Sunday, 10 July 2022

Food culture in Raipur, Chhattisgarh

जहाँ तक बात बाहर के खाने की है। कम से कम छत्तीसगढ़ में अब कहीं बाहर का खाना खाने से मैं तो दूरी बनाना ही बेहतर समझ रहा हूं, ऐसी बात नहीं है कि स्वास्थ्य की बहुत अधिक चिंता है या बाहर के खाने‌ से समस्या है। हमारे यहाँ खासकर रायपुर में जितने भी कैफे, रेस्तरां, ढाबा, फूड-स्टाॅल, छोटे से लेकर बड़े मोटा मोटा सबको लेकर कह रहा हूं, पिछले कुछ सालों से, खासकर कोरोना के बाद से ऐसा खाना परोस रहे हैं कि अब कुछ भी खाने लायक नहीं रह गया है। उतना ही मैनपावर, उतना ही रिसोर्स लगा रहे, रेट भी बढ़ा लिया, लेकिन स्वाद नाम की चीज ही नहीं। एक बार नहीं, बार-बार निराशा हुई है तब जाकर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। कोरोना के बीच में ही भारत घूमकर आया हूं, अलग-अलग जगह तरह-तरह की चीजें खाई है, कहीं और ऐसा कल्चर ऐसी लूट देखने को नहीं मिली, एक खिलाने का प्रेमभाव होता है, वह पता नहीं क्यों मुझे यहाँ बिल्कुल नहीं दिखाई देता है, इसमें आप मुझे पूर्वाग्रही समझकर दोष देने के लिए स्वतंत्र हैं। आज राजधानी रायपुर में आप बाहर खाना खाने जाएं तो बहुत रूपया चुकाने के बाद भी ढंग का भोजन मिल पाना दुर्लभ हो चुका है। स्वास्थ्य की थोड़ी भी चिंता है तो बिरयानी तो आप बाहर किसी भी सस्ते से लेकर बहुत महंगे कोई भी रेस्तरां क्यों न हो, न ही खाएं तो बेहतर है, दूसरा फलों के जूस से भी हमेशा के लिए परहेज कर लीजिए, मेरा इन सबमें बहुत अनुभव रहा है इसलिए कहा। एक-एक डिश और एक-एक जगह का अब ज्यादा क्या ही नाम लूं, खुद ही अपनी समझ अनुसार आप देख लीजिए। ठीक है, इंसान बिजनेस कर रहा है, जोखिम उठा रहा है, कमा ले पैसे लेकिन गुणवत्ता के नाम‌ पर कुछ तो हो, इतने निम्न स्तर पर भी नहीं उतरना चाहिए। अपनी बात कहूं तो बाहर खाने के नाम‌ पर अब एक आइसक्रीम ही ऐसी चीज रह गई है, जिसे निस्संकोच बाहर जाकर खाया जा सकता है। 

एक सरकारी रेस्तराँ है, राज्य के जो प्रचलित स्थानीय व्यंजन हैं उसके प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से इसे बनाया गया था, खूब सरकारी फंडिंग होती है, सब अच्छा है लेकिन स्वाद आपको एकदम ही निचले स्तर का मिलना है। ये चाहें तो आसानी से स्वाद दे सकते हैं लेकिन नियत ही नहीं है, मड़गिल्लापन इतना हावी है कि क्या ही कहा जाए‌। कुछ समय पहले दूसरे राज्यों से आए कुछ दोस्तों के साथ यहाँ जाना हुआ था, उन्होंने आधे में ही खाना छोड़ दिया, मैंने जैसे-तैसे जबरदस्ती खाकर लाज बचाने की कोशिश की लेकिन मैं भी पूरा नहीं खा पाया, खैर। समझ नहीं आया कि आखिर अब इन्हें लेकर जाऊं तो जाऊं कहाँ। मेरे लिए एकदम चारों ओर अंधेरा है वाली स्थिति थी। फिर हम एक दूसरे जिले में ही चले गये। कहाँ गये यह बताना जरूरी नहीं समझ रहा हूं।

हमारे यहाँ राजधानी में बाकी राज्यों की तुलना में खाने पीने की चीजों के रेट तो दुगुने हो चुके हैं, लेकिन स्वाद और हाॅस्पिटालिटी के नाम पर एकदम ही जीरो। अपवादों में से अपवाद कोई होंगे उनको हटाकर इन जनरल कह रहा हूं। स्ट्रीट फूड की बात करें तो बाकी राज्यों से तुलना की जाए तो बहुत निराशा होती है, पूरी फूहड़ता के साथ बस घटिया काॅपी पेस्ट कर रहे हैं, एकदम पायरेटेड से भी निचले स्तर की गुणवत्ता, कोई प्रयोग नहीं, कोई नयापन नहीं। बड़े फूड चैन की बात करें तो वही फूड चेन दूसरे राज्य में बढ़िया खाना परोसेगा, यहाँ वो क्वालिटी नहीं देगा। सिस्टम का इन सब में बड़ा रोल होता है। खैर, अपने ही राज्य का अपमान नहीं कर रहा हूं, हकीकत बता रहा हूं कि कोई बाहर कुछ खाने-पीने जाए, तो इसका बहुत ही घटिया कल्चर डेवलप हो चुका है, असल में देखा जाए तो कोई कल्चर ही नहीं है।

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