दिलीप मंडल पेशे से एक मीडियापर्सन रहे हैं। जहां तक जानकारी मिली शायद काॅलेज में पढ़ाया भी है। राष्ट्रीय स्तर पर खासकर हिन्दी पट्टी के सभी बड़े चैनल पोर्टल आदि में तो एक जाना माना चेहरा है ही। लेकिन यह पहचान कैसे मिली। यह पहचान मिली सोशल मीडिया से। यहीं से उन्होंने अपने आपको मजबूती से स्थापित किया। जिन्होंने उनको इतना बड़ा बनाया। उन्होंने भी उनका पत्रकार और प्रोफेसर वाला बैकग्राउंड ही देखकर उन्हें एक चिंतक एक सामाज के पहरुआ के रूप में ऊपर किया।
दिलीप मंडल विगत एक दशक से एक पेशेवर सोशल मीडिया एक्सपर्ट की भूमिका में सक्रिय रहे हैं। बहुत से अलग-अलग मुद्दों पर अपनी बात रखते रहे हैं, जिस पर सहमति असहमति हो सकती है। लेकिन जिस तरह की सोशल मीडिया की एक फौज दिलीप मंडल लेकर चले, जैसी उनकी फालोइंग रही, वैसा कोई दूसरा उस स्तर तक नहीं रहा। ट्विटर फेसबुक में एक तरह से एक उनके कहने पर लाखों पोस्ट ट्विट के साथ ट्रेंड होते रहे हैं, राष्ट्रीय स्तर पर भूचाल मचाने का काम किया है। ट्रोल आर्मी नहीं थी, आम लोगों की आवाज की तरह एक उनकी अदृश्य फौज थी। एक बार तो सोशल मीडिया के आव्हान से ही भारत बंद जैसा भी कुछ किया था, सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया की अपनी मजबूत फालोइंग के दम पर। संक्षेप में यह कि दिलीप मंडल मुद्दों को अपने हिसाब से जनमानस में भुनाने की ताकत रखते थे।
कुछ लोगों का इस पर यह कहना है कि सवर्ण नहीं हैं इसलिए उनका चौतरफा विरोध हो रहा, यह भी इसमें देखने लायक है कि कोई ऐसा सवर्ण हुआ ही नहीं जिसने दिलीप मंडल के स्तर को छुआ हो, बतौर मीडियापर्सन अपनी पीछे ऐसी समर्थन करने वालों का संख्याबल विकसित की हो, और इतने कम समय में इतने सारे ज्वलंत मुद्दों को मजबूती से डिस्कोर्स बनाने में सफल हुआ हो। इसलिए भी लोग लपेट रहे हैं। बंदे का अस्तित्व था इसलिए रेल बनाई जा रही है।
एक बार एक पाॅडकास्ट में दिलीप मंडल कहते हैं - सोशल मीडिया आपको ऐसा अहसास कराता है कि सब तुम ही चला रहे, तुम ही भगवान हो। लगता है वे इस खतरे को भांपते भांपते भी भाप नहीं पाए। इसका उदाहरण अभी उनके हाल के ही कुछ पोस्ट में देखने को मिल जाता है। एक समय था जब दिलीप मंडल ट्रोल्स को भाव तक नहीं देते थे, लोगों ने उनसे ट्रोल को मैनेज करना, नजर अंदाज करना सीखा। दिलीप खुद कहा करते - ट्रोल होने जरूरी है, वे आपके असली शुभचिंतक हैं, उन्हें पालकर रखिए, उन पर गुस्सा मत करिए। वे कहते - अगर आपके पास ट्रोल हों तो मेरे पास भेज दीजिए। 1000 से ज़्यादा फ़ॉलोवर्स वाले और धमकी देने वाले ट्रोल को मैं विशेष सम्मान से रखूँगा। ब्लॉक न किए जाने की लिखित गारंटी। गारंटी कार्ड लेना न भूलें। ट्रोल बहुत ज़रूरी होते हैं। ट्रोल के बिना सोशल मीडिया चल ही नहीं सकता।
