Saturday, 11 May 2024

गर्मियों की शादियां, कीर्तन-भजन और आत्महत्याएं

गर्मियों की शादियों को अपने खराब मौसम, मसालों वाले भोज्य पदार्थों के प्रति इस मौसम‌ में अरूचि, सफर करने में आने वाली समस्या और अन्य ऐसे कारणों की वजह से कभी सही नहीं पाया। जो सही पाते हैं उनके द्वारा तर्क यह दिया जाता है कि लगन मूहूर्त इसी समय होते हैं, खेती किसानी से जुड़ा समाज रहा है तो इस दरम्यान खेती किसानी के कार्य भी अपेक्षाकृत उतने नहीं होते हैं, इसलिए भी शादी जैसे आयोजनों के लिए पर्याप्त समय रहता है। दूसरा तर्क यह रहता है कि ठंड में गद्दे चादर की व्यवस्था करनी पड़ती है, उसकी तुलना में गर्मी में आराम रहता है। ऐसे न जाने कितने कारण है, वर्तमान एक इसमें यह भी जोड़ दिया जाता है कि स्कूली बच्चों की छुट्टियां रहती हैं। 

ऐसे तमाम कारणों को एक दफा अस्वीकार कर भी दिया जाए तो एक दो ठोस कारण ऐसे हैं जिससे मुझे गर्मी की शादियां अब एक बड़े परिप्रेक्ष्य में सही लगने लगी है। ध्यान रहे कि इसके पहले मैं गर्मी में होने वाली शादियों का धूर विरोधी रहा हूं। गर्मियों में अमूमन यह देखने में आता है कि चूंकि दिन का अहसास बहुत बड़ा होता है और रात छोटी होती है, व्यक्ति अपना एक बहुत बड़ा समय गर्म मौसम के कारण घर में ही बिताता है। ऐसे में मनोरंजन के कितने भी विकल्प व्यक्ति के पास हों, वह बाकी मौसमों की तुलना में बहुत जल्दी अकेलापन महसूस करता है। यह मौसम वैसे भी अपने में अकेलापन लिए होता है। इसे आप उन लोगों को कभी नहीं समझा सकते जो खुद इस अकेलेपन की वजह से तनावग्रस्त हो जाते हैं। 

भारत में ज्ञात आंकड़ों के आधार पर ही देखा जाए तो जितने भी सुसाइड होते हैं उनमें सर्वाधिक इसी गर्मी महीने में ही होते हैं क्योंकि व्यक्ति बहुत जल्द ही टूटा हुआ महसूस करता है, पहाड़ों के लिए यह उल्टा है क्योंकि तब ठंड और बर्फबारी में इंसान घर में बंद हो जाता है। चूंकि मैं मैदानी इलाके का हूं तो मैंने खुद अपने अभी तक के व्यक्तिगत जीवन में अपने आसपास जितने भी लोगों को सुसाइड करते देखा है उनमें से अधिकतर लोगों ने गर्मी के मौसम में ही सुसाइड किया है। शायद पुराने लोगों को इस बात की गहरी समझ होगी इसलिए आप देखेंगे कि इसी मौसम में शादियों का दौर चलता है। कथा, भजन-कीर्तन की रेल लगी होती है। व्यक्ति इस मौसम में शायद ही एक पूरे दिन घर में खाना पकाता हो, व्यस्त रहने की और सामाजिक समागम की पूरी व्यवस्था रहती है, जीवन में जीने का एक उत्साह बना रहता है। आज भी मैदानी इलाकों के भारत के गांवों में यही संस्कृति चली आ रही है, आप थोड़े भी सामाजिक हैं, आपका मेलजोल है, हर दूसरे दिन शादी या किसी आयोजन में आप सम्मिलित हो लेंगे, यह न भी हो तो पालियों में हर दिन किसी न किसी गांव में भजन कीर्तन का आयोजन लगातार चल रहा होता है। आप भक्ति या कर्मकांड न भी मानते हों, इसके बावजूद भी आपके व्यस्त रहने, सामाजिक मेलजोल बनाए रखने और कुछ इस तरह मन को स्थिर रखने तक की व्यवस्था हो ही जाती है। शहर में रहने वाले के पास भी आजकल कथा वगैरह का विकल्प खुल गया है, आए दिन मोटे पैसे वाले बाबाओं का कथावाचन होता रहता है, शहरों में तो आजकल यह साल भर होने लगा है, लोग ये पिछले कुछ सालों में थोड़े ज्यादा ही आध्यात्मिक जो हो गये हैं तो उनके लिए बाजार व्यवस्था कर दे रहा है, नहीं तो पहले लोग विभिन्न प्रकार के समर क्लासेस तक ही सीमित थे। अंततः हर समयकाल में इंसान के लिए जीने लायक सबसे बड़ी चुनौती यही रही है कि वह कैसे खुद को व्यस्त रखे, आज के सुविधाभोगी समाज में तो इसकी जरूरत और बढ़ गई है। 

इति।

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