Tuesday, 24 December 2024

अस्तित्व का खेल

अस्तित्व का खेल

स्कूल के दिनों का समय बच्चों के लिए ग़लतियाँ करते रहने और सीखने का समय होता है। ग़लतियाँ करना और उनसे सीखना ये प्रक्रिया अपने चरम पर होती है। कुछ ऐसी ही एक मामूली सी बात की वजह से एक बार कुछ लड़के जो मेरे से उम्र में और क़द काठी में बड़े थे, वो मेरे घर दोस्त की तरह मिलने आए और मुझे बाहर बुलाया, तब मेरी उम्र क़रीब 10-11 साल रही होगी। उन्होंने कहा कि कुछ बात करनी है और मुझे पास के एक ग्राउंड में ले गए और मुझे और मेरे परिवार को बुरा भला कहते हुए मारपीट किए। उनमें से एक लड़का बाहरी था उसी ने मारपीट की और दूसरे लड़के ने केवल खबरी का काम किया था। मैं उस उम्र में कई-कई दिनों तक तनाव में रहने लगा कि ऐसा भी मैंने क्या किया कि मुझे ऐसे मारा गया, ख़ुद को भी कोसने लग गया कि ऐसा क्या पाप कर दिया कि ऐसे मुझे ज़लील किया गया। भोलापन इतना हावी था, इतना आत्मविश्वास कमजोर हो गया, इतना आघात पहुँचा था। यह भी ख़याल आया कि अपनी इहलीला समाप्त कर दूँ। बालमन था, बहुत गुस्सा भी आ रहा था कि कब क़द काठी से थोड़ा बड़ा हो जाऊँ, इनको जरूर ठिकाने लगाऊँगा।

समय बीत गया, बात आई-गई हो गई। कुछ साल बाद उस खबरी लड़के की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई, लोहे का सरिया उसके शरीर के आर-पार चला गया था। उसकी मौत में जब स्कूल में मौन रखा गया तो मुझे बस बतौर खबरी के रूप में उसका चेहरा याद आ रहा था और मुझे बेहद तकलीफ़ हुई। जिस लड़के ने मारपीट की, उसका बाप कई साल बाद जब मुझसे मिला तो मेरे से उस बेटे के लिए नौकरी के जुगाड़ की बात करने लगा, उस दिन भी मुझे उसकी मारपीट याद आई। अस्तित्व ने शायद उसे जीवन की विद्रूपताएं भोगने के लिए बचा रखा हो। मुझे बहुत समय तक अस्तित्व का खेल समझ नहीं आता था। आगे फिर जीवन में ऐसी और घटनाएँ हुई, जिससे एक चीज़ समझ आई कि पता नहीं कैसे मुझे किसी भी प्रकार से नुक़सान पहुँचाने वालों से अस्तित्व ने उनका सब कुछ छीन लिया। इसलिए अब से हमेशा मैं बार-बार लोगों को नुक़सान पहुँचाने से रोकता हूँ, वो बात अलग है की इस सबसे मुझे ख़ुद बहुत नुक़सान उठाना पड़ जाता है, अस्तित्व ने इसके लिए भले कुछ ना दिया हो, एक मज़बूत रीढ़ तो दी ही है।

मुझे नहीं मालूम

देखता हूँ रोज़ अपने सामने मौत को, 

होते हैं रोज़ आँखों के सामने कत्लेआम, 

लेकिन कहाँ करनी है शिकायत, 

मुझे नहीं मालूम।


सबूत है मेरी आँखें, सबूत है मेरा ये पूरा शरीर, 

जिसने उस कत्लेआम को महसूस किया।

लेकिन कहाँ करना है मुक़दमा, 

मुझे नहीं मालूम।


लोग तड़प-तड़प कर मरते रहते हैं,

और खोजते हैं रास्ते जल्दी से मर जाने के,

आख़िर कहाँ होगी इसकी पैरवी, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर बाद में शून्य होता है, 

पहले मरता है आपका स्वाभिमान,

कहाँ होगी इसकी शिकायत, कौन लेगा अर्जियाँ, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर गल जाने से कहीं पहले, 

मार दी जाती है आपकी सारी कोमल भावनायें,

कौन रखेगा इसका हिसाब, 

मुझे नहीं मालूम।


सबके भीतर होती है अमर हो जाने की लालसा, 

लेकिन उसे एक दूसरा इंसान देता है तनाव और करता है परेशान,

यहाँ तो भीतर से मर चुके इंसान की भी,

किश्तों में मारी जाती हैं कोशिकाएं, 

कहाँ होगा इसका हिसाब, कहाँ करूँ फ़रियाद,

मुझे नहीं मालूम।


साँसों की गति रुक जाने से कहीं पहले, 

साँस चलाने वाले तत्वों पर लगा दिया जाता है लगाम,

दिखाया जाता है आपको नीचा, 

छीन लिया जाता है आत्मविश्वास,

किया जाता है आपका अपमान,

कौन करेगा इसकी सुनवाई,

मुझे नहीं मालूम। 


एक इंसान को झटके से मारने के लिए हैं कुछ सीमित उपाय, 

लटका दो, जला दो या काट दो इस शरीर को,

लेकिन इसी इंसान को किश्तों में मारने के लिए, 

लोग जीवन भर ईजाद करते हैं हिंसा के अनगिनत तरीक़े,

कौन देखेगा यह सब गहराई में जाकर, 

और कैसे तय होगी मृत्यु की परिभाषा,

मुझे नहीं मालूम।


बुद्ध ने निराश होकर दुःख तकलीफ़ को मृत्यु से भी बताया बड़ा,

और ख़ुद ही उससे निपटने के लिए बताए उपाय,

ना कोई दण्ड विधान काम आया, 

न कोई न्याय संहिता सामने आई, 

किश्तों में मिलते दुःखों की पैरवी कहीं कभी होगी भी या नहीं,

उसे भी नहीं मालूम, मुझे भी नहीं मालूम।

Tuesday, 3 December 2024

भ्रष्टाचार - एक तपस्या

भ्रष्टाचार को या एक भ्रष्टाचार करने वाले को हमेशा हिकारत की नजर से देखा जाता है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो ये बहुत मेहनत का काम है। अच्छे बड़े स्तर का भ्रष्टाचार करने के लिए कड़ी तपस्या लगती है, बहादुरी लगती है, बड़ा जिगर चाहिए होता है, दिन रात खपना पड़ता है, एक व्यवस्था बनानी पड़ती है, अपना एक इकोसिस्टम बनाना होता है, उसे अनवरत सींचना होता है, इसलिए बहुत कम ही लोग ये काम कर पाते हैं, ये बिल्कुल भी हंसी मजाक की बात नहीं है, बहुत गंभीर होकर ये बात कही जा रही है।

एक सफल भ्रष्टाचारी बेहद स्किल्ड और मेहनती होता है, खूब जोखिम उठाता है, सबसे संपर्क साधकर चलता है, खूब सारे दुनियावी रिश्ते सम्भालता है, लोगों की आर्थिक मदद करने के साथ उनका रुका हुआ काम जल्दी कराने में भी महती भूमिका निभाता है। व्यवस्था की सारी चीज़ों की गहराइयाँ उसे मालूम होती है, उसे जानकारी रखनी पड़ती है क्यूंकि बिना उसके न तो उसका काम बजेगा न ही अपनी सुरक्षा हो पायेगी। हममें से लगभग हर किसी को कभी ना कभी जीवन में कहीं एक सुलझे हुए भ्रष्टाचारी की आवश्यकता पड़ती ही है। क्यूंकि वो हमारी जीवन रूपी दुश्वारियां कम करने में सहयोग करता है।

एक सफल भ्रष्टाचारी चाहे वह किसी भी ओहदे में क्यों ना हो, उसका दायरा बड़ा हो ही जाता है। व्यवस्था का सुचारू रूप से संचालन होता रहे, उसके लिए ऐसे तमाम तपस्वी भ्रष्टाचारियों का होना बेहद जरूरी है।

लोकतंत्र क्या है ?

A - सरकार को कम से कम बच्चों को बख्श देना चाहिए।

B - बच्चों के साथ ऐसा क्या हुआ ?

A - केंद्रीय शासकीय स्कूलों को अपने इवेंट का हिस्सा बना रही।

B - जैसे ?

A - कोई भी शासकीय आयोजन होता है, शासकीय कर्मचारी तो भोगते हैं, स्कूलों को भी उक्त विषय में कार्यक्रम करने कहा जाता है और बच्चों पर खूब दबाव बनाया जाता है।

B - क्या ऐसा पहले नहीं होता था ?

A - मुझे नहीं पता लेकिन बच्चों को इतना परेशान पहले कभी नहीं देखा।

B - एक बात बताओ, क्या पहले आम लोगों को इतना परेशान कभी देखा है?

A - सरकारी प्राइवेट व्यापारी हर कोई परेशान हैं, मुद्रा से संचालित युग है तो हस्तक्षेप बढ़ना है, यह समझता हूँ, लेकिन बच्चों को इससे कम से कम दूर रखना चाहिए ?

B - कैसे दूर रखेंगे, लगेगी आग तो आँच सब तक पहुंचेगी।

A - ये भी ठीक है।

B - यही लोकतंत्र है।

जीवन के प्रति पागलपन

हर किसी के जीवन में एक दो कोई चीज़ ऐसी होती है, जो वह बड़ी शिद्दत से करना पसंद करता है, यूँ कहें कि जिसे वह जान निकलते तक कर सकता है, उस एक चीज़ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, उसका वह एक शौक़ जीने के लिए साँस की तरह ज़रूरी हो जाता है। लेकिन ये वाली साँसें तपकर हासिल करनी पड़ती है, इसलिए इसमें भी एक अपवाद यह कि ज़रूरी नहीं कि जीवन को हर कोई इतनी शिद्दत से जिए।

अभी कुछ दिन पहले कॉलेज का जूनियर अभिनव, जो दोस्त अधिक है वो मैराथन दौड़ने राजधानी आया। इसी बीच हमें साथ में कुछ समय बिताने का मौका मिल गया। अभिनव जो हाल फ़िलहाल में सरकारी अफ़सर बना है, उसने जीवन में ये पहली बार 42 किलोमीटर मैराथन 4 घंटे से कम समय में ही पूरा कर लिया, वह भी बिना सोए रात के 3 बजे गाड़ी चलाकर पहुँचा और बिना किसी ख़ास ट्रेनिंग के यह कर दिखाया।

मैराथन पूरा करने के बाद उसने अपने अनुभव बताए और एक बात कही जो अभी तक मेरे कानों में गूंज रही है। उसने कहा - “ मैंने शारीरिक रूप से अपने आप को पूरी तरह तोड़ लिया, इससे अधिक मैंने कभी अपने आपको इतना इस स्तर तक नहीं थकाया, इससे ज़्यादा मैं कर भी नहीं सकता था। मेरे शरीर में थकान तो है, लेकिन मैं मानसिक रुप से एक ग़ज़ब की अनुभूति अपने भीतर महसूस कर रहा हूँ, मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है, ऐसा लगा जैसे मेरे भीतर अभी तक जीवन को लेकर जितना अपराधबोध भरा हुआ था, वह आज ख़त्म हुआ है।”

लोग नौकरी लगने के बाद पार्टी करते हैं, अलग-अलग तरीक़े से ख़ुशी मनाते हैं। लेकिन कुछ विरले ही सिरफिरे लोग होते हैं, जो अपने जुनून को हर पल पागलपन की हद तक जीते हैं, जीवन के प्रति ऐसी सनक जिसके सामने देस काल परिस्थिति कभी बाधा नहीं बनती है। बात सिर्फ़ 42 किलोमीटर दौड़ लगाने की नहीं है, वह तो महज़ एक माध्यम है। बात है उस बहाने ख़ुद के भीतर तक गहरे झाँक लेने की, ख़ुद को उस हद तक तपा ले जाने की जितना कभी किसी और माध्यम में संभव नहीं हो सकता है, बात है पूरे मन शरीर को उस अवस्था में ले जाने की, जहाँ भीतर सब कुछ शांत हो जाता है, आँखें बंद हो जाती है, इंसान अपने अस्तित्व के सबसे क़रीब होता है।

अभिनव ने जो मन हल्का हो जाने की अनुभूति को लेकर बात कही उससे मुझे अपना अकेले मोटरसाइकिल से ठंड में सीमित साधन में भारत घूमना याद आ गया। साथ ही वो दिन भी याद आया जब दिल्ली से रायपुर 1100 किलोमीटर का सफ़र 22 घंटे में ही 150 cc की मोटरसाइकिल में दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में पूरा किया था। इतनी यातना सही, ख़ुद को इतना तपाया, जितना किसी और माध्यम से नहीं तपा सकता था। इन सबसे ख़ुद की चीज़ों को लेकर मेरी अपनी आस्था दृढ़ हुई।

मैराथन के बाद से हम दोनों थके हुए थे। मैंने कहा कि भाई मुझसे अब एक किलोमीटर भी चला नहीं जाएगा, लेकिन अभी अगर मुझे कोई सुबह से शाम बाइक चलाने को कहे तो वो मैं ख़ुशी-ख़ुशी सब दर्द भूल के कर जाऊँगा। अभिनव ने कहा कि वह भी इस थकान में दौड़ लगा सकता है, आपका माध्यम बाइक है, मेरा माध्यम ये जूते हैं। ठीक इसी तरह शायद किसी का कुछ और भी हो सकता है, कोई पागलपन की हद तक किताबें पढ़ता है, कोई कुछ और करता है। लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी होती है, जिसके पास जीवन के प्रति अपने भीतर के पागलपन को परिभाषित करने के लिए कोई माध्यम नहीं होता है, कोई रास्ता नहीं होता है। वैसे जिनके पास जीने के लिए अपने हिस्से का पागलपन होता है, उन्हें किसी और के बुने रास्ते पर चलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

संवेदनशील प्रजाति के मनुष्यों का जीवन और उनकी समस्याएँ-

जो बहुत अधिक संवेदनशील लोग होते हैं, उन पर हमेशा नैतिक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक दबाव तुरंत असर करता है। उनकी संवेदनशीलता पर ये तीनों दबाव बड़ी आसानी से हावी हो जाते हैं। ऐसे लोगों को अमूमन इनकी उम्र से बड़ा व्यक्ति चाहे वह रिश्ते में इनका कुछ भी लगता हो, वह इन्हें अपना बाप बना लेता है और ख़ुद बेटा बन जाता है, अमुक व्यक्ति पर बाप जैसा मनोवैज्ञानिक दबाव तत्काल बन जाता है।

भारतीय समाज में यह एक ऐसी समस्या है जिसे अगर समय रहते आपने नहीं समझा तो आप शोषित होते रहेंगे और इस चक्कर में अपनी संवेदनशीलता गिरवीं रख जाएँगे।

बहुत अधिक संवेदनशील बच्चों को इस शोषण से बचाने के लिए माता-पिता को चाहिए कि इससे पहले कोई दूसरा आपके बच्चे को बाप के संबोधन का इस्तेमाल कर उसे दिग्भ्रमित करे, उसके कंधों पर बोझ लादे, इससे बेहतर माता-पिता स्वयं अपने बच्चे को माता/पिता बना लें ताकि उसकी नैतिक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा हो सके।

अपने आसपास ही परिवार में भी आप देखेंगे तो पाएंगे कि हमेशा एक व्यक्ति ऐसा होता है, जिस पर हर कोई हक से दुनिया जहाँ की जिम्मेदारियों को लाद देता है। किसी का स्कूल कॉलेज आदि में एडमिशन कराना हो, किसी को अस्पताल में भर्ती कराना हो, पैसे उधार देना हो, पारिवारिक कलह का निबटारा करना हो, मौसा फूफा मामा या ऐसे तमाम तरह के दूर के रिश्तेदारों के हर तरह के काम की जिम्मेदारी लेना हो या अन्य इस तरह के ढेरों काम हों, सामाजिक दायित्व हों। यह सब कुछ अमूमन एक किसी महा संवेदनशील टाइप के सिरफिरे व्यक्ति के ऊपर थोप दिया जाता है। अधिकांशतः आप पाएंगे कि ऐसे लोगों में पाचन और नींद की समस्या आजीवन बनी रहती है और यह स्वाभाविक भी है क्यूंकि जब आप एक सीमा और अपनी क्षमता से अधिक जिम्मेवारियों का वहन करते हैं, एक समय के बाद आपके साथ यह समस्या होती ही है।

ईश्वरीय अवधारणा के आधार पर देखें तो इस तरह के लोग ईश्वर को अपनी जेब में लेकर घूमते हैं, क्यूंकि पूरी दुनिया इनका इस्तेमाल कर रही होती है, फिर भी ये किसी को कभी महसूस नहीं करा पाते हैं कि उनके साथ ग़लत हुआ। ये भोगता भाव से ईश्वर की लीला मानते हुए सब कुछ सह जाते हैं।

वहीं तार्किकता के धरातल पर देखें तो वे लोग जो अपने ही व्यक्तित्व की सुरक्षा नहीं करते हैं, घेराबंदी नहीं करते हैं, दुनिया ऐसे लोगों का अपने हित साधने के लिए जमकर इस्तेमाल करती है और महानता का चोगा पहनाकर इन्हें हमेशा नज़रबंद करके रखती है ताकि शोषण की प्रक्रिया अनवरत जारी रहे।

