूं का भंडार रखी हुई थी, उसने हमें मदद के लिए बुलाया और जैसे ही हम‌ पहुंचे, कुछ मंत्र फूंककर बेहोश कर दिया। अगले दिन घर के आँगन में हमारी नींद खुली। (इस घटना के पीछे का कारण संभवत: सोमरस रहा होगा) तब यह सब कहानी सुनकर हमारे होश उड़ जाया करते। 

एक बार दादाजी खेत की ओर जा रहे थे, उन्हें सफेद भूत (ठेंगा) दिखाई दिया, ये एक ऐसा विशिष्ट भूत था जो सिर्फ उन्हें ही दिखता था, वे बताने लगे कि जैसे ही मैंने उसे देखा वो और बड़ा होता गया, इतना बड़ा कि आसमान तक पहुंचने लगा, और धीरे-धीरे मेरे पास भी आने लगा, मैं उसको देखते-देखते धड़ाम से नीचे गिर गया, मेरे गिरते ही वह अदृश्य हो गया। 

एक बार‌ वे अपने दोस्त के साथ शहर किसी काम से गये, तब शहरों में मारवाड़ी बासा हुआ करता, जिन्हें मारवाड़ी बासा के बारे में नहीं पता, उन्हें बताता चलूं कि एकदम पुरानी सी कोई जगह होती है, घर जैसा ही होता है, उसी में बैठाकर खाना खिलाते हैं, खाना अनलिमिटेड होता है, दादा ने बताया कि तब उन्होंने मिलकर लगभग 120 रोटियाँ खाई थी। मारवाड़ी बासा वाले रोटी बना बनाकर थक चुके थे, उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की और बिना पैसे लिए इनको जाने को कह दिया था। बस दादा ने कहा और हम मान गये। 

जब हम थोड़े बड़े होने लगे तो उनकी दंत कथाओं को ध्यान में रखते हुए दादाजी को हम ठगासुर दादा ऊर्फ गपोड़ी कहा करते, बढ़ा-चढ़ाकर उलूल-जुलूल बात करने के नाम से वैसे ही उनकी फजीहत होते रहती थी लेकिन उन्होंने गप्प हाँकना कभी न छोड़ा, हमें तो मजा आता था, हमेशा नई चीजें पता लगती थी, अब दुनिया कुछ भी कहे, हमारे लिए तो बिना इंटरनेट वाले उस किस्से कहानी के युग में मनोरंजन का केन्द्र हुआ करते दादाजी। जब बुढ़ापा आने लगा तो वे थोड़े सठियाने लगे थे, लेकिन अपने गपोड़ी चरित्र को उन्होंने तब भी नहीं छोड़ा था, तब भी खूब दाँत बिजराकर कहानी सुनाया करते। चार साल पहले ही बचपन में हम सभी बच्चों को प्रिया सुपारी खिलाकर हमारी जीभ नीली कराने वाला गपोड़ी दादा 82 की उम्र में शून्य में विलिन हो गया। 
बूढ़े गपोड़ी दादू की स्मृति में...

Monday, 3 October 2022

छत्तीसगढ़ का पारंपरिक खेल - फुगड़ी

छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खेल फुगड़ी के लाभ-

छत्तीसगढ़ के परंपरागत खेलों में से फुगड़ी एक ऐसा खेल है जिसे खेलने वाले के पैर से लेकर सिर तक फिट हो सकता है। हालांकि इसे बच्चे ही ज्यादातर खेलते हैं लेकिन यदि इसे बड़े भी खेलें तो इसका लाभ ले सकते हैं।

फुगड़ी को छत्तीसगढ़ का भरपूर मनोरंजन वाला खेल कहा जाता है। फुगड़ी, शब्द छत्तीसगढ़ के फुदकना से बना है। जिसका अर्थ होता है उछलना, कूदना। जिसमें बच्चों द्वारा जमीन में उकड़ू बैठकर तेजी से और एक लय के साथ उछलते हुए हाथ व पांव को बारी-बारी से आगे पीछे चलाया जाता है। बच्चियां इसे घर में घर के बाहर गली में बाग बगीचे नदी किनारे खेत खलियान गली चौबारे कहीं भी पूरे खुशी और मनोरंजन के साथ खेलती हैं।

फुगड़ी छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खेलो में से ऐसा खेल है, जिसमें साजो सामान, मैदान, भारीभरकम धन राशि या विशेष किस्म के खिलाडियों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस खेल में भरपूर मनोरंजन के साथ एक संपूर्ण शारीरिक व्यायाम भी शामिल होता है।
शरीर के अलग-अलग हिस्सों में इसके प्रभाव और लाभ की बात करें तो इससे पैर की अंगुली से लेकर सिर तक के हर अंगो का सम्पूर्ण व्यायाम होता है। हाथ, पांव, अंगुली, पंजा, घुटना, कोहनी, पेट, पीठ, हड्डी, आँख जैसे सभी अंगों का व्यायाम हो जाता है। तेज सांस चलने की वजह से फेफड़े, मुंह, गले का भी व्यायाम होता है। इसका प्रतिदिन अभ्यास करने से खून की व्याधि, पेट, आँख संबंधी व्याधियाँ दूर होती है।

Sunday, 25 September 2022

कुली नंबर वन -

फिल्में वही दिखाती हैं जो समाज में घटित हो रहा होता है। साल 1995 में फिल्म आई थी - कुली नंबर 1. जिसे फिल्म की कहानी के बारे में नहीं पता उन्हें बताता चलूं कि एक करोड़पति बाप होता है, उसकी दो बेटियाँ रहती है, उस करोड़पति बाप की इच्छा रहती है कि अच्छे लड़कों से उन बेटियों की शादी हो जाए। फिल्म का किरदार राजू यानि गोविंदा जो कि कुली रहता है, फर्जी तरीके से करोड़पति के भेष में शादी रचा लेता है। उसके लिए तो चाँदी ही चाँदी हो जाती है, दामाद बनकर रातों रात करोड़पति जो हो जाता है, इसलिए अपनी साख बनाए रखने के लिए जमकर अपनी बीवी और अपने ससुर की तारीफ करता है। लेकिन अपनी असल हकीकत छुपाने के लिए वह लगातार प्रयासरत रहता है। मामला खराब न हो इसके लिए जुड़वा भाई की कहानी भी रचता है। खूब सारे तीन तिकड़म करता है, जमकर फील्डिंग बिछाता है। उस शादी को बचाए रखने के लिए तमाम तरह के झूठ प्रपंच गढ़ता है, लेकिन धीरे-धीरे वो और फंसता जाता है और एक दिन उसका पर्दाफा़श हो जाता है।

ये तो रही फिल्म की कहानी जिसमें दर्शक दीर्घा की माँग को ध्यान में रखते हुए हमेशा न्याय दिखाया जाता है और एक सुखद अंत हमारे सामने होता है। लेकिन वास्तविक जीवन में जो राजू सरीखे लोग होते हैं वे आजीवन पकड़ में नहीं आते हैं।

अपने आसपास हम देखें तो पता चलता है कि हममें से हर किसी ने अपने जीवन में राजू जैसे कुछ किरदारों को देखा ही होता है, जो बीवी और बीवी के खानदान की चौबीसों घंटे तारीफ करने के मोड में लगे रहते हैं, ऐसे लोग एक इंसान के रूप में कभी सही होते ही नहीं हैं। इसमें भी जो बहुत बड़े वाले होते है, वो तो जितने जोश में बीवी के खानदान की तारीफ करते हैं, उतने ही जोश में अपने खानदान की ऐसी तैसी भी करते हैं। अंत में यही कि जैसे ही कोई बीवी के घर वालों का गुणगान करे, कुली नंबर 1 फिल्म को याद कर लीजिएगा।

Saturday, 24 September 2022

मानव बम - 3

41. पब्लिक डोमेन में कभी कोई आर्थिक सामाजिक रूप से मजबूत व्यक्ति इनको खुलकर तवज्जो नहीं देता है, वो बात अलग है कि ये लोग उनके नाम का डंका जरूर पीटते हैं ताकि दुनिया के सामने अपना सीना चौड़ा कर सकें।

42. विडम्बना देखिए कि इनके लिए प्रेम बरसाने वाले हमेशा दबे कुचले या इनसे नीचे के लोग ही होते हैं।

43. ये जिस जीवन मूल्य को अपने जीवन का आधार मानते हैं, उस जीवन मूल्य के बारे में हमेशा बातें करते रहते हैं, आप देखिएगा कि उसी जीवन मूल्य के प्रति ये सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदार होते हैं। 

44. इतनी बड़ी साख वाले ये महान आदमी। जाहिर है उस महानता वाली शख्सियत की अपनी व्यस्तता भी होगी। लेकिन फिर भी अपने चेले चपाटों को ज्ञान देने के लिए इनके पास भरपूर समय होता है।

45. मुख्यधारा के समाज में इन्हें कोई उस तरह से नहीं जानता, इनकी पहचान एक तरह से जीरो ही होती है, लेकिन जिन रसूख/पाॅवर वालों को ये टार्गेट किए होते हैं, उनके साथ अपनी पहचान गिनाकर खुद को महान बताते हैं। 

46. चूंकि भारी भरकम रसूख वालों के साथ अपने संपर्क को गिनाते हैं तो भारत का अदना सा व्यक्ति कभी इनसे सीधे कुछ पूछने या आराम से बात करने लायक स्पेस नहीं बना पाता है। इन्होंने पहले ही खुद सारा स्पेस ब्लाक करके रखा होता है।

47. जैसे एक चपरासी एक अधिकारी को उनके पद अनुरूप उसका सम्मान करता है, इनके साथ आम लोगों के रिश्ते कुछ वैसे ही होते हैं। वे डर के मारे कभी सामान्य सी बात भी नहीं कह पाते हैं क्योंकि ये इतनी मजबूत आभा बनकर चलते हैं।

48. जिस डर/भय के तत्व को किसी धर्म या विचारधारा से जुड़ा व्यक्ति अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। ये भी उसी तलवार का प्रयोग कहीं अधिक हिंसा से अपने हित साधने के लिए करते हैं।

49. राम रहीम दवा के मदद से भक्तों को नपुंसक बनाता था, ऐसे लोग अपनी बातों से मानसिक रूप से नपुंसक बनाते हैं।

50. कोई साफ मन से भलाई सोचकर भी कुछ कहे वह गलत नियत वाला हो जाता है। लेकिन चूंकि इन लोगों के पास नियत को नापने की भी मशीन होती है तो ये अपनी नियत को सही नियत का तमगा देकर आपको जलील भी कर सकते हैं, अपशब्द भी कह सकते हैं, आपका जीवन भी बर्बाद कर सकते हैं।

51. इनके जीवन का आधार-स्तंभ ही विरोधाभास होता है। इनका विरोधाभाषी चरित्र इनके लहू के एक एक कतरे में आजीवन बहता रहता है। अहिंसा की बात करते हैं और जमकर हर तरह की शाब्दिक वैचारिक हिंसा करते हैं, न्याय की बात करते हैं और जमकर धोखेबाजी करते हैं, प्रेम की बात करते हैं और खूब नफरत को जीते हैं, वस्तुनिष्ठता की बात कर जमकर व्यक्तिगत होते हैं, योग्यता मेधा की बात करते हैं और धूर्त लोगों की टोली के सरदार बने फिरते हैं, एक ओर मानवीय संबंधों रिश्तों की महत्ता गिनाते हैं वहीं दूसरी ओर अपने ही करीबी लोगों को मानसिक चोट पहुंचाते रहते हैं, बात-बात पर विनम्रता की दुहाई तो देते हैं लेकिन जब मौका पड़ा जमकर गुंडई दिखाते हैं, नियत को आधार बनाते हैं और नियतखोरी का पहाड़ खड़ा कर देते हैं, सामाजिकता की बात करते हैं जबकि खुद भयानक असामाजिक प्रवृति के होते हैं।

52. मुख्यधारा का आम आदमी इन जैसे लोगों से संपर्क को सोशल कैपिटल मानता है। और अपनी उस कैपिटल को चोट नहीं पहुंचाता है। कहीं गलती से आर्थिक वाला मामला सेट हो जाए तो ऐसी कैपिटल का भ्रम भी खत्म होता जाता है। मानव बम का असल रूप कभी नहीं दिख पाता।

