एक मानसिकता है, एक सैध्दांतिकी है, जिसे इंसान धुरी बनाकर उस पर घूमता रहता है। इसमें अपनी जरूरतें केन्द्र में होती हैं। जैसे पुराने समय में किसी को युध्द में या शिकार में जाना होता था, या पुत्र प्राप्ति या किसी असाध्य रोग से मुक्ति चाहिए होती थी तो वे किसी जानवर या नरबलि तक की प्रथा वाली सैध्दांतिकी को मजबूती से जीते थे।
आज भी इस सैध्दांतिकी को अपने आसपास अलग-अलग रूपों में पल्लवित होते हुए देखा जा सकता है। समय बदला है, इंसान को न पहले जैसे युध्द करना है न ही जंगल में जाना है। आज उसकी भूख, उसकी जरूरतें, उसका लालच अलग है। लेकिन वह किसी एक प्रचलित नियम को, आस्था के पैटर्न को मानने का कष्ट उठाता रहता है, क्योंकि बदले में वह तरह-तरह के अपराध/हिंसा करता है, अनैतिकता को जीता है।
हम सबने अपने आसपास किसी न किसी यौन कुण्ठित व्यक्ति को देखा ही होता है। सबकी बात नहीं कही जा रही लेकिन मैंने यह पाया है कि अधिकतर जो यौन कुण्ठित युवा या फिर अंकल सरीखे लोग होते हैं, ये नवरात्र उपवास, सावन की कांवड़ यात्रा या ऐसे तमाम धार्मिक आयोजनों में जमकर अपना समर्पण दिखाते हैं। इसमें सहजता तो होती नहीं, अपराधबोध जरूर होता है। मुझे ऐसा लगता है कि यह समर्पण इनको इस बात का परमिट देता है कि यह जीवन में जिस भी आपराधिक प्रवृति को जीते हैं उसमें प्रभु की कृपा सन्निहित है और प्रभु उन्हें इसके लिए बख्श देंगे।
अपने अपराधों, अपने कुकर्मों, अनैतिक कृत्यों की पैरवी के लिए हम सबसे पहले स्वयं एक ईश्वर/एक मानसिकता को चुनते हैं क्योंकि उसे हम अपने हिसाब से नचा सकते हैं और अंतिम फैसला बड़ी आसानी से अपने पक्ष में ले सकते हैं और इससे आजीवन अपनी सारी गलतियों को सही मानने के भ्रम में जीने की सुविधा मिल जाती है।
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