Friday, 7 October 2022

गपोड़ी -

गाँव में एक पड़ोस के दादाजी थे, बचपन में जब कभी गर्मी की छुट्टियों में गाँव जाना होता तो वे हम बच्चों से अपनी पीठ पर चलने को कहते जैसा कि अमूमन गाँवों में होता है और उस 15-20 मिनट के काम के बदले में हमें 50 पैसे या 1 रूपये का मेहनताना मिल जाता था। रूपए तो कम ही मिलते थे, कई बार वे हमें प्रिया सुपारी खिला देते थे, तब प्रिया सुपारी खूब चलता था, उस सुपारी का स्वाद गजब ही था, 90's वाले जिसने भी खाया है, उसे याद होगा। 

दादाजी की पीठ पर चलने का कार्यक्रम जब खत्म हो जाता, तो उनकी कहानियों और दंत कथाओं का दौर चलता था। एक बार उन्होंने बताया (जैसा उन्होंने तब बताया था, वही सब याद करके लिखने‌ की कोशिश कर रहा हूं) कि बतौर टीचर एक बार वे इलाहाबार नेहरू के घर गये थे, बताते कि चाय प्लेट की शकल में घर है, खूब सारे कपड़े जूते रखे हैं आदि, नेहरू अपने बाल में जो तेल लगाते थे वो इटली से आता था, नेहरू और उसके पापा का कपड़ा धुलने के लिए इंग्लैण्ड जाता था आदि आदि। तब हमारा बालमन यह नहीं सोच पाता था कि कपड़ा धुल के कितने दिन में वापस आता होगा। 
दादाजी भूत वाली कहानियाँ भी खूब सुनाया करते, एक बार उन्होंने बताया कि रात को शहर से गाँव की ओर आ रहे थे, पीपल के पेड़ में एक औरत हाथ में दिया लिए हुए खड़ी थी और रोते हुए मेरी मदद करो कह रही थी, उसके‌ पैर पीछे की ओर मुंह किए हुए थे, एक मैं और मेरा पुलिसवाला दोस्त, हम दोनों अपनी राजदूत मोटरसाइकिल में थे, पुलिसवाले दोस्त ने कहा आओ भाई जाकर देखते हैं, जैसे ही हम लोग पास में गये, हमने देखा कि वह अपने आसपास इंसानी गूं का भंडार रखी हुई थी, उसने हमें मदद के लिए बुलाया और जैसे ही हम‌ पहुंचे, कुछ मंत्र फूंककर बेहोश कर दिया। अगले दिन घर के आँगन में हमारी नींद खुली। (इस घटना के पीछे का कारण संभवत: सोमरस रहा होगा) तब यह सब कहानी सुनकर हमारे होश उड़ जाया करते। 

एक बार दादाजी खेत की ओर जा रहे थे, उन्हें सफेद भूत (ठेंगा) दिखाई दिया, ये एक ऐसा विशिष्ट भूत था जो सिर्फ उन्हें ही दिखता था, वे बताने लगे कि जैसे ही मैंने उसे देखा वो और बड़ा होता गया, इतना बड़ा कि आसमान तक पहुंचने लगा, और धीरे-धीरे मेरे पास भी आने लगा, मैं उसको देखते-देखते धड़ाम से नीचे गिर गया, मेरे गिरते ही वह अदृश्य हो गया। 

एक बार‌ वे अपने दोस्त के साथ शहर किसी काम से गये, तब शहरों में मारवाड़ी बासा हुआ करता, जिन्हें मारवाड़ी बासा के बारे में नहीं पता, उन्हें बताता चलूं कि एकदम पुरानी सी कोई जगह होती है, घर जैसा ही होता है, उसी में बैठाकर खाना खिलाते हैं, खाना अनलिमिटेड होता है, दादा ने बताया कि तब उन्होंने मिलकर लगभग 120 रोटियाँ खाई थी। मारवाड़ी बासा वाले रोटी बना बनाकर थक चुके थे, उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की और बिना पैसे लिए इनको जाने को कह दिया था। बस दादा ने कहा और हम मान गये। 

जब हम थोड़े बड़े होने लगे तो उनकी दंत कथाओं को ध्यान में रखते हुए दादाजी को हम ठगासुर दादा ऊर्फ गपोड़ी कहा करते, बढ़ा-चढ़ाकर उलूल-जुलूल बात करने के नाम से वैसे ही उनकी फजीहत होते रहती थी लेकिन उन्होंने गप्प हाँकना कभी न छोड़ा, हमें तो मजा आता था, हमेशा नई चीजें पता लगती थी, अब दुनिया कुछ भी कहे, हमारे लिए तो बिना इंटरनेट वाले उस किस्से कहानी के युग में मनोरंजन का केन्द्र हुआ करते दादाजी। जब बुढ़ापा आने लगा तो वे थोड़े सठियाने लगे थे, लेकिन अपने गपोड़ी चरित्र को उन्होंने तब भी नहीं छोड़ा था, तब भी खूब दाँत बिजराकर कहानी सुनाया करते। चार साल पहले ही बचपन में हम सभी बच्चों को प्रिया सुपारी खिलाकर हमारी जीभ नीली कराने वाला गपोड़ी दादा 82 की उम्र में शून्य में विलिन हो गया। 
बूढ़े गपोड़ी दादू की स्मृति में...

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