इति।

टाटा कंपनी और हमारी फैंटेसी

टाटा कंपनी की जब भी बात आती है, सबके मन के भीतर से एक सम्मान का भाव उद्वेलित हो जाता है। या यूँ कहें की एक भरोसा कायम हो चुका है, मान्यता स्थापित हो चुकी है यह भाव विस्फोटित होता है। इस एक भरोसे को अमलीजामा पहनाने के लिए, इस मान्यता को इस छवि को स्थापित करने के लिए कंपनी ने खूब निवेश किया है। साथ ही सरकार से हमेशा समय पर फंडिंग और रियायत मिली है जिसने टाटा को एक श्रीमान भरोसेमंद कंपनी की तरह लोगों के बीच स्थापित कर दिया। जब भी इस कंपनी का नाम ज़हन में आता है, आम लोग इसे एक प्राइवेट कंपनी के रूप में नहीं देखते है बल्कि लगातार मिल रहे शासकीय समर्थन से टाटा ने विगत दशकों से ख़ुद को जिस एक लोककल्याणकारी सहकारी संस्था वाली छवि से अंगीकृत किया, वही लोगों को पहले दिखता है। भले वह अपने मूल में एक प्राइवेट कंपनी है लेकिन भावना के स्तर पर वह सहकारिता का तिलिस्म लिए दिखाई पड़ता है। टाटा ने इस तिलिस्म को बनाए रखने के लिए निःसंदेह खूब मेहनत की है।

बतौर कंपनी टाटा के काम का विश्लेषण किया जाए तो पहली नज़र में ही यह दिखाई पड़ता है कि यह एक तरह से सरकार और लोगों के बीच एक सेफ्टी वाल्व का काम करता है। तभी कंपनी बहुत घाटे में भी रही तब भी उसे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट मिलते रहे। एक ओर कोई प्राइवेट कंपनी होती है जो खूब मेहनत कर आगे बढ़ती है, लगातार नवाचार करते हुए अपने लिए संसाधन जुटाती है, लेकिन टाटा की कार्यशैली बहुत अलग रही, यहाँ आपको वैसी मेहनत वैसा नवाचार कम ही दिखता है जिस पर विस्तार से आगे इस लेख पर बात करते हैं।

1.सबसे पहले टाटा की अपनी आई टी फर्म टीसीएस की बात करते हैं, इंजीनियरिंग बैकग्राउंड का होने के नाते अभी तक जितने भी दोस्तों को देखा है, उनमें से शायद ही कोई होगा जिनकी प्राथमिकता में ये कंपनी रही है, क्यूंकि इनका वर्क कल्चर बाकी कंपनियों की तुलना में बहुत अच्छा नहीं है, तनख़्वाह भी तुलनात्मक रूप से कम ही देते हैं।

2.टाटा की बहुचर्चित कार नैनो के बारे में हम सब जानते हैं। कार के नाम पर अगर “क्या बवासीर बना कर दिया है” हम कह दें तो यह बिल्कुल भी ग़लत नहीं होगा, आज की तारीख़ में शायद ही कोई होगा जो नैनो जैसी कार में बैठना चाहेगा। इस कार का प्रोजेक्ट ही बुरी तरह से फेल रहा लेकिन चूँकि सरकारी समर्थन प्राप्त है, पीआर मजबूत है, इसलिए घाटे के बावजूद छवि जस की तस बनी रही। यह कार तो रोड में देखने तक को नहीं मिलती है।

3.टाटा की ट्रक और बाकी कार के बारे में संयुक्त रूप से बात कर लेते हैं। सबसे पहली बात यह की इनकी गाड़ियों में कम्फर्ट नाम की चीज़ होती ही नहीं है, दूसरा आवाज़ बहुत करता है, कूड़ा है तो शोर करेगा ही। इसके अलावा इनकी बाक़ी कार में भी हैंडलिंग बहुत ही ज़्यादा ख़राब है, लोग मूर्खता की हद पार कर मजबूती के नाम पर ख़रीदते रहते हैं। इसमें एक सबसे मजेदार बात यह की ख़राब हैंडलिंग के कारण इसके एक्सिडेंट के मामले सर्वाधिक हैं। टाटा की गाड़ियों की आफ्टर सर्विस का हाल सबको मालूम है। सेल्स डिपार्टमेंट की झूठी रिपोर्ट्स भी अब तो सामने ही है।

4.अब अस्पताल पर आते हैं। टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल सरकारी जमीनों पर बने होते है। अस्पताल को ग्रांट भारत सरकार के Department of Atomic Energy द्वारा मिलती है। इसके बाद भी यहां इलाज का खर्च किसी दूसरे प्राइवेट हॉस्पिटल से कम नहीं है। ऐसा क्यों है कि एम्स पीजीआई जैसे हॉस्पिटल की जगह प्राइवेट हॉस्पिटल्स सरकारी जमीन और अनुदान पर खोले जाए।

5.हम सबके घरों में रसोई में सबसे जरूरी चीज़ होती है - नमक।वहाँ भी टाटा का एकाधिकार है। ऐसा क्यों किया गया कि नमक जैसी मूलभूत जरूरत जैसी चीज को एक कंपनी का एकाधिकार बना दिया गया और जो चीज लगभग फ्री में उपलब्ध होनी चाहिए थी उसके दाम निरंतर बढ़ते रहे। इसके साथ ही किसी और को बढ़ने भी नहीं दिया गया।

6.अडानी अंबानी सरकार से मिलीभगत करके अपने बिजनेस में कमाई करते है, कानूनों को अपने हिसाब से उलटते पलटते है तो सबको बुरा लगता है लेकिन यही काम टाटा कंपनी ने किया तो क्यों नहीं यहां पर कोई कार्यवाही हुई या क्यों नहीं किसी को खटका।

7.कोई व्यक्ति छोटा भी बिजनेस शुरू करना चाहता हो उसे लोन आदि के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ जाते है कि वह अपना आइडिया ड्रॉप करना बेहतर समझता है लेकिन दूसरी और यही सब लाखों करोड़ों के फंड जमीनें तरह तरह के रास्ते निकाल कर इन सब को उपलब्ध कराए जाते है। इस बिनाह पर न कि देश में छोटे बिजनेस का कल्चर पनप ही न पाए।

8.फिर भी मेरी समझ से बाहर है कि टाटा कंपनी को पब्लिक में इतनी मान्यता किस बात की वजह से है। जबकि अधिकतर लोग टाटा का कोई सामान जल्दी से खरीदते भी नहीं है। और मान्यता भी ऐसी की जैसे टाटा प्राइवेट कंपनी न हो कर सरकारी कंपनी हो। पारसी लोगो का पहनावा सादगी भरा होता है। लेकिन क्या केवल कोई ढीली शर्ट पेंट पहनता हो केवल इसलिए देश का भला करने वाला हो जाता है?

9.यह बात मान लेते है कि उद्योग वाला विकास हमें पसंद है तो बाकी उद्योग कि जैसे घड़ी बनाना, सरिया, स्टील बनाना तो यह सब काम तो और बहुत लोग भी बहुत बढ़िया से करते आ रहे। वैसे ही जैसे टाटा मोटर्स के सामने और कई कंपनियां है जो टाटा से बहुत बेहतर कार आदि बनाती है और लोगों को भी ज्यादा पसंद है। फिर भी देश का भगवान टाटा ही है, आखिर हमें भगवान पालने का इतना शौक क्यों ?

फिर भी कोई बताना चाहे तो बता सकता है कि उसके मन में टाटा को लेकर क्या मान्यता है और उस मान्यता का क्या कारण है। मान्यता का कोई कारण न भी हो तब भी चलेगा।

समय ही भगवान है

135 दिन लगातार भारत घूमने को जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह सिर्फ घूमना मात्र नहीं था, बल्कि जिंदगी से मैंने वो 135 दिन अपने लिए चुराए थे, छीन के लिए थे उतने दिन खुद के साथ बिताने के लिए, अपने मन की चीजें करने के लिए, अपनी स्वतंत्रता को जीने के लिए। यह भी समझ आया कि समय का क्या महत्व होता है। उस दौरान बहुत से लोग मिले जो महीनों से घूम रहे थे लेकिन साथ में कुछ काम भी करते रहते थे, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं था, मैं नौकरी छोड़ के सिर्फ और सिर्फ घूम रहा था, उस एक काम के अलावा मैं कोई भी दूसरा काम नहीं कर रहा था। मुझे अपने जैसा स्वतंत्र तरीके से घूमने वाला एक भी इंसान नहीं मिला, हर कोई कुछ न कुछ अपने साथ लादकर ही घूम रहा था।

एक चीज यह भी समझ आई कि अच्छे से अच्छे दिमागदार और दौलतमंद इंसान के पास भी दुनियावी सुविधाओं और वस्तुओं के नाम पर सब कुछ है लेकिन जीने लायक पर्याप्त समय नहीं है।

उस लंबे सफर ने यही सिखाया कि समय ही भगवान है‌।

गुटखा और लोकतंत्र

लोकतंत्र को चलायमान रखने के लिए बहुत से कामकाजी तत्व होते हैं उनमें गुटखा महत्वपूर्ण अवयवों में से एक है। जिस तरह नदी में पानी के बहाव को रोकने के लिए बांध की आवश्यकता होती है, उसी तरह गुटखा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक चेक डेम की भांति कार्य करता है। एक ओर जहां पनबिजली का काम हो जाता है, यहां फाइलें निराकृत होती हैं। गुटखा का इस्तेमाल अधिकतर वही व्यक्ति करता है जिसे खामोश रहना होता है, जो यह समझ जाता है कि जुबान खोलने के अपने जोखिम अधिक हैं, वह व्यक्ति गुटखे को अपने व्यक्तित्व में शामिल कर लेता है।

इसके ठीक उलट एक बिरादरी ऐसी भी होती है जो गुटखे से दूर रहती है या यूं कह सकते हैं कि उन्हें इसकी जरुरत नहीं पड़ती है, यह जरुर है कि उनकी वजह से नीचे पायदान का व्यक्ति गुटखा खाता है। अमूमन होता यह है कि तनाव देने वाले को हमेशा जुबान नामक छुरी चलानी होती है, इसलिए वे गुटखा चबा ही नहीं सकते। गुटखा वही चबाता है जिन्हें निरंतर मिल रहे तनाव को सुपारी की तरह चबा कर पचाना होता है।

What is more dangerous then antigen ?

एक बार मेडिकल छात्रों की कोचिंग में एक अध्यापक antigen antibody की कार्यशैली के बारे में पढ़ा रहे थे। उन्होंने antigen को समझाने के लिए तुलना करते हुए कहा कि परित्यक्त, विधवा और एकल महिलाएं antigen से अधिक खतरनाक हो जाती हैं। इस पर कोचिंग में बैठी बहुत सी लड़कियों ने घोर आपत्ति जताई। उन्होंने जवाब में कहा कि आप इसे अन्यथा न लें, वस्तुस्थिति समझने का प्रयास करें। फिर वे कहने लगे कि उनकी इस परिस्थिति के पीछे अन्यान्य कारण निहित हो सकते हैं लेकिन अमूमन इस तरह की अधिकांश महिलाएं चिढ़चिढ़ेपन और अवसाद की भेंट चढ़ जाती हैं और अपने आसपास के लोगों को इसका शिकार बनाती हैं, प्रेमपूर्वक व्यवहार नहीं कर पाती हैं, जीवन के प्रति सहज नहीं होती हैं। इस पर छात्राएं फिर से विरोध करने लगीं। उन्होंने छात्राओं को समझाते हुए कहा कि भले आप इस यथार्थ को मत स्वीकारिए लेकिन हकीकत यही है।

Monday, 26 August 2024

हमें दिलीप मंडल होने से खुद को बचाना होगा -

दिलीप मंडल पेशे से एक मीडियापर्सन रहे हैं। जहां तक जानकारी मिली शायद काॅलेज में पढ़ाया भी है। राष्ट्रीय स्तर पर खासकर हिन्दी पट्टी के सभी बड़े चैनल पोर्टल आदि में तो एक जाना माना चेहरा है ही। लेकिन यह पहचान कैसे मिली। यह पहचान मिली सोशल मीडिया से। यहीं से उन्होंने अपने आपको मजबूती से स्थापित किया। जिन्होंने उनको इतना बड़ा बनाया। उन्होंने भी उनका पत्रकार और प्रोफेसर वाला बैकग्राउंड ही देखकर उन्हें एक चिंतक एक सामाज के पहरुआ के रूप में ऊपर किया। 

दिलीप मंडल विगत एक दशक से एक पेशेवर सोशल मीडिया एक्सपर्ट की भूमिका में सक्रिय रहे हैं। बहुत से अलग-अलग मुद्दों पर अपनी बात रखते रहे हैं, जिस पर सहमति असहमति हो सकती है। लेकिन जिस तरह की सोशल मीडिया की एक फौज दिलीप मंडल लेकर चले, जैसी उनकी फालोइंग रही, वैसा कोई दूसरा उस स्तर तक नहीं रहा। ट्विटर फेसबुक में एक तरह से एक उनके कहने पर लाखों पोस्ट ट्विट के साथ ट्रेंड होते रहे हैं, राष्ट्रीय स्तर पर भूचाल मचाने का काम किया है। ट्रोल आर्मी नहीं थी, आम लोगों की आवाज की तरह एक उनकी अदृश्य फौज थी। एक बार तो सोशल मीडिया के आव्हान से ही भारत बंद जैसा भी कुछ किया था, सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया की अपनी मजबूत फालोइंग के दम पर। संक्षेप में यह कि दिलीप मंडल मुद्दों को अपने हिसाब से जनमानस में भुनाने की ताकत रखते थे। 

कुछ लोगों का इस पर यह कहना है कि सवर्ण नहीं हैं इसलिए उनका चौतरफा विरोध हो रहा, यह भी इसमें देखने लायक है कि कोई ऐसा सवर्ण हुआ ही नहीं जिसने दिलीप मंडल के स्तर को छुआ हो, बतौर मीडियापर्सन अपनी पीछे ऐसी समर्थन करने वालों का संख्याबल विकसित की हो, और इतने कम समय में इतने सारे ज्वलंत मुद्दों को मजबूती से डिस्कोर्स बनाने में सफल हुआ हो। इसलिए भी लोग लपेट रहे हैं। बंदे का अस्तित्व था इसलिए रेल बनाई जा रही है। 

एक बार एक पाॅडकास्ट में दिलीप मंडल कहते हैं - सोशल मीडिया आपको ऐसा अहसास कराता है कि सब तुम ही चला रहे, तुम ही भगवान हो। लगता है वे इस खतरे को भांपते भांपते भी भाप नहीं पाए। इसका उदाहरण अभी उनके हाल के ही कुछ पोस्ट में देखने को मिल जाता है। एक समय था जब दिलीप मंडल ट्रोल्स को भाव तक नहीं देते थे, लोगों ने उनसे ट्रोल को मैनेज करना, नजर अंदाज करना सीखा। दिलीप खुद कहा करते - ट्रोल होने जरूरी है, वे आपके असली शुभचिंतक हैं, उन्हें पालकर रखिए, उन पर गुस्सा मत करिए। वे कहते - अगर आपके पास ट्रोल हों तो मेरे पास भेज दीजिए। 1000 से ज़्यादा फ़ॉलोवर्स वाले और धमकी देने वाले ट्रोल को मैं विशेष सम्मान से रखूँगा। ब्लॉक न किए जाने की लिखित गारंटी। गारंटी कार्ड लेना न भूलें। ट्रोल बहुत ज़रूरी होते हैं। ट्रोल के बिना सोशल मीडिया चल ही नहीं सकता।

लेकिन आज देखिए कैसे चीजें बदल गई। जो दिलीप मंडल लोगों को ट्रोल मैनेजमेंट सीखाया करते। आज वही ट्रोल के हाथों खुद आसान शिकार बन रहे हैं। अजीत भारती और जुबैर जैसे लोगों को फुल टाॅस देकर हर गेंद पर चौके छक्के खा रहे हैं जबकि स्किप कर सकते थे। दिलीप मंडल चाहते तो इतना कुछ होने के बाद भी चुप रहकर नजरअंदाज कर लेते, इससे उनकी थोड़ी बहुत इज्जत बनी रहती। लेकिन ये अपनी ही कही गई बात को अपने ही ऊपर लागू नहीं कर पाए। उल्टे ट्रोल्स को जवाब देते फिर रहे हैं, जिसकी जरुरत ही नहीं थी। इसके साथ ही उन्होंने बहुत सारे पुराने ट्विट पोस्ट डिलीट कर दिए, लेकिन सोशल मीडिया का जमाना है, लोगों ने पहले ही सबूत के तौर पर चीजें इकट्ठी कर ली और उनका यह दांव भी विनाशकाले विपरित बुध्दि की तर्ज पर बहुत भारी पड़ गया। लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि दिलीप इतनी बड़ी गलती कैसे कर गया, इस पर यही कहना है कि ऐसे लोग अपने ही छद्म अहंकार में आकंठ इस कदर डूब चुके होते हैं कि इन्हें एक समय के बाद खुद का सही गलत पता नहीं चलता है। 

कुछ लोगों का इस पर यह भी कहना है कि सवर्ण नहीं हैं इसलिए उनका चौतरफा विरोध हो रहा, इसमें यह भी देखने लायक है कि कोई ऐसा सवर्ण हुआ ही नहीं जिसने दिलीप मंडल के स्तर को छुआ हो, बतौर मीडियापर्सन अपनी पीछे ऐसे समर्थन करने वालों का संख्याबल विकसित किया हो, और इतने कम समय में इतने सारे ज्वलंत मुद्दों को मजबूती से डिस्कोर्स बनाने में सफल हुआ हो। इसलिए भी लोग लपेट रहे हैं। बंदे का अस्तित्व था इसलिए रेल बनाई जा रही है। 

