Tuesday, 19 December 2023

North East Ride Expenses -

20 Nov-
food and tea - 100 rs. ( jharkhand, dhaba
dinner - 120 ( veg restaurent, bodhgaya)
Petrol - 500, ( od) , 800 ( Jh)

21 Nov-
Anaar, ORS, surf, lunch  (80+25+10+190) - 305

22 Nov -
camera, puri, chaat, banana, coffee lassi, museum, dahi vada (120+35+15+20+330+60+10+25+) - 615
Homestay rent - 1500

23 nov -
air, petrol, breakfast, frooty, water, lunch, petrol, lunch, milk(10+900+50+25+20+70+500+50+25) - 1625

24 nov -
breakfast, lunch bengali thali, dinner (60+273+ 120
rent in siliguri - 1200

25 Nov -
breakfast, petrol, chain tight, lunch( 90+700+20+ 135)

26 Nov -
breakfast, juice, breakfast, shopping, thukpa, war memorial ticket, samosa ( 50+50+40+330+80+50+20)
Pelling rent - 609 rs. 

27 Nov -
Rent in Ghoom - 1600
breakfast, lunch  ( 70+280+

28 Nov -
orange juice and fruit+ parking and ticket, momo ( 130, 50, 30, 20, 70 )
aura homes gangtok rent - 1423 

29 Nov -
mochilero rent - 1200
maggi, paratha, petrol, soap (140, 500, 20 )

30 Nov -
260, 30 ( lunch, coffee )

1 Dec -
lunch+dinner in aurahomes, orange, bike wash, subway, chicken roll, parking, mithai, lower  ( 440, 50, 100, 198, 80, 10, 65, 1012 )

2 Dec -
hostel rent - 600
breakfast, fuel, dorm assam, fuel, lunch, bathroom use, fuel, dinner, water ( 50, 500, 386, 500, 170, 5, 500, 150, 20 )

3 Dec -
amazon pay later due - 3073
water, flower, breakfast, fuel, coffee ( 20,40, 136, 800, 334 )

4 Dec -
bridge ticket, pineapple, water and juice, bike ticket, tea, soup ( 50, 150, 50, 30, 10, 100 )

5 Dec -
lunch, phe phe falls ( 470, 100 )

6 dec
petrol, inner line permit nagaland, lunch, petrol, juice, millet beer ( 900, 50, 90, 600, 55, 100 )

7 dec -
chicken and rice beer ( 300, 

8 dec -
chicken roll, tea, wine, food and rice beer( 120, 20, 100, 450 )

9 dec -
community library book contribution, lunch, coffee, ( 100, 260, 110

10 dec -
muffler ( 450 )

11 dec -
rent hornbill - 5800
chain tight, lunch, fuel ( 20, 130, 500 )

12 dec -
breakfast, fruit, rent, bike service, lunch, coffee, dinner, rent in arunachal ( 60, 50, 1380, 3000, 170, 50, 300, 500 )

13 dec - 
petrol, breakfast, coffee and dryfruit, maggi and local beer ( 800, 130, 220, 140, 

14 dec -
budweiser, dinner, rent, breakfast, omlet, fuel, room rent ( 600, 120, 40, 800, 500

15 Dec -
breakfast, lunch, petrol, tea, petrol ( 100, 100, 400, 20, 920 )

16 Dec -
breakast, coffee, chicken, corona, rent ( 100, 20, 100, 585, 985 )

17 Dec -
Breakfast, air, petrol, biryani,petrol, chaat, petrol ( 30, 10, 500, 200, 400, 40, 800

18 Dec -
rent, breakfast, dosa and sweet, momo, water bottle, dinner ( 600,  35, 130, 60, 20, 140 )

Thursday, 16 November 2023

काला जादू

काले जादू, टोने-टोटके को लेकर बहुत सी मान्यताएं चलती है, एक बड़ा तबका जिसने खुद इन सब चीजों को झेला हो, वह इन चीजों को दबे छिपे स्वीकार करता ही है, वहीं वैज्ञानिकता और तर्क के अनुगामी इन सब बातों को फिजूल मानते हुए सीधे नकारते हैं। यह भी एक सच है कि कालांतर में टोने-टोटके के नाम पर, सिर्फ शक के आधार पर बहुत सी महिलाओं के साथ मारपीट और दुर्व्यवहार होता आया है और इस कारण से इन मामलों के लिए कानून भी सख्त हैं। 

मैंने बहुत से ऐसे परिवार या ऐसे लोग देखे हैं या आपने भी देखा ही होगा जो भले इस काले जादू को तर्क से काटते हुए दकियानूसी मानते हैं, लेकिन यही लोग अपने बच्चों की बुरी नजर से सुरक्षा के लिए काला टीका, काला धागा, ताबीज आदि का सहारा लेते हैं। यह भी देखने में आता है कि बचपन में बहुत से ऐसे बच्चे रहते हैं जो किसी के देख लेने, छू लेने भर से लंबे समय तक बीमार पड़ जाते हैं फिर लंबे समय तक कोई डाॅक्टर उन्हें ठीक नहीं कर पाता लेकिन एक झाड़ फूंक से तत्काल ठीक हो जाते हैं। 

