बहुत से ऐसे परिवारों में देखा है, जहाँ आज भी भाई बहन एक दूसरे को नाम से पुकारते हैं, उसी में सहज होते हैं, उनके माता-पिता को इस बात से कोई समस्या नहीं रहती है। लेकिन जैसे किसी तीसरे के सामने बात करनी है तो अनुपस्थिति में भैया दीदी कहकर ही याद करते हैं क्योंकि समाज में यही सिस्टम चल रहा होता है, लेकिन सामने बोलचाल में ऐसा कभी नहीं होता है। जिन घरों में भैया दीदी बोलने का कल्चर बचपन से बना दिया जाता है, ऐसे परिवार उन परिवारों को बड़ी हेय दृष्टि से देखते हैं जिनमें ऐसी नैतिकता का पालन नहीं होता है। मेरे घर में तो शुरू से कभी ऐसा नहीं रहा, किसी ने ये वाली नैतिकता नहीं थोपी, और मुझे यह बड़ा सही लगता है। दीदी को शादी के बाद भी जीजा के सामने नाम से पुकारता हूं, नैतिकता का कोई ढोंग नहीं। जिस दिन मैंने गलती से दीदी बोल दिया वो खुद ही गुस्से से कहेंगी कि दुबारा ऐसे शर्मिंदा करने की जरूरत नहीं है, नाम ही पुकारना। ये कुछ वैसा ही है कि जिससे आप लंबे समय से किसी भाषा में बात कर रहे हैं, तो आप उस व्यक्ति से किसी दूसरी भाषा में जो आप दोनों को आती हो, उस भाषा में सहज होकर बात कर ही नहीं सकते हैं। यहाँ तक कि जो छोटा बच्चा होता है, वह अपने माता-पिता का नाम सुनते हुए 2-3 साल की उम्र में नाम से ही पुकारता रहता है, जो नाम सुनता है वह नाम सुनके आपको दोस्त समझ के वह नाम पुकारता है, इसमें तो अपनापन महसूस करना चाहिए, जब तक नाम पुकारता है पुकारने देना चाहिए, लेकिन नहीं माता-पिता को बच्चों से कहाँ दोस्ती करनी होती है, वहाँ भी छोटे बड़े वाली नैतिकता घुसेड़कर मम्मी पापा वगैरह कहना सीखाते चले जाते हैं। अपनी-अपनी सहजता है, न किसी पर कुछ थोपना चाहिए, न किसी का थोपा हुआ किसी को उठाना चाहिए।
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