अंत में यही कि दिलीप मंडल की भाषा में हमेशा एक बैचेनी, एक दुराग्रह, एक आवेशित आक्रोशित करने वाला, जबरन उन्मादी बनाने वाला भाव अधिक महसूस हुआ चाहे वे जिधर से भी बैटिंग करते रहे। ठहराव नहीं दिखा, सुकून जैसी चीज नहीं दिखी चाहे जितने सुकोमल विषय पर बात कर लें। अधिकतर इस तरह के लोगों के भाषा में यह एक चीज आपको एकसमान मिलती है कि ये हमेशा उकसाने वाली ही भाषा बोलते हैं, इसी एक चीज से इस तरह के तमाम लोगों को फिल्टर कर सकते हैं। वे व्यक्तिगत जीवन में जैसे भी हों लेकिन 99% आबादी जो सोशल मीडिया में उन्हें देखती है उनके लिए दिलीप मंडल का होना एक डंडा लेकर हांकने वाले से ज्यादा कुछ नहीं रहा। विडंबना देखिए कि वही लोग आज खुद डंडा लेकर दौड़ा रहे हैं। और ये तथाकथित वाम प्रगतिशील इस पूरे घटनाक्रम का मजा ले रहे हैं। हिन्दी पट्टी के सोशल मीडिया के इस पूरे एक दशक के इतिहास में यह अपने आप में एकलौती घटना है, जिसमें हर कोई मजबूती से एक सधी हुई भाषा में एक व्यक्ति को सीधे अस्वीकार कर रहा कि जाओ हमें नहीं चाहिए आपका ज्ञान, अपनी दुकान बंद करो। हमें चाहिए कि ऐसी घटनाओं से सीख ली जाए और कभी भी जीवन में अतिवादिता को न चुना जाए, खराब भाषा न बोली जाए। वरना जिस डंडे से आप लोगों को मजे से हांक रहे हैं, एक दिन लोग खुद उसी डंडे से आपको भी हांककर आपका किला ध्वस्त कर सकते हैं।

Saturday, 24 August 2024

खान-पान के तरीके

इंसान सभ्यता के विकास में जब जंगल से समाज की दूरी तय हुई। जब इंसान घर बनाकर रहने लगा, खेती पशुपालन करने लगा। इसी क्रम में भोजन करने के तौर-तरीके विकसित हुए। शाकाहारी और मांसाहारी खाने का वर्गीकरण हुआ। इन दोनों प्रकार के भोजन के तरीकों के प्रभाव को देखा गया। पुराने समय से ही लोगों ने सोने की वजह, खाना बनाने की जगह और निवृत होने की जगह में अच्छी खासी दूरी रखी। गांवों में आज भी घरों में अगर कहीं नाॅनवेज बनाते भी हैं तो घर अंदर के किचन में नहीं बनता है, बाहर बनता है, और इतनी दूरी रहती ही है कि उसकी आंच आबोहवा घर तक, घर के कमरों तक न आए। इन सब का फर्क पड़ता ही है। मैं खुद कभी कभार खा लेता हूं, आजकल तो वैसे बहुत कम‌ हो गया है। लेकिन इस बीच पिछले लगभग दो साल से यह एक प्रयोग करके देखा कि जहां रहते हैं, वहां आमिष भोजन न पकाया जाए। इसका बड़ा फायदा हुआ, सोच विचार के स्तर पर होता ही है। शायद पुराने लोगों ने यह सब करके देखा होगा तभी वे एक दूरी रखते थे। 

अपराध के मायने

अनिल अंबानी जो एक तरह से घोषित फ्राॅड की कैटेगरी में रहा है। जिस पर 8800 करोड़ के हेरफेर के आरोप लगे। हाल फिलहाल में सेबी ने अनिल अंबानी पर सिक्योरिटीज मार्केट से 5 साल का बैन लगाया और 25 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। यानि जितना बड़े स्केल का अपराध उतनी ही कम सजा। सजा भी केवल ऊपरी दिखावे के लिए ताकि बहुसंख्य लोगों के भीतर न्याय को लेकर आस्था बनी रहे। वैसे आजकल ऐसी खबरें देखकर खुद पर हंसी आती है। ऐसा लगता है कि न्याय कानून जैसी चीजें इन जैसे लोगों के लिए बनी ही नहीं है। हम लोग भी कहां उलझे रहते हैं। सरे बाजार में कोई किसी का पर्स या चेन चुरा लेता है, या कुछ पैसे चुराकर कोई भागता है, उसकी सरे आम कुटाई होती है और फिर उसे महीनों जेल में सढ़ाया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कानून है, हवालात है। लेकिन हम सब की गाढ़ी कमाई से जाने वाले टैक्स का ही 8800 करोड़ गबन करने वाला सूटबूट पहना अमुक व्यक्ति हमें कभी अपराधी नहीं लगता है। क्योंकि वो सामूहिक लूट मचाता है, उसका लूट अदृश्य है, उसके द्वारा की गई लूट हमें किश्तों में मारती है, पूरी हमारी एक पीढ़ी को सामाजिक आर्थिक रूप से तोड़ देती है, हमारे पारिवारिक कलह का हमारे व्यक्तिगत मानसिक अवसाद का कारण बनती है। और ऐसे बड़े अपराधी द्वारा की जा रही लूट से पैदा हुआ निर्वात और उस निर्वात से जन्म लेती अस्थिरता ही तो ऐसे राह चलते छोटे अपराधियों को जन्म देती है। जिस दिन हम ऐसी बातों को समझ जाएंगे उस दिन हमें यह भी समझ आएगा कि नोटबंदी जीएसटी जैसे कदम भारत के आम नागरिकों के साथ किया जाने वाला सबसे भयावह रेप था जिसकी सुनवाई कभी नहीं होगी।

Friday, 2 August 2024

वायनाड भू-स्खलन और गृहमंत्री के दावे

वायनाड में भारी बारिश और बादल फटने से चौतरफा लैण्डस्लाइड हुआ है। दो तीन गांव पूरी तरह से चपेट में आकर मलबे में तब्दील होकर बह चुके हैं। 300 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। हिमाचल के रामपुर में भी लैण्डस्लाइड की वजह से 50 से अधिक लोग लापता हैं, इसी क्रम में उत्तराखण्ड में 11 से अधिक मौते हो चुकी हैं।

आपदा अनेक प्रकार से आती है। पिछले एक दशक में बादल फटने और बाढ़ की घटनाएं बढ़ी है। जिन राज्यों ने कभी यह सब देखा भी नहीं था, वहां भी आपदा वाली स्थिति निर्मित हुई है। कारण प्राकृतिक असंतुलन कहें या कुछ और, यह सब कुछ हो रहा है।  मैं खुद अलग-अलग तरह की आपदा का साक्षी रहा हूं, इसलिए जमीनी यथार्थ की थोड़ी बहुत समझ है। कुर्ग वायनाड क्षेत्र की बाढ़ देखी है, उत्तर कर्नाटक में आई बाढ़ को भी करीब से देखा है, वहां तो बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में काम करते हुए टायफायड भी हो गया था। उत्तराखण्ड में बादल फटने को सामने से देखा है, नल फटने के कारण दो दिन तक पीने का पानी नसीब नहीं हुआ था, बारिश का पानी बाल्टी में लगाकर गर्म कर पीना पड़ा था। इसके अलावा उड़ीसा में साइक्लोन फनी का भुक्तभोगी रहा हूं, जहां 32 घंटे तक सिर्फ पानी पर जीवित था।

वायनाड की त्रासदी अभी हालिया घटनाओं में सबसे भयानक है। वायनाड की आपदा को लेकर कुछ दिन पहले गृह मंत्री अमित शाह का बयान आया - हमने सप्ताह भर पहले ही अलर्ट की सूचना राज्य सरकार को दे दी थी, अगर वे समय रहते कदम उठाते और लोगों को सुरक्षित जगह में पहले ही रेस्क्यू करते तो स्थिति बेहतर होती। इसके अलावा गृह मंत्री जी ने उड़ीसा और गुजरात के साइक्लोन के समय का उदाहरण देते हुए कहा कि उस समय उन्होंने पहले ही अलर्ट जारी किया था जिस कारण से जान माल का किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ। गृहमंत्री जी की चतुराई देखिए कि उन्होंने कभी पूर्वोत्तर के बाढ़ भूस्खलन या हिमाचल उत्तराखण्ड के भूस्खलन का उदाहरण नहीं दिया क्योंकि हकीकत वे भी जानते हैं। गृह मंत्री जी ने जिन राज्यों का उदाहरण दिया उनकी उस बात से पूरी सहमति है कि उसका यथोचित पालन हुआ। क्योंकि उड़ीसा के साइक्लोन में खुद मैंने यह चीज देखी है। कुछ दिन पहले हमें खुद नोटिस मिल‌ गया था कि जो उड़ीसा के स्थानीय लोग नहीं हैं वे अपने घर चले जाएं।

लेकिन पेंच यहां‌ फंसता है कि क्या आप साइक्लोन की तुलना लैण्डस्लाइड से कर सकते हैं? क्या आप हवा की गति की तुलना अतिवृष्टि से कर सकते हैं। दोनों अपनी प्रकृति में बहुत अलग चीजें हैं। जिनको जानकारी नहीं है उन्हें बताया चलूं कि साइक्लोन जब आता है, बहुत पहले ही अलर्ट कर दिया जाता है, यह भी पता रहता है कि एक सीमित अनुमानित क्षेत्र में तेज हवाएं चलेंगी। साइक्लोन फनी जब आया था, कुल जमा एक घंटे तक तेज हवाएं चली थी, कई बार यह 15 मिनट भी होता है। उस एक घंटे के दौरान 150 से 220 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से हवा चली। उसी में सब तहस नहस हो गया, 70% पेड़ ध्वस्त हो गये। सरकार राहत कार्य में लग गयी थी। राजधानी भुवनेश्वर में ही बिजली बहाल होने में 10 दिन लगे थे। साइक्लोन की पूर्व तैयारी बहुत अलग तरह की होती है, इसमें आप जान माल की सुरक्षा बहुत हद तक कर सकते हैं। आपको बस उस एक दो घंटे तक अपनी सुरक्षा करनी होती है।

लेकिन लैण्डस्लाइड और बाढ़ के साथ मामला बहुत अलग है। बाढ़ का पानी एक बार चढ़ता है, कई-कई दिन तक उसका प्रकोप बना रहता है, चौतरफा नुकसान करता है, द्विगुणित हो जाता है। गंदे पानी से बीमारियों का प्रकोप अलग। बाढ़ को पहले से मिले अलर्ट से भी ट्रैक नहीं किया जा सकता। कितना नुकसान करेगा, कहां तक जाएगा, कुछ नहीं कह सकते। हवा और पानी में इतना अंतर तो होता है, हवा का क्या है, कुछ घंटे बहकर शांत हो जाती है, पानी को तो जमीन में ही रहना है, नुकसान करती जाती है। ये सब एकदम कामनसेंस वाली बात है।

लैण्डस्लाइड का मामला तो और खतरनाक है, एक बार बादल फटा उसके बाद कितना पहाड़ गीला हुआ है, कहां तक की मिट्टी दरकते हुए आगे नुकसान करेगी, इसका ठीक-ठीक अनुमान एक अलर्ट से हो ही नहीं सकता है, इसके लिए संयुक्त रुप से काम करने की जरुरत होती है। एक अलर्ट भर दे देने से और मुंह मोड़ लेने से नहीं होता है।

क्या गृहमंत्री इस बात का जवाब दे पाएंगे कि उन्होंने क्या इस बात का अलर्ट दिया था कि कब भारी वर्षा होगी?
क्या वे यह बता पाएंगे कि कब किस दिन किस घंटे बादल फटेगा?
क्या वे यह बता पाएंगे कि ठीक किस पहाड़ी के ऊपर बादल फटेगा और कितने गांव प्रभावित होंगे?
क्या उन्होंने इसकी सूचना दी कि कौन सी मिट्टी नरम है और कहां से लैण्डस्लाइड होगा?

सच बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लेने से काम नहीं बजता है। इसके लिए संयुक्त प्रयास करने होते हैं। भारी बारिश का पूर्वानुमान देने वाले मिट्टी के बारे में जानकारी नहीं दे सकते, इसके लिए भू-विज्ञान विभाग बताएगा, अकेले मौसम विभाग क्या करेगा। इसीलिए लैण्डस्लाइड जैसी आपदा के लिए बिना संयुक्त प्रयास के आप सिर्फ अलर्ट पाकर कुछ नहीं कर सकते है। मुझे समझ नहीं आता है गृहमंत्री स्तर का व्यक्ति साइक्लोन के अलर्ट को लैण्डस्लाइड के अलर्ट से कैसे तुलना कर सकता है। ये सरासर असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। जिसने 300 से अधिक लोगों की जान ले ली।

#standwithwayanad



Tuesday, 23 July 2024

पिल वेब सीरीज और हमारा सुप्रीमकोर्ट - आश्चर्यजनक किन्तु सत्य

आजकल वेब सीरीज की बाढ़ आई हुई है। लिखो-फेंको की तर्ज‌ पर आपको अपने पसंद की ढेरों वेब सीरीज मिल जानी है। इसी तर्ज पर एक दोस्त की सलाह पर हाल फिलहाल में फार्मा इंडस्ट्री के काले सच को बेनकाब करती रितेश देशमुख की वेब सीरीज पिल देखी। वेब सीरीज का कथानक अच्छा है, रितेश देशमुख ने अच्छी एक्टिंग की है, विलेन के रूप में पवन मल्होत्रा का अभिनय भी शानदार है। 

मोटा-मोटा वेब सीरीज की कहानी यह है कि बड़े व्यापारियों द्वारा डाइबिटिज की दवा  का फेक ट्राइल लोगों की जान जोखिम‌ में डालकर किया जाता है और सरकारी महकमे में जुगाड़ लगाकर दवा लांच कर दी जाती है। फिर रितेश देशमुख नामक ड्रग अधिकारी फरिश्ता बन कर आता है, फाइलें खंगालता है, व्यवस्था से लड़ता है और अंत में सुप्रीम कोर्ट से केस जीत जाता है और व्यापारी का लाइसेंस रद्द हो जाता है और वह सलाखों के पीछे होता है। 

जाॅली एलएलबी और इस तरह की कहानियों पर बनने वाली बहुत सी फिल्में वेब सीरीज देख चुका हूं। हर फिल्म में अंत में सुप्रीम कोर्ट को महान बना दिया जाता है जो कि समझ से परे है जबकि सब कुछ सामने ही दिख रहा होता है कि आम आदमी का जीवन कैसे कोर्ट कचहरी के चक्कर में नर्क हुआ पड़ा है। पिल वेब सीरीज को ही ले लीजिए। हकीकत में क्या ऐसा कहीं से भी संभव है? उल्टे अगर रितेश देशमुख को उस व्यापारी द्वारा कार से कुचल दिया जाता और सुप्रीमकोर्ट के जज को बिकाऊ घोषित किया जाता तो कहानी और वास्तविक होती। फिर अंत में सुप्रीमकोर्ट और तमाम हाईकोर्ट में लाखों लंबित मामलों और अन्यायपूर्ण फैसलों का बस अनुमानित डेटा प्रस्तुत कर दिया जाता। लेकिन कहानी को इतनी वास्तविकता के साथ अगर बना दिया जाता तो वेब सीरीज पर ही बैन लग जाता।

हमारी फिल्मों में जिस सुप्रीम कोर्ट के हाथों बारंबार न्याय दिलवाया जाता है, वहां न्याय पाना कितना कठिन उबाऊ और तनावभरा काम है, इसकी शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जो कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते हैं उन्हें बेहतर मालूम‌ है, आप कितने भी पैसे वाले हों आपको परेशान होना ही पड़ेगा। पैसे के साथ-साथ आपके पास रसूख नहीं है तो आपके यहां पूरी पीढ़ी बर्बाद हो जाती है। बहुत अलग-अलग तरह के काम करने वालों के चेहरे की भाव-भंगिमा देखी है, पता नहीं क्यों ये वाले मुझे सबसे अधिक शुष्क मालूम हुए। 

इस बात में कोई शक नहीं कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई ईकाई अगर सबसे अधिक भ्रष्ट है तो वह न्यायपालिका है, एक बार कोढ़ का इलाज है, लेकिन कोर्ट का नहीं है‌। यह इंस्टिट्यूट ही अपने आप में एक लाइलाज समस्या है। आदमी अस्पताल हवालात का एक बार तोड़ निकाल लेता है, आर्थिक रूप से अगर सक्षम है तो वहां उसे कुछ राहत मिल भी जाती है लेकिन एक बार कोई कोर्ट के हाथ लगता है तो उसकी ऐसी पिसाई होती है कि आजीवन उसे हिसाब चुकता करना पड़ता है। कहने का अर्थ यह है कि फलां चीज ठीक है या गलत है, जो कि हमें पता होता है, उसी बात को अगर सुप्रीमकोर्ट सिध्द कर दे तो हम उसे महान घोषित क्यों कर देते हैं? हमें इस पर गहराई से सोचने की आवश्यकता है। 

Wednesday, 17 July 2024

भारतीय और उनकी भारीभरकम नैतिकताएं

एक मानसिकता है, एक सैध्दांतिकी है, जिसे इंसान धुरी बनाकर उस पर घूमता रहता है। इसमें अपनी जरूरतें केन्द्र में होती हैं। जैसे पुराने समय में किसी को युध्द में या शिकार में जाना होता था, या पुत्र प्राप्ति या किसी असाध्य रोग से मुक्ति चाहिए होती थी तो वे किसी जानवर या नरबलि तक की प्रथा वाली सैध्दांतिकी को मजबूती से जीते थे। 