काले जादू की प्रामाणिकता को लेकर बहुत सी बातें चलती है। जिसमें सबसे पहला यह कहा जाता है कि काला जादू करने वाली महिलाएं या पुरुष दीया लेकर आधी रात को आमावस्या में खेतों में अकेले विचरण करने निकलते हैं। मेरे बहुत से विश्वस्त लोगों ने और मैंने खुद यह घटना देखी है, लेकिन अभी के लिए मैं इसे आंखों का भ्रम या फिर यह मानकर चल रहा हूं कि अंधेरे में निवृत होने के लिए दीये का सहारा लिया होगा। दूसरा एक कारण यह बताया जाता है कि ये आपसे ज्यादा देर तक आँख नहीं मिला पाते हैं, इसे भी मैंने साक्षात अनुभव किया है, लेकिन इसे भी हम यह मानकर चलते हैं कि अंतर्मुखी स्वभाव के होंगे इसलिए किसी से नजर नहीं मिला पाते होंगे। तीसरा जो एक बड़ा कारण देखने में आता है वो यह है कि ये लोग जब भी किसी को, खासकर छोटे बच्चे को एकटक देख लेते हैं, उनकी तारीफ कर लेते हैं या फिर उन्हें छूकर कुछ कह जाते हैं या किसी के द्वारा खाने का कुछ दिया जाता है, ऐसी स्थिति में वे बच्चे इतने लंबे समय तक बीमार पड़ते हैं कि खूब डाॅक्टरों का चक्कर लगाना पड़ता है, फिर किसी से झाड़ फूंक करवाने पर एकदम झटके में ठीक भी हो जाता है। 

मैंने ये वाली समस्या इतनी ज्यादा देखी है, इतने लोगों को बीमार होते देखा है कि आजतक इसे किसी तर्क से काट नहीं पाया। इस बीच बहुत से ऐसे लोग मिलते हैं जो पुरजोर तरीके से वैज्ञानिक सोच की बात करते हुए इन सब चीजों का मखौल बनाते हैं, लेकिन यही लोग पूरे स्वाद के साथ विदेशों की पैराॅनार्मल एक्टिविटी आधारित फिल्में पूरे मन से स्वीकारते हुए देखते हैं, लेकिन काले जादू को सिरे से नकारते हैं। जिनके खुद के यहाँ बच्चे बीमार पड़ते हैं, ये खुद चोरी छिपे इस सच्चाई को स्वीकारते ही हैं कि कुछ लोग जबरदस्त तरीके से तंत्र विद्या का सहारा लेकर नजर लगाते हैं। मैं खुद इसका भयानक भुक्तभोगी रहा हूं लेकिन तर्क की सत्ता कायम रहे इस कारण से ऐसी चीजों का बखान करना कभी न्यायसंगत नहीं लगता है, इसलिए कभी करूंगा भी नहीं। लेकिन हमें इस चीज पर एक बार जरूर विचार करना चाहिए कि कुछ तो ऐसा होता है जो तर्क से परे होता है, जिसे आप तर्कों की कसौटी में कभी नहीं बाँध सकते हैं। दुनिया वैज्ञानिक तर्कों से आगे की चीज है। 

Tuesday, 14 November 2023

20 क्विंटल प्रति एकड़ धान - किसानों की कब्रगाह

एक एकड़ यानि 1.6 बीघा। इतनी जमीन में छत्तीसगढ़ राज्य की सरकार जो पहले 15 क्विंटल प्रति एकड़ धान की खरीदी करती थी, वह 20 क्विंटल खरीदेगी, इसकी घोषणा वर्तमान राज्य सरकार ने पहले ही कर दी थी, साथ ही यह भी कहा कि इस बार 2800 रुपये प्रति क्विंटल में खरीदी की जाएगी। विपक्ष ने अभी चुनाव के पहले कहा है कि वह 21 क्विंटल खरीदेगी और 3100 रुपये प्रति क्विंटल का समर्थन मूल्य देगी। अब तक यह समर्थन मूल्य प्रोत्साहन राशि मिलाकर 2640 रुपये था, जिसमें 2040 रुपये केन्द्र सरकार और 600 रुपये राज्य सरकार की प्रोत्साहन राशि है। इसमें भी इस बार केन्द्र सरकार का बढ़ा हुआ समर्थन मूल्य 143 रुपये जोड़ दिया जाए तो वर्तमान न्यूनतम समर्थन मूल्य 2183 ऐसे ही हो गया, और इसमें पहले की प्रोत्साहन राशि यानि 600 रुपये जोड़ दिया जाए तो 2783 रुपये पहले ही हो चुका है, यानि अब राज्य सरकार को अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए मात्र 17 रुपये अतिरिक्त देने होंगे, इसके अलावा 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ धान खरीदी का दबाव अलग।

लगभग 6-8 महीने पहले जब राज्य सरकार ने 20 क्विंटल प्रति एकड़ धान खरीदी की घोषणा की थी, तब इसका सब तरफ स्वागत किया गया, किसान हितैषी फैसला कहा गया, लेकिन एक कोई ऐसा नहीं रहा जो इसके दुष्प्रभावों को बता सके। अभी विपक्ष जब इसी को 21 क्विंटल तक लेकर जा रहा है, तब भी इसे त्यौरियां चढ़ाकर किसानों के हित में कहा जा रहा है।

मूल बात यह है कि कोई भी खेत, जिसमें आप बिना रासायनिक खाद के धान उगाएंगे वह एक एकड़ में 15 क्विंटल तक भी धान की उपज नहीं दे सकता है। यह तथ्य है। अब सोचिए 20 से 21 क्विंटल की रेस चल रही है। अब इससे यह होगा कि अधिक से अधिक उपज पाने के एवज में अंधाधुंध रासायनिक खाद डाले जाएंगे, मिट्टी जो पहले से जहर झेल रही है, उसे और अधिक जहरीला बनाने की कवायद जोरों शोरों पर होगी, धान के बीज बनने की गुणवत्ता पर भी असर होगा, कुल मिलाकर किसान पिसेगा, किसान क्या पिसेगा, जमीन पिसेगी। और अंत में उसकी जेब में थोड़े पैसे ज्यादा आ जाएंगे लेकिन बदले में आप हम बुजुर्ग बच्चे हम सभी की थाली में वही रासायनिक खाद युक्त अन्न परोसा जाएगा और इतनी हल्के स्तर की सौदेबाजी में हमारा स्वास्थ्य हमसे छीन जाएगा।

