Tuesday, 24 December 2024

अस्तित्व का खेल

अस्तित्व का खेल

स्कूल के दिनों का समय बच्चों के लिए ग़लतियाँ करते रहने और सीखने का समय होता है। ग़लतियाँ करना और उनसे सीखना ये प्रक्रिया अपने चरम पर होती है। कुछ ऐसी ही एक मामूली सी बात की वजह से एक बार कुछ लड़के जो मेरे से उम्र में और क़द काठी में बड़े थे, वो मेरे घर दोस्त की तरह मिलने आए और मुझे बाहर बुलाया, तब मेरी उम्र क़रीब 10-11 साल रही होगी। उन्होंने कहा कि कुछ बात करनी है और मुझे पास के एक ग्राउंड में ले गए और मुझे और मेरे परिवार को बुरा भला कहते हुए मारपीट किए। उनमें से एक लड़का बाहरी था उसी ने मारपीट की और दूसरे लड़के ने केवल खबरी का काम किया था। मैं उस उम्र में कई-कई दिनों तक तनाव में रहने लगा कि ऐसा भी मैंने क्या किया कि मुझे ऐसे मारा गया, ख़ुद को भी कोसने लग गया कि ऐसा क्या पाप कर दिया कि ऐसे मुझे ज़लील किया गया। भोलापन इतना हावी था, इतना आत्मविश्वास कमजोर हो गया, इतना आघात पहुँचा था। यह भी ख़याल आया कि अपनी इहलीला समाप्त कर दूँ। बालमन था, बहुत गुस्सा भी आ रहा था कि कब क़द काठी से थोड़ा बड़ा हो जाऊँ, इनको जरूर ठिकाने लगाऊँगा।

समय बीत गया, बात आई-गई हो गई। कुछ साल बाद उस खबरी लड़के की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई, लोहे का सरिया उसके शरीर के आर-पार चला गया था। उसकी मौत में जब स्कूल में मौन रखा गया तो मुझे बस बतौर खबरी के रूप में उसका चेहरा याद आ रहा था और मुझे बेहद तकलीफ़ हुई। जिस लड़के ने मारपीट की, उसका बाप कई साल बाद जब मुझसे मिला तो मेरे से उस बेटे के लिए नौकरी के जुगाड़ की बात करने लगा, उस दिन भी मुझे उसकी मारपीट याद आई। अस्तित्व ने शायद उसे जीवन की विद्रूपताएं भोगने के लिए बचा रखा हो। मुझे बहुत समय तक अस्तित्व का खेल समझ नहीं आता था। आगे फिर जीवन में ऐसी और घटनाएँ हुई, जिससे एक चीज़ समझ आई कि पता नहीं कैसे मुझे किसी भी प्रकार से नुक़सान पहुँचाने वालों से अस्तित्व ने उनका सब कुछ छीन लिया। इसलिए अब से हमेशा मैं बार-बार लोगों को नुक़सान पहुँचाने से रोकता हूँ, वो बात अलग है की इस सबसे मुझे ख़ुद बहुत नुक़सान उठाना पड़ जाता है, अस्तित्व ने इसके लिए भले कुछ ना दिया हो, एक मज़बूत रीढ़ तो दी ही है।

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