आज भी इस सैध्दांतिकी को अपने आसपास अलग-अलग रूपों में पल्लवित होते हुए देखा जा सकता है। समय बदला है, इंसान को न‌ पहले जैसे युध्द करना है न ही जंगल में जाना है। आज उसकी भूख, उसकी जरूरतें, उसका लालच अलग है। लेकिन वह किसी एक प्रचलित नियम‌ को, आस्था के पैटर्न को मानने का कष्ट उठाता रहता है, क्योंकि बदले में वह तरह-तरह के‌ अपराध/हिंसा करता है, अनैतिकता को जीता है।

हम सबने अपने आसपास किसी न किसी यौन कुण्ठित व्यक्ति को देखा ही होता है। सबकी बात नहीं कही जा रही लेकिन मैंने यह पाया है कि अधिकतर जो यौन कुण्ठित युवा या फिर अंकल सरीखे लोग होते हैं, ये नवरात्र उपवास, सावन की कांवड़ यात्रा या ऐसे तमाम धार्मिक आयोजनों में जमकर अपना समर्पण दिखाते हैं। वे इस आस्था को बहुत गहराई से जीते हैं कि यह समर्पण इनको इस बात का परमिट देता है कि वे जीवन में जिस भी आपराधिक प्रवृति को जी रहे होते हैं उसमें प्रभु की कृपा सन्निहित है और प्रभु उन्हें इसके लिए क्षमा कर देंगे।

अपने अपराधों, अपने कुकर्मों, अनैतिक कृत्यों की पैरवी के लिए हम सबसे पहले स्वयं एक प्रतीक चिन्ह/एक ईश्वर/एक मानसिकता को चुनते हैं क्योंकि उसे हम‌ अपने हिसाब से नचा सकते हैं और अंतिम फैसला बड़ी आसानी से अपने पक्ष में ले सकते हैं। इससे आजीवन अपनी सारी गलतियों को सही मानने के भ्रम में जीने की सुविधा मिल जाती है।

Sunday, 16 June 2024

- ट्रेडर हूं -

अभी साल भर पहले पहाड़ों में एक जगह घूमने गया था। वहां यंगस्टर्स का एक ग्रुप आया हुआ था, कुछ उसमें से आईटी सेक्टर में नौकरी वाले थे, एक का अपना कोचिंग सेंटर था, लेकिन उनमें से एक इंसान हटके था, उसके हाव-भाव भी थोड़े अलग ही थे। मैंने जब उसके काम के बारे में पूछा तो उसने बताया कि ट्रेडर हूं। यह शब्द सुनते ही मुझे काॅलेज के दिनों का मकान मालिक याद आ गया, जिनके यहां हम रहते थे। वह भी ट्रेडर था, एसीसी का सीमेंट और कुछ-कुछ बिल्डिंग मटेरियल बेचता था। मैंने भी लड़के को पूछा कि कौन से सीमेंट का काम चलता है। फिर उसने कहा कि अरे भाई आपने अलग समझ लिया, मैं सीमेंट खरीदी बिक्री वाला नहीं हूं, मैं शेयर मार्केट में ट्रेडिंग करता हूं। उस दिन मुझे इस ज़मात के बारे में पता चला, इससे पहले सचमुच मुझे इस बारे में कुछ भी नहीं पता था। धीरे-धीरे और कुछ लोगों से पता चला और खुद भी थोड़ी बहुत जानकारी ली तो समझ आया कि ये एक तरह का आनलाइन जुआ हुआ, जिसमें लोग सप्ताह के पांच दिन कम्प्यूटर के सामने लगे रहते हैं। 

ट्रेडिंग के बारे में और विस्तार से जानकारी इकट्ठा करने पर यह भी पता चला कि कैसे बड़े सुनियोजित तरीके से शेयर मार्केट लोगों को जुआ खिलाती है, सरकार का भी समर्थन प्राप्त है। खुद प्रधानमंत्री गृहमंत्री और यहां तक की वित्तमंत्री भी लोगों को ट्रेडिंग करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, कि फलां कंपनी के शेयर पर आप जुआ खेलिए, सरकार आराम से बैठे-बैठे उसमें खूब टैक्स वसूलती है। कुछ विश्वसनीय कंपनियों के शेयर खरीद कर रखने में या म्युचल फंड में पैसा लगाने में कोई खास समस्या नहीं अगर आपके पास सही जानकारी हो लेकिन ये ट्रेडिंग तो सरासर जुआ है। ताश के पत्ते की तरह किससे हिस्से कब कौन सा नंबर आएगा किसे मालूम है लेकिन लोग लगे पड़े हैं। 

आनलाइन जुए के बहुत नुकसान हैं। आजकल के युवाओं में झटके से अमीर बनाने का गजब का भूत सवार है, हर दस में से एक युवा आज इस आनलाइन जुए की चपेट में आता जा रहा है। आनलाइन जुए से भयंकर तनाव आता है, चिढ़चिढ़ापन होता है, मानवीय संवेदना खत्म होती है। अपने आसपास बहुत से नौकरीपेशे सभ्रांत परिवारों के बच्चों को घर जमीन बिकवाते देख रहा हूं, कुछ एक ने तो आत्महत्या ही कर ली। क्या गजब समय चल रहा है, पूछो तो बड़े गर्व से कहते हैं - ट्रेडर हूं। और तनाव ऐसा कि 20 की उम्र में 35 के दिखने लगे हैं। 

मैंने आजतक किसी ताश या पट्टी वाले जुए में विरले ही लोगों को आत्महत्या करते देखा है, लेकिन इस वाले धंधे में तनावग्रस्त होने वाले और आत्महत्या करने वालों की संख्या कहीं अधिक है, क्योंकि इसमें आपको आभासी माध्यम से रातों रात करोड़पति बनाने के सपने दिखाए जा रहे हैं, आपको सफल बनाने की घुट्टी पिलाई जा रही है, जबकि अगर आप प्रत्यक्ष बैठकर ताश का जुआ खेलते हैं वहां आपको ऐसी घुट्टी नहीं पिलाई जाती है, आपको पता रहता है कि ये तो विशुध्द जुआ है, क्राइम है, पकड़ा गये तो पुलिस कार्यवाही करेगी। लेकिन ड्रीम 11 जैसे एप्प में और शेयर मार्केट में ट्रेडिंग को कभी जुए की संज्ञा नहीं दी जाती है, जबकि वो तो सारे जुओं का बाप है, शायद इसलिए तो उसे सरकारी संरक्षण प्राप्त नहीं है? वैसे भी ताश के जुए का पैसा भारत के आम गरीब मध्यमवर्गीय लोगों के बीच ही घूमता रहता है लेकिन इसके ठीक विपरित ये तमाम आनलाइन जुए का पैसा बड़े उद्योगपतियों के पास पहुंचता है। इसलिए अगर किसी को जल्दी अमीर बनने का चस्का लगा हो तो बेहतर है कि वह नीचे लेवल पर ताश जुआ ये सब चुपके से कर ले, न कि किसी बड़े उद्योगपति को या यूं कहें कि सीधे सरकार को फायदा पहुंचाए। 

इति‌।

Saturday, 15 June 2024

भारत को समझने के लिए लोकमानस से जुड़ी चीजों को स्वीकार करना जरूरी है -

पूरे विश्व में भारत का भूगोल सबसे अलग तरह का है। जब टेक्टानिक प्लेट अलग हुए, धरती अनेक जीवों के रहने के लिए तैयार हुई, इंसानों का उद्भव हुआ, जंगली और पशुवत तरीके से रहते हुए जब इंसान ने सभ्य होने तक की दूरी तय की, तब इंसान अनुकूलन खोजने लगा, वह ऐसी जगहों की तलाश में रहा जहां वह अच्छे से जीवन बिता सके। इसी क्रम में परिवहन के साधन तैयार हुए, लोग एक जगह से दूसरी जगह नापने लगे। सभ्यताएं विकसित हुई। लेकिन भारत इसमें एक ऐसा देश रहा जिसके हिस्से सर्वाधिक भौगोलिक विविधता आई। अपने उपमहाद्वीपीय भूगोल की बनिस्बत इस देश को सब कुछ नसीब हुआ, कुदरत की खूब नेमत बरसी। इसे एक लंबा समुद्री क्षेत्र मिला, उसमें पश्चिमी और पूर्वी घाट के जंगल पठार पहाड़ मिले। थार के विशाल गर्म मरूस्थल मिले तो वहीं लद्दाख का ठंडा मरूस्थल भी आया, उसी से जुड़ा हिमालय रूपी एक विशाल बर्फीला मस्तक मिला। हर तरह की नदियां मिली, खारे मीठे पानी की झील मिली, 3 बड़े मौसम मिले और साथ ही 3 और छोटे मौसम बोनस में मिले। कुल मिलाकर अपने शैशवस्था में अनेक सभ्यताओं के पलने बढ़ने के लिए भारत एक किसी मां के कोक की तरह था, अनेक सभ्यताएं यहां आई, पली बढ़ी। इसके ठीक विपरित आक्रमणकारी भी आए, अलग-अलग भूखंडों से आने वाले लोगों के लिए भारतभूमि किसी आश्चर्य से कम नहीं था, सबके लिए यह प्रयोगशाला रही। एक ऐसी प्रयोगशाला जहां सबने अपने स्तर पर अच्छे बुरे प्रयोग किए और साथ ही अपनी थोड़ी बहुत पहचान भी देते गये। एक लोकतांत्रिक देश के रूप में पहचान मिलने के बावजूद इस देश में 15-20 साल तक पुर्तगाली आराम से गोवा में शासन करते रहे, फ्रांसिसियों की काॅलोनी चलती रही, औरोविल नामक वैश्विक गांव भी यहीं बना, जहां दुनिया के 120 से अधिक देशों के लोग निवासरत हैं। 1964 के युध्द के बाद इसने तिब्बतियों को भारत के अलग-अलग कोनों में बसाया, दिल्ली ने तो नाइजीरिया वालों को अपना पड़ोसी ही बना गया, बांग्लादेशी तो किसी आश्रित देश के बाशिंदो की तरह आज भी भारत के हर कोने में है। यही इस देश का सोशल फैब्रिक है। तब जाकर इस देश को इतनी संस्कृतियां इतनी भाषाएं नसीब हुई। और तभी आज हम इसे विविधताओं का देश कह पाते हैं। 

भारत जैसे विविधताओं से जड़ित देश में कभी भी आप एकरैखिक होकर चीजों को नहीं देख सकते हैं, आपको मल्टी लेवल पर जाकर चीजों को देखना होता है। जैसे उदाहरण के लिए भले हम न्याय की बात करते हैं, समानता की बात करते हैं, सामाजिक न्याय की बात करते हैं, रंग जाति धर्म पंथ लिंग के आधार पर किसी प्रकार का विभेद न करने की बात करते हैं लेकिन बावजूद इसके कुछ चीजें ऐसी होती है जिसे आपको लोक में प्रचलित अवधारणाओं के अनुसार लेकर चलना होता है, वरना आपके सामने समस्या पैदा हो सकती है। 

उदाहरण के लिए जैसे अगर आप अहमदाबाद से इंदौर आ रहे हैं, तो आपको समझाइश दी जाती है कि अकेले सफर न किया जाए, खासकर रात के समय तो बिल्कुल भी नहीं, बकायदा पुलिस प्रशासन के बैरिकेट में लिखा होता है कि कानवाय में चलें। क्यों क्योंकि भील समुदाय की अपनी उग्रता के आप शिकार हो सकते हैं। ऐसा नहीं है कि पूरा समुदाय ऐसा करता है, लेकिन एक बड़ी संख्या जिसके हाथ आप लग गये, या तो आप पर तीर से हमले होंगे या फिर वे आपका हाथ पांव तोड़ेंगे, फिर आपको लूटेंगे। आप कहेंगे कि आज भी ऐसा होता है तो जी हां आज भी ऐसा होता है। 

छत्तीसगढ़ के ही एक जिले में ( इसी राज्य का हूं इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए नाम नहीं लिख रहा हूं ) कुछ इलाकों में आज भी पुलिस जाने से कतराती है, चुनाव कराने तक से डरती है, क्योंकि डर रहता है कि कब स्थानीय लोग बर्बरता में उतर कर कुछ न कर जाएं। जानकारी के लिए बता दूं कि वह नक्सल प्रभावित क्षेत्र नहीं है और छत्तीसगढ़ में महिलाओं को जलाने वाली सर्वाधिक घटनाएं उसी इलाके में होती है। 

ठीक इसी तरह पश्चिम बंगाल-झारखण्ड बार्डर में संथाल परगना के कुछ इलाको में रात में सफर करना ठीक नहीं माना जाता है, इसमें कोई पूर्वग्रह नहीं है, यह लोक का यथार्थ है जिसकी अनदेखी आप नहीं कर सकते। अभी कुछ महीने पहले ही एक स्पेनिश कपल जो बाइक में घूम रहे थे, उस इलाके में घूमते हुए एक स्थानीय व्यक्ति ने बिना पूछे जबरन आकर उनका खाना खा लिया था, इसी से उनको थोड़ा इलाके का हिंट मिल जाना चाहिए था, लेकिन वे नहीं समझ पाए। उन्होंने भारत को स्पेन समझते हुए उसी क्षेत्र में कैंपिंग किया, अंततः उनका कैंपिंग एक बुरे हादसे में तब्दील हो गया, 7-8 लोगों ने मिलकर पहले लड़के को पीटा, लड़की का रेप किया, कुछ लूटपाट भी की। अब इसमें क्या ही कहा जाए, क्या इससे भारत देश खराब हो जाएगा, नहीं बिल्कुल नहीं। आप भारतीय हों या विदेशी आपको खुद पहले जिस जगह में आप जा रहे हैं, वहां की वस्तुस्थिति इतिहास भूगोल के बारे में पता होना चाहिए, वरना जानकारी के अभाव में आप ऐसे अनहोनी को न्यौता दे जाते हैं। 

इसके अलावा पंजाब हरियाणा के लोग शेष भारत के लोगों को थोड़े तेवर वाले लग सकते हैं, क्योंकि शताब्दियों से उन‌ इलाकों ने आक्रांताओं से दो-दो हाथ किया है। हिमाचल का व्यक्ति उत्तराखण्ड वालों की तुलना में कम विनम्र मिलेगा, क्योंकि सेब खुबानी अखरोट से आ रहे पैसे से आर्थिक समृध्दि के साथ-साथ अकड़ भी विरासत में मिल जाती है। बिहार के व्यक्ति में आपको अजीब सी जीवटता देखने को मिलेगी, क्योंकि एक बड़े तबके ने पीढ़ियों तक खूब बाढ़ की विभीषिका झेली है, तो कहीं वहां के आम आदमी का एक खचाखच भरी जीप कमांडर में ऊपर बैठकर सफर करना भी उसके लिए जीवन की लक्जरी से कम नहीं। ऐसे न जाने‌ कितने उदाहरणों की एक लंबी फेहरिस्त है।

इस तरह भारतभूमि को इसके लोक में रचे बसे यथार्थ के आधार पर देखना जरूरी है, वरना बहुत सी चीजें आपके सामने घटित हो जाएंगी और आपको कभी समझ ही नहीं आएगा कि वास्तव में आखिर ऐसा क्यों हुआ?