ऐसे महान फैसलों के साथ सत्ता संभालने वाले किसान हितैषी सरकारों को दंडवत् प्रणाम। 🙏

Tuesday, 7 November 2023

लोकतंत्र - एक किराए का मकान

सन् 1992 के बाद उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण का दौर आया, जिसे एक बड़ा आर्थिक सुधार कहा गया। बड़े जोर शोर से इसे प्रचारित प्रसारित किया गया और कहा गया कि भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया। इस तरह से कहा गया कि मानो 1947 से 1992 तक जितने भी लोग हुए उन्हें तो जैसे इस बात की समझ ही नहीं थी। आजादी के बाद से अब तक एक आम आदमी की जीवनशैली को, या यूं कहें कि उसकी जेब को उसकी तिजोरी को सीधे प्रभावित करने वाली यह एक बड़ी परिघटना थी। तब से लेकर अब तक इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर लंबी चर्चाएं हुई हैं, अंततः मिला-जुलाकर इसे मोटे तौर पर देश के लिए, देश के लोगों के लिए सकारात्मक ही कहा गया है। लेकिन मेरा बहुत मजबूती से यह मानना है कि इस एक बड़े बदलाव ने भारत के लोगों के हाथ से बालिश्त भर लोकतंत्र झटके में छीन लिया, लोग तब से लेकर अब तक इन 31 सालों में  सामाजिक आर्थिक मानसिक हर तरह से बेहद कमजोर हुए हैं, और कमजोर होने की यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। हर गुजरते साल यह और अधिक महसूस होता है। आज जो यह सुनने में आता है कि भारत की अर्थव्यवस्था में 90% धन भारत के सिर्फ 5-10% लोगों के पास है। 1992 की नीति की यह परिणीति है जो आज हमारे सामने है। 

भारत के आम आदमी को हमेशा इस बात को समझना चाहिए कि जिस तरह का हमारा देश है, उसमें हमेशा यह कोशिश करनी चाहिए कि सरकार अधिक से अधिक आर्थिक रूप से मजबूत रहे न कि कोई निजी संस्था। निजी संस्था एक बेलगाम पागल हाथी की तरह होते हैं और हमेशा इनका चरित्र ऐसा ही रहेगा, उन्हें आप नियंत्रित नहीं कर सकते हैं, लाभ अर्जित करना जितना अंतिम लक्ष्य हो, उनका चरित्र लोककल्याणकारी कभी नहीं हो सकता है। और  सरकार के पास अमीरी होती है, तो उसकी अमीरी देर सबेर लोगों तक आ ही जाती है, और इससे आम लोगों के जीवन में हस्तक्षेप भी कम होता है। आज स्थिति यह है कि सरकार की तथाकथित निजी संस्थाएं हमारे दरवाजे तक क्या हमारे घर के भीतर तक नजर बनाए हुए हैं, हमें इस हद तक बेतहाशा लोकतंत्र नहीं चाहिए जो पैसा फेंक तमाशा देख की तर्ज पर सुविधाएं मुहैया कराए, इसके दूरगामी परिणाम भयावह होते हैं। आज भोजन, आवास, रोजगार और जीवनशैली के तमाम पहलुओं को देखें तो हर तरह से हमें कमजोर किया जा रहा है लेकिन इस मुफलिसी की, इस गुलामी की हमें कोई खबर नहीं है। हमें समझना होगा कि सिर्फ मुद्रा संचित करना ही अमीरी का पर्याय नहीं होता है। मुद्रा के ईर्द-गिर्द घूमने वाले लोकतंत्र से लोग अमीर नहीं बल्कि कमजोर और गरीब होते जाते हैं।

एक बड़े परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो लोकतंत्र अब आम नागरिकों के लिए एक किराए के कमरे की तरह हो चुकी है। लोगों की न अपनी कोई जमीन है, ना उनका अपना कोई वजूद है, लोगों के पास सिर्फ एकमात्र विकल्प है कि वह बेहतर से बेहतर किराया चुकाते हुए अपना जीवन यापन करें। बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब, इस कमजोर हो रहे लोकतंत्र की आंच सब तक पहुंच रही है। लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस किराए के मकान रूपी लोकतंत्र में वह अपना जीवन यापन कर रहा है, वह उसमें कपड़ा टांगने के लिए कमरे के किसी कोने में ज्यादा से ज्यादा कील ठोक सकता है वह भी ड्रिल मशीन से, और अपने मुताबिक भीतर के कमरों में रंग रोगन कर सकता है, ताकि उसे थोड़ा बेहतर महसूस हो, इससे अधिक उसे स्वतंत्रता नहीं है। कमाते रहिए पैसे, करते रहिए नौकरी व्यापार और जोड़ते रहिए सामान, घर, पैसा और जमीन और इस तरह से दिन रात खुद को खपा दीजिए, लेकिन कभी जीवन में चैन नहीं पाएंगे, स्वतंत्रता का सुख क्या होता है आजीवन नहीं समझ पाएंगे क्योंकि आपके हमारे हिस्से के लोकतंत्र को तो पहले ही कमजोर कर दिया गया है, एक तरह से एक बड़ा हिस्सा छीन लिया गया है। हम लोकतंत्र के इस भयावह स्तर तक पहुंच चुके हैं। 1992 की नीतियों को यह कहा गया कि उससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गया लेकिन वास्तविकता में तो इसने एक तरह से आग में घी डालने का ही काम किया, जिसकी लपटें आज हमें तबाह किए हुए हैं, ऐसी आग लगी है कि बुझने का ना‌म ही नहीं लेती, इससे बेहतर तो यह होता कि उस वक्त हम एक रोटी कम खाकर अपने हिस्से का लोकतंत्र खुद बचा लेते। कम्प्यूटर फोन केएफसी डोमिनो हमें शेष दुनिया से देर से मिलता, कोई समस्या नहीं थी।

