छत्तीसगढ़ का यह एक छोटा सा शहर है। शहर की अपनी सबसे बड़ी पहचान यह कि यहां के जो राजपरिवार के एक राजा हुए वे अविभाजित मध्यप्रदेश के एकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री रहे, भले कुल जमा 13 दिन के लिए मुख्यमंत्री रहे लेकिन इतने में ही क्षेत्र को ठीक-ठाक पहचान मिल गई। रियासतों के दिन लदने वाले थे और अब लोगों के पास लोकतंत्र नामक व्यवस्था थी। वैसे यह लोकतंत्र की खूबसूरती ही कही जाएगी कि राजा होने से बड़ी पहचान इलाके से निकले मुख्यमंत्री के होने पर होती है।
दूसरी एक पहचान यहां का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम गढ़ विच्छेदन है। रियासतकाल से ही (लगभग 200 वर्षों से) विजयदशमी पर्व पर होने वाला यह कार्यक्रम जारी है। मिट्टी का एक टीला/गढ़ बनता है, उस पर लोग चढ़ाई करते हैं, ऊपर खड़े रक्षक चढ़ने नहीं देते, जो इन बाधाओं को पार कर ऊपर चढ़ जाता है, वह विजयी घोषित होता है, एक बार तो यह देखा ही जाना चाहिए। बाकी यहां के स्थानीय लोग खूब पूजा-पाठ करते हैं, छोटे से कस्बे में अलग-अलग तरह के ढेर सारे मठ-मंदिर हैं, यहां की अपनी एक अलग सांस्कृतिक आबोहवा तो है ही।
इतिहास और संस्कृति की इन बातों को किनारे कर वर्तमान को देखा जाए तो राष्ट्रीय राजमार्ग से पांच किलोमीटर अंदर बसा यह छोटा सा कस्बा अपने अतीत को लेकर ही लहालोट होता रहता है, सपने बुनता रहता है, कभी-कभी चीखता है, नाराज भी होता है, लेकिन इसके हिस्से कुछ खास आता नहीं है, अभी हाल फिलहाल में सरकार बहादुर ने इलाके को जिले का तमगा दे दिया गया है। सारंगढ़-बिलाईगढ़ नाम से बना यह जिला प्रदेश का एकलौता ऐसा जिला है जो न सिर्फ दो जिलों ( रायगढ़ और बलौदाबाजार-भाटापारा ) से अलग होकर बना है बल्कि दो संभागों ( रायपुर और बिलासपुर ) से भी अलग हुआ है।
जबसे यह क्षेत्र जिले के रूप में अस्तित्व में आया तो कोई खुश हो न हो इसके दोनों मातृ जिले बेहद खुश हैं। वहां के लोगों को, खासकर बड़े अधिकारियों को इस बात की बड़ी खुशी रहती है कि पीछा छूटा इस समस्या से। बलौदाबाजार के बाशिंदे बिलाईगढ़ को एक गले की हड्डी की तरह मानते रहे हैं और रायगढ़ वासियों के लिए सारंगढ़ गले की हड्डी था। दो गले की हड्डियां एक हो गई और जिले का स्वरूप दे दिया गया। मातृ जिले के लोग कहते हैं कि हम जमीन आसमान एक कर लेंगे लेकिन इन इलाकों में कभी कुछ ढंग का काम कराया ही नहीं जा सकता है, ये हमेशा रिजल्ट खराब करने वाले इलाके हुए। खैर, मेरी इस बात से पूरी सहमति नहीं है क्योंकि आंचलिकता, भूगोल, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सिविक सेंस और ऐसी बहुत सी चीजें होती है, जिनका ध्यान रखकर चीजों को साधना होता है। गले की हड्डी का तमगा देने से बेहतर आश्रित जिले का तमगा जरुर देना चाहिए क्योंकि इस जिले को दो मोटे डीएमएफधारी जिलों की विशेष कृपा पर छोड़ दिया गया है। इस कारण से मातृ जिले आज भी इस नए जिले से कम अधिक सौतेला व्यवहार ही करते हैं, शायद नियति को भी यही मंजूर है।
भारत के बहुत से इलाकों में संबोधन में राम-राम चलता है लेकिन यहां पालागी खूब चलता है। यहां के बोलचाल में अपनी बात की पुष्टि करने के लिए अंत में " कि " जोड़ना नहीं भूलते। और जैसे आपको 5 या 10 रुपए सिक्कों के रूप में कोई लौटा रहा है तो यहां 1-2 रुपए के सिक्कों को टेप से चिपकाकर 5-10 के गुच्छे बनाकर दिया जाता है। ऐसा प्रयोग सिर्फ इसी क्षेत्र में मिलेगा।