Saturday, 8 June 2024

कंगना को कूट दिया -

2020 में किसान आंदोलन के समय कंगना राणावत ने आंदोलनरत किसानों को लेकर तमाम तरह की घटिया टिप्पणी की थी। तब लोगों ने उसका खूब विरोध किया था। एक व्यक्ति ने तो अपनी कार के बोनट में कंगना का एक पुतला लगा लिया था, जहां भी आंदोलन स्थल में गाड़ी रूकती, लोग उस पर जूते चप्पल बरसाते थे। अब इसी से विरोध का स्तर समझिए। 

किसान आंदोलन के दौरान 700 से अधिक किसान शहीद हुए। मुंह उठाकर सबको खलिस्तानी आतंकवादी कहा गया, कंगना उनमें से एक थी, जिसकी ज़बान छुरी की तरह चली थी। 2020 से 2024 के दौरान इस पूरे चार साल में पंजाब हरियाणा में छोटे बड़े बहुत से चुनाव हुए, उसके प्रचार के लिए भाजपा नेता गांवों की ओर गये, न जाने कितने नेताओं को विरोध स्वरुप घेर कर‌ मारा गया। गांव के गांव बहिष्कार कर रहे थे, घुसने तक नहीं दिया गया। 

इसी क्रम में आज कंगना राणावत को चंडीगढ़ एयरपोर्ट में सीआईएसएफ की महिला जवान कुलविंदर कौर ने थप्पड़ जड़े। कुलविंदर ने कहा - " किसान आंदोलन में कंगना राणावत ने धरने पर बैठने वाली महिलाओं को यह बोला था कि 100-100 रुपए के लिए धरने पर बैठती हैं, तब मेरी मां भी वहां बैठी थी।" कुलविंदर का गुस्सा जायज था। भला वह यह सब जैसे सहती, कूट दिया। बताता चलूं कि कुलविंदर उस मिट्टी से है, जिन्होंने सदियों तक सीमावर्ती लूटेरों आततियों से मुल्क की रक्षा की, देश की सीमाओं में आज भी ये अपने अद्भुत शौर्य पराक्रम और समर्पण के लिए जाने जाते हैं। कुलविंदर उस उधम सिंह की मिट्टी से है जिस महान क्रांतिकारी ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के अपराधी जनरल डायर को सजा देने की तड़प को 21 साल तक अपने भीतर जिंदा रखा और लन्दन में जाकर गोली मारी। कुलविंदर के भीतर भी वही खून बहता है। 

भगत सिंह की इस मिट्टी ने कभी अन्याय को अपने ऊपर हावी होने नहीं दिया। अगर किसी ने गलत किया या गलत कहा, तो उसे अपने भीतर दहकती आग की तरह जिंदा रखा और एक दिन सही मौका देखकर सूद समेत वापस कर दिया। कुलविंदर के भीतर भी वही खून है वही आग है, जिस खून ने कभी सीने में गोली खाने से परहेज नहीं किया, भला वह नौकरी और सस्पेंड होने से क्या डरती। इसलिए बिना परवाह किए सीधे कूट दिया और यह भी साबित कर दिया कि इस मुल्क में किसी की मनमानी नहीं चलेगी, कुछ भी उल्टा सीधा बोल के आप बच नहीं सकते हैं, आपका बराबर हिसाब किया जाएगा। 

जियो कुलविंदर, तुम पर गर्व है। 🙌

#kulwindarkaur

Friday, 7 June 2024

नवीन पटनायक और उड़ीसा -

आज से 20-25 साल पहले जब भी उड़ीसा का नाम जहन में आता था तो हर कोई उसे एक पिछड़े गरीब राज्य की संज्ञा देता था। बचपन में पापा की नौकरी उड़ीसा बार्डर में ही थी, 1990-95 की बात होगी, वे बताते हैं कि उन सीमावर्ती ग्रामीण इलाकों में इतनी गरीबी थी कि लोग घर के आंगन में धोने के लिए रखे गये जूठे बर्तन इसलिए भी चुराकर ले जाते थे कि उनमें थोड़ा बहुत जूठा अन्न खाने के लिए चिपका हुआ रहता था। और तो और छोटे बच्चे घर में नमक तक मांगने आते थे ताकि नमक चाटकर भूख शांत कर सकें। सन् 2001 के आसपास की ही एक घटना याद आ रही है, मेरे एक रिश्तेदार अपनी स्पलेंडर बाइक में अपनी बेटी के यहां उड़ीसा जा रहे थे, रास्ते में कहीं निवृत होने के लिए कुछ मिनट के लिए रूके होंगे, उतने में किसी ने पीछे से सिर में डंडे से वार किया और गाड़ी चोरी करके ले गये। गाड़ी के अलावा उनका चश्मा, घड़ी, चप्पल और पेंट कमीज तक ले गये थे। इसी से अंदाजा लगा लिया जाए कि किस हद तक गरीबी थी। मुख्यधारा के समाज से दूर जंगल वाले इलाकों में होने वाली ऐसी कुछ छुट-पुट घटनाओं की वजह से राज्य की छवि एक गरीब राज्य के रूप में सबके सामने थी। लेकिन जब से नवीन पटनायक ने बतौर मुख्यमंत्री काम करने शुरू किए, इस पूरी छवि का एक तरह से कायापलट ही कर दिया। सब तरफ शानदार सड़कें बनवाई, इंफ्रास्ट्रकचर डेवलप किया, राज्य को गरीबी वाली छवि से मुक्त किया, लोगों को शांत किया। 

उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर है। देश का एकलौता ऐसा शहर है जिसके पास ग्रीन कैपिटल का तमगा है, आपको भुवनेश्वर जाते ही यह महसूस हो जाएगा। ट्रैफिक मैनेजमेंट भी बहुत शानदार है। व्यवस्थित बसाहट है। साल भर रहते हुए मैंने खुद इन चीजों को महसूस किया है। मैंने इस शहर को चौक चौराहों में, दुकानों में, ठेलों रेहड़ियों में, फल सब्जी के बाजार में, नुक्कड़ चौपाटी में, लोगों की अभिव्यक्ति में हर जगह महसूस किया है, लोगों के पास जो भी कम अधिक है, उसे लेकर उनके भीतर तनाव नहीं है, खुमारी में रहते हैं, खुश रहते हैं। और यही एक राजनेता की सबसे बड़ी सफलता है कि उसने लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था बनाई, जिसमें वे तनावमुक्त होकर जीवन जी रहे हैं। भारत में उड़ीसा के अलावा सिक्किम में मैंने लोगों को इतना शांत पाया है। इन राज्यों में आप जाएंगे, और अगर आपमें दृष्टि है तो लोक-व्यवहार में अलग से ही फर्क महसूस होता है। सिक्किम में भी पवन कुमार चामलिंग रहे, जो भारतीय राजनीति के एकलौते ऐसे नेता हैं जिन्होंने लगातार 25 वर्षों तक शासन किया, दूसरे नंबर पर नवीन‌ पटनायक हैं जो 24 साल तक सत्ता में रहे। भारतीय राजनीति में बहुत कम ही नेता हुए हैं, जो ऐसा कर पाए हैं। लोगों की भावनाओं को ट्रिगर किए बिना राजनीति में बने रहना आज के समय में तो अब निरा स्वप्न जैसा हो गया है। पवन कुमार चामलिंग और नवीन पटनायक जैसे नेता इस मामले में अपवाद ही रहेंगे। 

साइक्लोन फनी के समय मैंने खुद राजधानी भुवनेश्वर का हाल देखा है, दो तिहाई पेड़ तहस-नहस हो गये थे, इतनी खराब स्थिति थी कि 10 दिन तक राजधानी में बिजली व्यवस्था ठप थी। इस बीच आपदा प्रबंधन की पूरी टीम युद्ध स्तर पर लगी हुई थी। 1 महीने बाद जब मैं वापस भुवनेश्वर लौटा तो मैंने स्टेशन से बाहर निकलते ही कैब में गुजरते हुए जब इस शहर को देखा तो मैं अवाक रह गया। कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा था कि यहां महीने भर पहले इतना भयावह साइक्लोन आया था। ये नवीन बाबू के तैयार किए आपदा प्रबंधन टीम का कमाल था। बताता चलूं कि उड़ीसा की आपदा प्रबंधन टीम इतनी पारंगत है कि जब कहीं भी देश में कोई आपात स्थिति आती है तो यहां की टीम से सलाह मश्विरा किया जाता है, क्योंकि उड़ीसा हर साल दो साल में साइक्लोन झेलता है, तो वह इससे निबटना जानता है।

नवीन पटनायक जिसे पूरा राज्य प्यार से नवीन बाबू के नाम से पुकारता है, उन्हें उड़िया भाषा तक नहीं आती है, इसके बावजूद एक उड़ियाभाषी राज्य को उन्होंने 24 साल तक संभाला, यह मामूली बात नहीं है। भारतीय राजनीति के इतिहास में यह अपने आप में एक उपलब्धि ही कही जाएगी। नवीन बाबू के सीएम रहते हुए कंधमाल में एक बड़ी नस्लीय हिंसा की घटना हुई थी, मीडिया में खूब बवाल मचा था, लेकिन इन्होंने उस घटना को जिस तरह से संभाला वह अपने आप में एक नजीर थी। 

स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो एक बेहतरीन काम हुआ वह है - बिजू कार्ड। यह कार्ड आम लोगों के लिए संजीवनी की तरह काम कर रहा है। आयुष्मान कार्ड की तरह ही इसमें हास्पिटल में इलाज संबंधी छूट मिलती है, लेकिन जहां आयुष्मान कार्ड में नियम कानून बंदिशें हैं, वहां इस कार्ड के साथ ऐसा नहीं है, आयुष्मान कार्ड में मोटा मोटा सिर्फ बेडचार्ज से आपको राहत मिलती है, लेकिन इसमें ऐसी कोई बंदिश नहीं है, बिजू कार्ड के साथ आप बड़ी से बड़ी सर्जरी या कोई भी गंभीर बीमारी हो या कोई ट्रांस्प्लांट हो, इस कार्ड के माध्यम से आप निःशुल्क करा सकते हैं। आम गरीब लोगों के लिए यह तो वरदान की ही तरह है। यूं समझिए कि एम्स जो सुविधाएं देता है, उससे कहीं अधिक सुविधा तो स्थानीय लोगों को बिजू कार्ड के माध्यम‌ से ही मिल जाती है।

जब देश की हॉकी टीम को कोई राज्य गोद लेकर ट्रेनिंग देने के लिए तैयार नहीं था, तब नवीन बाबू ने उन्हें गोद दिया, उड़ीसा ने उन्हें तैयार किया। उड़ीसा के ही कलिंग स्टेडियम में प्रैक्टिस करते हुए उन्होंने 19वें एशियाई खेलों में ऐतिहासिक स्वर्ण पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया था। यह कोई मामूली बात नहीं थी। इसके अलावा 2020 ओलंपिक में भालाफेंक में स्वर्ण पदक लाकर देश का नाम रोशन करने वाले नीरज चोपड़ा की नींव तैयार करने में भी इस स्टेडियम की महती भूमिका रही है। 

नवीन पटनायक से आज के नेताओं को यह सीखने की जरूरत है कि राजनीति कैसे की जाती है और मीडिया मैनेजमेंट कैसे किया जाता है। नवीन बाबू बहुत कम बोलते हैं, इतना कम कि मीडिया के पसीने छूट जाते हैं कि आखिर इनसे क्या ही पूछा जाए। चाहे राष्ट्रीय मीडिया हो या क्षेत्रीय मीडिया, इतने संक्षेप में जवाब देते हैं कि कोई उलूल-जुलूल सवाल कर ही नहीं पाता है। विपक्ष के नेता भी उनके बारे में कभी कोई खराब टिप्पणी नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन्होंने राजनीति का‌ अपना एक‌ मानक स्तर बनाकर रखा है, वे किसी को उस स्तर से नीचे गिरने नहीं देते हैं। उनका अपना शांतचित्त व्यक्तित्व, उनका कम शब्दों में ही गंभीर बात कह जाना, और ब्यूरोक्रेसी को स्पेस देते हुए उनसे बेहतर काम लेना, यही उनका पीआर था, यही उनकी पहचान थी। 

नवीन बाबू के व्यक्तित्व के बारे में लोगों को बहुत कुछ पता नहीं है, वही पुराने नेताओं की तरह हमेशा सादा सफेद कुर्ता पजामा पहनते हैं। वे कभी लाइमलाइट में नहीं रहते हैं, मीडिया से जितना जरूरी होता है, उतनी ही बात रखते हैं, और यही एक सुलझे हुए राजनीतिज्ञ की पहचान है। उनके इस इस्पात रूपी व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ताकत जो मुझे लगता है वो यह है कि वे अपने दैनिक दिनचर्या को लेकर बहुत सजग रहे हैं, समय पर सात्विक भोजन और समय पर नींद उनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहा है। नवीन बाबू के बारे में जानने के लिए उनकी लिखी गई किताबों के बारे में जानना जरूरी है। खासकर "The Garden of Life" किताब जो healing plants को लेकर उन्होंने लिखा है, इसे पढ़ा जाना चाहिए, उनके व्यक्तित्व के ठहराव की समझ विकसित करने के लिए यह किताब जरूरी है। 

इस बार नवीन बाबू की पार्टी हार गई है। लोग उदास हैं, किसी नेता के हारने के बावजूद उस व्यक्ति को कहीं इस देश में ऐसा इमोशनल सपोर्ट मिलते मैंने तो नहीं देखा है। जब वे सत्ता में भी थे तब विरोधी खेमे को भी कभी सोशल मीडिया में या कहीं और किसी प्रकार की अव्यवस्था को लेकर घटिया भाषा बोलते या अपशब्द कहते नहीं देखा है, जैसा बाकी राज्यों में दिखता है। उनके हारने के बाद आज लोग भावुक हो रहे हैं जिनमें विपक्ष के लोग भी हैं, और यह कोरी भावुकता नहीं है, भाषा से, भाव-भंगिमा से अलग से समझ आ रहा है कि वास्तव में यह राज्य के लिए एक बेहतरीन अभिभावक की तरह था, जिसकी कमी आने वाले समय में लोगों को खलेगी। 

You made odisha proud Naveen babu...blessings with you.



Thursday, 30 May 2024

एक बीजेपी समर्थक व्यापारी दोस्त की जुबानी -

मैं वर्तमान सरकार का समर्थक हूं। मेरी यह इच्छा है कि इस बार भी केन्द्र में सरकार बने और बनेगी भी, मुझे इस बात को लेकर पूरा विश्वास है। लेकिन मेरी एक समस्या यह है कि किसी भी हाल में मोदी-शाह के हाथों सत्ता नहीं जानी चाहिए। आप कहेंगे कि मैं खुद उस व्यापारी बिरादरी का हूं फिर भी अपने बिरादरी के लोगों के खिलाफ कैसे बात कह रहा हूं। असल में बात ऐसी है कि हम व्यापारी लोग भले कहीं भी पहुंच जाएं, कितने भी बड़े नेता अधिकारी हो जाएं, हम लाभ हानि से आगे नहीं सोच पाते हैं। हमारा जीवन इसी के ईर्द-गिर्द होता है। हमारी बचपन से जो परवरिश होती है, परिवार में जो हमें सिखाया जाता है, उसका सार यह है कि अगर आपके पास पैसा नहीं है, आप आर्थिक रूप से भयानक मजबूत नहीं है तो आपका बाप भी आपका सगा नहीं है, हमारे यहां ऐसा ही होता है साहब। बाकी समाजों में बच्चों की अलग-अलग तरीके से ट्रेनिंग होती होगी, लेकिन हम बचपन से लाभ हानि ही सीखते हैं, हम कहीं भी चले जाएं ये तत्व हमारे खून में हमारे डीएनए में होता है। हममें एक ही जगह लंबे समय तक बैठने का हुनर है, आप इसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि एक ही जगह घुन की तरह बैठने का काम हमारे ही हिस्से आता है। हमारे डीएनए में खेती बाड़ी नहीं है, हम एक जगह बैठकर काम करना ज्यादा पसंद करते हैं, हम यहां जोखिम उठाते हैं। सबके अपने-अपने जोखिम हैं, सबका अपना-अपना संघर्ष हैं। हमारे व्यापारियों में भी आप देखेंगे तो दिल्ली में खत्री हैं, राजस्थान में मारवाड़ी हैं, कुछ क्षेत्रों में कम अधिक संख्या में सिंधी जैन आदि हैं, लेकिन इनमें जो सबसे क्रूर आपको मिलेंगे वे गुजरात के लोग मिलेंगे। इनमें मुद्रा को लेकर जो भयावह किस्म का सनकीपन आपको दिखेगा, ये और कहीं न मिलेगा। नीरव मोदी से लेकर हर्षद मेहता और ऐसे न जाने कितने नाम है, सब के सब गुजराती, पैसे को लेकर एक अजीब का वहशीपन। एक तरह से आप ये कह सकते हैं कि जो मैंने कहा कि पैसे के लिए बाप बेटे का सगा नहीं, वह इन पर ही सबसे ज्यादा लागू होता है। क्या नैतिकता, क्या मानवीयता, क्या परिवार, क्या लोक-कल्याण, इनके लिए यह सब फालतू चीज हुई। बाकी जगह आपको ये तत्व मिल जाएंगे लेकिन गुजरात का व्यापारी वर्ग अलग ही खून का है। अब इसे इत्तफाक कहिए या दुर्भाग्य कहिए कि इस देश के राष्ट्रपिता का तमगा भी एक गुजराती के हिस्से है। और अब सत्ता में भी वही एक गुजराती है जो दिन रात अपने गुजरातीपने को दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है।

कहा जाता है कि हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था है। लेकिन अगर आप ध्यान से पिछले 10 साल को देखेंगे तो आप पाएंगे कि देश की अर्थव्यवस्था मिश्रित नहीं बल्कि पूरी तरह से गुजरात माॅडल पर चल रही है। देश न भाजपा के सिध्दांतों पर चल रहा है न ही संघ के सिध्दांतों पर चल रहा है, यह सिर्फ और सिर्फ लाभ-हानि के सिध्दांत पर चल रहा है। और इसका सबसे ज्यादा नुकसान तो हम छोटे मझौले व्यापारी झेल रहे हैं, हम अपना दुःख दर्द किसी को बता ही नहीं सकते कि हमारा कैसे चौतरफा शोषण हो रहा है। यूं समझिए कि गुजरातियों में emotional quotient सबसे कम होता है और व्यापार सबसे ज्यादा। इन सब कारणों की वजह से मैं दिल से चाहता हूं कि देश कभी भी गुजरातियों को नहीं चलाना चाहिए क्योंकि ये लाभ हानि से आगे चीजों को देख ही नहीं पाते हैं और देश लाभ हानि के सिध्दांत पर नहीं चलता है, देश परचून की दुकान नहीं है। 