लेकिन हमारे साथ एक समस्या है, हमें हमेशा एक हीरो चाहिए होता है। कल एक फिल्म देख रहा था, उसमें एक किरदार ने यह कहा कि भारत के लोगों को हमेशा एक हीरो जैसा इंसान चाहिए जो उनको अपने हिसाब से घेरता रहे और बजाता रहे, लोगों को अपनी बजाने में मजा सा आता है। फिल्म का वह किरदार एक प्राइवेट प्लेयर था, जो कि एक फ्राॅड था, लेकिन उसे आज भी लोग भगवान की तरह मानते हैं। इसमें भी मेरा यह कहना है कि अगर आम लोगों का शोषण भी होता है तो वह सरकारी तंत्र के माध्यम से ही हो, क्योंकि सरकार से बड़ी विश्वासपात्र और कोई नहीं होती है। आज भी कोई सरकारी नौकर या कोई व्यापारी अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपना पैसा सरकार के ही खाते में ही क्यों दान कर जाता है, क्योंकि वह लोकतंत्र की तासीर को समझता है, उसे पता होता है कि गड़बड़ी तो हर जगह है लेकिन सरकार के हिस्से पैसे जाएंगे तो पैसा देर सबेर आम लोगों के बीच ही बंटेगा, कुछ गिने चुने निजी लोगों की हिस्सेदारी उसमें नहीं होगी। 

इति।

Friday, 3 November 2023

दुःखों का साम्य

एक दुःख झेले हुए व्यक्ति को हमेशा ऐसे व्यक्ति का हाथ थामना चाहिए जिसने खुद जीवन में उसी मात्रा में दुःख को देखा हो, जीया हो, सहा हो। कई बार ऐसा होता है कि एक बहुत संघर्ष और दुःखों की यात्रा कर एक सरल जीवन यापन करने तक पहुंचने वाला व्यक्ति एक ऐसे व्यक्ति का हाथ थाम लेता है जिसने जीवन में न्यूनतम स्तर का संघर्ष भी नहीं देखा होता है। ऐसी स्थिति में एक समय के बाद रिश्तों में निर्वात पैदा होने लगता है, भले ऐसा व्यक्ति व्यवहार कुशल हो, नेक हो, लेकिन एक समय के बाद होता यह है कि एक जिसे दुःख या तकलीफ मानता है और उम्मीद करता है कि सामने वाला उसमें इतनी मात्रा में सहानुभूति जताए लेकिन सामने वाले के लिए तो अमुक दुःख, एक दुःख की श्रेणी में आ ही नहीं पाता है, उसके लिए तो मानो दुःखों की परिभाषा ही अलग है और इसमें उसकी कोई गलती भी नहीं है क्योंकि शायद उसने कभी जीवन को इस तरह से देखा ही नहीं होता है। इसीलिए रिश्तों में हमेशा इस एक बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमुक व्यक्ति का, जीवनसाथी का, दुःखों को लेकर, संघर्ष को लेकर, जीवन की तमाम विद्रूपताओं को लेकर आखिर क्या दृष्टिकोण है।

Saturday, 21 October 2023

Honey Singh Comeback

90's के युवाओं का चहेता, सीडी के जमाने में वायरल होने वाला एक ऐसा सिंगर जिसे लोगों ने हमेशा दिल से स्वीकारा, उसका जादू आज भी उतना ही बरकरार है। ऐसा तभी संभव हो पाता है, जब आप वास्तव में कला को जीते हैं, संगीत आपके खून में बहता है। 9 साल के बाद संगीत के क्षेत्र में अपनी वापसी कर हनी सिंह ने हम सभी को जीवन की एक बड़ी सीख दे दी है और वो यह है कि परिस्थिति कितनी भी खराब क्यों न हो, अगर आप अपने प्रति ईमानदार हैं, खुद पर भरोसा रखते हैं, ऐसे में हर खराब परिस्थिति से लड़कर बाहर आ सकते हैं, कभी भी खुद को मजबूती से खड़ा कर सकते हैं। समय कैसा भी हो, लाख अड़चने बीच में क्यों न आए, आप अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकते हैं। 