अब कितना ही लिखा जाए , अब चूंकि हम महान नहीं हैं, सामान्य मनुष्य हैं तो अपनी भूख नींद और बाकी रूटिन की चीजें भी ये सब से प्रभावित होती ही है, (बारूद के ढेर में सफाई के लिए इंसान उतरे तो कपड़ों पर बारूद की परत लगती ही है, झाड़ने से काम नहीं चलता है, बार-बार कपड़े गंदे होते हैं, शरीर गंदा होता है तो बार-बार नहाना पड़ता है यही स्थिति है) क्या है इंसान की अपनी दैनिक दिनचर्या के काम भी होते हैं, परिवार होता है, जिम्मेदारियाँ होती है। और जिनका खुद का जीवन हर प्रकार से सुरक्षित हो जाए तो ऐसे मानव बम रूपी लोग किसी भी प्रकार की क्रांतिकारिता गढ़ सकते हैं।

Friday, 23 September 2022

मानव बम - 2

"मानव बम" रूपी चरित्र के बारे में लिखते हुए 50 प्वाइंट हो चुके हैं, ( मानव बम असल में पिछली पोस्ट का शीर्षक ही है) सोच रहा हूं कि आखिर कितनी व्याख्या कर पाया, अपनी बात के साथ कितना न्याय कर पाया। लगातार खुद का आंकलन भी करता चल रहा हूं कि कहीं हिंसा, प्रतिशोध जैसे भाव तो नहीं उमड़ रहे और क्या ऐसे भाव मेरे भीतर के मूल स्वभाव पर हावी तो नहीं हो रहे। जब हम ऐसे पड़ताल करते हैं बहुत अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है क्योंकि बहुत से आयाम होते हैं, आप इनके फैलाए रायते के पीछे पड़ताल करते रह जाएंगे लेकिन कभी खत्म नहीं होगा। यह भी ध्यान रखना पड़ रहा है कि मैं अपने लिखे के प्रति कितना सहज हूं। कहीं मेरे लिखे किसी एक वाक्य में भी महानता का तत्व तो नहीं है। जितना समय इस पूरी पड़ताल में लग रहा है, उससे दुगुना समय खुद के लिए भी दे रहा हूं और पूरी कठोरता के साथ खुद का आंकलन करता चल रहा हूं कि इस पूरी प्रक्रिया में मेरे भीतर कैसे भाव उमड़ रहे हैं। बाकी एक बात तो पूरे अधिकार से कहना चाहता हूं कि अपने लिखे एक-एक वाक्य को लेकर हद से ज्यादा स्पष्ट हूं, हिमालय सा अडिग हूं। मुझे अपने बारे में कोई भी संदेह नहीं है। 

बम तो बम होता है, बम महान होता है, बम की अपनी व्यापकता होती है। बहुत सोचने विचारने के बाद मानव बम शीर्षक देने का सोचा। मानव बम रूपी इंसान की भी अपनी खूबसूरती होती है, लेकिन एक बम को नकारने के लिए उसके एक विस्फोटक चरित्र का होना ही काफी होता है।

एक संदेश यह भी जाता होगा कि मैं मानव बमों से गहरे प्रभावित हुआ होऊंगा लेकिन पूरी तरह ऐसा नहीं है। कुछ लोग किनारे में बैठकर ऐसे मानव बमों के असर को लगातार देख रहे होते हैं। मैं बहुत हद तक किनारे में रहा, इसलिए भी लिख पा रहा हूं। मेरे मूल स्वभाव के प्रति मेरा भरोसा, थोड़ी बहुत ईमानदारी, अस्तित्व की शक्ति और मेरे शुभचिंतको ने मुझे हमेशा संभाला है। जो लोग मानव बमों से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं, ऐसे लोग या तो गुमनाम हो जाते हैं या हिंसा के साथ प्रतिक्रिया देने लगते हैं, खुद को बचा नहीं पाते हैं। उनकी प्रतिक्रिया में भी हिंसा कम और जीवन के प्रति पैदा हो चुकी कठोरता अधिक होती है। वे संतुलित विनम्र होकर अपनी बात कहने की क्षमता खासकर ऐसे मामलों में खो चुके होते हैं। जो कुछ भी झेले होते हैं, उससे पैदा हो रही पीड़ा झटके में फूटकर उन्हें प्रभावित कर ही देती है। 
मोटा-मोटा फिलहाल के लिए यही समझ आया कि जितनी सूक्ष्मता से गहराई में जाकर एक-एक चीज को महसूस कर रहा हूं, शायद उसका आधा भी लिखकर बताना संभव नहीं है‌, शायद ही किसी को अच्छे से समझा पाऊं। इसलिए अभी के लिए थोड़ा विश्रामावस्था में जाना बेहतर समझ रहा हूं।

इति।।

Wednesday, 21 September 2022

मानव बम

अभी तक के जीवन में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष तरीके से जितने भी सामाजिक कार्यकर्ता सेलिब्रिटी क्रांतिकारी सरीखे लोग मिले, आज उनको लेकर एक बात बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि उनमें से सब के सब बहुत अधिक परेशान/कुण्ठित से लोग लगे। इनके साथ मैंने बहुत सी गंभीर समस्याएँ देखी हैं जिनका जिक्र करना जरूरी समझ रहा हूं -

1. अपने प्रति और जीवन के प्रति सहज नहीं होते हैं।
2. इनके भीतर आपको न्यूनतम स्तर की विनम्रता भी देखने को नहीं मिलती है। 
3. चिढ़चिढ़े स्वभाव के होकर अपने उस स्वभाव को श्रेष्ठताबोध की तरह पेश करते हैं।
4. बहुत ही सामान्य सी बात को, समाधान के उपायों को ये आपके लिए जटिल और पहाड़ सा कठिन बनाकर पेश करते हैं।
5. आप गहराई में जाकर देखेंगे तो पाएंगे कि ये जीवन की छोटी-छोटी चीजों में बहुत अधिक अपरिपक्व अव्यवहारिक होते हैं।
6. मुख्यधारा के समाज, देश, काल, परिस्थिति के प्रति बहुत अधिक नफरत, कुंठा और हीनभावना से ग्रस्त होते हैं या ऐसा पेश करते हैं।
7. इन्हें सबको एक ही चश्मे से देखने और तौलने की गंभीर बीमारी होती है।
8. परिस्थिति अनुसार सलेक्टिव होना इन्हें बखूबी आता है, जहाँ इन्हें अपना स्वार्थ दीखता है, वहाँ ये बिना शर्म के लोट जाते हैं।
9. ये सामाजिकता और क्रांतिकारिता को आधार बनाकर आपका मनचाहे अपमान करने का विशेषाधिकार हासिल कर लेते हैं।
10. आत्मश्लाघा/आत्ममुग्धता/महानता से ग्रसित होते हैं और इसकी पूर्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
11. ये सिर से लेकर पाँव तक महान होते हैं, इनकी सोच से लेकर दैनिक दिनचर्या की हर चीज महान होती है, बाकि पूरी दुनिया मूर्ख होती है। 
12. ये अपने अनुगामियों के समक्ष माहौल ऐसा बना देते हैं कि इनकी महानता के कसीदे पढ़ते हुए वे उम्मीद रख लें, फिर ये उन उम्मीदों को झटके में कुचल देते हैं। 
13. अपनी छोटी सी भी चूक/गलती/नासमझी के प्रति इनमें थोड़ा भी स्वीकार्यता का भाव नहीं होता है, क्योंकि ये स्वघोषित महान लोग होते हैं।
14. चूंकि ये महान और हर विधा के विशेषज्ञ होते हैं, इसलिए इनको जैसे कुछ नहीं भी आता है, उस विषय में भी ये सलाह दे जाते हैं, भले ही उस दी गई सलाह से सामने वाले का धीरे-धीरे जीवन बर्बाद हो जाए, तब भी चलेगा‌।
15. अपनी हर गलती को, निर्दयता और कुण्ठा से जड़ित अपनी अभिव्यक्ति को तर्क से साधकर सही सिध्द करने की कला में ये निपुण होते हैं।
16. खुद हर तरह के प्रिविलेज को जीते हुए दूसरों को खाली पेट सोने की सलाह देने जैसी क्रांतिकारिता कराने में इन्होंने मास्टरी की होती है।
17. किसी समस्या को या अपने साथ हुए शोषण या दुर्गति को एक महान उपलब्धि की तरह पेश करना असल‌ में इनका Modus Operandi होता है।
18. ये भयंकर प्रतिक्रियावादी होते हैं। बहस, वाद-विवाद करना इनका प्रिय शगल होता है क्योंकि इसी तरीके से ही जीवन का सार बाँटते फिरते हैं। 
19. क्रांति के नाम पर ये लोगों को जमकर उचकौना देते हैं, और उनको बहुत ही भयानक तरीके से दिग्भ्रमित कर देते हैं। 
20. युवापीढ़ी को अपने तथाकथित ज्ञान रूपी डंडे से अपनी कुण्ठा शांत करने के लिए खूब हांकते हैं और अंतत: उनका जीवन बर्बाद कर देते हैं।
21. भाई-भतीजावाद इनके रग-रग में होता है। खुद खूब मलाई खाएं कोई समस्या नहीं। लेकिन कोई सामान्य लड़का हो तो उस पर पूरी क्रांतिवादिता थोप देते हैं। जीवन मूल्यों से उसकी पूरी घेरेबंदी करने लगते हैं।
22. दूसरों के लिए जिन जीवन मूल्यों की ये घेरेबंदी करेंगे उनमें खुद को तो पूरी तरह फ्लेक्सिबल रखते हैं, लेकिन चाहेंगे कि सामने वाला पूरी तरह उन्हें जिए।
23. एक ओर हर तरह के भोग ऐश्वर्य को जीना और वहीं दूसरी ओर खुद को गरीब बेसहारा की तरह दिखाना इन्हें बखूबी आता है। 
24. आजीवन खुद को गरीब बेसहारा इसलिए भी दिखाते फिरते हैं ताकि इनका मलाई लूटने वाला हिंसक चरित्र खुल के सामने न दिखे।
25. दूसरों के जीवन की दिशा दशा बदलने का स्वांग पालने वाले ये लोग खुद के जीवन की हर चीज को महान और दूसरों को लगातार कमतर बताते रहते हैं।
26. कुछ लोग होते हैं, आपको सामने खराब कहते हैं, तुरंत पता चल जाता है।‌ लेकिन ये महान लोग जिस विचारशीलता की चासनी में आपको डुबोते हैं, उसका असली रंग लंबे समय बाद दिखता है। 
27. इनकी कपोल कल्पनाएं और इनके आसमानी विचार किसी स्वस्थ व्यक्ति के लिए आत्मघाती वायरस से कम नहीं होते हैं। 
28. ऐसे लोगों की संगति में जागरूकता के नाम पर आपकी मानसिक/वैचारिक क्षति होने की भरपूर गारंटी होती है।
29. इनके तथाकथित ज्ञानपेलू चरित्र और गुरू चेला बनाने वाली मानसिकता की वजह से इनके द्वारा युवापीढ़ी को सर्वाधिक मानसिक क्षति पहुंचती है।
30. अपने हितों को साधने के लिए ये जमकर आँकड़ों की बाजीगरी करते हैं, आपने कहीं गलती से स्त्रोत पूछ लिया, ये व्यक्तिगत होने लगते हैं।
31. ऐसे लोग हमेशा प्रिविलेज क्लास से ही आते हैं और अपनी प्रिविलेज का जमकर दुरूपयोग करते हैं।
32. हमेशा लोकतंत्र की बात करने वाले ये लोग अपने मूल चरित्र में भयानक अलोकतांत्रिक होते हैं।
33. विडम्बना देखिएगा कि नाना प्रकार के धूर्त बदमाश और तमाम ढीले लोग इनके गहरे करीबी मित्र ही होते हैं।
34. ईमानदारी इनके‌ लिए महज एक टूल होता है। जिस टूल की सहायता से ये अपने अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
35. इनसे संपर्क और रिश्ते बनाए रखना बोर्डिंग स्कूल में भर्ती लेने जैसा होता है, आसानी से एंट्री होती नहीं और एंट्री के बाद बाहर आने में मुश्किलें आती हैं।
36. ये आपको मुख्यधारा के समाज से अलग करते हैं, आपके भीतर उनके प्रति विषवमन कराने के भाव की प्रविष्टि कर अंत में आपको हाशिए पर ढकेल देते हैं। 
37. आपको हमेशा इस भाव के साथ चिपकाकर रखते हैं कि मैं अपनी महानता से प्राणी जगत का उध्दार कर दूंगा और हमेशा पल्टी मार जाते हैं। क्योंकि वास्तव में इनमें ढेला भर की रचनाशीलता नहीं होती है। यह सब कुछ इनका गढ़ा गया पीआर ही होता है।
38. मुख्यधारा के आदमी को बेवजह की डाँट-डपट और कुढ़े हुए स्वभाव से नवाजते रहते हैं क्योंकि वह इनके गढ़े गए आभामण्डल का सम्मान करते हुए कभी इनके स्तर पर जाकर पलट के जवाब नहीं देता है। 
39. इनके जीवन का एक सूत्री कार्यक्रम या पीआर ही दूसरों को मानसिक क्षति पहुंचाकर मुद्रा और वर्चस्व हासिल करना होता है। 
40. ये इतने धूर्त होते हैं कि इनके चरित्र को उजागर करने में लिखते-लिखते ऐसे चालीस प्वाइंट बन जाएंगे लेकिन ये कभी आपके हाथ नहीं आएंगे।

