आपदा अनेक प्रकार से आती है। पिछले एक दशक में बादल फटने और बाढ़ की घटनाएं बढ़ी है। जिन राज्यों ने कभी यह सब देखा भी नहीं था, वहां भी आपदा वाली स्थिति निर्मित हुई है। कारण प्राकृतिक असंतुलन कहें या कुछ और, यह सब कुछ हो रहा है। मैं खुद अलग-अलग तरह की आपदा का साक्षी रहा हूं, इसलिए जमीनी यथार्थ की थोड़ी बहुत समझ है। कुर्ग वायनाड क्षेत्र की बाढ़ देखी है, उत्तर कर्नाटक में आई बाढ़ को भी करीब से देखा है, वहां तो बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में काम करते हुए टायफायड भी हो गया था। उत्तराखण्ड में बादल फटने को सामने से देखा है, नल फटने के कारण दो दिन तक पीने का पानी नसीब नहीं हुआ था, बारिश का पानी बाल्टी में लगाकर गर्म कर पीना पड़ा था। इसके अलावा उड़ीसा में साइक्लोन फनी का भुक्तभोगी रहा हूं, जहां 32 घंटे तक सिर्फ पानी पर जीवित था।
वायनाड की त्रासदी अभी हालिया घटनाओं में सबसे भयानक है। वायनाड की आपदा को लेकर कुछ दिन पहले गृह मंत्री अमित शाह का बयान आया - हमने सप्ताह भर पहले ही अलर्ट की सूचना राज्य सरकार को दे दी थी, अगर वे समय रहते कदम उठाते और लोगों को सुरक्षित जगह में पहले ही रेस्क्यू करते तो स्थिति बेहतर होती। इसके अलावा गृह मंत्री जी ने उड़ीसा और गुजरात के साइक्लोन के समय का उदाहरण देते हुए कहा कि उस समय उन्होंने पहले ही अलर्ट जारी किया था जिस कारण से जान माल का किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ। गृहमंत्री जी की चतुराई देखिए कि उन्होंने कभी पूर्वोत्तर के बाढ़ भूस्खलन या हिमाचल उत्तराखण्ड के भूस्खलन का उदाहरण नहीं दिया क्योंकि हकीकत वे भी जानते हैं। गृह मंत्री जी ने जिन राज्यों का उदाहरण दिया उनकी उस बात से पूरी सहमति है कि उसका यथोचित पालन हुआ। क्योंकि उड़ीसा के साइक्लोन में खुद मैंने यह चीज देखी है। कुछ दिन पहले हमें खुद नोटिस मिल गया था कि जो उड़ीसा के स्थानीय लोग नहीं हैं वे अपने घर चले जाएं।
लेकिन पेंच यहां फंसता है कि क्या आप साइक्लोन की तुलना लैण्डस्लाइड से कर सकते हैं? क्या आप हवा की गति की तुलना अतिवृष्टि से कर सकते हैं। दोनों अपनी प्रकृति में बहुत अलग चीजें हैं। जिनको जानकारी नहीं है उन्हें बताया चलूं कि साइक्लोन जब आता है, बहुत पहले ही अलर्ट कर दिया जाता है, यह भी पता रहता है कि एक सीमित अनुमानित क्षेत्र में तेज हवाएं चलेंगी। साइक्लोन फनी जब आया था, कुल जमा एक घंटे तक तेज हवाएं चली थी, कई बार यह 15 मिनट भी होता है। उस एक घंटे के दौरान 150 से 220 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से हवा चली। उसी में सब तहस नहस हो गया, 70% पेड़ ध्वस्त हो गये। सरकार राहत कार्य में लग गयी थी। राजधानी भुवनेश्वर में ही बिजली बहाल होने में 10 दिन लगे थे। साइक्लोन की पूर्व तैयारी बहुत अलग तरह की होती है, इसमें आप जान माल की सुरक्षा बहुत हद तक कर सकते हैं। आपको बस उस एक दो घंटे तक अपनी सुरक्षा करनी होती है।
लेकिन लैण्डस्लाइड और बाढ़ के साथ मामला बहुत अलग है। बाढ़ का पानी एक बार चढ़ता है, कई-कई दिन तक उसका प्रकोप बना रहता है, चौतरफा नुकसान करता है, द्विगुणित हो जाता है। गंदे पानी से बीमारियों का प्रकोप अलग। बाढ़ को पहले से मिले अलर्ट से भी ट्रैक नहीं किया जा सकता। कितना नुकसान करेगा, कहां तक जाएगा, कुछ नहीं कह सकते। हवा और पानी में इतना अंतर तो होता है, हवा का क्या है, कुछ घंटे बहकर शांत हो जाती है, पानी को तो जमीन में ही रहना है, नुकसान करती जाती है। ये सब एकदम कामनसेंस वाली बात है।
लैण्डस्लाइड का मामला तो और खतरनाक है, एक बार बादल फटा उसके बाद कितना पहाड़ गीला हुआ है, कहां तक की मिट्टी दरकते हुए आगे नुकसान करेगी, इसका ठीक-ठीक अनुमान एक अलर्ट से हो ही नहीं सकता है, इसके लिए संयुक्त रुप से काम करने की जरुरत होती है। एक अलर्ट भर दे देने से और मुंह मोड़ लेने से नहीं होता है।
क्या गृहमंत्री इस बात का जवाब दे पाएंगे कि उन्होंने क्या इस बात का अलर्ट दिया था कि कब भारी वर्षा होगी?
क्या वे यह बता पाएंगे कि कब किस दिन किस घंटे बादल फटेगा?
क्या वे यह बता पाएंगे कि ठीक किस पहाड़ी के ऊपर बादल फटेगा और कितने गांव प्रभावित होंगे?
क्या उन्होंने इसकी सूचना दी कि कौन सी मिट्टी नरम है और कहां से लैण्डस्लाइड होगा?
सच बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लेने से काम नहीं बजता है। इसके लिए संयुक्त प्रयास करने होते हैं। भारी बारिश का पूर्वानुमान देने वाले मिट्टी के बारे में जानकारी नहीं दे सकते, इसके लिए भू-विज्ञान विभाग बताएगा, अकेले मौसम विभाग क्या करेगा। इसीलिए लैण्डस्लाइड जैसी आपदा के लिए बिना संयुक्त प्रयास के आप सिर्फ अलर्ट पाकर कुछ नहीं कर सकते है। मुझे समझ नहीं आता है गृहमंत्री स्तर का व्यक्ति साइक्लोन के अलर्ट को लैण्डस्लाइड के अलर्ट से कैसे तुलना कर सकता है। ये सरासर असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। जिसने 300 से अधिक लोगों की जान ले ली।
#standwithwayanad
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