एक समय था जब उनका गजब का क्रेज हुआ करता था, कोई उनके पासंग नहीं था। लेकिन पिछले 9 साल से वे गुमनामी का जीवन जीते रहे। इस अवधि में उन्हें ड्रग्स, शराब आदि की लत ने बुरी तरह से घेर लिया। सबने एक तरह से यही मान लिया था कि हनी सिंह नाम का उभरता सितारा अब डूब गया। लेकिन इन सब से लड़ते हुए आज 40 की उम्र में फिर से उनका संगीत की दुनिया में वापसी करना एक जादुई अहसास से भर देता है। संगीत की दुनिया में विरले ही ऐसी घटनाएं होती हैं। असल में हनी सिंह ने सबसे बड़ी लड़ाई खुद से लड़ी है और आज उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने जिंदगी से दो-दो हाथ किया और जब लगा कि अब वे फिर से उड़ान भरने को तैयार हैं तो पूरी विनम्रता के साथ जिंदगी को धन्यवाद देते हुए खुद को खड़ा किया। उनके हाव-भाव में भड़कीले कपड़े धारण करने के बावजूद एक किसी सूफी संत जैसी सौम्यता दिखती है, हनी सिंह पहले भी तुलनात्मक से कभी वैसे लाउड नहीं रहे, लेकिन अभी उनके व्यक्तित्व में क्या गजब का ठहराव है। 

जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच अगर वापसी हो तो हनी सिंह जैसी होनी चाहिए। विपरित परिस्थितियों में भी खुद पर विजय पाने वाला एक ऐसा व्यक्ति जिसे हर कोई खुले मन से बांहे फैलाकर स्वीकार रहा है। हनी सिंह ने आते ही गाना भी ऐसा बनाया कि 6 दिन से लगातार नंबर 1 में ट्रेंड कर रहा है, यूट्यूब के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ है। क्या ही बीट्स हैं, क्या ही अहसास है, गजब का timlessness है। मतलब एक ही गाने से अपने समय के म्यूजिक/गाने बनाने वाले सभी लोगों को मानो क्लीन स्वीप दे दिया है। कला का ऐसा नमूना बड़े जतन से आता है, ऐसी चीजों को आप सुनकर बहुत जल्दी बोर नहीं होते हैं, इस इंसान के काम में हमेशा से एक अलग ही किस्म‌ का जादू रहा है, चाहे तो इसके 9-10 साल पुराने गाने ही सुन लिए जाएं, बंदा अपने काम से समां बांध लेता है। 

सफल होना एक प्रक्रिया है, और यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। चमक-धमक वाले फेम की बात अलग है, उसकी उम्र बहुत लंबी नहीं होती है। हनी सिंह अब जाकर सही मायनों में एक सफल सिंगर बना है। दो अलग-अलग दशक के युवाओं के बीच अपना क्रेज बनाना मामूली काम नहीं है, ऐसा कर गुजरने वाला यह अपने समय का एकलौता सिंगर है, जिसने अभी के समय के संगीत परोसने वाले सभी लोगों के सामने एक नजीर पेश कर दी है कि गाने कैसे बनाए जाते हैं।

जियो देशी कलाकार। 🙌



Friday, 20 October 2023

And I visited Shredded...

The only restaurant in Raipur that i can suggest to my dear ones.

The best thing about this restaurant is undoubtedly the food. Nowadays, it is becoming very difficult to find healthy and nutritious food in a restaurant. People who have just killed their taste buds by having ample amount of unhealthy food may find it very difficult to accept such restaurant concept.

One more thing i liked about this place is the people behind the idea, I personally found them very likeminded, genuienly humble and generous. Just like any healthy food, it is rare nowadays to find such people who made your day just by having a small conversation. one can sense the good vibe or you can say the feel good factor after entering the restaurant. 

For me, sometimes its not just about the food or ambience, its more about the idea, its about the people behind it who wholeheartedly put their heart and blood in it with their purest intent, I have my own experience that people like these always get less recognition as compare to those who are cunning in nature, lacks humility and trick around people all the time, such people always carry profit/loss calculation in their head before uttering a word.

About the house of nutrition, I read the menu for more then ten minutes and i was completely blown by the varieties they had. Its not just a restaurant, its a piece of Art. In a nutshell, it's truly a one of a kind place in Raipur.

Places like these should be encouraged, what more can i say.



Wednesday, 18 October 2023

दाल, थप्पड़ और गणित का विषय -

इंजीनियरिंग कॉलेज के दिनों की बात है। तब मैं फर्स्ट ईयर में था और हॉस्टल में रहता था। एक दिन हॉस्टल के मेस में जहां टेबल में ही सबके लिए दाल की बाल्टियां रख दी जाती थी, वहां से मैंने उस बाल्टी से दाल निकाला, अब चूंकि वह टेबल सनमाइका का था और नीचे हल्का सा पानी था तो दाल की पूरी बाल्टी जिसमें लगभग 10 लीटर तक दाल आ सकती थी, वह आधा भरा हुआ था और जैसे ही मैं दाल निकालने के लिए चम्मच डालने लगा, दाल की पूरी बाल्टी गिर गई और फिर इसके बाद मेरे दोस्त यार हंसने लग गए, मेस का प्रबंधक जो साउथ इंडियन था वह यह सब देख रहा था, उसे यह लगा कि मैंने जानबूझकर दाल की बाल्टी गिराई। और उसने इस बात की कम्पलेन हाॅस्टल के सीनियर्स से कर दी। 

बताता चलूं कि जिस हाॅस्टल में मैं रहता था, या जिस काॅलेज में मैं पढ़ता था, उसे मिनी केरला कहा जाता था, उसका कारण यह था कि 50% मैनेजमेंट कोटा साउथ इंडियन मलयाली छात्रों के लिए आरक्षित रहता था, इस कारण से जो अधिकतर छात्र आते थे वह हॉस्टल में ही रहते थे और हॉस्टल का पूरा स्टाफ भी अधिकतर मलयाली ही था, और हमारे मेस का मेनू भी ऐसा था कि हमको लगता था कि हम केरल में ही रहते हैं। छत्तीसगढ़ के 20-30% छात्र ही हाॅस्टल में रहते थे। इन सब कारणों से न चाहते हुए भी एक तरह से छत्तीसगढ़ बनाम केरला का एक गुट बन जाता था, जो कई सालों से प्रासंगिक था। लेकिन जिसका बहुमत उसका दबदबा वाली चीज थी ही जो मैंने खुद भी कई बार महसूस किया।