अंत में यही कि जिस गाँधी के नाम पर ये अपनी दुकान चलाते हैं, काम तो उनके बिलकुल उलट करते हैं। जिस उम्र में गाँधी ने सब कुछ छोड़ के देश समाज के लिए खुद को झोंक दिया, उस उम्र तक ये लोग अपना सब कुछ सेट कर गाँधी के विचारों के नाम पर दुकान डाल चुके होते हैं। इनका सब कुछ गाँधी के विपरित ही होता है। गाँधी बाबा सच बोलते-बोलते दुनिया से चले गये, आज यह कहना गलत न होगा कि गोडसे से ज्यादा हत्या गांधी कि इन झूठे फरेबियों ने की है, लगातार कर रहे हैं। आज अगर गाँधी होते तो अपनी अहिंसा को एक दिन के लिए किनारे कर इनको सीधा कर देते...खैर। अपनी विनम्रता को ध्यान में रखते हुए अपनी बात को यहीं विराम देता हूं।
युवाहित में जारी

Tuesday, 20 September 2022

चाह नहीं मैं सूरबाला की...

हर माता-पिता की चाह होती है कि उनका बेटा/बेटी एक बेहतर जीवन जीने के रास्ते बढ़े। दुनिया के कोई भी माता-पिता यह नहीं चाहते कि उनके बच्चों को जीवन की मूलभूत जरूरतों के लिए परेशान होना पड़े। उनकी यही चाह रहती है कि भले वे कैसा भी जीवन जीते आए हों लेकिन उनके बच्चे स्वस्थ तनावमुक्त और एक बेहतर जीवनशैली की ओर अग्रसर हों। जैसा तनाव जैसा संघर्ष वे झेलकर आए होते हैं वे चाहते हैं कि उसका 1% भी आने वाली पीढ़ी न झेले, उस एक वजह से चीजों को माइनस से प्लस में लाते हुए अगली पीढ़ी को सौंपने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसीलिए हमारे यहाँ अधिकांश माता-पिता यही चाहते हैं कि बच्चा सबसे पहले आर्थिक मजबूती की ओर अग्रसर हो। क्योंकि भारत जैसे तीसरी दुनिया श्रेणी के देश में जहाँ की अर्थव्यवस्था का प्रतिमान ही अस्थिरता है, वहाँ आर्थिक रूप से सशक्त हो जाना, उस एक पहलू को साधते हुए स्थिरता हासिल करने की ओर बढ़ना सौ दुःखों की एक दवा की तरह हो जाती है। उसमें भी अधिकतर माता-पिता की यह चाह रहती है खासकर कि जिनके यहाँ आर्थिक स्तर पर जोखिम उठाने के उतने विकल्प नहीं होते या वैसी सामाजिक मजबूती नहीं होती वे बच्चों को सरकारी नौकरी की ओर ही जाने को कहते हैं और यही होना भी चाहिए। जब इस देश में कोरोना जैसी विकराल महामारी में जहाँ पूरा देश पटरी पर था, लाखों लोगों का रोजगार झटके में छिन गया, इतना कुछ गड्ड मड्ड हो गया, लेकिन क्या सरकारी नौकरी करने वालों पर थोड़ी भी आंच आई, बिलकुल नहीं। कुछ इक्का दुक्का विभागों को छोड़ दिया जाए तो चीजें उनके साथ बेहतर ही हुई। तो कोई क्यों न चाहे सरकारी नौकरी?

हर उस युवा का अंतिम लक्ष्य यही होना भी चाहिए खासकर जिनके पास पर्याप्त जोखिम उठाने के साधन न हों, खुद की ठीक-ठाक जमीन न हो, महँगी तकनीकी पढ़ाई कर जाने लायक विकल्प न हों, अलग से कोई विलक्षण प्रतिभा न हो और उसे हल्का‌ फुल्का साधने लायक पहचान/जुगाड़ न हो या व्यवसाय करने लायक न्यूनतम कुशलता न हो। ऐसे लोगों को सीधे सरकारी मोड में ही जाने का प्रयास करना चाहिए। 
इति।।

Wednesday, 14 September 2022

किसान आंदोलन के तत्व जो भारत जोड़ो यात्रा में देखने को मिल रहे हैं -

1. मेनस्ट्रीम मीडिया में कुछ और ही रिपोर्टिंग होती है, ग्राउण्ड में हकीकत बिल्कुल अलग है।
2. आधिकारिक पेज पर दिन भर की गतिविधियों की रिपोर्टिंग हूबहू किसान आंदोलन की तर्ज पर ही हो रही है।
3. लोग नि:स्वार्थ भाव से, मन से इस पदयात्रा से जुड़ रहे हैं। 
4. तिरंगा हर तरफ किसान आंदोलन में देखने को मिला, यहां भी है।
5. किसान आंदोलन एक बहुत ही अधिक शांत और व्यवस्थित आंदोलन था, कोई चूक हो भी जाती थी, तो तुरंत व्यवस्था कायम हो जाती थी, यह तत्व यहाँ भी है।
6. किसान आंदोलन के खिलाफ जितने भी तरह के दुष्प्रचार हुए, सारे बैकफायर कर गए, यहाँ भी ऐसा देखने को मिल रहा है।
7. किसान आंदोलन की तरह इस यात्रा की अपनी एक अलग आबोहवा है, जो जाकर महसूस करेगा सिर्फ वही बेहतर तरीके से इसे समझ सकता है।
8. आंदोलन हमारे जिंदा होने के अहसास को और अधिक मजबूत करता है, वह अहसास इस पदयात्रा में भी है।

Friday, 9 September 2022

Basics of Graphic Designing -

- To use complimentary colors with the help of color wheel ( site -color.adobe.com )
- For Colour Grades ( site - uigradients.com )
- Image Background removal tool that convert the jpg to png file ( site - remove.bg)
- To check font design ( site - fonts.google.com )
- For copyright free images ( site - Pixabay )
- To see design templates ( site - pintrest, dribble )
- Photoshop app online ( site - photopea.com )
- To download copyright free images from shutterstock ( site - nohat.cc )

पंचायत वेब सीरीज ( सीजन 1 एवं 2 ) समीक्षा -

ग्रामीण परिवेश को करीने से रेखांकित करती पंचायत वेब सीरीज का पहला सीजन 2020 में आया था जिसे दर्शकों का भरपूर प्यार मिला, फिर उसका दूसरा सीजन मई 2022 में आया। यह परिवार के साथ देखे जा सकने वाली एक साफ सुथरी वेब सीरीज है, ओटीटी (OTT) प्लेटफाॅर्म और वेब सीरीज के इस दौर में जहाँ फिल्मों में मारकाट और फूहड़ता हावी है, ऐसे में पंचायत जैसी वेब सीरीज लीग से हटकर अपने को प्रस्तुत करती है। 

इस वेब सीरीज के माध्यम से गाँव की सभ्यता, संस्कृति एवं भाषा को बहुत ही सरलता से दिखाने का प्रयास किया गया है। जो कि पहले किसी भी वेब सीरीज में इतने सहज,सरल और इतने वास्तविक ढंग से नहीं दिखाया गया है। पंचायत वेब सीरीज गाँव की छवि को अपनी संपूर्णता में दिखाता है, इसमें स्थानीय ग्रामीण संस्कृति के सारे पहलू/आयाम देखने को मिल जाते हैं, लोगों के बीच अगर यह वेब सीरीज लोकप्रिय हुआ उसका बहुत बड़ा कारण यही रहा कि इसमें गाँव को बेहद सादगी और खूबसूरती से फिल्माया गया है। जहाँ गाँव का अपना सुकोमल हास्य विनोद और सहज अंदाज में एक दूसरे के साथ बरतने वाला ह्यूमर भी है, अपनेपन का पुट भी है, एक-दूसरे के साथ जीवन के हर उतार चढ़ाव में निभाई जाने वाली सामाजिकता भी है। 

इस सीरीज के पहले सीजन में यह दिखाया गया कि कैसे एक शहर का लड़का जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई किया है, जिसके सपने कुछ और हैं, उसे आगे CAT की पढ़ाई करनी है, लेकिन उसकी नौकरी बतौर सचिव "फूलेरा" नामक गाँव में लगती है और वह उस गाँव में जाकर वहाँ जद्दोजहद करता है, शुरू में उसका मन नहीं लगता लेकिन धीरे-धीरे उस माहौल के हिसाब से खुद को ढालते हुए वहाँ रम‌ जाता है और धीरे-धीरे उसे वह नौकरी बढ़िया लगने लगती है। पहले सीरीज में फिल्म के मुख्य किरदार सचिव जी जिनका नाम इस सीरीज में अभिषेक है, वे अंत में सरपंच की बिटिया रिंकी से पानी टंकी में बैठकर आँखों आँखों में बात करते हैं, और सस्पेंस की तरह इनकी केमेस्ट्री को अगले सीजन के लिए छोड़ दिया जाता है‌।

दूसरे सीजन में यह दिखाया गया कि सचिव जी अब गाँव के हिसाब से ढलने लगे हैं, पहले सीजन में दिखाया गया कि कैसे शुरूआत में गाँव में वे छोटी-छोटी चीजों से परेशान हो जाते थे, चिढ़चिढ़ाते थे, दूसरे सीजन में वे सहज होते नजर आते हैं। इस सीजन में सचिव जी और रिंकी, इन दोनों की हल्की फुल्की बात होती है, एक बड़ा सवाल यह रह गया है कि इन दोनों की केमेस्ट्री कब आगे बढ़ेगी?