मानचित्र में जिले के रूप में अपनी पहचान बना चुके इस क्षेत्र के पास जिला बनने के बाद एक बड़ी पहचान जो मिली, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है, वो यह है कि पूरे देश में कुष्ठ रोग के मरीजों में यह अव्वल नंबर पर है, पहले प्रदेश में अव्वल नंबर पर आता था और देश में चौथे पांचवें स्थान पर था, लेकिन अभी फिलहाल देश का टाॅपर यही है। दुनिया कहां आगे बढ़ गई है, हार्ट अटैक कैंसर तक पहुंच चुकी है, कुष्ठ तो कहिए बीते जमाने की बातें हो गई लेकिन जिले ने अपनी पुरानी विरासत को अभी तक छोड़ा नहीं है। कुछ पुराने विशेषज्ञ डाॅक्टरों से बात करने पर पता चला कि इसका मूल कारण पानी और हाइजिन है।
उन विशेषज्ञ डाॅक्टर की पानी वाली बात से एक बात याद आई कि आप पाएंगे कि कुछ इलाके ऐसे होते हैं जहां का पानी बहुत गड़बड़ होता है। उदाहरण के लिए जैसे आप हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों में जाते हैं, और वही मैगी वहां जाकर खाते हैं तो अलग स्वाद आता है तो स्वाद के इस अंतर का बहुत बड़ा कारण पानी होता है, वहां के ताजे पानी में पैदा हुई मिर्च प्याज टमाटर आदि होता है। ठीक उसी तरह कुछ इलाकों का पानी ऐसा होता है कि वहां खाना जल्दी नहीं पकता है या स्वाद नहीं आता है, इस पूरे इलाके के साथ भी कुछ ऐसा है, आप दुनिया के किसी भी इलाके से सब्जी दाल लाइए और यहां के पानी में पकाइए, आपको वैसा स्वाद नहीं मिलना है। यह सब एक करीबी मित्र द्वारा ही किया गया प्रयोग है। एक दूसरा पक्ष यह भी सुनने में आता है कि यहां के तालाब ऐसे रहे, पानी इतना साफ था कि आप नीचे तलहटी तक देख सकते थे और स्थानीय लोग उसी पानी से खाना पकाया करते। अब इस बात में कितनी सत्यता रही होगी यह पुराने लोग ही जाने बाकि वर्तमान तो बहुत कुछ ठीक नहीं है।
दूसरी एक समस्या जो मुझे यहां दिखी कि मैंने भारत के लगभग 80% इलाके में मोटरसाइकिल से यात्राएं की है, अच्छी बुरी हर तरह की सड़कें नापी है। खराब सड़कें भी कई प्रकार की होती हैं, जैसे अगर आप दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में है तो हर बार नदी नाले के बहाव की वजह से पथरीली सड़कें होती है, दूसरा औद्योगिक क्षेत्रों में भारी मालवाहक गाड़ियों की लगातार आवाजाही की वजह से सड़कें खराब स्थिति में होती हैं, लेकिन सारंगढ़ को आप लें, है बहुत छोटा सा कस्बा लेकिन 5 किलोमीटर त्रिज्या में इतनी खराब सड़कें हैं कि आपको इनोवा में भी बैठे-बैठे झटके महसूस होंगे, जबकि न कोई औद्योगिक क्षेत्र है न ही कुछ और विशेष समस्या है। मतलब ऐसी खराब सड़कें मैंने भारत में बहुत कम ही जगहों में देखी है, ऐसा नहीं है कि सड़क में गड्ढे हैं, असल में सड़क पत्थर हो चुका है, न जाने कितने वर्षों से सिलसिलेवार तरीके से इतना बेहूदा पैच वर्क होता आया है कि सड़क ठोस चट्टान में तब्दील हो गया है। अब इसके लिए आप किसे दोष देना चाहेंगे - यहां के हुक्मरानों को, यहां की जनता को या फिर किसी और को?
जनता भी अपनी खुमारी में मस्त है, वह इन्हीं खड्ढों में आए दिन हिचकोले खाते अपनी संस्कृति का गौरवगान करते हुए कहती फिरती है - "पान पानी पालगी की नगरी सारंगढ़ में आपका स्वागत है।"
नेशनल हाईवे के इंजीनियर से बात हुई तो वह कहता है कि साहब यह तो पूरा बर्बाद है, इसमें कोई स्कोप नहीं, इसे पूरा उखाड़ना होगा और नये सिरे से सड़क बनाना होगा, यही इसका इलाज हुआ। एक बार इस इलाके को लेकर जिले में आए एक बड़े अधिकारी से चर्चा हुई तो उन्होंने बातचीत के अंत में बस यही कहा था - " राम भरोसे सारंगढ़ "।
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