उस मेस के प्रबंधक ने जिसने मुझे दाल गिराते देखा, उसने मेरी कम्पलेन साउथ इंडियन सीनियर्स से कर दी। उन्होंने मुझे बुलाया, चार-पांच लोग थे सारे के सारे मलयाली और मैं उनके सामने खड़ा था। तब तो मैं 18 साल का नौजवान था, दाढ़ी तक नहीं उगी थी, और मेरे सामने वे चार पांच साउथ इंडियन जो बकरा दाढ़ी रखे हुए थे, जिस कारण से वे काफी उम्रदराज और गुंडे की माफिक लगते थे। बताता चलूं कि मुझे हॉस्टल में आए बमुश्किल दो सप्ताह ही हुआ था, सीनियर्स के साथ क्या अलग तरह से व्यवहार करना है, कैसे फंडे हैं, कायदे कानून हैं, इसके बारे में भी बहुत जानकारी नहीं थी बस इतना पता था कि जब सीनियर्स दिखें उन्हें गुड मॉर्निंग गुड इवनिंग विश करना है। तो जब मैं उनके सामने गया, मैं सीधे खड़ा था, एक सीनियर से सीधे मेरे गाल में एक थप्पड़ रसीद कर दिया और मेरी गर्दन को पकड़ कर जोर देकर झुका दिया और कहने लगा कि मुझे सीनियर्स के सामने खड़े होने की तमीज नहीं है। तब तक मुझे थर्ड बटन रूल पता ही नहीं था, मैंने कहा कि मुझे नहीं पता सर, मैं नया आया हूं‌। इसके बाद जवाब देने की वजह से उन्होंने फिर मुझे चिल्लाकर डांटा कि मैं जवाब क्यों दे रहा हूं, एक ने कहा कि क्या मैं कहीं का नवाब हूं, उसने कहा कि सीनियर्स के सामने जवाब नहीं दिया जाता, चुप रहा जाता है। यह सब होने के बाद उन्होंने मुझ पर आरोप लगाया कि मैंने जानबूझकर दाल की बाल्टी गिराई, जिस पर मैंने कहा कि मैं खेती किसानी वाले परिवार से हूं, भोजन का सम्मान करता हूं, मैंने जानबूझकर दाल की बाल्टी नहीं गिराई, सनमाइका में पानी गिरा था, इस वजह से मुझसे स्लिप हो गया, जिसका मुझे खेद है। इसके बाद उन्होंने मुझे धमकाते हुए जाने कह दिया और सीनियर्स के सामने हमेशा झुक कर रहने और जवाब न देने की हिदायत दी, साथ ही यह भी कहा कि यह एक थप्पड़ तो कुछ भी नहीं है इसलिए इसे मैं इसे सजा के तौर पर ना लूं, यह सिर्फ एक सीख है। 

इसके बाद मैं अपने कमरे में आ गया, अपने गुस्से को पता नहीं क्यों उस दिन संभाल नहीं पा रहा था, कमरे मैं और भी दोस्त रहते थे जिन्होंने दाल की बाल्टी गिरने के बाद हंसने का अभूतपूर्व योगदान दिया था, वह मुझे सांत्वना दे रहे थे लेकिन उनकी सांत्वना काम नहीं कर रही थी। मैं इस बात को पचा नहीं पा रहा था कि बिना किसी गलती के मुझे क्यों थप्पड़ मारा गया। फिर एक साउथ इंडियन सीनियर मेरे कमरे में आया और मुझे समझाते हुए कहा की यह सामान्य सी बात है, और इस बात को मैं अपने मन में ना रखूं, यह सीनियर उस थप्पड़ मारने वाले सीनियर से अलग था। मैंने उस सीनियर की ओर देखा भी नहीं और पीठ करते हुए ही चुपचाप हां कहकर अपनी मौन असहमति जता दी। मेरा गुस्सा अभी तक बरकरार था जो शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था, मुझे किसी को फेस करने का मन नहीं कर रहा था, फिर मैं बाथरूम चला गया और खुद को बंद कर लिया, लोहे को उस दरवाजे को इतनी जोर से बंद किया कि शायद आधे हॉस्टल ने सुना होगा, फिर गुस्से की वजह से मेरे आंसू आ गए और इसके बाद बाथरूम में लगे टाइल्स को मैं इतना जोर से पंच मारा कि वह टूट कर नीचे बिखर गया।