लेकिन आज देखिए कैसे चीजें बदल गई। जो दिलीप मंडल लोगों को ट्रोल मैनेजमेंट सीखाया करते। आज वही ट्रोल के हाथों खुद आसान शिकार बन रहे हैं। अजीत भारती और जुबैर जैसे लोगों को फुल टाॅस देकर हर गेंद पर चौके छक्के खा रहे हैं जबकि स्किप कर सकते थे। दिलीप मंडल चाहते तो इतना कुछ होने के बाद भी चुप रहकर नजरअंदाज कर लेते, इससे उनकी थोड़ी बहुत इज्जत बनी रहती। लेकिन ये अपनी ही कही गई बात को अपने ही ऊपर लागू नहीं कर पाए। उल्टे ट्रोल्स को जवाब देते फिर रहे हैं, जिसकी जरुरत ही नहीं थी। इसके साथ ही उन्होंने बहुत सारे पुराने ट्विट पोस्ट डिलीट कर दिए, लेकिन सोशल मीडिया का जमाना है, लोगों ने पहले ही सबूत के तौर पर चीजें इकट्ठी कर ली और उनका यह दांव भी विनाशकाले विपरित बुध्दि की तर्ज पर बहुत भारी पड़ गया। लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि दिलीप इतनी बड़ी गलती कैसे कर गया, इस पर यही कहना है कि ऐसे लोग अपने ही छद्म अहंकार में आकंठ इस कदर डूब चुके होते हैं कि इन्हें एक समय के बाद खुद का सही गलत पता नहीं चलता है।
कुछ लोगों का इस पर यह भी कहना है कि सवर्ण नहीं हैं इसलिए उनका चौतरफा विरोध हो रहा, इसमें यह भी देखने लायक है कि कोई ऐसा सवर्ण हुआ ही नहीं जिसने दिलीप मंडल के स्तर को छुआ हो, बतौर मीडियापर्सन अपनी पीछे ऐसे समर्थन करने वालों का संख्याबल विकसित किया हो, और इतने कम समय में इतने सारे ज्वलंत मुद्दों को मजबूती से डिस्कोर्स बनाने में सफल हुआ हो। इसलिए भी लोग लपेट रहे हैं। बंदे का अस्तित्व था इसलिए रेल बनाई जा रही है।
अंत में यही कि दिलीप मंडल की भाषा में हमेशा एक बैचेनी, एक दुराग्रह, एक आवेशित आक्रोशित करने वाला, जबरन उन्मादी बनाने वाला भाव अधिक महसूस हुआ चाहे वे जिधर से भी बैटिंग करते रहे। ठहराव नहीं दिखा, सुकून जैसी चीज नहीं दिखी चाहे जितने सुकोमल विषय पर बात कर लें। अधिकतर इस तरह के लोगों के भाषा में यह एक चीज आपको एकसमान मिलती है कि ये हमेशा उकसाने वाली ही भाषा बोलते हैं, इसी एक चीज से इस तरह के तमाम लोगों को फिल्टर कर सकते हैं। वे व्यक्तिगत जीवन में जैसे भी हों लेकिन 99% आबादी जो सोशल मीडिया में उन्हें देखती है उनके लिए दिलीप मंडल का होना एक डंडा लेकर हांकने वाले से ज्यादा कुछ नहीं रहा। विडंबना देखिए कि वही लोग आज खुद डंडा लेकर दौड़ा रहे हैं। और ये तथाकथित वाम प्रगतिशील इस पूरे घटनाक्रम का मजा ले रहे हैं। हिन्दी पट्टी के सोशल मीडिया के इस पूरे एक दशक के इतिहास में यह अपने आप में एकलौती घटना है, जिसमें हर कोई मजबूती से एक सधी हुई भाषा में एक व्यक्ति को सीधे अस्वीकार कर रहा कि जाओ हमें नहीं चाहिए आपका ज्ञान, अपनी दुकान बंद करो। हमें चाहिए कि ऐसी घटनाओं से सीख ली जाए और कभी भी जीवन में अतिवादिता को न चुना जाए, खराब भाषा न बोली जाए। वरना जिस डंडे से आप लोगों को मजे से हांक रहे हैं, एक दिन लोग खुद उसी डंडे से आपको भी हांककर आपका किला ध्वस्त कर सकते हैं।
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