इन दोनों सेक्टर में अदला बदली चलते रहती है, खासकर ह्यूमन रिसोर्स वाले काम को लेकर दोनों क्षेत्र के लोग काम का स्वाद बदलने के लिए स्विच हो जाते हैं। लेकिन मोटा-मोटा देखा जाए तो जितने रूपये आईटी सेक्टर में मिलते हैं, उसका आधा भी एनजीओ सेक्टर में नहीं मिलता है। इस एक बात पर सभी को आम सहमति बना लेनी चाहिए कि दोनों का काम विशुध्द कारपोरेट माॅडल पर आधारित है। बस फर्क यह है कि एक जगह देश समाज के लिए काम करने का इगो है, दूसरे जगह वह इगो संतुष्ट नहीं हो पाता है। अगर एक एनजीओ की नौकरी करने वाला, महीने की तनख्वाह लेकर किसी के लिए कुछ काम कर रहा, तो जब ऐसे काम को अलग से समाजसेवा कहा जाता है, तो एक आईटी कम्पनी में काम रहे कर्मचारी का काम भी समाजसेवा ही है, वह स्क्रीन के सामने कोडिंग करते हुए अगर खप रहा है, तो दूसरी ओर किसी को कुछ सर्विस मिल ही रही है, किसी दूसरे ग्रह के मनुष्य के लिए तो काम नहीं हो रहा, यहीं के लोगों के लिए वह सर्विस दे रहा, तो इसे देशसेवा क्यों नहीं माना जाना चाहिए। अगर एक एनजीओ में रहते सामान बाँटना, बाढ़ प्रभावित इलाकों में सर्वे करना, गाँव-गाँव घूमना अगर समाजसेवा है तो कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने बैठकर लोगों के लिए तकनीकी आधारित काम करना भी उतनी ही समाजसेवा है, क्योंकि अपने-अपने उस काम के लिए दोनों वेतन लेते हैं। तो उसमें अलग से समाजसेवा क्यों जोड़ना जब आप मासिक तनख्वाह पर काम कर रहे हैं, उस लिहाज से अपने दफ्तर के बाहर पानीपुरी बेचने या चाय बेचने वाले को सबसे बड़ा समाजसेवक कहिए जो अपने छोटे से व्यापार के लिए रोज जोखिम उठाता है और बदले में आपको कुछ खिलाने पिलाने की सेवा देता है। इसमें तो सबसे ज्यादा समाजसेवा दिखनी चाहिए।
अब थोड़ी साफ और सीधी बात कर लेते हैं। भारत के लोगों के अंदर समाजसेवा को लेकर गजब का रोमांस है, खुद के घर के सामने की नाली साफ नहीं होगी लेकिन एनजीओ से जुड़कर झाडू पकड़कर ढोंग करने, फोटो खींचवाने इन सब में इनको कोई समस्या नहीं होती है, महानता का बोध जो होता है। एक औसत भारतीय जिसकी दैनिक मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही है वह नौकरी करते हुए अपने और अपने परिवार का पेट भरने का सोचे या महानता के फर्जी बोध को जीने लग जाए, तो यह काम आप भरे पेट वाले लोगों को करने दीजिए।
अब तनख्वाह पर आते हैं। सबसे मूल और जरूरी बात यह कि भारत की जैसी अस्थिर अर्थव्यवस्था है उसमें इंसान के लिए ठीक-ठाक पैसे अर्जित करना ही जीवन का सबसे बड़ा मोटिवेशन होता है, और यह होना भी चाहिए। अगर पैसे कमाने से आपके जीवन की लगभग सारी दुश्वारियाँ कम हो जाती हों तो बिल्कुल इसमें समय देना चाहिए। अंततः रूपये तो सबको चाहिए। और जब रूपया ही कमाना है, नौकरी ही करना है, और नौकरी में ही कारपोरेट माॅडल की जब नौकरी है, सप्ताह में 6 दिन रोज खपना है, तो जहाँ ज्यादा रूपये मिलें, वहाँ खपना चाहिए। इसीलिए एनजीओ और आईटी सेक्टर में हमेशा आईटी सेक्टर को चुनना चाहिए, क्योंकि आपका समय भी निर्धारित रहता है, एक समय के बाद सप्ताह में पाँच दिन काम करने की सहूलियत भी मिल जाती है, समाजसेवा के फर्जीवाड़े का ढोंग भी नहीं, तनख्वाह भी दुगुनी चौगुनी रहती है। इसीलिए, यह एनजीओ में जाने से कहीं बड़ी समाजसेवा है, आप ज्यादा रूपया कमाएंगे तो आपकी क्रयशक्ति भी ज्यादा होगी, स्वयं को और अपने स्वजनों को ज्यादा आराम दे पाएंगे। अंत में यही कि एनजीओ सेक्टर में आपकी मानसिक शारीरिक दोनों तरह की क्षति होती है, जबकि आईटी में मुख्यत: शारीरिक नुकसान होता है। मैं पहले वाले को ज्यादा खतरनाक मानता हूं क्योंकि शरीर को साधना, मन साधने से ज्यादा आसान होता है। बाकी अपनी-अपनी सोच है।
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