दूसरे सीजन में सबसे अधिक वायरल हुए किरदार "भूषण" जिसके स्वभाव की वजह से उसे गाँव के लोग बनराकस कहते हैं, जिसके द्वारा कहा गया वाक्य " देख रहा है बिनोद" पूरे देश में वायरल हुआ है। इसे लेकर सबसे बड़ी दिलचस्पी यह रहेगी कि इनका अभिनय इनकी क्रांति आने वाले सीजन में भी देखने को मिलेगी या नहीं। 

इस सीजन के आखिरी एपिसोड में दिखाया है कि गाँव के उप-प्रधान प्रहलाद का बेटा जो आर्मी में है वह जम्मू-कश्मीर में शहीद हो जाता है। इसके बाद प्रहलाद बिल्कुल अकेला हो जाता है, अपने बेटे की मौत के बाद वह बुरी तरह से टूट जाता है, और इस भावुक कर देने वाले दृश्य के साथ इस सीजन की समाप्ति होती है।


Thursday, 8 September 2022

हिंदी पखवाड़े पर हिंदी की दुर्दशा में हिंदी भाषियों का योगदान

भाषा एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसकी सहायता से हम सोचते हैं और अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। किसी भी भाषा को उसकी संपूर्णता में आत्मसात करने के लिए साफ बोलने की प्रक्रिया होनी चाहिए, इसीलिए हमें छोटी उम्र से ही स्कूलों में पढ़कर बोलना सीखाया जाता है, जब तक हम साफ बोलेंगे नहीं, जब तक हम भाषा की स्वच्छता पर उसकी स्पष्टता पर ध्यान नहीं देंगे तब तक हम जो भी पढ़ेंगे उसका अस्पष्ट रूप ही हमारे दिमाग में आएगा और हम अस्पष्ट भाषा ही बोलते रह जाएंगे।

हिन्दी भाषा की उत्पत्ति मूल रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। अपनी आदि जननी संस्कृत से पैदा हुई हिन्दी को एक अपभ्रंश भाषा माना जाता है जिसमें अनेक भाषा बोलियों के शब्दों का समायोजन होता आया है। "हिन्दी" शब्द ही अपने आप में फारसी मूल‌ का शब्द है। सन् 1800 से 1950 तक का समय हिन्दी के बनने का समय है, इसी दौर में हिन्दी साहित्य पुष्ट हुई, एक भाषा के रूप में उसे मजबूती मिली। आजादी के बाद 14 सितम्बर सन् 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकारा गया। हिन्दी हमारे देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। लेकिन इसके बावजूद एक भाषा के रूप में आज हिन्दी संघर्षरत है। आजादी के 75 साल पूरे होने को हैं लेकिन आज भी हिन्दी उस मुकाम को हासिल नहीं कर पाई है कि यह भाषा अपने दम पर रोजगार पैदा कर सके, प्रचार-प्रसार के नाम‌ पर साहित्यिक आयोजन कर दिए जाते हैं और उसी से खानापूर्ति कर दी जाती है। यत्र तत्र सर्वत्र हिन्दी के विभाग बने हुए हैं लेकिन इतने दशकों के बाद भी तकनीकी शिक्षा की बेसिक किताबें आज हिन्दी में उपलब्ध नहीं हैं, बहुत से अनेक देशों की क्लासिक किताबें जिनका लगभग विश्व की हर भाषा में अनुवाद होता है लेकिन हिन्दी में वह उपलब्ध नहीं है।

हिन्दी का प्रसार मोटा-मोटा इस आधार पर मान लिया जाता है कि हिन्दी भाषा में बनी फिल्मों और संगीत को देश दुनिया में खूब देखा जाता है, सुना जाता है, सराहा जाता है। ऐसे में तो हमारे देश में लाखों ऐसे लोग हैं जो दक्षिण भारतीय फिल्मों को खूब चाव से देखते हैं। इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि इन लाखों लोगों को तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम भाषा का ज्ञान हो गया या ये लोग इन भाषाओं को सीखना चाहते हैं। भारत में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो हालीवुड की फिल्में देखते हैं, विदेशी गायकों के गाने सुनते हैं जबकि उनको विदेशी भाषा धेला भर समझ नहीं आती। मैडोना का नाच देखने वाले बहुत हैं, माइकल जैक्सन के फैन बहुत मिल जाएंगे। जबकि अंग्रेजी की एबीसी भी न आती होगी। फिल्म, संगीत इत्यादि का आनंद बिना भाषा के भी लिया जा सकता है। भाषा का प्रसार भिन्न बात होती है।

हिन्दी के उलट हमारे देश में जो धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलना जानता है उसे सिर आंखों पर बैठाया जाता है, जबकि हिन्दी बोलने वाले को तुच्छ नजरों से देखा जाता है। हिन्दी गर्व की भाषा न होकर हमारे लिए शर्म की भाषा बनती जा रही है। अपना वृहद शब्द कोष और सशक्त व्याकरण होने के बावजूद भी लोग बोलचाल में बीच-बीच में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करते नजर आते हैं। अखबार से लेकर न्यूज चैनल में हर जगह इसका उदाहरण देखने को मिल जाता है, शुध्द भाषा तो छोड़िए हिन्दी के शब्द होते हुए भी उन शब्दों के अंग्रेजी अर्थ को हिन्दी में लिख दिया जाता है। उदाहरण के लिए महाविद्यालय को काॅलेज, संस्था को कंपनी, अनुमति को परमिशन, आहार को डाइट आदि। इस सरलीकरण की वजह से भाषा की कृत्रिमता बढ़ी है। वर्तमान में हिन्दी को रोमन में लिखकर संदेश के माध्यम से बात करने का चलन बढ़ा है, यह भी एक कारण है कि एक भाषा के रूप में हिन्दी कमजोर हुई है। एक मशहूर अंग्रेजी के लेखक ने तो यह तक कह दिया था कि सुभीते के लिए हिन्दी को देवनागरी में न लिखकर रोमन में लिखा जाए। इससे ज्यादा हिन्दी की और दुर्दशा क्या होगी।

किसी भी भाषा की दुर्दशा को समझने के लिए हमें उस भाषा के वर्तमान साहित्य पर गौर करना चाहिए। भाषा जीवित हो अथवा मृत, उसका अध्ययन हम उस भाषा के साहित्य के आधार पर ही करते हैं। हिन्दी साहित्य की बात जब आती है तो यह देखने में आता है कि जहाँ दुनिया की बाक़ी भाषाओं में साहित्य रचा जाता है, वहाँ हिन्दी में सिर्फ गिरोहबंदी होती है। साहित्य के रूप में हिन्दी भाषा का विकास कुछ इस तरह हो‌ रहा है कि हिन्दीभाषी लोगों के देश में बड़े प्रकाशक बड़े हिन्दी लेखकों की छह सौ कॉपी के एडीशन निकालते हैं और साल भर में चार सौ कॉपी बिकने वाले को बेस्टसेलर कहा जाता है। हिन्दी साहित्य और उसके लेखक संसार का एक बहुत बड़ा हिस्सा भयानक तरीके से बेपढ़ा, मरगिल्ला, आत्मलिथड़ित, अमानवीय मूल्यों से पूरित और ह्यूमरविहीन है।

चालीस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा में साहित्य हमेशा से मुफ्त में पढ़ने-पढ़ाने लायक चीज रहा है। ऐसे में आखिर एक भाषा कैसे खुद को संभाल पाएगी। और जब तक हम ऐसे दोयम दर्जे के साहित्य को गले लगाते रहेंगे, जब तक हम अखबार से लेकर टेलीविजन हर जगह खराब पढ़ते रहेंगे तब तक हम खराब ही लिखेंगे और एक भाषा के रूप में हिन्दी की अवनति होती रहेगी।

Thursday, 25 August 2022

NGO vs. IT Sector

इन दोनों सेक्टर में अदला बदली चलते रहती है, खासकर ह्यूमन रिसोर्स वाले काम को लेकर दोनों क्षेत्र के लोग काम का स्वाद बदलने के लिए स्विच हो जाते हैं। लेकिन मोटा-मोटा देखा जाए तो जितने रूपये आईटी सेक्टर में मिलते हैं, उसका आधा भी एनजीओ सेक्टर में नहीं मिलता है। इस एक बात पर सभी को आम सहमति बना लेनी चाहिए कि दोनों का काम विशुध्द कारपोरेट माॅडल पर आधारित है। बस फर्क यह है कि एक जगह देश समाज के लिए काम करने का इगो है, दूसरे जगह वह इगो संतुष्ट नहीं हो पाता है। अगर एक एनजीओ की नौकरी करने वाला, महीने की तनख्वाह लेकर किसी के लिए कुछ काम कर रहा, तो जब ऐसे काम को अलग से समाजसेवा कहा जाता है, तो एक आईटी कम्पनी में काम रहे कर्मचारी का काम भी समाजसेवा ही है, वह स्क्रीन के सामने कोडिंग करते हुए अगर खप रहा है, तो दूसरी ओर किसी को कुछ सर्विस मिल ही रही है, किसी दूसरे ग्रह के मनुष्य के लिए तो काम नहीं हो रहा, यहीं के लोगों के लिए वह सर्विस दे रहा, तो इसे देशसेवा क्यों नहीं माना जाना चाहिए। अगर एक एनजीओ में रहते सामान बाँटना, बाढ़ प्रभावित इलाकों में सर्वे करना, गाँव-गाँव घूमना अगर समाजसेवा है तो कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने बैठकर लोगों के लिए तकनीकी आधारित काम करना भी उतनी ही समाजसेवा है, क्योंकि अपने-अपने उस काम के लिए दोनों वेतन लेते हैं। तो उसमें अलग से समाजसेवा क्यों जोड़ना जब आप मासिक तनख्वाह पर काम कर रहे हैं, उस लिहाज से अपने दफ्तर के बाहर पानीपुरी बेचने या चाय बेचने वाले को सबसे बड़ा समाजसेवक कहिए जो अपने छोटे से व्यापार के लिए रोज जोखिम उठाता है और बदले में आपको कुछ खिलाने पिलाने की सेवा देता है। इसमें तो सबसे ज्यादा समाजसेवा दिखनी चाहिए।

अब थोड़ी साफ और सीधी बात कर लेते हैं। भारत के लोगों के अंदर समाजसेवा को लेकर गजब का रोमांस है, खुद के घर के सामने की नाली साफ नहीं होगी लेकिन एनजीओ से जुड़कर झाडू पकड़कर ढोंग करने, फोटो खींचवाने इन सब में इनको कोई समस्या नहीं होती है, महानता का बोध जो होता है। एक औसत भारतीय जिसकी दैनिक मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही है वह नौकरी करते हुए अपने और अपने परिवार का पेट भरने का सोचे या महानता के फर्जी बोध को जीने लग जाए, तो यह काम आप भरे पेट वाले लोगों को करने दीजिए।

अब तनख्वाह पर आते हैं। सबसे मूल और जरूरी बात यह कि भारत की जैसी अस्थिर अर्थव्यवस्था है उसमें इंसान के लिए ठीक-ठाक पैसे अर्जित करना ही जीवन का सबसे बड़ा मोटिवेशन होता है, और यह होना भी चाहिए। अगर पैसे कमाने से आपके जीवन की लगभग सारी दुश्वारियाँ कम हो जाती हों तो बिल्कुल इसमें समय देना चाहिए। अंततः रूपये तो सबको चाहिए। और जब रूपया ही कमाना है, नौकरी ही करना है, और नौकरी में ही कारपोरेट माॅडल की जब नौकरी है, सप्ताह में 6 दिन रोज खपना है, तो जहाँ ज्यादा रूपये मिलें, वहाँ खपना चाहिए। इसीलिए एनजीओ और आईटी सेक्टर में हमेशा आईटी सेक्टर को चुनना चाहिए, क्योंकि आपका समय भी निर्धारित रहता है, एक समय के बाद सप्ताह में पाँच दिन काम करने की सहूलियत भी मिल जाती है, समाजसेवा के फर्जीवाड़े का ढोंग भी नहीं, तनख्वाह भी दुगुनी चौगुनी रहती है। इसीलिए, यह एनजीओ में जाने से कहीं बड़ी समाजसेवा है, आप ज्यादा रूपया कमाएंगे तो आपकी क्रयशक्ति भी ज्यादा होगी, स्वयं को और अपने स्वजनों को ज्यादा आराम दे पाएंगे। अंत में यही कि एनजीओ सेक्टर में आपकी मानसिक शारीरिक दोनों तरह की क्षति होती है, जबकि आईटी में मुख्यत: शारीरिक नुकसान होता है। मैं पहले वाले को ज्यादा खतरनाक मानता हूं क्योंकि शरीर को साधना, मन साधने से ज्यादा आसान होता है। बाकी अपनी-अपनी सोच है।

Sunday, 14 August 2022

असली बीमार कौन ?