फिर यह घटना मेरे स्मृति से हट गई और हम सब अपने काॅलेज में व्यस्त होने लगे। 4 साल पूरा हो चुका था और मैं काॅलेज से पास आउट हो चुका था। लेकिन जिस सीनियर ने मुझे बिना मेरी किसी गलती के थप्पड़ मारा था, उसका एक पेपर मैथ्स ( M-3 ) रूक गया, वह पढ़ाई में बहुत अच्छा था, उसके सारे पेपर क्लियर हो जाते लेकिन वही एक पेपर रूक जाने की वजह से वह एक साल पीछे हो गया। अब वह फाइनल ईयर में हमारे साथ पेपर दे रहा था। वह सीनियर बहुत ही ज्यादा टैलेंटेड आदमी था, एक तो कोई कार या ट्रक का प्रोटोटाइप उसने अपने इंजीनियरिंग के पांचवें सेमेस्टर में ही बना लिया था, जिसका ट्रायल वह पूरे काॅलेज कैम्पस में किया करता‌। स्पोर्ट्स, मंच संचालन और अन्य गतिविधियों में भी अव्व्ल। एक तरह से सबका चहेता था। लेकिन उस एक पेपर ने उसे पीछे कर दिया। फाइनल ईयर में जब उसके बैच के सारे लोग कालेज छोड़कर जा चुके थे, वह कैम्पस में अकेला घूमता, और जब भी मैं उसके सामने आता, वह पता नहीं क्यों हमेशा मुझसे खुद आकर हाथ मिलाता और गले मिलता, यह सिलसिला हमेशा चलता रहा। वह जब-जब मेरे से गले मिलता तो मुझे हमेशा उसका थप्पड़ याद आता, एक बार तो उसने शायद मुझसे माफी भी मांगी, मैंने कहा कि सर कोई बात नहीं, शर्मिंदा मत करिए। मुझे उससे मिलना अटपटा ही लगता कि आखिर क्यों ही मिल के घाव ताजा करना। 

फाइनल सेमेस्टर का पेपर हुआ। मैं पास हो गया और काॅलेज से मुक्त हो चुका था। काॅलेज खत्म होने के छह महीने बाद एक दिन जब मैं अपना टीसी लेने गया, तब मुझे वह सीनियर दिख गया और हमेशा की तरह फिर से मुझसे आकर गले मिलने लगा, और बहुत दुःखी होकर मुझे बताने लगा कि मैथ्स का‌ पेपर उसके लिए नासूर बन चुका है, और मैं कुछ उसे उपाय बताऊं, मुझे पता नहीं क्यों उस दिन उसके लिए बहुत खराब लगा, मैंने मन ही मन उसके पेपर क्लियर हो जाने की दुआ कर दी और इस बोझ से खुद को मुक्त कर लिया। 

कभी कभी सोचता हूं कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। वह सीनियर जो इतना होनहार था, वह लगातार एक ही विषय में फेल होने के बाद जब एक साल पीछे होकर हमारे साथ आ गया, तब ही उसने मुझसे हाथ मिलाने और गले मिलने की औपचारिकता क्यों शुरू की। क्या वास्तव में कुदरत का कानून हम पर इतना हावी हो जाता है कि हम अपना अहं, अपनी क्षुद्रता त्याग देते हैं और उसके सामने खुद को सौंप देते हैं, क्या सचमुच सब के साथ ऐसा होता है ?

घूमने की कला

मार्च 2021 को भारत घूम के आने के बाद से कहीं अलग से घूमने गया ही नहीं हूं। लोग पेशेवर यात्री मानकर पूछते रहते हैं कि अब कहां जा रहे, तो ऐसा है कि मैं हमेशा घूमता नहीं हूं, जब तक भीतर से आवाज नहीं आती तब तक तो बिल्कुल भी नहीं। इसीलिए पिछले ढाई साल से अलग से ऐसे कहीं नहीं गया, काॅलिंग ही नहीं आई। इस बीच दूसरी बाइक भी आ गई, उसे भी आए 7 महीने हो चुके, लेकिन कहीं भी जाना नहीं हुआ। इन ढाई सालों में एक भी कोई लंबा ट्रैक नहीं किया, जिसका थोड़ा मलाल है ही। वैसे दूसरी जिम्मेदारियों में व्यस्त हूं और कहीं न जाकर भी उतना ही मजे में हूं, जितना भारत घूमते हुए था। एक दो दिन के लिए कहीं घूमने चले गये, कहीं रूक गये, इसे मैं घूमना मानता ही नहीं हूं, उल्टे इससे हरारत ही होती है, ये एक दो दिन में मन शरीर जस का तस ही रहता है, कुछ नयापन आता ही नहीं है। अभी के समय में वीकेंड और कुछ नहीं बस एक तिलिस्म मात्र है, जो मार्केट के परोसे गये फास्ट फूड से भी ज्यादा खतरनाक है। इंसान के लिए एक-एक दिन मानो जीने का तत्व न होकर काट कर खा जाने की वस्तु हो गई है, वह शांत नहीं बैठ सकता, वह उन दिनों को भी किसी भी हाल में मानो चबाकर खा लेना चाहता है।

वैसे भी हर चीज का अपना एक मूड होता है, और वो अपने आप जब नियति को मंजूर होता है, स्वयमेव बन जाता है, अपने आप अस्तित्व के यहां से जो चीजें आपके लिए तैयार होती है, उसका अपना अलग ही सुख है। इसलिए जबरदस्ती घूमने नहीं जाना चाहिए, और यह बात सिर्फ घूमने पर लागू नहीं होती है। 

Tuesday, 17 October 2023

आस्था के मायने

भारत से बाहर दो चार देश होकर आने वाले जब वापस भारत लौटते हैं तो अधिकतर लोगों के मन में एक चीज हमेशा आती है और वह है भारत को लेकर शिकायतें। समस्याओं की लंबी फेहरिस्त लेकर विवश होकर कहते है कि हमारे यहाँ ऐसा होना चाहिए, चाहे मामला सफाई का हो या शहरों गांवों की बसाहट का, वह अपनी नाराजगी जताते हैं। अगर सकारात्मक होकर कुछ बेहतर करने की दिशा में व्यक्ति यह मानसिकता रखता है तो इसमें कोई समस्या नहीं है। 

