हर किसी के जीवन में एक दो कोई चीज़ ऐसी होती है, जो वह बड़ी शिद्दत से करना पसंद करता है, यूँ कहें कि जिसे वह जान निकलते तक कर सकता है, उस एक चीज़ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, उसका वह एक शौक़ जीने के लिए साँस की तरह ज़रूरी हो जाता है। लेकिन ये वाली साँसें तपकर हासिल करनी पड़ती है, इसलिए इसमें भी एक अपवाद यह कि ज़रूरी नहीं कि जीवन को हर कोई इतनी शिद्दत से जिए।
अभी कुछ दिन पहले कॉलेज का जूनियर अभिनव, जो दोस्त अधिक है वो मैराथन दौड़ने राजधानी आया। इसी बीच हमें साथ में कुछ समय बिताने का मौका मिल गया। अभिनव जो हाल फ़िलहाल में सरकारी अफ़सर बना है, उसने जीवन में ये पहली बार 42 किलोमीटर मैराथन 4 घंटे से कम समय में ही पूरा कर लिया, वह भी बिना सोए रात के 3 बजे गाड़ी चलाकर पहुँचा और बिना किसी ख़ास ट्रेनिंग के यह कर दिखाया।
मैराथन पूरा करने के बाद उसने अपने अनुभव बताए और एक बात कही जो अभी तक मेरे कानों में गूंज रही है। उसने कहा - “ मैंने शारीरिक रूप से अपने आप को पूरी तरह तोड़ लिया, इससे अधिक मैंने कभी अपने आपको इतना इस स्तर तक नहीं थकाया, इससे ज़्यादा मैं कर भी नहीं सकता था। मेरे शरीर में थकान तो है, लेकिन मैं मानसिक रुप से एक ग़ज़ब की अनुभूति अपने भीतर महसूस कर रहा हूँ, मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है, ऐसा लगा जैसे मेरे भीतर अभी तक जीवन को लेकर जितना अपराधबोध भरा हुआ था, वह आज ख़त्म हुआ है।”
लोग नौकरी लगने के बाद पार्टी करते हैं, अलग-अलग तरीक़े से ख़ुशी मनाते हैं। लेकिन कुछ विरले ही सिरफिरे लोग होते हैं, जो अपने जुनून को हर पल पागलपन की हद तक जीते हैं, जीवन के प्रति ऐसी सनक जिसके सामने देस काल परिस्थिति कभी बाधा नहीं बनती है। बात सिर्फ़ 42 किलोमीटर दौड़ लगाने की नहीं है, वह तो महज़ एक माध्यम है। बात है उस बहाने ख़ुद के भीतर तक गहरे झाँक लेने की, ख़ुद को उस हद तक तपा ले जाने की जितना कभी किसी और माध्यम में संभव नहीं हो सकता है, बात है पूरे मन शरीर को उस अवस्था में ले जाने की, जहाँ भीतर सब कुछ शांत हो जाता है, आँखें बंद हो जाती है, इंसान अपने अस्तित्व के सबसे क़रीब होता है।
अभिनव ने जो मन हल्का हो जाने की अनुभूति को लेकर बात कही उससे मुझे अपना अकेले मोटरसाइकिल से ठंड में सीमित साधन में भारत घूमना याद आ गया। साथ ही वो दिन भी याद आया जब दिल्ली से रायपुर 1100 किलोमीटर का सफ़र 22 घंटे में ही 150 cc की मोटरसाइकिल में दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में पूरा किया था। इतनी यातना सही, ख़ुद को इतना तपाया, जितना किसी और माध्यम से नहीं तपा सकता था। इन सबसे ख़ुद की चीज़ों को लेकर मेरी अपनी आस्था दृढ़ हुई।
मैराथन के बाद से हम दोनों थके हुए थे। मैंने कहा कि भाई मुझसे अब एक किलोमीटर भी चला नहीं जाएगा, लेकिन अभी अगर मुझे कोई सुबह से शाम बाइक चलाने को कहे तो वो मैं ख़ुशी-ख़ुशी सब दर्द भूल के कर जाऊँगा। अभिनव ने कहा कि वह भी इस थकान में दौड़ लगा सकता है, आपका माध्यम बाइक है, मेरा माध्यम ये जूते हैं। ठीक इसी तरह शायद किसी का कुछ और भी हो सकता है, कोई पागलपन की हद तक किताबें पढ़ता है, कोई कुछ और करता है। लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी होती है, जिसके पास जीवन के प्रति अपने भीतर के पागलपन को परिभाषित करने के लिए कोई माध्यम नहीं होता है, कोई रास्ता नहीं होता है। वैसे जिनके पास जीने के लिए अपने हिस्से का पागलपन होता है, उन्हें किसी और के बुने रास्ते पर चलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
No comments:
Post a Comment