कल एक स्टडी ग्रुप में एक लड़के ने " Depression से कैसे निकलूं ? " ऐसा लिखा था, कारण भी लिखा की नौकरी, प्रेमिका की मृत्यु आदि आदि, सैकड़ों कमेंट्स आए, क्या क्या सलाह दी गई, नीचे पढ़ते जाइए -

1. सकारात्मक सोच, सकारात्मक लोग, सकारात्मक माहौल
2. घरवालों से बात कीजिए
3. Wings of fire आदि आदि किताब पढ़ो
4. दरवाजे से
5. भाई दो पैक सुबह शाम
6. रोज वाॅक करो
7. मेडिटेशन करो
8. जिंदगी का एक मकसद बनाओ
9. यूट्यूब में संदीप माहेश्वरी आदि का वीडियो देख लो
10. जानवरों के साथ समय बिताइए
11. फ्लर्ट करो किसी के साथ
12. व्यस्त रखो खुद को
13. मंदिर होकर आ जाओ
14. कहीं घूमने चले जाओ
15. फेसबुक, व्हाट्सएप्प बंद करो
16. नींद की दवा लेकर सोना शुरू करो
17. रील्स बनाओ और दुनिया को भाड़ में जाए बोलो
18. जिम जाना शुरू करो, योगा करो
19. मोह माया से दूर रहो, प्रकृति का आनंद लो
20. आध्यात्मिक जीवन जीना शुरू कर दो

सिर्फ किसी एक ने कहा था कि किसी मनोविकित्सक के‌ पास होकर आ जाइए बाकी सैकड़ों कमेंट्स में यही सब था, समझ नहीं आया कि वास्तव में ज्यादा मानसिक बीमार कौन है, जो देख पा रहा है या जो नहीं देख‌ पा रहा है...
वैसे इन सैकड़ों लोगों में भी 4. नंबर वाला मुझे मानसिक रूप से सबसे स्वस्थ व्यक्ति लगा। 

Saturday, 13 August 2022

भोगी राजा और भोगी प्रजा -

एक राजा था। वह बहुत ही अधिक विलासी प्रवृति का रहा, उसे अपनी तारीफ करवाने का बहुत शौक रहा, अलग-अलग तरह के कपड़े और घूमने-फिरने का भी शौकीन आदमी था। देश की मूल समस्याओं से उसे कभी कोई खास मतलब नहीं रहा। अब चूंकि बड़ी मुश्किल से उसे राज पाट करने का मौका मिला था तो वह भोग करने का एक मौका नहीं छोड़ना चाहता था‌। लेकिन अपने भोग और विलासितापूर्ण जीवन को बरकरार रखने के लिए भी जनता के बीच एक काम करने वाली छवि को भी बनाए रखना होता है। वैसे ऐसा करना भी उसके लिए बहुत मुश्किल का काम नहीं था क्योंकि उसके राज्य की प्रजा पहले ही तरह-तरह के नशे में आकण्ठ डूबी हुई थी, भोग-विलास की चीजें चरमोत्कर्ष पर थी। राजा ने इस चीज को करीने से रेखांकित किया और इसे बनाए रखने में और मदद की। 

जनमानस में एकरूपता बनाए रखने के लिए कभी राजा अपने राज्य के बाहरी दुश्मनों के नाम पर उनको अपने साथ जोड़ लेता, तो कभी राज्य की एकता अखण्डता को बनाए रखने के लिए सांकेतिक रूप में उन्हें कमण्डल लेकर घंटी बजाने कहता, चूंकि जनता को भी राजा की तरह भोग ऐश्वर्य और आलस्य की तलब लगी हुई थी इसलिए वे भी कभी कभार राजा के कहने पर सड़कों पर घंटी बजाने निकल जाते थे। राजा भी जनता के क्षमतानुसार ऐसे छोटे-मोटे काम ही उनसे कराता रहता था। आम लोगों को राजा ने छुटपुट भोग के साधन उपलब्ध करा दिए थे, सबके नशे का बराबर ख्याल रखा जा रहा था, ताकि कुछ गंभीर दूरगामी बड़े काम करने की, सोचने की कभी जरूरत ही न पड़े। जनता भी खुश थी, उसके सारे दिमागी रास्ते इस हद तक बंद कर दिये गये थे कि वह राजा के बताए गये प्रयोगों को ही सबसे महान वैज्ञानिक प्रयोग मानकर चलते थे क्योंकि हरामखोरी उनमें भी कम नहीं थी इसलिए वे भी इस चलताऊ भोग से खुश ही थे। कभी-कभी जब भोग के साधन खत्म होने लगते, कोई समस्या होने लगती, चीजें नियंत्रण से बाहर होने लगती तो राजा तुरंत धन और दैनिक जीवन की उपभोग की वस्तुओं को मुफ्त में बाँटने का ऐलान कर देता, वो बात अलग है कि यह सब चीजें उन तक कभी नहीं पहुंचती लेकिन जनता तुरंत अपना सारा दुःख दर्द भूलकर वापस सामान्य हो जाती थी, राजा किसी एक मंझे हुए डाॅक्टर की भांति थी, उसे पता होता था कि ऐसी बीमार प्रजा की बीमारी को लंबे समय तक यथावत बनाए रखने के लिए कब कौन सी दवाई पेनकिलर के रूप में देनी है‌।

राजा के पास पेनकिलर्स की कमी नहीं थी। राजा के पास वफादार महंतों और सामंतों की पूरी फौज थी जो उसके लिए नये-नये पेनकिलर्स इजाद कर देते थे। एक बार राज्य को भीषण महामारी ने अपनी चपेट में ले लिया, इस बार वास्तव में चीजें नियंत्रण से बाहर हो रही थी, राजा को अपने सभी वफादार लोगों को काम पर लगाना पड़ गया ताकि चीजें नियंत्रण में रहें और राजा की छवि पर आंच न आए। चीजें कुछ हद तक नियंत्रित हुई, इसकी खुशी में राजा ने अपने वफादार लोगों के लिए पुष्पवर्षा तक करवाया। जनता भी यह सब देखकर गर्व से सीना चौड़ा करने लगी, सीना चौड़ा करते हुए गर्व करना भी उन्होंने राजा से ही सीखा था क्योंकि राजा बार-बार विकट परिस्थितियों में भी सीना चौड़ा करने की बात करके लोगों में साहस भर देता था। 

महामारी का दौर गुजर चुका था। कभी पता ही नहीं चला कि कितने‌ लोग उस महामारी में चल बसे। माहौल ऐसा बन पड़ा कि जिनका कोई अपना दुनिया से चला गया उनको भी इस भ्रम में रखा गया कि कारण महामारी हो यह जरूरी नहीं। खैर, महामारी का दंश झेल चुकी जनता का जीवन पटरी पर लौटने‌ लगा था। इसी बीच राजकोष खत्म होने की नौबत आ गई। राजा चूंकि एक सिध्दहस्त मनोविज्ञान के डाॅक्टर की तरह था तो उसने इसका भी उपाय निकाल लिया। उसने राज्य की सुरक्षा और भविष्यलक्षीय उद्देश्यों को जनता के सामने रखकर टैक्स की वसूली दोगुनी कर दी। जनता भले ही मन मस्तिष्क से थक चुकी थी, मृतप्राय स्थिति में थी, लेकिन झटका तो उसे तब भी लगा जब दोगुने टैक्स की बात आई। लेकिन झटके को कम करने‌ के लिए चूंकि राजा ने  पहले ही उपाय ढूंढ लिए थे इसलिए उसे बहुत अधिक विरोध या अड़चनों का सामना नहीं करना पड़ा। इस बार राजा ने लोगों की अपने राज्य के‌ प्रति निष्ठा पर ही सवाल खड़ा कर दिया था, आम‌लोग भी नाराज हुए कि इतनी निष्ठा दिखाने के बावजूद उनकी राज्यभक्ति पर कैसे सवाल खड़ा किया जा सकता है। इस बार जनता ने राजा को खुश करने के लिए, अपनी निष्ठा का निर्वहन करने के लिए सारी जिम्मेदारी अपने कंधो पर लेने की ठान ली। 

राजा और प्रजा दोनों गुपचुप तरीके से अपनी तैयारी में थे। राज्य का स्थापना दिवस नजदीक आ रहा था तो राजा ने राज्य की अस्मिता को और अधिक मजबूती से पेश करने के लिए राज्य के प्रतीक चिन्ह का बड़ा सा स्मारक बना दिया और उसे देशवासियों के समक्ष एक तोहफे की तरह प्रस्तुत किया, स्मारक देखकर लोगों की आँखे चौंधिया गई लेकिन जनता तो जनता थी, इस बार वो राजा से एक कदम आगे निकल गई। राज्य के स्थापना दिवस के ठीक पहले आम लोगों ने खुद अपने शरीर के अलग-अलग हिस्सों में राज्य का प्रतीक चिन्ह गुदवा लिया, आमजन स्थापना दिवस के दिन कमीज उतारकर अपना प्रतीक चिन्ह दिखाते हुए राज्य भर में रैली कर रहे थे, अद्भुत दृश्य था। राजा यह सब देखकर आह्लादित हो उठा क्योंकि इस बार राजा को पेनकिलर देना नहीं पड़ा था, जनता खुद अपने लिए पेनकिलर बनाने लगी थी। 

Saturday, 6 August 2022

किसान का बेटा अधिकारी नेता बना है -

( शीर्षक में आप दोनों जेंडर को लेकर चलिए, सुभीते के लिए बस मैंने एक को ही लिया है, जेंडर बाइस नहीं हूं। )

हमारे यहाँ आए दिन ऐसी खबरें देखने सुनने में आती है कि किसान का बेटा अधिकारी बन गया, नेता बन गया, फलां‌ व्यक्ति जो छोटा सा होटल चलाता था उसका बेटा अधिकारी बन गया, रिक्शेचालक की बिटिया कलेक्टर बन गई आदि आदि। सरकारी नौकरी की तैयारी के समय यह खूब देखने में आया कि पिता लोहार हैं, मैकेनिक हैं, ड्राइवर हैं या श्रम से जुड़ा कोई काम करते हैं, बच्चे को बहुत मेहनत करके पढ़ाया और बेटा/बेटी अधिकारी बन गये। इसमें भी पिता के काम को छोटा और बच्चे के नौकरी लग जाने को महानता की तरह प्रस्तुत किया जाता है, जबकि उसी श्रम से, उसी काम की वजह से बच्चा नौकरी पाता है, समझ नहीं आता कि इसमें श्रम का प्रकार छोटा कैसे हुआ। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक के लिए यह कहा गया कि चायवाला प्रधानमंत्री बन गया, मानो चाय बेचना बहुत निम्न स्तर का काम हो। राष्ट्रपति जी के लिए भी गाँव की पृष्ठभूमि और आदिवासी समाज को कमतर बताकर राष्ट्रपति बनने को एक ऊंचाई की तरह प्रस्तुत किया गया। ठीक इसी तरह आज उपराष्ट्रपति जी के मामले में किसान परिवार से आया यह कहकर किसानी को लाइन खींचकर छोटा करने का काम किया जा रहा है।

कुछ बातें समझ ही नहीं आती है कि जैसे कोई अगर नौकरी पा लेता है तो इसमें बार-बार यह क्यों कहा जाता है कि गाँव से था, किसान परिवार से आया। मतलब यह सब कहकर आप कौन सा भाव लोगों के अंदर डालना चाहते हैं। सब कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि जीवन में उसने महान काम‌ किया है, दो कदम आगे बढ़ा है यानि किसानी फालतू है, उससे आगे की चीज किसी की नौकरी करना है। जब देश की दो तिहाई आबादी गाँव से ही आती है, किसान परिवार ही अमूमन सबका बैकग्राउंड रहा है तो किसान के बच्चे ही तो नौकर बनेंगे, अब इसमें गाँव और किसानी को बार-बार इतना नीचा क्यों दिखाना। क्या फाॅर्मल कपड़े पहनकर आफिस में बैठने वाली चाकरी करना ही महानता है। क्या किसान का इस देश में कोई योगदान नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ ही किसान है फिर भी किसानी को बार-बार इतना हत्तोसाहित क्यों किया जाता है? किसानी के बिना आपका एक भी दफ्तर दो दिन भी नहीं चल पाएगा इस सच्चाई को आप कब तक अस्वीकारेंगे?