Wednesday, 29 May 2024

Workoholic People Symptoms -

1. वर्कोहाॅलिक व्यक्ति आत्ममुग्धता से ग्रसित होते हैं।
2. ये अपने को श्रेष्ठ और सारी दुनिया को परले दर्जे का मूर्ख समझते हैं।
3. इनके व्यक्तिगत जीवन में भयानक उतार-चढ़ाव होता है, जिसकी भरपाई ये काम करते हुए करने की कोशिश करते हैं।
4. पारिवारिक जीवन में बहुत समस्याएं होती हैं, इस कारण से जबरन काम करते रहना ही इनका इष्ट बन जाता है।
5. ये खुद जान बूझकर अतिरिक्त काम करते हैं या ऐसा करने का दिखावा करते हैं जिसकी कभी आवश्यकता नहीं होती है।
6. जरूरत से अधिक काम करते हुए दूसरों के लिए समस्या पैदा करना इनका प्रिय शगल होता है। 
7. ये अजीब किस्म के सिरफिरे होते हैं, इन्हें लगता है यही दुनिया में सही हैं, इस कारण से दूसरों का दुःख दर्द ये कभी नहीं देख पाते हैं।
8. ये जहां भी रहते हैं, वहां ये सबसे बड़े चाटुकार होते हैं। इस मामले में कोई इनके पासंग नहीं होता है।
9. इस तरह के लोगों से समाज को लाभ कम और नुकसान अधिक होता है। 
10. चूंकि ये काम कम और काम करते रहने का दिखावा अधिक करते हैं इस वजह से ये अपने सहकर्मियों को अनावश्यक प्रताड़ित करते रहते हैं।
11. ये एक अच्छे चाटुकार होने की सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करते हैं।
12. इनके लिए क्या दिन क्या रात, हमेशा वर्क मोड में ये आपको मिलेंगे, क्योंकि इसके अलावा इनके जीवन में कोई दूसरी बेहतर चीज होती ही नहीं है।
13. इस तरह के लोगों का व्यक्तिगत जीवन इतना चौपट होता है कि ये पांच मिनट भी अकेले शांति से बिता नहीं सकते। इन्हें बैचेनी होने लगती है।
14. किसी एक बीमारी की तरह काम को ही जीवन मरण का प्रश्न बना देने वाले इन‌ लोगों का पुरजोर इस्तेमाल किया जाता है, इन्हें इसमें मजा भी आता है।
15. ये भयानक कमजोर, डरपोक और हल्के किस्म के होते हैं। तभी वर्कोहाॅलिक बनकर श्रेष्ठताबोध को जीने की कोशिश करते हैं। 
16. इनके दोस्त यार करीबी कोई होते ही नहीं है, कोई ऐसा नहीं होता जो दुःखहर्ता की तरह इनका हाथ थाम ले और गले लगाकर कहे कि सब ठीक है, क्योंकि इनमें इंसानी रिश्तों की रत्ती भर समझ नहीं होती है। 
17. इनका मन अधिकांशतः अशांत ही होता है, इसलिए ये दूसरों को भी तोहफे में यही दे रहे होते हैं। 
18. ये लोग न अपना भला करते हैं, न दूसरे का भला करते हैं, जहां रहते हैं, बस लोगों को सिवाय बैचेनी और तनाव के और कुछ नहीं देते। क्योंकि खुद उसी में आकंठ डूबे रहते हैं। 
19. अमूमन देखने में आता है कि ये भाषाई दरिद्रता के धनी लोग होते हैं। 
20. ये आजीवन इसी भ्रम में जीते हैं कि ये अपने काम‌ को लेकर बहुत जुनूनी किस्म के‌ हैं, जबकि वास्तव में ये अपने भीतर की असुरक्षा को जी रहे होते हैं। 

सामान्य मनुष्यों को चाहिए कि अपने बेहतर स्वास्थ्य के लिए इस बीमार प्रजाति से हमेशा एक निश्चित दूरी बनाकर रखें।

Sunday, 26 May 2024

राम भरोसे सारंगढ़ -

छत्तीसगढ़ का यह एक छोटा सा शहर है। शहर की अपनी सबसे बड़ी पहचान यह कि यहां के जो राजपरिवार के एक राजा हुए वे अविभाजित मध्यप्रदेश के एकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री रहे, भले कुल जमा 13 दिन के लिए मुख्यमंत्री रहे लेकिन इतने में ही क्षेत्र को ठीक-ठाक पहचान मिल गई। रियासतों के दिन लदने वाले थे और अब लोगों के पास लोकतंत्र नामक व्यवस्था थी। वैसे यह लोकतंत्र की खूबसूरती ही कही जाएगी कि राजा होने से बड़ी पहचान इलाके से निकले मुख्यमंत्री के होने पर होती है। 

दूसरी एक पहचान यहां का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम गढ़ विच्छेदन है। रियासतकाल से ही (लगभग 200 वर्षों से) विजयदशमी पर्व पर होने वाला यह कार्यक्रम जारी है। मिट्टी का एक टीला/गढ़ बनता है, उस पर लोग चढ़ाई करते हैं, ऊपर खड़े रक्षक चढ़ने नहीं देते, जो इन बाधाओं को पार कर ऊपर चढ़ जाता है, वह विजयी घोषित होता है, एक बार तो यह देखा ही जाना चाहिए। बाकी यहां के स्थानीय लोग खूब पूजा-पाठ करते हैं, छोटे से कस्बे में अलग-अलग तरह के ढेर सारे मठ-मंदिर हैं, यहां की अपनी एक अलग सांस्कृतिक आबोहवा तो है ही।‌ 

इतिहास और संस्कृति की इन बातों को किनारे कर वर्तमान को देखा जाए तो राष्ट्रीय राजमार्ग से पांच किलोमीटर अंदर बसा यह छोटा सा कस्बा अपने अतीत को लेकर ही लहालोट होता रहता है, सपने बुनता रहता है, कभी-कभी चीखता है, नाराज भी होता है, लेकिन इसके हिस्से कुछ खास आता नहीं है, अभी हाल फिलहाल में सरकार बहादुर ने इलाके को जिले का तमगा दे दिया गया है। सारंगढ़-बिलाईगढ़ नाम से बना यह‌ जिला प्रदेश का एकलौता ऐसा जिला है जो न सिर्फ दो जिलों ( रायगढ़ और बलौदाबाजार-भाटापारा ) से अलग होकर बना है बल्कि दो संभागों ( रायपुर और बिलासपुर ) से भी अलग हुआ है। 

जबसे यह क्षेत्र जिले के रूप में अस्तित्व में आया तो कोई खुश हो न हो इसके दोनों मातृ जिले बेहद खुश हैं। वहां के लोगों को, खासकर बड़े अधिकारियों को इस बात की बड़ी खुशी रहती है कि पीछा छूटा इस समस्या से। बलौदाबाजार के बाशिंदे बिलाईगढ़ को एक गले की हड्डी की तरह मानते रहे हैं और रायगढ़ वासियों के लिए सारंगढ़ गले की हड्डी था। दो गले की हड्डियां एक हो गई और जिले का स्वरूप दे दिया गया। मातृ जिले के लोग कहते हैं कि हम जमीन आसमान एक कर लेंगे लेकिन इन‌ इलाकों में कभी कुछ ढंग का काम कराया ही नहीं जा सकता है, ये हमेशा रिजल्ट खराब करने वाले इलाके हुए। खैर, मेरी इस बात से पूरी सहमति नहीं है क्योंकि आंचलिकता, भूगोल, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सिविक सेंस और ऐसी बहुत सी चीजें होती है, जिनका ध्यान रखकर चीजों को साधना होता है। गले की हड्डी का तमगा देने से बेहतर आश्रित जिले का तमगा जरुर देना चाहिए क्योंकि इस जिले को दो मोटे डीएमएफधारी जिलों की विशेष कृपा पर छोड़ दिया गया है। इस कारण से मातृ जिले आज भी इस नए जिले से कम अधिक सौतेला व्यवहार ही करते हैं, शायद नियति को भी यही मंजूर है। 

भारत के बहुत से इलाकों में संबोधन में राम-राम चलता है लेकिन यहां पालागी खूब चलता है। यहां के बोलचाल में अपनी बात की पुष्टि करने के लिए अंत में " कि " जोड़ना नहीं भूलते। और जैसे आपको 5 या 10 रुपए सिक्कों के रूप में कोई लौटा रहा है तो यहां 1-2 रुपए के सिक्कों को टेप से चिपकाकर 5-10 के गुच्छे बनाकर दिया जाता है। ऐसा प्रयोग सिर्फ इसी क्षेत्र में मिलेगा। 

मानचित्र में जिले के रूप में अपनी पहचान बना चुके इस क्षेत्र के पास जिला बनने के बाद एक बड़ी पहचान जो मिली, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है, वो यह है कि पूरे देश में कुष्ठ रोग के मरीजों में यह अव्वल नंबर पर है, पहले प्रदेश में अव्वल नंबर पर आता था और देश में चौथे पांचवें स्थान पर था, लेकिन अभी फिलहाल देश का टाॅपर यही है। दुनिया कहां आगे बढ़ गई है, हार्ट अटैक कैंसर तक पहुंच चुकी है, कुष्ठ तो कहिए बीते जमाने की बातें हो गई लेकिन जिले ने अपनी पुरानी विरासत को अभी तक छोड़ा नहीं है। कुछ पुराने विशेषज्ञ डाॅक्टरों से बात करने पर पता चला कि इसका मूल कारण पानी और हाइजिन है। 

उन विशेषज्ञ डाॅक्टर की पानी वाली बात से एक बात याद आई कि आप पाएंगे कि कुछ इलाके ऐसे होते हैं जहां का पानी बहुत गड़बड़ होता है। उदाहरण के लिए जैसे आप हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों में जाते हैं, और वही मैगी वहां जाकर खाते हैं तो अलग स्वाद आता है तो स्वाद के इस अंतर का बहुत बड़ा कारण पानी होता है, वहां के ताजे पानी में पैदा हुई मिर्च प्याज टमाटर आदि होता है। ठीक उसी तरह कुछ इलाकों का पानी ऐसा होता है कि वहां खाना जल्दी नहीं पकता है या स्वाद नहीं आता है, इस पूरे इलाके के साथ भी कुछ ऐसा है, आप दुनिया के किसी भी इलाके से सब्जी दाल लाइए और यहां‌ के पानी में पकाइए, आपको वैसा स्वाद नहीं मिलना है। यह सब एक करीबी मित्र द्वारा ही किया गया प्रयोग है। एक दूसरा पक्ष यह भी सुनने में आता है कि यहां के तालाब ऐसे रहे, पानी इतना साफ था कि आप नीचे तलहटी तक देख सकते थे और स्थानीय लोग उसी पानी से खाना पकाया करते। अब इस बात में कितनी सत्यता रही होगी यह पुराने लोग ही जाने बाकि वर्तमान तो बहुत कुछ ठीक नहीं है। 

दूसरी एक समस्या जो मुझे यहां दिखी कि मैंने भारत के लगभग 80% इलाके में मोटरसाइकिल से यात्राएं की है, अच्छी बुरी हर तरह की सड़कें नापी है। खराब सड़कें भी कई प्रकार की होती हैं, जैसे अगर आप दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में है तो हर बार नदी नाले के बहाव की वजह से पथरीली सड़कें होती है, दूसरा औद्योगिक क्षेत्रों में भारी मालवाहक गाड़ियों की लगातार आवाजाही की वजह से सड़कें खराब स्थिति में होती हैं, लेकिन सारंगढ़ को आप लें, है बहुत छोटा सा कस्बा लेकिन 5 किलोमीटर त्रिज्या में इतनी खराब सड़कें हैं कि आपको इनोवा में भी बैठे-बैठे झटके महसूस होंगे, जबकि न कोई औद्योगिक क्षेत्र है न ही कुछ और विशेष समस्या है। मतलब ऐसी खराब सड़कें मैंने भारत में बहुत कम ही जगहों में देखी है, ऐसा नहीं है कि सड़क में गड्ढे हैं, असल में सड़क पत्थर हो चुका है, न जाने कितने वर्षों से सिलसिलेवार तरीके से इतना बेहूदा पैच वर्क होता आया है कि सड़क ठोस चट्टान में तब्दील हो गया है। अब इसके लिए आप किसे दोष देना चाहेंगे - यहां के हुक्मरानों को, यहां की जनता को या फिर किसी और को? 
जनता भी अपनी खुमारी में मस्त है, वह इन्हीं खड्ढों में आए दिन हिचकोले खाते अपनी संस्कृति का गौरवगान करते हुए कहती फिरती है - "पान पानी पालगी की नगरी सारंगढ़ में आपका स्वागत है।"
नेशनल हाईवे के इंजीनियर से बात हुई तो वह कहता है कि साहब यह तो पूरा बर्बाद है, इसमें कोई स्कोप नहीं, इसे पूरा उखाड़ना होगा और नये सिरे से सड़क बनाना होगा, यही इसका इलाज हुआ। एक बार इस इलाके को लेकर जिले‌ में आए एक बड़े अधिकारी से चर्चा हुई तो उन्होंने बातचीत के अंत में बस यही कहा था - " राम भरोसे सारंगढ़ "।




Thursday, 23 May 2024

Honey singh and 440 Hertz

हनी सिंह ने एक लंबे अरसे के बाद संगीत की दुनिया में वापस कदम रखा है। शराब ड्रग्स और तमाम तरह के सूखे नशे की चपेट में रहने वाला हनी सिंह आज बार-बार लोगों को कहता फिरता है कि ठीक है कभी कभार शराब पी लो, लेकि‌न सूखे नशे मत करो, वह आपको पूरा बर्बाद कर देता है। अपने इतने लंबे समय के संक्रमण काल से बाहर निकला हनी सिंह अब फिर से संगीत बनाने लगा है। आते ही उसने kaalastar गाना दिया था जिसने मौजूदा वायरल होने वाले सारे रिकाॅर्ड एक दिन में ही तोड़ दिए। अब फिर से वह नये नये गानों के साथ अपनी मौजूदगी दिखा रहा है। अभी हाल फिलहाल में Vigdiyan Heeran लेकर आया है, जिसने फिर से धूम मचा दी है।

हनी सिंह का गाना एक बार सुनने के बाद आपके भीतर रह जाता है, जैसे एक दो बार कोई व्यक्ति नशा करता है, तो वह नशा उसकी स्मृति में रह जाता है, जिस शराब सिगरेट को बचपन में वह खराब वस्तु मानता था, अब उसके प्रति एक सकारात्मक छवि अवचेतन मन में गहरे से पैठ बना लेती है। हनी सिंह का संगीत भी उस किसी नशे की तरह ही है। 

हनी सिंह के गाने के बोल आप छोड़ दीजिए, वह संगीत में खेलता है। वह खुद कहता है - विजुअल इंटरनेशनल लेवल का होना चाहिए, बीट्स पर बढ़िया से काम हो, गाने तो वही आलू भिण्डी वगैरह लुंगी डांस यही सब लिख के ही मैं खेल जाऊंगा। 

लेकिन हनी सिंह आखिर खेल खेलता कहां है। वह खेल खेलता है बीट्स में फ्रीक्वेंसी में। हनी सिंह के सारे गाने 440 हर्टज में ही रिकाॅर्ड किए जाते हैं। ये ऐसी फ्रीक्वेंसी है, जिस पर बढ़िया बीट्स के साथ बने गाने सुनने से आपकी ह्रदयगति बढ़ती है, यह मस्तिष्क के बाएं हिस्से को उत्तेजित करती है, खून के प्रवाह को बढ़ाती है। एक तरह से ऐसा संगीत आपको किसी नशे की तरह झंकृत कर देता है, और फिर आपको उस गाने को सुनके मजा आने लगता है, ऐसा नहीं है कि गाने के बोल से आपके साथ ऐसा होता है, असल में साला खेल म्यूजिक का होता है, म्यूजिक की बीट्स पर ही कभी आपको बहुत भीतर तक सुकून मिल जाता है तो कभी आपको नाचने का मन करने लगता है तो कभी आप खो से जाते हैं। 

फूड पैकेट्स में जिस तरह आर्टिफिशियल फ्लेवर की धूम है ठीक उसी तरह नाजियों के समय से जब रेडियो में लोगों को मानसिक रूप से अपने पक्ष में करने के लिए नये नये तरीके इजात किए जा रहे थे, तब सबसे पहले जोसेफ गोयबल्स ने डेविड राॅकफेलर को 440 हर्टज के फ्रीक्वेंसी का इस्तेमाल कर लोगों को नियंत्रित करने के लिए कहा था, अब गाने भी उसी में बनते हैं।

हनी सिंह के ही कहे अनुसार 440 हर्टज असल में जादू है, जैसे आप एक छड़ी घुमाते हैं तो हवा से टकराकर जो सरसराहट की आवाज आती है, ठीक उसी तरह पृथ्वी के घूमने की गति है, पुराने लोग कहते हैं कि धरती 440 हर्टज की फ्रीक्वेंसी में ही प्रतिध्वनि करते हुए घूमती है, हनी सिंह उसी फ्रीक्वेंसी में ही संगीत बांचता है और सलीके से बांचता है। पाॅप संगीत में अभी तो यही दौर चल रहा है, तो अभी के लिए Vigdiyan Heeran अगर न सुना हो तो सुन लिया जाए और इस संगीत रूपी नशे का भोग किया जाए।



Life in Delhi

जब कभी दिल्ली का नाम सुनने में आता है तो सबसे पहले एक ही वाक्य दिमाग में आता है और वह है " दिलवालों की दिल्ली "। और इस वाक्य को मैंने चरितार्थ होते भी देखा है, यह शहर आज भी सचमुच दिलवालों की है। दस साल पहले सरकारी पेपरों की टेस्ट सीरीज के नाम पर यहां जाना हुआ था, और पहली बार में ही इस शहर ने मुझे अपना लिया और मैंने इस शहर को। थोड़े समय में ही ऐसा गहरा लगाव हो गया कि वह आज भी बना हुआ है। 

किसी भी शहर को अपनाने के लिए जो सबसे बड़ा तत्व होता है, वह वहां के लोग होते हैं, उनसे की गई बातचीत ही आपका दिन बनाती है, आपको ऊर्जा देती है। इसके बाद वहां के खान-पान की बारी आती है जो कि दूसरी बड़ी भूमिका निभाती है। बस यह समझिए कि पूरे भारत भर का स्वाद सारी डिशेज आपको गुणवत्ता के साथ और बहुत ही कम रुपयों में यहां मिल जाती है, घर से निकलते ही गली में ही आपको मनपसंद की चीजें मिलने लगेंगी, चाहे बेकरी की चीजें या गरमा गरम बिस्किट, चाट का तो क्या कहूं मुगलकाल से ही इसके उद्भव का विशद इतिहास है। इतने तरह-तरह के जूस आसानी से मिल जाएंगे, क्या ही कहने। चाहे नार्थ ईस्ट की डिश हो या साउथ इंडियन, सब कुछ दिल्ली में जबरदस्त मिलता है। इस शहर के खान-पान के बारे में अगर लिखने लगूं तो शायद अलग से कुछ पेज जोड़ने पड़ेंगे, इसलिए इसे यहीं विराम देते हैं। 

