कई साल पुरानी बात है। पढ़ाई के दिनों में एक शाम एक किराने की दुकान पर जाना हुआ था, कुछ सामान लेने गया था, सामान ले चुका था तब आखिर में याद आया कि दूध भी लेना है, तब अमूल दूध का पैकेट 20 रूपए का हुआ करता था। दुकान वाले को मुझे 10 रूपए लौटाने थे, मैंने कहा रूकिए एक दूध का पैकेट दे दीजिए, मैं 10 रूपए आपको दे रहा हूं। इसी बीच उस दुकान में भयानक भीड़ हो गई, उसने तब तक मुझे दूध का पैकेट दे दिया था लेकिन 10 रूपए देने के लिए मुझे बहुत इंतजार करना पड़ा। तब तक मेरे मन में चोर पैदा हो चुका था, जिस स्तर का चोर पैदा हुआ था, उसकी व्याख्या करने की कोशिश कर रहा हूं, मैंने सोचा, हटा जाने दे, इसे 10 रूपए नहीं दूंगा तो कौन सा इसका नुकसान हो जाएगा, ईमान से कह रहा हूं, मेरे मन में तब रंच मात्र भी यह ख्याल नहीं आया कि आज भीड़ है, कल दे जाऊंगा या बाद में दे जाऊंगा। मैं इस ख्याल के साथ अपने कमरे वापस लौटा कि अब नहीं देना है।
कमरे में आया, पतीले में दूध गर्म किया, एक फोन आया या कहीं शायद मेरे ध्यान गया होगा, दूध उबलने लगा था, मैं जब तक पहुंचा, लगभग 50% दूध गिर चुका था। आधे बचे दूध को देखकर मैं मुस्कुरा रहा था। वह मेरे लिए जीवन की बहुत बड़ी सीख थी, मैंने फिर दुबारा अपने अंदर कभी चोर पैदा नहीं किया, जब-जब पैदा हुआ तुरंत उसको लाइन में लाने की कोशिश की, क्योंकि समझ आ गया था कि सारा लेखा-जोखा यहीं होना है। अस्तित्व की उस अदृश्य शक्ति को शुक्रिया अदा किया कि तुरंत ही मेरी फाइल क्लियर हुई। कभी-कभी सोचता हूं कि क्यों 135 दिन की लंबी यात्रा में मेरे साथ एक अनहोनी नहीं हुई, न गाड़ी पंक्चर हुआ न कुछ। कुछ भी नहीं हुआ। बहुत खूबसूरत चीजें घटित हुई, यकीन नहीं होता है, एकदम पीछे मुड़ के देखता हूं तो जादू सा लगता है।
वहीं मैं अपने आसपास देखता हूं, लोग अनहोनियों से घिरे रहते हैं, उनको दिखता नहीं है, वे समझ नहीं पाते हैं, उनका लेखा-जोखा अस्तित्व समय-समय पर करते रहती है, लेकिन उनको होश नहीं रहता है। एक करीबी हैं, अच्छे पद पर हैं, खूब बाहरी कमाई करते हैं, पूरा चौबीसों घंटे वही दो नंबरी काम वाले मोड में ही रहते हैं, जीवन में पारिवारिक सुख या किसी प्रकार का जीवन का सुख क्या होता है, मुझे नहीं लगता उन्होंने देखा भी होगा, अस्तित्व ने उनसे एक जवान बेटा दुर्घटना में छीन लिया, और एक बेटी दी, वह भी मानसिक रूप से विक्षिप्त। इतना कुछ देखने के बावजूद जीने के तरीके में कोई अंतर नहीं, उसी ढर्रे में आज भी और अधिक हिंसा से जीते हैं। एक और परिचित रहे, अपने आर्थिक लाभ के लिए खूब लोगों का अहित किया, एक बीमारी ने ऐसा जकड़ा कि सब बैलेंस हो गया। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। खैर, ऐसे अनेक उदाहरणों की लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है।
मैं पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ, स्वर्ग-नर्क, भ्रष्ट-ईमानदार जैसी किसी भी अवधारणा का हिमायती नहीं हूं। मैंने बस यह देखा है कि जिस किसी ने भी अपने व्यवहार में चोर को पैदा किया है, जिस किसी ने तीन-तिकड़म किया है, उसका तो मैंने बढ़िया से हिसाब होते देखा है। सब एकदम उस बीस रूपए के दूध पैकेट की तरह बराबर से हिसाब हो जाता है।
अंत में यही कि जीवन अनमोल है, एक ही बार मिलता है, अच्छे से जीकर अपने हिस्से का ठीक तरीके से काम कर चले जाने में ही भलाई है। बाकी तो क्या ही है, अस्तित्व घात लगाए बैठा रहता है, आप कितना भी तीन-पाँच कर लें, साम्यावस्था में आ ही जाएंगे।
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