ठीक इसी तरह किसानी से ही जुड़े या श्रम के जितने भी आयाम हैं, चाहे वह वजन उठाने से लेकर खाना परोसने का, या शारीरिक स्किल वाले वे जितने भी काम हों, ऐसा करने वालों के बच्चों को हेय क्यों माना जाता है कि उनकी नौकरी लग जाने पर माता-पिता और घर के बैकग्राउंड को एकदम लाचारी के साथ प्रस्तुत किया जाता है।

हम इस सब दोगली मानसिकता से आखिर कब ऊपर उठेंगे?

Monday, 1 August 2022

भैया दीदी मम्मी पापा etc नैतिकताएँ -

बहुत से ऐसे परिवारों में देखा है, जहाँ आज भी भाई बहन एक दूसरे को नाम से पुकारते हैं, उसी में सहज होते हैं, उनके माता-पिता को इस बात से कोई समस्या नहीं रहती है। लेकिन जैसे किसी तीसरे के सामने बात करनी है तो अनुपस्थिति में भैया दीदी कहकर ही याद करते हैं क्योंकि समाज में यही सिस्टम चल रहा होता है, लेकिन सामने बोलचाल में ऐसा कभी नहीं होता है। जिन घरों में भैया दीदी बोलने का कल्चर बचपन से बना दिया जाता है, ऐसे परिवार उन परिवारों को बड़ी हेय दृष्टि से देखते हैं जिनमें ऐसी नैतिकता का पालन नहीं होता है। मेरे घर में तो शुरू से कभी ऐसा नहीं रहा, किसी ने ये वाली नैतिकता नहीं थोपी, और मुझे यह बड़ा सही लगता है। दीदी को शादी के बाद भी जीजा के सामने नाम‌ से पुकारता हूं, नैतिकता का कोई ढोंग नहीं। जिस दिन मैंने गलती से दीदी बोल दिया वो खुद ही गुस्से से कहेंगी कि दुबारा ऐसे शर्मिंदा करने की जरूरत नहीं है, नाम ही पुकारना। ये कुछ वैसा ही है कि जिससे आप लंबे समय से किसी भाषा में बात कर रहे हैं, तो आप उस व्यक्ति से किसी दूसरी भाषा में जो आप दोनों को आती हो, उस भाषा में सहज होकर बात कर ही नहीं सकते हैं। यहाँ तक कि जो छोटा बच्चा होता है, वह अपने माता-पिता का नाम सुनते हुए 2-3 साल की उम्र में नाम से ही पुकारता रहता है, जो नाम सुनता है वह नाम सुनके आपको दोस्त समझ के वह नाम पुकारता है, इसमें तो अपनापन महसूस करना चाहिए, जब तक नाम पुकारता है पुकारने देना चाहिए, लेकिन नहीं माता-पिता को बच्चों से कहाँ दोस्ती करनी होती है, वहाँ भी छोटे बड़े वाली नैतिकता घुसेड़कर मम्मी पापा वगैरह कहना सीखाते चले जाते हैं। अपनी-अपनी सहजता है, न किसी पर कुछ थोपना चाहिए, न किसी का थोपा हुआ किसी को उठाना चाहिए।

Sunday, 31 July 2022

Ranveer singh nude photoshoot

हकीकत तो यह है कि रणवीर सिंह जो करता है ऐसा किसी और में करने की हिम्मत ही नहीं है। बात सिर्फ न्यूड फोटोशूट की नहीं है, बात है नैतिकता और तमाम वर्जनाओं को ढेंगा दिखाने की। आप उस इंसान का ड्रेसिंग सेंस देखिए, वो बंदा कभी ट्रेंड फाॅलो नहीं करता है, जो मन आए कुछ भी पहन लेता है, कुछ भी मतलब कुछ भी, एकदम‌ खर्रा आदिम। बहुत लोगों से मैंने यह सुना है कि बंदा फुल एनर्जी में रहता है, सीधी बात कहता है लेकिन उसे कपड़े पहनना नहीं आता। सीधा कहो न तुम्हारी आँखों को चुभता है उसका ड्रेसिंग, क्योंकि आप भी उसे ट्रेंड में देखना चाहते हैं। 

उसके मजाकिया और सीधी बात कहने वाले रवैये के कारण उसे अगंभीर तक कहा जाता है, इस पर यही कहना है कि ओढ़ी हुई बीमार मानसिकता वाली गंभीरता का दिखावा वह नहीं कर पाता है। रणवीर सिंह कलाकार आदमी है, उसकी अपनी कला वाली फील्ड है, उसने जो किया है, उसे आर्ट कहा जाता है, अब जिनको कला की समझ नहीं है, ऐसे लोग ही उसका विरोध कर रहे हैं, इतने खलिहर हैं कि कपड़ा दान करने का आयोजन कर चटकारे ले रहे हैं। 

ठीक है एफआईआर हुई है, अश्लीलता कहा जा रहा है, चलो मान लिया अश्लीलता है। लेकिन इन अक्ल के दुश्मनों को वहाँ अश्लीलता नहीं दिखाई देती जब सरकार बहादुर दैनिक जीवन की जरूरतों पर इफरात टैक्स लगाती है, लोगों की निजता पर हमला करने, उनको कंट्रोल करने के लिए वीपीएन बैन करने पर उतारू है, रेल्वे में सीनियर सिटीजन की छूट खत्म कर रही है। कोरोना काल में हमने अपने आसपास के कितने लोगों को खो दिया लेकिन सरकार ने उन्हें कोरोना से हुई मौत मानने से ही इंकार कर दिया, इस देश में इससे भी अश्लील कुछ हो सकता है क्या? ऐसा बहुत कुछ होता रहता है, लेकिन यहाँ न तो कोई संस्कृति भ्रष्ट होती है, न ही किसी को अश्लीलता दिखाई देती है। नियत के स्तर पर सोच के स्तर पर इंसान हर सेकेण्ड स्खलित होता रहेगा लेकिन अश्लीलता तो सिर्फ रणवीर सिंह ने ही की है। 

Friday, 29 July 2022

अपने अपने नशे -

मई जून की भीषण गर्मी और जुलाई अगस्त की बारिश में भी अगर किसी को लगातार घूमना पड़ रहा है तो सोच कर देखिए ऐसे व्यक्ति के जीवन में कितना अधिक तनाव होगा। आप ऐसे व्यक्ति से कहें कि कुछ दिन एकांत में अपने साथ बिता ले तो शायद वह अपने दोनों हाथों से अपने सारे बाल नोंच ले, अपना सर दीवार पर दे मारे या ऐसा ही बहुत कुछ, तो घूमना तो इससे बेहतर ही विकल्प है, इससे तनाव खत्म तो नहीं होता है, हाँ कुछ समय के बस डेट खिसक जाती है। सबके लिए नहीं पर एक जनरल बात कही जा रही कि हमारे अपने भीतर का मानसिक तनाव हमसे क्या-क्या नहीं करवा देता है। इंसान भीतर इतना अधिक तनाव लेकर चल रहा होता है, उस तनाव से खुद को बचाने के लिए वह कुछ तो करता ही है, शांत कहाँ रह पाता है, सहज होकर तो वैसे भी कुछ नहीं होता है। 

इसमें देखने में यह आता है कि इंसान तनाव दूर करने के लिए बहुत से अलग-अलग प्रक्रम करता है। 
जैसे :
कोई अनैतिक संबंधों को जीता है, 
कोई स्क्रीन में गेमिंग सर्फिंग आदि करता है, 
कोई शराब कोकेन गाँजा आदि नशीले पदार्थों का सहारा लेता है, 
कोई पेशेवर तरीके से कुछ एक खास फिल्मों, किताबों के बीच मशगूल रहता है, 
मोबाइल में रील, व्लाॅग, आदि में समय खपाकर खुश होने की जुगत में रहता है,
तो कोई गोयन्का के विपश्यना, सद्गुरू के इनर इंजीनियरिंग या श्री श्री रविशंकर के शिविर का हिस्सा बन जाता है, 
ऐसा ही बहुत कुछ होता है। 
लेकिन क्या इन सबसे तनाव दूर होता है या और बढ़ता है??

मूल बात तो यह है कि एक झटके में डोपामाइन पा लेने की चाह व्यक्ति के स्वादानुसार कुछ भी करा ले जाती है। इनको वास्तव में तानों या उपहास की नहीं बल्कि बहुत अधिक केयर की जरूरत होती है। अपनी मनोस्थिति को लेकर इतना जागरूक/संवेदनशील होता भी नहीं है कि किसी विशेषज्ञ से परामर्श ले। इसीलिए हमें चाहिए कि एक जिम्मेदार नागरिक की तरह हम खामोशी से सबके भीतरी तनाव का, और उस तनाव से खुद को संभालने के लिए किए जा रहे नशे का, नशे के डोज का सम्मान करें, उनका थोड़ा भी मजाक न बनाएं, सबके जीवन का बराबर सम्मान करते चलें। इससे ज्यादा हम कुछ कर भी नहीं सकते हैं।

बच्चों की सफाई करने को लेकर चर्चा -

एक बार एक महिला मित्र से बच्चों को लेकर चर्चा हो रही थी। उन्होंने कहा कि छोटे बच्चे यूरिन करते हैं, उसकी सफाई तो मैं कर सकती हूं लेकिन मलत्याग करेंगे तो मैं साफ सफाई नहीं कर सकती। मैंने पूछा कि कल जाकर आपके अपने बच्चे हुए, तब आप कैसे करोगे। उनका जवाब रहा - नौकरानी रख लूंगी, मुझे यह अटपटा लगता है, मुझसे नहीं होगा ये कभी। मैंने कहा - जब आपको अपने ही बच्चे की सफाई करने में इतनी शर्मिंदगी महसूस हो रही है तो जो आप नौकर रखेंगी वह अपनेपन से सफाई कर देगा, इसकी आप कैसे गारंटी ले सकती हैं। उनका कोई जवाब नहीं आया। आपके माता पिता ने बचपन में ऐसा सोचा होता तो...ऐसी बहुत सी बातें आ रही थी लेकिन आजकल दोस्त यार भी थोड़े में आहत हो जाते हैं इसीलिए जाने दिया।

समझ नहीं आता बच्चों के प्रति इतनी हिंसा आखिर क्यों?
हर कोई मलत्याग करता है, आप सफाई करना सीख गये हैं, बच्चे इसके लिए विकसित नहीं हुए रहते तो उनके साथ इतनी बेरूखी???
अगर बच्चों में सचमुच क्षमता होती तो वे किसी का सहारा लेते ही नहीं, खुद ही अपना सब कुछ कर लेते। वैसे भी बच्चे यह सब अपने आप सीखते जाते हैं, बस उनको एक डायरेक्शन चाहिए होता है। 

Thursday, 28 July 2022

बहुसंख्य आबादी के बीच छिपे हुए लोग -

हम बहुसंख्य आबादी को हमेशा नजर अंदाज करते हैं और जो एक कोई ऊंचाई को छू लेता है उसे ही सर्वश्रेष्ठ या उसे ही सबसे बड़ा अपराधी मानते हैं। 

जैसे उदाहरण के लिए प्रतियोगी परीक्षाएँ होती हैं, लाखों लोग शामिल होते हैं, बमुश्किल 500 लोगों का चयन होता है, उपस्थित परीक्षार्थियों में से चयनित परीक्षार्थियों का प्रतिशत 0.1 से 0.5% या 1% तक का ही होता है। अब इसमें भी जैसे मोटा-मोटा 50% तो नौसिखिए होते हैं, जो बिल्कुल अगंभीर होते हैं, इनको हटा देते हैं, उसके बाद जो थोड़े कम गंभीर नौसिखिए होते हैं, 25% उनका भी हटा देते हैं, बचे हुए 24% में 10% और लोगों को भी हटा देते हैं जो अपना सर्वस्व नहीं देते हैं, लेकिन इनकी कोशिश भी कोई बहुत खराब नहीं होती है, फिलहाल के लिए इनको भी किनारे कर लेते हैं। अब जो बचे हुए 14% हैं, ये तो पूरी गंभीरता से अपना सर्वस्व झोंक कर लगे होते हैं, यह भी उतने ही योग्य होते हैं, जितने कि वे लोग जिनका चयन होता है, क्या पता उनसे अधिक भी योग्य हो सकते हैं, होते भी हैं, लेकिन चूंकि मामला छंटनी का होता है, अधिक से अधिक लोगों को न लेने का गणित होता है, इसीलिए ये पीछे छूट जाते हैं, इनको इनकी योग्यता का‌ प्रमाण पत्र नहीं मिल पाता है। इसका अर्थ यह तो नहीं कि ये योग्य नहीं होते हैं या मेहनत नहीं करते हैं, नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है। 