मुझे बाकी लोगों का नहीं पता, लेकिन यहां के लोग, यहां की बोली भाषा यहां के लोगों का तेवर, सब कुछ मुझे बेहद पसंद है। लोग बेझिझक खुलकर बात करते हैं, ऊंचा बोलते हैं। आप किसी छोटे से ठेले चौपाटी कहीं भी कुछ खाइए, आप जैसे अतिरिक्त चटनी या कुछ मांगेंगे आपको इतना दे दिया जाएगा कि आपको मना करना पड़ेगा। इतने मन से खिलाते हैं कि दिन बन जाता है। दिल्ली में रहते जब पहली बार आटो में सफर करना हुआ तो रास्ते में बैठने वाली एक सवारी ने जो 40°C की गर्मी की शाम में मोमो की प्लेट लेकर चढ़ रहा था, दिन भर का काम निपटाकर आफिस से लौटता वह नौजवान उस चलते आटो में बाजू में बैठे मुझ अनजान को कहने लगा कि लो भाई साहब आप भी खाओ। ये मेरे लिए बहुत अलग अनुभव था। मतलब मौज में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। ये वाला पागलपन आपको सिर्फ और सिर्फ दिल्ली में ही मिल सकता है, कुछ लोगों को शायद यह सब से असहजता हो जाएगी लेकिन मैं तो इसमें इस शहर से पैदा हुए अपनेपन को महसूस करता हूं। एक रिक्शेवाला भी 20-30 रुपये में कुछ किलोमीटर जब आपको ले जाएगा, वह आपसे खुले दिल से बात करेगा, आपको शहर के वर्तमान और इतिहास से जुड़ी कुछ बातें बताने लग जाएगा, आप एकदम ही शांतचित्त किस्म के हों तो बात अलग है, वरना उससे बात करते-करते आप इस शहर को महसूस कर लेंगे। एक बार पटेल नगर चौराहे में एक रिक्शावाला अचानक गिर गया, मिर्गी के दौरे से छटपटाने लगा, मैं यह सब दूर से देख रहा था, जैसे ही पास पहुंचा, एक जवान लड़का जो दौड़ते वहां‌ पहुंचा था, उसे तुरंत कंधे में उठाकर एक दूसरे आटो में बैठाया और पास के सरकारी अस्पताल में छोड़ आया, सब कुछ मिनट भर के अंदर हो गया। जवान लड़का मेरे यहां के मकान मालिक का ही बेटा था। इस तरह का वाकया मैंने किसी और शहर में अभी तक नहीं देखा है। ऐसे न जाने कितने अनुभवों की एक लंबी फेहरिस्त है। 

दिल्ली का आदमी अपने आज को संपूर्णता में जीता है। कल जो होगा देखा जाएगा, वह अपने आज में बिल्कुल भी समझौता नहीं करता है, तनाव चीज क्या होती है, दिल्ली का आदमी नहीं जानता है, छोले कुलछे और कचौरी समझ कर वह रोज तनाव का भोग कर बड़ी आसानी से पचा लेता है। ऐसा स्किल आपको भारत में किसी और शहर के लोगों में नहीं मिलेगा। दिल्ली के लोगों के तनाव झेलने की क्षमता का कोई सानी नहीं है। एक दिल्लीवाला यही मानता है कि जीवन की सबसे बड़ी लक्जरी यही है कि तमाम विद्रूपताओं के बावजूद इंसान अपना आज पूरी जीवटता से जिए। एक वाक्य में कहें तो यह शहर चलते-फिरते डोपामाइन की खान है। आप कितने भी निराश उदास हों, आपको यह शहर ऊर्जावान करते हुए एक गति दे जाता है। दिल्ली की तासीर कुछ ऐसी ही है।

दिल्ली में बहुत से बाहरी लोग आकर काम करते हैं। उनके लिए कहा जाता है कि दिल्ली में काम करने वालों का पैसा दिल्ली में ही रह जाता है। यह बिल्कुल सही बात है, आप इस बात की गहराई में जाएंगे तो आपको सहज ही इसमें दिल्ली की खूबसूरती समझ में आ जाएगी। बाकी शहरों में यह होता है कि लोग किसी शहर में एक मजदूर की भांति जाते हैं, काम करते हैं, सेविंग करते हैं और लौट आते हैं। लेकिन दिल्ली के साथ यह ऐसा नहीं है। यहां लोग इस शहर की अपनी धुन के साथ कदमताल करते हुए जी भरके लुटाते हैं और जीवन को संपूर्णता में जीते हैं, इतने खुशमिजाज लोग आपको भारत के और किसी महानगर में नहीं मिलेंगे। तपती गर्मी में रेहड़ी खिंचते व्यक्ति के चेहरे में भी आपको एक अलग ही किस्म की जिंदादिली देखने को मिलेगी, जीवन के प्रति एक आग्रह देखने को मिलेगा। 

दिल्ली में साल भर बहुत अलग-अलग तरह के मेले लगते हैं, उनमें एक प्रसिध्द विश्व पुस्तक मेला भी है। वैसे तो पुस्तक मेले देश के और भी महानगरों में लगते हैं लेकिन जो बात दिल्ली में है, वो कहीं और कहां। इसमें कहीं से भी अतिशंयोक्ति नहीं है, आप जाएंगे, आपको खुद अंतर महसूस होगा।

यहां जैसे किसी बच्चे का जन्म होता है या जैसे किसी की मौत भी होती है, तो इस अवसर पर उस परिवार के लोग आपको सड़क किनारे कहीं भंडारा खिलाते मिल जाएंगे। ये वाली संस्कृति दिल्ली में खूब चलती है। एक शहर के न जाने कितने ऐसे रंग होते हैं। 

इतनी बातें हो गई अब मौसम की बात कर लेते हैं। चूंकि यह दिलवालों की दिल्ली है तो यहां सब कुछ एक्सट्रीम होता है। ठंड के मौसम में ठंड ऐसी कि हड्डियां गला दे और गर्मी के मौसम में वैसे ही प्रचण्ड गर्मी, बारिश में कई जगह मीटर पार पानी भर जाता है, तो दिल्लीवासी उसमें भी बोटिंग करने निकल जाते हैं। एक कुत्ता जिस बेरहमी से हड्डियां चबाता है, कुछ उसी तरह दिल्ली का आदमी तनाव को चबा के फेंक देता है। आपको यहां अतिवादिता महसूस होगी, लेकिन यहां का तो यही फ्लेवर है, और इसी आनंद में यह शहर जीता है। हर बार मौसमी तूफान भी खूब इस शहर के हिस्से आता है, और तो और साल में एक दो भूकंप भी यह झेल लेता है। लेकिन इस शहर के लोगों की जिजीविषा ऐसी है कि ये सब कुछ पूरी मौज के साथ झेल जाते हैं। चाहे कुछ भी हो जाए इनका तेवर, इनकी मौज, इनकी खुमारी बरकरार रहती है। 

आप इतना पढ़ने के बाद कहीं न कहीं यह सोच रहे होंगे कि यह तो नाइंसाफी है, दिवाली में इतना प्रदूषण और रेप जैसे विवादित मामलों से इतर दिल्ली के प्रति इतनी सदाशयता, सब कुछ मानो चासनी में लपेटकर पेश किया गया है। नहीं, ऐसा नहीं है। असल में सबका अपना नजरिया होता है, हमारी अपनी पृष्ठभूमि का भी अहम रोल होता है कि हम चीजों को कैसे देखते हैं, मुझे तो दिल्ली ऐसा ही दिखता है, प्रदूषण आज कम अधिक हर शहर में एक जैसा ही है, पानी की समस्या यहां भी खूब है। लेकिन इससे मेरी स्मृति में जो दिल्ली है, उस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है, पता नहीं क्यों मुझे यह शहर जीवन के प्रति एक अलग ही रोमांच से भर देता है, यहां की आबोहवा, यहां का मेट्रो, यहां के लोग, यहां का खाना-पीना सब कुछ जुदा है। इतना लिखने के बावजूद बार-बार ऐसा लग रहा है कि कितना कम लिखा है, मानो बहुत कुछ छूट रहा हो। अंत में यही कि यह शहर कम और कला का एक बेजोड़ नमूना अधिक है, इसलिए आप देखेंगे कि जो एक बार दिल्ली आता है, वह हमेशा के लिए दिल्ली का होकर रह जाता है, यह शहर उसके भीतर रच बस जाता है।




Life in Mumbai

हर शहर की अपनी कुछ पहचान होती है। इस शहर की भी है। शेयर बाजार को आज भी मुंबई नियंत्रित करता है। महाराष्ट्र दिवस हो या जैसे कल का दिन था, चुनाव था तो शेयर बाजार बंद था, इस मामले में तो देश की इस व्यवसायिक राजधानी का दबदबा है। मुंबई मां है, जी हां, इसे ऐसे ही पुकारा जाता है, क्योंकि मां कभी किसी को भूखा नहीं रखती, यहां का यही है, सबको यहां कुछ न कुछ रोजगार मिल जाता है।

सबसे पहले बात यहां के भूगोल की करते हैं, समुद्र किनारे होने की वजह से एक अजीब सी उमस साल भर रहती है। यानि ठंड के महीने में भी हवा में अजीब सी उमस बनी रहती है। मैं जब भी गया हूं, यहां की उमस को लेकर बड़ा परेशान हुआ हूं, कभी लंबा रूकने का मन ही न हुआ, जब जाता दुआ करता, कि कभी रोजगार या अन्य किसी कारण से यहां कभी लंबा रहना न पड़े तो ही बेहतर है। मुझे खुद से कहीं अधिक चिंता उन बाॅलीवुड सेलिब्रिटियों की भी होती है जो ऐसे मौसम में रहते हैं। ठीक है मान लिया दिन रात एसी में सुविधाओं में रहते हैं लेकिन खुली हवा में तो हर कोई कुछ देर के लिए ही सही रहता ही होगा। अंबानी या इस जैसे और लोग भी ये उमस झेलता होगा, क्या ही जीवन हुआ ये। इस बात में कोई दो राय नहीं कि उमस की वजह से स्किनटोन बड़ी सही रहती है, लेकिन ये क्या कि हमेशा साल भर पसीने से भीगते रहना। दस कदम चलते ही पसीना आने लगता है। गजब ही शहर है। खैर इस मामले में चेन्नई का हाल तो इससे भी बुरा है। 

मुंबई की एक बड़ी अच्छी चीज यह है कि यहां लोग चलते खूब हैं, और क्या तेज चलते हैं, बस भागते रहते हैं। यहां रात भर मार्केट लगा रहता है। सही ही कहा है किसी ने कि ये शहर सोता नहीं है। सही भी है न, उमस तो दिन रात रहती है तो हर कोई क्यों रात को सोएगा, तो शहर के हिस्से निशाचर का तमगा लगना तो लाजिमी है। 

खाने-पीने के मामले में ठीक है, लेकिन रहने का मामला गड़बड़ है, पूरे देश में सबसे महंगा किराया आपको यहीं मिलना है, बाकी फिल्मी सितारों तक को आसानी से ढंग का घर नहीं मिल पाता है‌ जो कि ठीक भी है। मेरे दोस्तों में ही कुछ लोग ऐसे रहे हैं जो बड़े वाले बैंगलोर प्रेमी रहे हैं, ठीक वैसे ही कुछ लोगों को इस शहर से भी बड़ा प्रेम है। मुझे तो दोनों समझ नहीं आए कि रोजगार के अलावा खास शहर के प्रति ये प्रेम आता कहां से है। 

मुंबई लोकल शहर की जान है। लोकल में जाने का थंब रूल ये है कि कभी आप अपना काॅलेज बैग पीछे मत टांगिए‌, सामने टांगिए। मैं अपने दोस्त के साथ गया था तो उसने भी मुझे कहा कि सामने रख लूं, चोरी होती है। मैंने कहा कि ऐसा कुछ खास है भी नहीं, मैं पीछे ही टांग लेता हूं। जैसे ही लोकल में चढ़ा, मेरा बैग एक छोटे कद के लड़के के मुंह में लग गया, उसने सीधे मुझे कहा कि भाई क्या यार, पहली बार आया है क्या मुंबई में। मैंने भी त्यौरियां चढ़ाते हुए कह दिया कि हां पहली बार। फिर वह चुप हो गया। तब मुझे बैग सामने रखने की अहमियत समझ आई। लोकल ट्रेन वैसे भी खचाखच भरी हुई चलती है इस लिहाज से भी दूसरों के लिए जगह बन जाए, इसलिए बैग सामने टांग लेना ही बेहतर है। 

ट्रैफिक जाम की बात करें तो यह शहर बैंगलोर को कांपीटिशन देने की भरसक तैयारी कर रहा है लेकिन थोड़ी चौड़ी सड़कें बनी हुई हैं इसलिए ऐसा कर नहीं पा रहा है। आॅटो में आप सफर करेंगे तो ऐसा लगेगा कि आप मुंबई में नहीं यूपी में है, पूर्वांचल का लोग भरा हुआ है। अधिकतर यही लोग मुझे मिले, बाकी बिहार के लोग भी हैं। बाकी बाहरी लोगों से चिढ़ के मामले में मराठी लोग आज भी अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं, यहां भी मामला संस्कृति रक्षा से कहीं अधिक पैसे का है। 

रहने की बात करें तो एक बार मैं विवश होकर बैंगलोर जैसे मृत शहर में कूट्टू परोठा और उडूपी रेस्तरां चैन के सहारे कुछ महीने रह जाऊंगा लेकिन ये मुंबई की उमस इतनी ज्यादा खराब है कि यहां कुछ दिन से ज्यादा रहने का मन ही नहीं करता है, पता नहीं कैसे यहां लोग रहते हैं, कुछ चीजें मुझ नासमझ को समझ आती ही नहीं है। 



Saturday, 18 May 2024

- आखिर लोग कार क्यों खरीदने लगे हैं -

जब भी हमारे यहां कार खरीदने की बात आती है तो इसे अमूमन एक स्टेटस सिंबल के तौर पर देखा जाता है। कुछ हद तक यह बात सही भी है लेकिन क्या यह एकलौता कारण है जिस वजह से लोग कार खरीद रहे हैं, नहीं ऐसा नहीं है। असल में लोग कार इसलिए खरीदते हैं ताकि वे अपमान से बच सकें, तनाव से बच सकें। अब आप पूछेंगे कि कैसा अपमान, कैसा तनाव?

अभी के समय में भले पब्लिक ट्रांसपोर्ट का जाल विस्तृत हुआ है लेकिन अब सुविधाओं के नाम पर अनावश्यक सिरदर्दी ज्यादा है। पहले बड़ी संख्या में एक आबादी जिसे 300-400 किलोमीटर का सफर तय करना होता, इस सफर को तय करने में 10-12 घंटे लगते, इसे लोग 3rd AC ट्रेन में बड़ी आसानी से कर लेते थे, लेकिन आज यह संख्या घटी है, ट्रेन में सुविधाओं की गुणवत्ता की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपा नहीं है। मुझे आजतक यह समझ नहीं आया कि ट्रेन में इतना खराब इतना स्वादहीन खाना आखिर कैसे ये पैसेंजर को देते हैं, सिविक सेंस की बात है। एक शताब्दी जैसी ट्रेन में थोड़ा ढंग का नाश्ता मिल जाता है, उसकी भी आज वर्तमान में क्या स्थिति होगी, कह नहीं सकता। बाकी राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेन जो सभी राज्यों को दिल्ली से जोड़ती है, जिसमें टिकट के साथ खाना साथ में जुड़ा होता है, उसमें भी आजकल एकदम ही निचले दर्जे का खाना परोसा जाता है। और ये पिछले दशक भर में चीजें और खराब हो गई हैं, इसके लिए मैं किसी सरकार या पार्टी को दोष नहीं दे रहा हूं। ट्रेन का फेयर थोड़ा महंगा हुआ है, ये चलो कोई समस्या की बात नहीं, लेकिन अगर आप टिकट कैंसल करते हैं, उसकी पेनाल्टी बढ़ी है, जिससे लोगों का अब भारतीय रेल से मोह भंग हो रहा है। कोई मुझे कहे तो आज के समय में तो ट्रेन का सफर करने से मैं परहेज ही करूंगा। वैसे भी लोग आजकल अपने विचारों को लेकर बहुत ज्यादा कठोर और एकपक्षीय होने लगे हैं, ऐसे में एक भीड़ वाली बोगी में सफर करना आपके अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए कहीं से भी ठीक नहीं है। 

