Tuesday, 24 December 2024

मुझे नहीं मालूम

देखता हूँ रोज़ अपने सामने मौत को, 

होते हैं रोज़ आँखों के सामने कत्लेआम, 

लेकिन कहाँ करनी है शिकायत, 

मुझे नहीं मालूम।


सबूत है मेरी आँखें, सबूत है मेरा ये पूरा शरीर, 

जिसने उस कत्लेआम को महसूस किया।

लेकिन कहाँ करना है मुक़दमा, 

मुझे नहीं मालूम।


लोग तड़प-तड़प कर मरते रहते हैं,

और खोजते हैं रास्ते जल्दी से मर जाने के,

आख़िर कहाँ होगी इसकी पैरवी, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर बाद में शून्य होता है, 

पहले मरता है आपका स्वाभिमान,

कहाँ होगी इसकी शिकायत, कौन लेगा अर्जियाँ, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर गल जाने से कहीं पहले, 

मार दी जाती है आपकी सारी कोमल भावनायें,

कौन रखेगा इसका हिसाब, 

मुझे नहीं मालूम।


सबके भीतर होती है अमर हो जाने की लालसा, 

लेकिन उसे एक दूसरा इंसान देता है तनाव और करता है परेशान,

यहाँ तो भीतर से मर चुके इंसान की भी,

किश्तों में मारी जाती हैं कोशिकाएं, 

कहाँ होगा इसका हिसाब, कहाँ करूँ फ़रियाद,

मुझे नहीं मालूम।


साँसों की गति रुक जाने से कहीं पहले, 

साँस चलाने वाले तत्वों पर लगा दिया जाता है लगाम,

दिखाया जाता है आपको नीचा, 

छीन लिया जाता है आत्मविश्वास,

किया जाता है आपका अपमान,

कौन करेगा इसकी सुनवाई,

मुझे नहीं मालूम। 


एक इंसान को झटके से मारने के लिए हैं कुछ सीमित उपाय, 

लटका दो, जला दो या काट दो इस शरीर को,

लेकिन इसी इंसान को किश्तों में मारने के लिए, 

लोग जीवन भर ईजाद करते हैं हिंसा के अनगिनत तरीक़े,

कौन देखेगा यह सब गहराई में जाकर, 

और कैसे तय होगी मृत्यु की परिभाषा,

मुझे नहीं मालूम।


बुद्ध ने निराश होकर दुःख तकलीफ़ को मृत्यु से भी बताया बड़ा,

और ख़ुद ही उससे निपटने के लिए बताए उपाय,

ना कोई दण्ड विधान काम आया, 

न कोई न्याय संहिता सामने आई, 

किश्तों में मिलते दुःखों की पैरवी कहीं कभी होगी भी या नहीं,

उसे भी नहीं मालूम, मुझे भी नहीं मालूम।

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