अब एक‌ अपराधी की बात करते हैं, जो चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या या अन्य किसी तरह का अपराध करता है। बहुत कम ही लोग होते हैं जिनके द्वारा की गई घटना संज्ञान में ली जाती है, उन्हें सजा दी जाती है, हमें बस वही सीमित लोग ही अपराधी के रूप में दिखाई देते हैं। 
- इनका प्रतिशत भी ऊपर लिखे गये प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित परीक्षार्थियों जैसा 1% तक ही माना जाए, बाकी का प्रतिशत हम छोड़ देते हैं। 
- कुछ ऐसे होते हैं, जो किसी कारणवश पुलिस की गिरफ्त में नहीं आ पाते हैं। (14%)
- कुछ ऐसे भी होते हैं जो भले घटना को संपूर्णता में अंजाम न दे पाते हों लेकिन प्रयास पुरजोर करते हैं लेकिन चूक जाते हैं। (10%)
- कुछ ऐसे भी होते हैं जो आजीवन हिंसा के अनेकों छुटपुट घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं या प्रयास करते रहते हैं। (25%)
- कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके मन में हिंसा नामक बीज हमेशा पैदा होता रहता है लेकिन उसको धरातल में कभी नहीं लाते हैं। (50%)

Sunday, 17 July 2022

अपने अपने ईश्वर -

एक मानसिकता है, एक सैध्दांतिकी है, जिसे इंसान धुरी बनाकर उस पर घूमता रहता है। इसमें अपनी जरूरतें केन्द्र में होती हैं। जैसे पुराने समय में किसी को युध्द में या शिकार में जाना होता था, या पुत्र प्राप्ति या किसी असाध्य रोग से मुक्ति चाहिए होती थी तो वे किसी जानवर या नरबलि तक की प्रथा वाली सैध्दांतिकी को मजबूती से जीते थे। 

आज भी इस सैध्दांतिकी को अपने आसपास अलग-अलग रूपों में पल्लवित होते हुए देखा जा सकता है। समय बदला है, इंसान को न‌ पहले जैसे युध्द करना है न ही जंगल में जाना है। आज उसकी भूख, उसकी जरूरतें, उसका लालच अलग है। लेकिन वह किसी एक प्रचलित नियम‌ को, आस्था के पैटर्न को मानने का कष्ट उठाता रहता है, क्योंकि बदले में वह तरह-तरह के‌ अपराध/हिंसा करता है, अनैतिकता को जीता है।

हम सबने अपने आसपास किसी न किसी यौन कुण्ठित व्यक्ति को देखा ही होता है। सबकी बात नहीं कही जा रही लेकिन मैंने यह पाया है कि अधिकतर जो यौन कुण्ठित युवा या फिर अंकल सरीखे लोग होते हैं, ये नवरात्र उपवास, सावन की कांवड़ यात्रा या ऐसे तमाम धार्मिक आयोजनों में जमकर अपना समर्पण दिखाते हैं। इसमें सहजता तो होती नहीं, अपराधबोध जरूर होता है। मुझे ऐसा लगता है कि यह समर्पण इनको इस बात का परमिट देता है कि यह जीवन में जिस भी आपराधिक प्रवृति को जीते हैं उसमें प्रभु की कृपा सन्निहित है और प्रभु उन्हें इसके लिए बख्श देंगे।

अपने अपराधों, अपने कुकर्मों, अनैतिक कृत्यों की पैरवी के लिए हम सबसे पहले स्वयं एक ईश्वर/एक मानसिकता को चुनते हैं क्योंकि उसे हम‌ अपने हिसाब से नचा सकते हैं और अंतिम फैसला बड़ी आसानी से अपने पक्ष में ले सकते हैं और इससे आजीवन अपनी सारी गलतियों को सही मानने के भ्रम में जीने की सुविधा मिल जाती है।

Saturday, 16 July 2022

बस्तर के एनजीओधारियों की जमीनी हकीकत -

 एक महाधूर्त नीच जल्लाद सरीखे व्यक्ति को जिसने बस्तर में आदिवासियों का शोषण कर उनके दम पर ताबड़तोड़ अपनी दुकान चलाई, करोड़ों करोड़ों की फंडिंग उठाई, इनके संचालित दुकान में प्रायोजित तरीके से यौन शोषण होता रहा, खैर। ऐसे व्यक्ति को पिछले कुछ दिनों से गाँधी कहा जा रहा है, खूब सोशल मीडिया द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है। 

बस्तर जैसी जगह में जितने भी ये फर्जी एनजीओधारी आदिवासियों के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, सबसे पहले तो सबको बैन कर देना चाहिए, आदिवासियों के हितों के लिए सबसे बड़ा कदम पहले तो यही होगा। मजे की बात देखिए कि ये फर्जी एनजीओधारी समाजसेवी लोग कभी माओवादियों का खुलकर विरोध नहीं करेंगे। ये कभी माओवादियों द्वारा की गई बर्बर हिंसा को हिंसा नहीं कहेंगे। माओवादी बर्बरता से आदिवासियों का रेप करे, उनके हाथ पाँव गला काट दे, उनको जिंदा जला दे, आए दिन कितनी भी बर्बरता से हिंसा करते रहें, इनके मुँह से एक शब्द नहीं निकलेगा। क्यों नहीं निकलेगा आप खुद समझदार हैं।

इस बात से इंकार नहीं है कि पुलिस या आर्मी से कोई चूक नहीं हुई, उन्होंने आदिवासियों को हाथ भी नहीं लगाया है ऐसा नहीं कहा जा रहा। लेकिन पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों के हाथ पाँव गुप्तांग नहीं काटे हैं, पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों को बर्बरता से जिंदा नहीं जलाया है, पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों का सुनियोजित तरीके से सिस्टम बनाकर यौन शोषण नहीं किया है, पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास नहीं किया है। 

माओवादियों ने इस जगह में जमकर आदिवासियों का शोषण किया है, हर तरह का शोषण, आप जहाँ तक सोच पाते हैं सोच लीजिए, अभी भी यही कर रहे हैं, उनके नाम‌ पर अपनी दुकान चला रहे हैं। इसीलिए कहीं एक आर्मी का कैम्प बनना शुरू हुआ, बौखलाने लगते हैं क्योंकि शोषण के दम‌ पर जो मौज काटने की दुकान चल रही, उसमें समस्याएँ आनी शुरू हो जाएगी। माओवादियों को अगर इतनी ही आदिवासियों की फिक्र है तो क्या उन्होंने आदिवासियों के लिए दवाईयों, अस्पताल की सुविधा दी, उनको मूलभूत सुविधाएँ दी, उनको क्या शिक्षा के लिए प्रेरित किया, उल्टे इन सब चीजों से वंचित रखा है, इनकी अपनी संस्कृति को धूमिल‌ किया है, किसलिए अपने मौज के लिए, अपने शोषण की पूर्ति के लिए, अपनी दुकान चलाने के लिए, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए। और बात-बात पर जल जंगल जमीन का ढोंग करते रहते हैं जबकि खेल भोग का है, शोषण का है। जमकर हर तरह का शोषण कर रहे हैं, एक ओर बम‌ लगाकर करोड़ों की फंडिंग उठाते हैं, दूसरी ओर इन तथाकथित समासेवियों की मदद से दो चार आदिवासियों को इसलिए आगे कर देते हैं ताकि वे सरकार आर्मी को रेपिस्ट शोषणकर्ता घोषित करते रहें और मीडिया में यही छाया रहे। ये अभी भी यही करते आ रहे हैं, लेकिन पता नहीं क्यों आँख के अंधे लोगों को यह सब दिखता ही नहीं है। 

VPN Ban

फिलहाल VPN बैन करने की डेट सितम्बर तक के लिए होल्ड में है। मसला ये है कि सरकार चाहती है कि VPN कंपनियाँ 5 साल तक यूजर डेटा संभाल कर रखें ( जिसमें सारा निजी डेटा है), इसके पीछे तर्क यह कि साइबर क्राइम, आंतरिक सुरक्षा और ऐसे तमाम मसलों से निपटने में आसानी होगी। ( वैसे जिसको यह सब इलीगल काम करना है, वह VPN बैन के बाद भी कर लेगा, कई दूसरे और तरीके होते हैं, तो VPN बैन का इससे घंटा कोई लेना-देना नहीं है इतना तो सबको स्पष्ट हो जाना चाहिए )। मतलब गजब ही मजाक है, ये बिल्कुल वैसा ही है कि कल को सरकार ये भी कह देगी कि हम साइबर क्राइम नहीं रोक पा रहे हैं, तो पूरे देश में इंटरनेट ही हमेशा के लिए बैन करेंगे। 

VPN कंपनी का काम ही होता है सिक्योर नेटवर्क देना, किसी का डेटा शेयर न करना, लाॅग न रखना, प्राइवेसी को‌ प्रोमोट करना। अगर वह सरकार के कहे अनुसार डेटा रखने लगी तो फिर VPN का मतलब ही क्या रहा। बिना इंजन के गाड़ी चलाने वाली बात है। इतनी भयानक तानाशाही पर सरकार उतारू है। वैसे Surfshark, ExpressVPN और NordVPN जैसी बड़ी कंपनियों ने इस नियम को ढेंगा दिखाते हुए अपने सर्वर ही भारत से हटा लिए हैं, अब सिंगापुर से आपरेट कर रहे हैं, इंडियन आईपी भी दे रहे हैं, भारत के नियमों से भी मुक्त, अगर सरकार एकदम ही नीचता पर उतरती है तो सितंबर में शायद इनका आपरेशन बंद हो जाए। यह कुछ वैसे ही होगा जैसे कोई एप्प बैन होता है, तो दुनिया के किसी भी कोने से सर्विस नहीं दे पाएंगे। कुछ-कुछ कम‌ बजट वाली छोटी कंपनियाँ जो खुद को भारत से बाहर मूव नहीं कर सकती, उनके सर्वर अभी भी भारत में हैं।

Sunday, 10 July 2022

Food culture in Raipur, Chhattisgarh

जहाँ तक बात बाहर के खाने की है। कम से कम छत्तीसगढ़ में अब कहीं बाहर का खाना खाने से मैं तो दूरी बनाना ही बेहतर समझ रहा हूं, ऐसी बात नहीं है कि स्वास्थ्य की बहुत अधिक चिंता है या बाहर के खाने‌ से समस्या है। हमारे यहाँ खासकर रायपुर में जितने भी कैफे, रेस्तरां, ढाबा, फूड-स्टाॅल, छोटे से लेकर बड़े मोटा मोटा सबको लेकर कह रहा हूं, पिछले कुछ सालों से, खासकर कोरोना के बाद से ऐसा खाना परोस रहे हैं कि अब कुछ भी खाने लायक नहीं रह गया है। उतना ही मैनपावर, उतना ही रिसोर्स लगा रहे, रेट भी बढ़ा लिया, लेकिन स्वाद नाम की चीज ही नहीं। एक बार नहीं, बार-बार निराशा हुई है तब जाकर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। कोरोना के बीच में ही भारत घूमकर आया हूं, अलग-अलग जगह तरह-तरह की चीजें खाई है, कहीं और ऐसा कल्चर ऐसी लूट देखने को नहीं मिली, एक खिलाने का प्रेमभाव होता है, वह पता नहीं क्यों मुझे यहाँ बिल्कुल नहीं दिखाई देता है, इसमें आप मुझे पूर्वाग्रही समझकर दोष देने के लिए स्वतंत्र हैं। आज राजधानी रायपुर में आप बाहर खाना खाने जाएं तो बहुत रूपया चुकाने के बाद भी ढंग का भोजन मिल पाना दुर्लभ हो चुका है। स्वास्थ्य की थोड़ी भी चिंता है तो बिरयानी तो आप बाहर किसी भी सस्ते से लेकर बहुत महंगे कोई भी रेस्तरां क्यों न हो, न ही खाएं तो बेहतर है, दूसरा फलों के जूस से भी हमेशा के लिए परहेज कर लीजिए, मेरा इन सबमें बहुत अनुभव रहा है इसलिए कहा। एक-एक डिश और एक-एक जगह का अब ज्यादा क्या ही नाम लूं, खुद ही अपनी समझ अनुसार आप देख लीजिए। ठीक है, इंसान बिजनेस कर रहा है, जोखिम उठा रहा है, कमा ले पैसे लेकिन गुणवत्ता के नाम‌ पर कुछ तो हो, इतने निम्न स्तर पर भी नहीं उतरना चाहिए। अपनी बात कहूं तो बाहर खाने के नाम‌ पर अब एक आइसक्रीम ही ऐसी चीज रह गई है, जिसे निस्संकोच बाहर जाकर खाया जा सकता है। 