अब फिर से उस बात पर आते हैं कि जो लोग 300-400 किलोमीटर कभी महीने दो महीने में ट्रेन से सफर करते थे इनके पास क्या विकल्प बचता है कि या तो वे फ्लाइट ले लें। लेकिन पिछले तीन सालों में खासकर कोरोना के बाद से जहां फ्लाइट्स की संख्या बढ़ी है, वहीं फ्लाइट के रेट्स भी बहुत ज्यादा बढ़े हैं, भले लोग जो 2nd AC ट्रेन तक में सफर करते थे, वे सब अब फ्लाइट में शिफ्ट हुए हैं। लेकिन इन दो तीन सालों में ही झटके से 1000-1500 रूपया बढ़ा दिया गया है, पैर रखने तक का स्पेस ना के बराबर रहता है, एकदम खटारा सरकारी बस में जैसे ठूंस ठूंस के भरा जाता है, वैसा कर दिया गया है, इसमें भी आपको थोड़ा बैठने लायक आरामदायक जगह चाहिए तो आप 2 से 3 हजार रूपये अतिरिक्त दीजिए, मतलब गजब ही लूट मची है। लक्जरी के नाम पर नागरिक सुविधाओं का भूसा बना दिया गया है। 

अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट के सबसे छोटे स्तर के विकल्प पर आते हैं जो कि बस है। वैसे तो अमूमन बस में लंबा सफर करना हर किसी को पसंद नहीं होता है लेकिन जिस तरह से सड़कों का जाल बिछा है, उसमें आज के समय में अगर आप किसी अच्छे बस में लंबे सफर पर जाते हैं तो आपको एक अच्छी कीमत पर ठीक-ठाक सुविधाएं मिल जाती हैं,  दक्षिण भारत में तो बसों का जाल बहुत ही बढ़िया है, बाकी राज्यों में भी अब बस की सुविधाओं में विस्तार हुआ है जो कि नागरिकों के लिए एक शुभ संकेत है। पहले बस की सुविधाएं इतनी अच्छी नहीं थी तो लोग ट्रेन में ही सफर करते थे, आज यह उल्टा हुआ है। ट्रेन में सफर करने वाले वे तमाम लोग जो किसी कारणवश फ्लाइट नहीं ले पाते हैं, वे बसों की ओर शिफ्ट हुए हैं। 

लेकिन बात वहीं रुकी हुई है कि एक परिवार जिसे 300-400 किलोमीटर जाना है, उसके पास क्या बेहतर विकल्प है, आज के समय में जहां सबके पास तेजी से पैसा आया है, मुद्रा हावी हुई है और हमें चौतरफा संचालित कर रही है, ऐसे में कोई नहीं चाहता है कि वह सफर के नाम पर suffer करे। वह इतने लंबे सफर के लिए नहीं चाहता कि सपरिवार बस से जाए, ट्रेन में अलग भसड़ मची हुई है, फ्लाइट से जाएगा तो उसे बहुत महंगा पड़ेगा। तो ऊपर लिखे गये इन सब विकल्पों से दो चार होने के बाद व्यक्ति सोचता है कि भले थोड़े पैसे लगेंगे लेकिन मैं तनावमुक्त होकर अपनी खुद की कार से जाना पसंद करूंगा। उसके पास व्यवस्था ने और विकल्प ही क्या छोड़ा है। लोग इसीलिए भी आजकल कार खरीदने लगे हैं, और सरकार को खूब सारा रोड टैक्स और टोल दे रहे हैं, सार यही है कि लोग सरकार की वजह से कार खरीद रहे हैं। सरकार ने बड़ी मासूमियत से सभी को कार वाला बना दिया है। वैसे हम फिलहाल बाइकर ही ठीक हैं, क्रूज कंट्रोल लग जाए फिर इसमें जो सुकून है, जो स्वतंत्रता है वह तो प्राइवेट जेट में भी नहीं है। 

इति।

Thursday, 16 May 2024

Life in Bangalore

मुझे अगर किसी शहर के लिए भड़ास निकालने को कहा जाए तो मैं इस एक शहर के लिए एक पूरी किताब लिख सकता हूं, इतना‌ मेरे पास इस शहर की मनहूसियत को लेकर कंटेंट भरा पड़ा है। 

सबसे पहले इस शहर के भूगोल की बात करते हैं। असल में बैंगलोर की अपनी भौगोलिक अवस्था की वजह से इस पूरे क्षेत्र में साल भर खुशनुमा मौसम रहता है जो आपको इतना सुस्त कर देता है कि आपको कहीं और रहने लायक नहीं छोड़ता, असल में इसके पीछे प्रदूषण भी बड़ा कारण है। पिछले कुछ सालों में कांक्रीटीकरण और तमाम तरह के प्रदूषण आदि की वजह से थोड़ी सी गर्मी यहां भी बढ़ी है लेकिन बाकी अन्य बड़े महानगरों की तुलना में मौसम सुहाना ही रहता है। आईटी कंपनी का हब होने की वजह से पैसे का फ्लो जमकर यहां आया। और पैसे का फ्लो आया तो शेष भारत के अलग-अलग हिस्सों से भी लोग पहुंचने लगे। जो उस रोजगार के माॅडल के हिसाब से योग्य था उसने अपने हिस्से का रोजगार लपक लिया। और यहां के स्थानीय लोग जिनको आज भी बाहरी लोगों से भाषा संस्कृति आदि को लेकर समस्या है, उनके पेट में मरोड़ होने लगी, वैसे इसका मूल कारण असल में संस्कृति से कहीं अधिक मुझे रोजगार लगा या यूं कह सकते हैं कि सारा मसला पैसे का ही है। लालच किनमें नहीं होता, लेकिन यहां के स्थानीय लोगों में यह अलग ही निम्न स्तर पर आपको दिखाई देगा। तभी आप पाएंगे कि पूरे भारत में यही एकलौता शहर है जहां अगर आप 10-15 हजार रूपये का कमरा भी किराए पर लेते हैं तो आपको सिक्योरिटी मनी के रूप में अधिकतम 1 लाख रूपये तक जमा करना होता है। बाकी पूरे देश में कहीं आपको ऐसा नहीं मिलेगा। अधिक से अधिक आपको यही देखने को मिलेगा कि दो महीने का किराया आप एडवांस में दे दीजिए बस। लेकिन चूंकि यह नम्मा बैंगलोर है, जैसा कि इसे चाहने वाले लोग कहते हैं तो यहां कुछ भी नौटंकी जायज है। 

बैंगलोर में एक और चीज जो बड़ी विचित्र है वो यह है कि यहां इस शहर के पास अपना पानी ही नहीं है। आपको पीने, नहाने, धोने हर चीज के लिए पानी खरीदना होता है। आप अपने घर में पानी स्टोर करने के लिए बड़ी 1000-2000 लीटर की टंकी बनवाइए और उसमें टैंकर मंगवा के पानी स्टोर करिए। छी छी, ये भी कैसा जीवन हुआ। भले आप कितना भी कमाते हों, लेकिन आपका कमाई का एक बड़ा हिस्सा तो पानी में ही चला जाता है। 

आरटीओ की बात कर लेते हैं। पूरे देश में सबसे ज्यादा टैक्स यहीं है।‌ आपको कोई भी नई कार या बाइक लेनी है तो पूरे देश में आपको यहां सबसे महंगा मिलेगा। जब मैं पहली बार बैंगलोर पहुंचा तो मैंने अपने सर से ऐसे बात-बात में बैंगलोर की महंगाई को लेकर बात छेड़ी तो उन्होंने कहा कि कभी भी यहां के पुलिस के हाथ मत लगना, पूरे देश के सबसे करप्ट पुलिस वाले यहीं मिलेंगे। यहां की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पूरे देश के सबसे भ्रष्टतम व्यवस्था में से एक मानी जाती है। धीरे-धीरे मुझे कारण समझ आ रहा था। यह भी समझ आ रहा था कि मेरे सर जो हिन्दी बेल्ट के थे उन्होंने यहां रहते हुए धाराप्रवाह कन्नड़ बोलना क्यों सीखा, ताकि कुछ तो राहत मिले, नब्ज पकड़ में आए, खेल समझ आए। 

अब ट्रैफिक की बात कर लेते हैं। पूरे देश में सबसे घटिया ट्रैफिक जाम अगर कहीं का है तो वह बैंगलोर का ही है। शहर बन गया है, लोगों का दबाव बढ़ा है, लेकिन सड़कों का‌ जाल वैसा है ही नहीं। भयानक जाम लगता है। एक औसत बैंगलोर वासी का तो रोज का कम‌ से कम दो से तीन घंटा जाम में ही बीत जाता है। एक मेरे आईटी कंपनी वाले दोस्त ने दोपहर से रात 10 बजे वाला टाइम स्लाॅट बस इसलिए ले रखा था क्योंकि दोपहर में जाते वक्त और रात को लौटते वक्त अपेक्षाकृत कम ट्रैफिक होता है जिससे समय की बचत हो जाती थी, तनाव कम महसूस होता था। ट्रैफिक जाम की बात निकली है तो लगे हाथ एयरपोर्ट की बात कर लेते हैं, शहर से 45 किलोमीटर दूर में स्थित है, आप शहर के किसी भी कोने से जाइए आपको कम से कम 2-3 घंटे लगेंगे ही लगेंगे। यानि आपको अगर कोई कार से ड्राॅप करने जाता है तो उसके वापस घर पहुंचने से पहले आप फ्लाइट से अपने गंतव्य तक पहुंच जाते हैं। 

अब खान-पान पर आते हैं। एक उत्तर या मध्य भारतीय के लिए तो यहां खाना पीना महंगा ही कहा जाएगा, आपको ढंग के रेस्तरां नहीं मिलेंगे, न ही रोटी या पराठे या वैसा स्ट्रीट फूड का अच्छा कल्चर मिलेगा जैसा हिन्दी बेल्ट वाले शहरों में आपको मिलता है। इस बात से पूरी सहमति है कि साउथ इंडियन फूड हेल्दी होता है, लेकिन इडली दोसा सांभर और मोटे चावल से भी आगे की दुनिया है, एक समय के बाद रोटी पराठा दाल फ्राई ये सब चाहिए होता है। ऐसा नहीं है कि बैंगलोर इतना बड़ा शहर है तो यहां ये सब नहीं मिलता है, मिलता सब है लेकिन आपको बहुत इसके लिए मेहनत करनी पड़ेगी, खोजना पड़ेगा और अपेक्षाकृत महंगा मिलेगा। वैसे यह भी एक विडंबना ही कहिए कि आपको देश के बढ़िया पब और रेस्तरां यहीं मिलेंगे, भले बाकी शहरों से महंगे हैं, लेकिन एक क्लास बना रखा है। 

जब भी किसी शहर को जीने और महसूस करने की बात आती है तो उसके कुछ पैमाने होते हैं। शहर को आप चौक चौबारों में, पान की गुमटी में, ठेलों रेहड़ियों में, फल सब्जी के बाजार में, नुक्कड़ चौपाटी में, परचून की दुकान में, अलग-अलग शापिंग काॅम्पलेक्स में, उसकी ट्रैफिक और शोर कोलाहल में, लोगों के चेहरों में और उनकी भाव-भंगिमा में, लोकव्यवहार के तरीकों में और उनके पहनावे में, आटो टैक्सी और बस में सफर करते फ्लाईओवर से लेकर अंडरब्रिज में या पार्क गार्डन में टहलते हुए पेड़ पौधों और फूलों तक में महसूस करते हैं। मोटा-मोटा यही तरीका होता है। शहर आपसे बातें करता है, आपसे कुछ पूछता है, आपमें कौतूहल पैदा करता है और अपने बारे में भी बताता है, लेकिन यह शहर न कुछ पूछता है न बताता है। यहां आपको सिवाय हाय पैसा के कुछ भी महसूस ही नहीं होता है। 

अंत में यही कि अधिकतर देखने में आता है कि इस शहर में लोगों को वाइब महसूस होती रहती है, मुझे तो साल भर में एक दिन भी महसूस नहीं हुई, साल भर रहते हुए भी मुझ जैसा घूमने फिरने वाला व्यक्ति एक दिन भी कहीं अलग से नहीं गया। मरूस्थल की भांति सूखा व्यवहार करने वाला शहर, इतने कठोर और शुष्क से लोग, क्या सिर्फ भाषा संस्कृति अलग-अलग होना इतना बड़ा अंतर पैदा कर सकती है या फिर मुद्रा का खेल है, जो भी हो लानत पहुंचे ऐसी सूखी नफरती संस्कृति पर। असल में देखा जाए तो इस शहर की अपनी कोई आबोहवा ही नहीं है, यहां लोग मिलते-जुलते नहीं है, मेल-जोल के नाम पर सिर्फ लेन-देन करते हैं, यह शहर न आपका हाल-चाल पूछता है, न अपना हाल-चाल बताता है, यह शहर किसी एक बैंक की तरह सुबह से शाम बस ट्रांजेक्शन और डिपाॅजिट करने वाले मोड में ही रहता है। ( दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में ये चीज इतनी ज्यादा नहीं है ) संवेदना रहित इस शहर में सिर्फ शनिवार और रविवार को लोग जी भरकर वाइब महसूस करते हैं, और मोटे पैसे देकर किसी पब में जाकर नम्मा बैंगलोर कहकर इस शहर का गौरवगान करते हैं। 

Saturday, 11 May 2024

गर्मियों की शादियां, कीर्तन-भजन और आत्महत्याएं

गर्मियों की शादियों को अपने खराब मौसम, मसालों वाले भोज्य पदार्थों के प्रति इस मौसम‌ में अरूचि, सफर करने में आने वाली समस्या और अन्य ऐसे कारणों की वजह से कभी सही नहीं पाया। जो सही पाते हैं उनके द्वारा तर्क यह दिया जाता है कि लगन मूहूर्त इसी समय होते हैं, खेती किसानी से जुड़ा समाज रहा है तो इस दरम्यान खेती किसानी के कार्य भी अपेक्षाकृत उतने नहीं होते हैं, इसलिए भी शादी जैसे आयोजनों के लिए पर्याप्त समय रहता है। दूसरा तर्क यह रहता है कि ठंड में गद्दे चादर की व्यवस्था करनी पड़ती है, उसकी तुलना में गर्मी में आराम रहता है। ऐसे न जाने कितने कारण है, वर्तमान एक इसमें यह भी जोड़ दिया जाता है कि स्कूली बच्चों की छुट्टियां रहती हैं। 

ऐसे तमाम कारणों को एक दफा अस्वीकार कर भी दिया जाए तो एक दो ठोस कारण ऐसे हैं जिससे मुझे गर्मी की शादियां अब एक बड़े परिप्रेक्ष्य में सही लगने लगी है। ध्यान रहे कि इसके पहले मैं गर्मी में होने वाली शादियों का धूर विरोधी रहा हूं। गर्मियों में अमूमन यह देखने में आता है कि चूंकि दिन का अहसास बहुत बड़ा होता है और रात छोटी होती है, व्यक्ति अपना एक बहुत बड़ा समय गर्म मौसम के कारण घर में ही बिताता है। ऐसे में मनोरंजन के कितने भी विकल्प व्यक्ति के पास हों, वह बाकी मौसमों की तुलना में बहुत जल्दी अकेलापन महसूस करता है। यह मौसम वैसे भी अपने में अकेलापन लिए होता है। इसे आप उन लोगों को कभी नहीं समझा सकते जो खुद इस अकेलेपन की वजह से तनावग्रस्त हो जाते हैं। 

भारत में ज्ञात आंकड़ों के आधार पर ही देखा जाए तो जितने भी सुसाइड होते हैं उनमें सर्वाधिक इसी गर्मी महीने में ही होते हैं क्योंकि व्यक्ति बहुत जल्द ही टूटा हुआ महसूस करता है, पहाड़ों के लिए यह उल्टा है क्योंकि तब ठंड और बर्फबारी में इंसान घर में बंद हो जाता है। चूंकि मैं मैदानी इलाके का हूं तो मैंने खुद अपने अभी तक के व्यक्तिगत जीवन में अपने आसपास जितने भी लोगों को सुसाइड करते देखा है उनमें से अधिकतर लोगों ने गर्मी के मौसम में ही सुसाइड किया है। शायद पुराने लोगों को इस बात की गहरी समझ होगी इसलिए आप देखेंगे कि इसी मौसम में शादियों का दौर चलता है। कथा, भजन-कीर्तन की रेल लगी होती है। व्यक्ति इस मौसम में शायद ही एक पूरे दिन घर में खाना पकाता हो, व्यस्त रहने की और सामाजिक समागम की पूरी व्यवस्था रहती है, जीवन में जीने का एक उत्साह बना रहता है। आज भी मैदानी इलाकों के भारत के गांवों में यही संस्कृति चली आ रही है, आप थोड़े भी सामाजिक हैं, आपका मेलजोल है, हर दूसरे दिन शादी या किसी आयोजन में आप सम्मिलित हो लेंगे, यह न भी हो तो पालियों में हर दिन किसी न किसी गांव में भजन कीर्तन का आयोजन लगातार चल रहा होता है। आप भक्ति या कर्मकांड न भी मानते हों, इसके बावजूद भी आपके व्यस्त रहने, सामाजिक मेलजोल बनाए रखने और कुछ इस तरह मन को स्थिर रखने तक की व्यवस्था हो ही जाती है। शहर में रहने वाले के पास भी आजकल कथा वगैरह का विकल्प खुल गया है, आए दिन मोटे पैसे वाले बाबाओं का कथावाचन होता रहता है, शहरों में तो आजकल यह साल भर होने लगा है, लोग ये पिछले कुछ सालों में थोड़े ज्यादा ही आध्यात्मिक जो हो गये हैं तो उनके लिए बाजार व्यवस्था कर दे रहा है, नहीं तो पहले लोग विभिन्न प्रकार के समर क्लासेस तक ही सीमित थे। अंततः हर समयकाल में इंसान के लिए जीने लायक सबसे बड़ी चुनौती यही रही है कि वह कैसे खुद को व्यस्त रखे, आज के सुविधाभोगी समाज में तो इसकी जरूरत और बढ़ गई है। 

इति।