Thursday, 8 September 2022

हिंदी पखवाड़े पर हिंदी की दुर्दशा में हिंदी भाषियों का योगदान

भाषा एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसकी सहायता से हम सोचते हैं और अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। किसी भी भाषा को उसकी संपूर्णता में आत्मसात करने के लिए साफ बोलने की प्रक्रिया होनी चाहिए, इसीलिए हमें छोटी उम्र से ही स्कूलों में पढ़कर बोलना सीखाया जाता है, जब तक हम साफ बोलेंगे नहीं, जब तक हम भाषा की स्वच्छता पर उसकी स्पष्टता पर ध्यान नहीं देंगे तब तक हम जो भी पढ़ेंगे उसका अस्पष्ट रूप ही हमारे दिमाग में आएगा और हम अस्पष्ट भाषा ही बोलते रह जाएंगे।

हिन्दी भाषा की उत्पत्ति मूल रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। अपनी आदि जननी संस्कृत से पैदा हुई हिन्दी को एक अपभ्रंश भाषा माना जाता है जिसमें अनेक भाषा बोलियों के शब्दों का समायोजन होता आया है। "हिन्दी" शब्द ही अपने आप में फारसी मूल‌ का शब्द है। सन् 1800 से 1950 तक का समय हिन्दी के बनने का समय है, इसी दौर में हिन्दी साहित्य पुष्ट हुई, एक भाषा के रूप में उसे मजबूती मिली। आजादी के बाद 14 सितम्बर सन् 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकारा गया। हिन्दी हमारे देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। लेकिन इसके बावजूद एक भाषा के रूप में आज हिन्दी संघर्षरत है। आजादी के 75 साल पूरे होने को हैं लेकिन आज भी हिन्दी उस मुकाम को हासिल नहीं कर पाई है कि यह भाषा अपने दम पर रोजगार पैदा कर सके, प्रचार-प्रसार के नाम‌ पर साहित्यिक आयोजन कर दिए जाते हैं और उसी से खानापूर्ति कर दी जाती है। यत्र तत्र सर्वत्र हिन्दी के विभाग बने हुए हैं लेकिन इतने दशकों के बाद भी तकनीकी शिक्षा की बेसिक किताबें आज हिन्दी में उपलब्ध नहीं हैं, बहुत से अनेक देशों की क्लासिक किताबें जिनका लगभग विश्व की हर भाषा में अनुवाद होता है लेकिन हिन्दी में वह उपलब्ध नहीं है।

हिन्दी का प्रसार मोटा-मोटा इस आधार पर मान लिया जाता है कि हिन्दी भाषा में बनी फिल्मों और संगीत को देश दुनिया में खूब देखा जाता है, सुना जाता है, सराहा जाता है। ऐसे में तो हमारे देश में लाखों ऐसे लोग हैं जो दक्षिण भारतीय फिल्मों को खूब चाव से देखते हैं। इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि इन लाखों लोगों को तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम भाषा का ज्ञान हो गया या ये लोग इन भाषाओं को सीखना चाहते हैं। भारत में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो हालीवुड की फिल्में देखते हैं, विदेशी गायकों के गाने सुनते हैं जबकि उनको विदेशी भाषा धेला भर समझ नहीं आती। मैडोना का नाच देखने वाले बहुत हैं, माइकल जैक्सन के फैन बहुत मिल जाएंगे। जबकि अंग्रेजी की एबीसी भी न आती होगी। फिल्म, संगीत इत्यादि का आनंद बिना भाषा के भी लिया जा सकता है। भाषा का प्रसार भिन्न बात होती है।

हिन्दी के उलट हमारे देश में जो धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलना जानता है उसे सिर आंखों पर बैठाया जाता है, जबकि हिन्दी बोलने वाले को तुच्छ नजरों से देखा जाता है। हिन्दी गर्व की भाषा न होकर हमारे लिए शर्म की भाषा बनती जा रही है। अपना वृहद शब्द कोष और सशक्त व्याकरण होने के बावजूद भी लोग बोलचाल में बीच-बीच में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करते नजर आते हैं। अखबार से लेकर न्यूज चैनल में हर जगह इसका उदाहरण देखने को मिल जाता है, शुध्द भाषा तो छोड़िए हिन्दी के शब्द होते हुए भी उन शब्दों के अंग्रेजी अर्थ को हिन्दी में लिख दिया जाता है। उदाहरण के लिए महाविद्यालय को काॅलेज, संस्था को कंपनी, अनुमति को परमिशन, आहार को डाइट आदि। इस सरलीकरण की वजह से भाषा की कृत्रिमता बढ़ी है। वर्तमान में हिन्दी को रोमन में लिखकर संदेश के माध्यम से बात करने का चलन बढ़ा है, यह भी एक कारण है कि एक भाषा के रूप में हिन्दी कमजोर हुई है। एक मशहूर अंग्रेजी के लेखक ने तो यह तक कह दिया था कि सुभीते के लिए हिन्दी को देवनागरी में न लिखकर रोमन में लिखा जाए। इससे ज्यादा हिन्दी की और दुर्दशा क्या होगी।

किसी भी भाषा की दुर्दशा को समझने के लिए हमें उस भाषा के वर्तमान साहित्य पर गौर करना चाहिए। भाषा जीवित हो अथवा मृत, उसका अध्ययन हम उस भाषा के साहित्य के आधार पर ही करते हैं। हिन्दी साहित्य की बात जब आती है तो यह देखने में आता है कि जहाँ दुनिया की बाक़ी भाषाओं में साहित्य रचा जाता है, वहाँ हिन्दी में सिर्फ गिरोहबंदी होती है। साहित्य के रूप में हिन्दी भाषा का विकास कुछ इस तरह हो‌ रहा है कि हिन्दीभाषी लोगों के देश में बड़े प्रकाशक बड़े हिन्दी लेखकों की छह सौ कॉपी के एडीशन निकालते हैं और साल भर में चार सौ कॉपी बिकने वाले को बेस्टसेलर कहा जाता है। हिन्दी साहित्य और उसके लेखक संसार का एक बहुत बड़ा हिस्सा भयानक तरीके से बेपढ़ा, मरगिल्ला, आत्मलिथड़ित, अमानवीय मूल्यों से पूरित और ह्यूमरविहीन है।

चालीस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा में साहित्य हमेशा से मुफ्त में पढ़ने-पढ़ाने लायक चीज रहा है। ऐसे में आखिर एक भाषा कैसे खुद को संभाल पाएगी। और जब तक हम ऐसे दोयम दर्जे के साहित्य को गले लगाते रहेंगे, जब तक हम अखबार से लेकर टेलीविजन हर जगह खराब पढ़ते रहेंगे तब तक हम खराब ही लिखेंगे और एक भाषा के रूप में हिन्दी की अवनति होती रहेगी।

No comments:

Post a Comment