एक सरकारी रेस्तराँ है, राज्य के जो प्रचलित स्थानीय व्यंजन हैं उसके प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से इसे बनाया गया था, खूब सरकारी फंडिंग होती है, सब अच्छा है लेकिन स्वाद आपको एकदम ही निचले स्तर का मिलना है। ये चाहें तो आसानी से स्वाद दे सकते हैं लेकिन नियत ही नहीं है, मड़गिल्लापन इतना हावी है कि क्या ही कहा जाए‌। कुछ समय पहले दूसरे राज्यों से आए कुछ दोस्तों के साथ यहाँ जाना हुआ था, उन्होंने आधे में ही खाना छोड़ दिया, मैंने जैसे-तैसे जबरदस्ती खाकर लाज बचाने की कोशिश की लेकिन मैं भी पूरा नहीं खा पाया, खैर। समझ नहीं आया कि आखिर अब इन्हें लेकर जाऊं तो जाऊं कहाँ। मेरे लिए एकदम चारों ओर अंधेरा है वाली स्थिति थी। फिर हम एक दूसरे जिले में ही चले गये। कहाँ गये यह बताना जरूरी नहीं समझ रहा हूं।

हमारे यहाँ राजधानी में बाकी राज्यों की तुलना में खाने पीने की चीजों के रेट तो दुगुने हो चुके हैं, लेकिन स्वाद और हाॅस्पिटालिटी के नाम पर एकदम ही जीरो। अपवादों में से अपवाद कोई होंगे उनको हटाकर इन जनरल कह रहा हूं। स्ट्रीट फूड की बात करें तो बाकी राज्यों से तुलना की जाए तो बहुत निराशा होती है, पूरी फूहड़ता के साथ बस घटिया काॅपी पेस्ट कर रहे हैं, एकदम पायरेटेड से भी निचले स्तर की गुणवत्ता, कोई प्रयोग नहीं, कोई नयापन नहीं। बड़े फूड चैन की बात करें तो वही फूड चेन दूसरे राज्य में बढ़िया खाना परोसेगा, यहाँ वो क्वालिटी नहीं देगा। सिस्टम का इन सब में बड़ा रोल होता है। खैर, अपने ही राज्य का अपमान नहीं कर रहा हूं, हकीकत बता रहा हूं कि कोई बाहर कुछ खाने-पीने जाए, तो इसका बहुत ही घटिया कल्चर डेवलप हो चुका है, असल में देखा जाए तो कोई कल्चर ही नहीं है।

Saturday, 9 July 2022

सोया हुआ नागरिक

सरकार चाहती ही यही है कि लोग तरह-तरह के नशे में आकण्ठ डूबे रहें और मूल चीजों को कभी रेखांकित न कर पाएं। काॅलेज की दहलीज में कदम रखने वाला एक युवा जो एक से अधिक प्रेम प्रसंग में हो, उसे लगता है दुनिया उसकी मुट्ठी में है। दो चार दर्जन छात्रों को पढ़ा रहे टीचर प्रोफेसर को इस बात का दंभ रहता है कि दुनिया उनके कहे अनुसार ही चलती है। आफिस या अपना एक चैम्बर संभाल रहे तमाम सरकारी प्राइवेट व्यापारी फलां इनको लगता है कि जिन चंद लोगों के जीवन को ये प्रभावित कर रहे होते हैं, यही दुनिया है। ये सारे लोग अपनी आत्ममुग्धता में मशगूल यह भूल जाते हैं कि ये सरकार नामक संस्था के इशारों पर कठपुतली की तरह नाच रहे होते हैं। ये खुद को नहीं बल्कि सरकार को मजबूत करते हैं और एक नागरिक में रूप में अपनी विचारशीलता गिरवीं रख खुद को बहुत अधिक कमजोर कर रहे होते हैं।

Friday, 24 June 2022

Happiness

 Happiness -
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Happiness is what every being in this planet craves deeply for.
everything that we do at its purest level is for happiness.
may be for others, may be for ourselves but nevertheless, Happiness.
Now the reason this is such an important concept to understand is because it explains why every human has ever done anything.
to be happy is the ultimate desire of mankind. and the reason it is significant in this article is it explains how social media explains your life and you dont even know it.
Lets discuss in depth :
Think back to the time you didn't care about the clothes you wore or how many of them you had. you weren't concerned about how your hair was styled and you didn't even think about the way your eyebrows, nose, cheekbones, stomach, or thighs looked. Since then, something has changed..not all at once, but gradually you started to become aware of those things. 
With the rise of social media in the past decade, many young girls have discovered the world of beauty, fashion and makeup through the internet and overtime it begin to control their lives. 
So let's talk about youtube, In particular beauty videos, once you begin to become aware of your physical appearance and people on tv and the internet wearing makeup, doing cute hairstyles, wearing fashionable clothing, you may start to feel insecure or you may think that you are not pretty enough or you are not skinny enough. you want to feel those feelings so you go to beauty gurus to try to learn how to be prettier, how to be skinnier or how to look better and have nicer clothing.
It begin to get consumed in this world of buying tons of products and spending hours and hours focused on your appearance you regularly view these girls who you think are so pretty and seem so happy and you start to believe that the reason they seem happy is because of the way they look and you notice that when you dress up in your favorite outfit put on nail polish curl your hair and do your makeup you feel happier you feel more confident than you did without all those things. 
You begin to fall into the illusion that the problem is what you look like and the solution is to change what you look like. and it certainly doesn't help that a large portion of your free time is spent in this mental environment focused around appearances because when you're not busy being concerned about whether you look fat in the clothes you're wearing or if you're hair got messed up throughout the day. you're consuming photos and videos of other people talking about their favorite nail polish, their new hair extensions, the hundreds of dollars of clothing they just bought or this new diet they tried even though they were already at a healthy weight.
We spend hours a week or even a day taking an information that we believe is making us happier and more confident but is it really? No. before I explain why not let's investigate a situation that is very prevalent in society today - " materialism " clothes, makeup, the latest technology, perfume, hair products, jewelry, shoes, you can never have too many pairs of shoes, right? Well, wrong. we live in a world where materialism runs rampant through the streets.  catching the eyes of all those who are searching for happiness and don't know where to find it.
you may watch clothing haul videos where girls spend so much money on clothes that they don't even need. which then makes you feel like you're lacking something. so, you go out and you buy a bunch of clothes to add to your already jam patch closet and boy does that make you happy. 
fast forward a month later and you've already worn the clothes a few times and they just don't satisfy you the same way they did before.  so, to come back that empty feeling you go and buy more. you buy more because you thought the problem was that you didn't have enough. but that actually made the problem worse, because no amount of clothing shoes makeup or any material object is going to fill the emptiness that you feel inside of yourself.
if you think it takes a certain amount of name brand clothes or makeup routine that makes your face look flawless to be happy your search for happiness will never end.
we believe that changing our external appearance will heal our internal conflict with ourselves but that only hides our problems doesn't fix them. you're locking your insecurities inside yourself pretending they don't exist but they do and they're begging to be released so take a step back and be honest with yourself.
our makeup, beauty and fashion really ways of expressing yourself or things your passionate about or the things you use, tied from yourself that you don't feel whole and complete. so, return to your inner child, return to that place where you weren't so caught up and how you look, how others perceived you for that is your true nature.
Have you ever posted a picture on Instagram and refresh the page every few minutes to see how many likes it was getting. if so, you are far from alone for being concerned with one social media status has become the norm. the only poster best pictures showing the edited highlight reel of our lives the ones we post are the ones where we feel we look attractive our skin looks tan enough our thighs look far enough apart. our makeup is on point the reason we want to share these images of ourselves with others is because we want validation. we seek social approval and relevance through likes, retweets and shares. we feel like we need to prove our lives to other people, show them that we are skinny we are beautiful we do have a ton of friends we do have a life. but is it really much of a life, if so many of the things you do are just so you can post about them on social media. ask yourself is that real life? you find yourself basing yourself worth a numbers you need to change not because you're a bad person but because it is taking away your happiness and you deserve to be happy. 
if you can't see that and you need to step back stop posting for a while, stop looking to see how many followers you've gained turn off your notifications, allow yourself to love yourself and live for yourself not for the approval of others focus on the real world.
Celebrities ; We want to look like them having an amazing life like them have tons of money like them living luxury like them be known and valued like them we want to be them. but why?
 what makes us idolize these people who are really no different than ourselves well you see that's the problem right there. most people don't understand that we are all the same because of how often celebrities are placed on a pedestal. by thinking that there are different we make them different but even so we think we know so much about them, we think because of their status, wealth and beauty that they must be happy and we think to ourselves if we could have all those things then we too would be happy but how do we even know that they are happy can we base it purely on the fact that they seem happy. no, in fact most celebrities are just as miserable as everyone else because all the money in the world can't buy happiness and famous success can't fix the internal struggle that one has created with yourself. 
celebrities may seem happy because of those things but they're not if they are truly happy they're not going to have hundreds of edited pictures of themselves and design your clothing wearing makeup that took two hours to do they aren't going to do bikini photoshoots or take pictures of their butt to give you fitness inspiration. I mean fitness in the physical activity should be done to feel good and be healthy not to attain a certain physique. they do these things because they too are searching for happiness and unfortunately they're looking for it in all the wrong places and sadly there are so many young girls that follow these people thinking that if they were more like them than they would be happy.
this mentality opens the doors to a life of self-hate and comparison it creates long-lasting mental and emotional pain sometimes even if physical pain in the form of self-harm and eating disorders.
we begin to feel like we're not worthy of love from others or even from ourselves because when we look in the mirror we don't like what we see and we strongly identify with that image we see in the mirror. we may even call it ourself refer to it as I or me, I'm ugly I need to change the way I look, I'm fat I need to lose weight, I don't deserve to eat because of how fat I am but what you must realize is that, that is not you, it is just the physical form which you would happen in this life. 
Think about it this way.  if you were to change your appearance say put on a different pair of pants, get attached to or dye your hair would you still be you yes of course. so ask yourself who am I ? you might think to yourself well I'm X or I'm Y or whatever your name might be but are you really just a combination of letters put together. no you're not that either really think who am I? oh well I want to be a dentist one day right now my favorite things to do are a play football, read books, draw and watch movies that's why I am. 
 those are just experiences who is having those experiences. who sees when you see, who hears when you hear, who feels when you feel, now you may begin the think okay then maybe I am my thoughts, feelings and emotions and you're getting closer but you're still not there you are not your thoughts because again they're just an experience, who is thinking those thoughts, who is feeling those feelings and emotions, if your thoughts were to stop like they do a meditation, would you see to exist. no, you still be here. so really think about it who am I? you're not your body face or hair you're not your labels status or job you are not your experiences memories likes dislikes you are not your feelings of happiness, sadness guild or joy not of that is you so don't let any of it control or define you. 
you are something so much more powerful and divine. you are pure conscious awareness. try to think of yourself without awareness, what would life be like. well it wouldn't be like anything because you wouldn't be without it, that is how you know that you are it and it is you, and once you truly understand what that means then you are free. free to discover true happiness and finally live in the real world, free from this fall self-identification that controls your life, free from your own expectations and harsh judgments and free from this fake gloss over world of beauty fashion, comparison, idolization and status. release yourself from this place, from this illusion it is not who you are, for you are not a human being in this universe, you are the universe in a human being, you are not your physical appearance, you are not your social media status,

you are you and you are enough.