Tuesday, 20 September 2022

चाह नहीं मैं सूरबाला की...

हर माता-पिता की चाह होती है कि उनका बेटा/बेटी एक बेहतर जीवन जीने के रास्ते बढ़े। दुनिया के कोई भी माता-पिता यह नहीं चाहते कि उनके बच्चों को जीवन की मूलभूत जरूरतों के लिए परेशान होना पड़े। उनकी यही चाह रहती है कि भले वे कैसा भी जीवन जीते आए हों लेकिन उनके बच्चे स्वस्थ तनावमुक्त और एक बेहतर जीवनशैली की ओर अग्रसर हों। जैसा तनाव जैसा संघर्ष वे झेलकर आए होते हैं वे चाहते हैं कि उसका 1% भी आने वाली पीढ़ी न झेले, उस एक वजह से चीजों को माइनस से प्लस में लाते हुए अगली पीढ़ी को सौंपने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसीलिए हमारे यहाँ अधिकांश माता-पिता यही चाहते हैं कि बच्चा सबसे पहले आर्थिक मजबूती की ओर अग्रसर हो। क्योंकि भारत जैसे तीसरी दुनिया श्रेणी के देश में जहाँ की अर्थव्यवस्था का प्रतिमान ही अस्थिरता है, वहाँ आर्थिक रूप से सशक्त हो जाना, उस एक पहलू को साधते हुए स्थिरता हासिल करने की ओर बढ़ना सौ दुःखों की एक दवा की तरह हो जाती है। उसमें भी अधिकतर माता-पिता की यह चाह रहती है खासकर कि जिनके यहाँ आर्थिक स्तर पर जोखिम उठाने के उतने विकल्प नहीं होते या वैसी सामाजिक मजबूती नहीं होती वे बच्चों को सरकारी नौकरी की ओर ही जाने को कहते हैं और यही होना भी चाहिए। जब इस देश में कोरोना जैसी विकराल महामारी में जहाँ पूरा देश पटरी पर था, लाखों लोगों का रोजगार झटके में छिन गया, इतना कुछ गड्ड मड्ड हो गया, लेकिन क्या सरकारी नौकरी करने वालों पर थोड़ी भी आंच आई, बिलकुल नहीं। कुछ इक्का दुक्का विभागों को छोड़ दिया जाए तो चीजें उनके साथ बेहतर ही हुई। तो कोई क्यों न चाहे सरकारी नौकरी?

हर उस युवा का अंतिम लक्ष्य यही होना भी चाहिए खासकर जिनके पास पर्याप्त जोखिम उठाने के साधन न हों, खुद की ठीक-ठाक जमीन न हो, महँगी तकनीकी पढ़ाई कर जाने लायक विकल्प न हों, अलग से कोई विलक्षण प्रतिभा न हो और उसे हल्का‌ फुल्का साधने लायक पहचान/जुगाड़ न हो या व्यवसाय करने लायक न्यूनतम कुशलता न हो। ऐसे लोगों को सीधे सरकारी मोड में ही जाने का प्रयास करना चाहिए। 
इति।।

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