एक सज्जन हैं, बाहर रहते हैं, दूसरे देश की नागरिकता ले ली है। वे आए दिन अपने उस देश को बेहतर और भारत को कमतर बताते रहते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं के नाम पर अपने देश को श्रेष्ठ बताते हुए भारत को छोटा दिखाते हैं। मैंने उनकी बात से सहमति जताते हुए एक बार पूछा - आप जिस देश में रहते हैं, माना कि वह देश उन्नत है, वहां बेहतर नागरिक सुविधाएं हैं, अच्छा मैनेजमेंट है, लेकिन कुछ चुनौतियाँ/समस्याएं तो आपके यहां भी होंगी। उन्होंने झुंझलाते हुए साफ मना कर दिया। मुझे अपना उत्तर मिल चुका था। वह जिस देश में रहते हैं, उसी देश के उसी प्रांत में तब एक काॅलेज की दोस्त भी रहती थी। कोविड के समय जब उन्होंने अपने देश के मैनेजमेंट का महिमामंडन किया तो मैंने‌ अपने दोस्त से पूछा कि तुम्हारे यहां तो अच्छा मैनेजमेंट है तो उसने उस देश को खूब लानतें भेजी और कहा इससे बेहतर तो भारत में स्थिति है, मिसमैनेजमेंट है, मूलभूत सुविधाओं की समस्याएं हैं मानती हूं, लेकिन इंसान के साथ इतना रोबोट की तरह तो कम से कम व्यवहार नहीं किया जाता। 

एक दिन एक बात निकल कर आई। अमुक सज्जन ने कहा कि जो देश विकसित हैं, प्रोग्रेसिव हो रहे हैं, उन देशों के लोग खासकर यूरोपीय मूल के, ये देश अब भगवान को नहीं मानते, धार्मिक स्थल बंद पड़े रहते हैं, ये एक तरह से नास्तिकता की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ एक और लोगों को यह कहते सुना है कि ये विकसित देश भगवान आस्था इन सब को नहीं मानते हैं, इन सब से अब ऊपर उठ रहे हैं। यह गजब ही विडंबना है। एक सवाल मेरे मन में आता है कि इन्हीं देशों के लोग जो उन्नति के साथ नास्तिकता के मार्ग पर प्रशस्त हैं, ये जब एक एयरक्राफ्ट से आसमान से नीचे कूद रहे होते हैं या युध्द जैसी आपात स्थिति में होते हैं तो हाथों से क्राॅस बनाकर या अन्य ऐसा कोई ईशारा कर या आंख मूंद कर अपने ईष्ट को क्यों याद करते हैं?

Monday, 16 October 2023

सहनशक्ति

A - सहना बड़ी बात होती है, सबके बस का नहीं होता।
B - लेकिन क्यों ही सहें किसी को, गुस्सा भी तो आता है।
A - जो सह जाता है, वह जीत जाता है।
B - वह कैसे ?
A - सह जाओगे तो तुम्हारा सहना सामने वाले के लिए आग बन जाएगा।
B - मैं समझ गया लेकिन एक उलझन है।
A - पूछो।
B - इस सहने नहीं सहने के प्रक्रम से मैं क्यों हमेशा के लिए अलग नहीं हो जाता।
A - जीवन की शय का इतना ही फसाना है।
B - एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है।

Friday, 13 October 2023

पिछड़े समाजों का विशेषाधिकार

पिछड़ों, वंचितों, शोषितों की समस्याओं से, उनके आंदोलनों से हमेशा सहानुभूति रही है, लंबे समय से उनकी पक्षधरता की है, आगे भी यह प्रक्रिया आजीवन जारी रहेगी। इस दौरान कई लोग बीच-बीच में यह कह जाते कि मैं गलत हूं, मुझे समझ नहीं है और फिर अपनी समस्या भी बताते कि जिन्हें समाज पिछड़े तबके का कहता है, जिन्हें विशेषाधिकार हासिल है, उस प्राप्त विशेषाधिकार का दुरूपयोग कर कुछ लोग बेहूदगी की हद पार कर गये जिनकी वजह से उन्होंने कितनी पीड़ा कितनी हिंसा झेली। ऐसे मामले होते रहते हैं, वह बात अलग है कि ऐसे मामलों को कई बार विशेष कवरेज नहीं मिल पाती है। एक सभ्य व्यक्ति चाहे वह किसी भी तबके का हो, वह कभी अपने आपको कोर्ट कचहरी में नहीं घसीटना चाहता है। इसमें भी सभ्यता का एकमात्र बड़ा पैमाना यह कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन में कितना कम दखल देता है, कितनी कम हिंसा करता है। 

एक बार एक करीबी ने बताया कि उनके पड़ोस में एक विशेष जाति के लोगों ने अपने जातीय विशेषाधिकार से इतना आतंकित किया कि अंततः उन्हें वह जगह बेचकर कहीं और जाना पड़ा। जो साथी अपने अनुभव बताते हैं, उन्होंने शायद कभी मेरे अनुभव जानने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कभी यह नहीं पूछा कि क्या मैंने कभी यह सब झेला है। जी हां, ऐसी हिंसाएं मैंने भी देखी है, खूब मानसिक तनाव झेला है, फिर भी कभी खिलाफ जाकर बात नहीं लिखी, उसके पीछे मेरे अपने कारण है। ऐसे मामलों में हमेशा मैंने चुप रहकर नजर अंदाज कर देने को ही प्राथमिकता दी है। क्योंकि मुझे मालूम रहता है कि अमुक व्यक्ति अपने जीवन के साथ कोई सुधार नहीं करना चाहता है, तो बेहतर है कि ऐसे लोगों के प्रभाव से खुद को अलग किया जाए भर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। वैसे भी कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, पंथ, समुदाय का‌ क्यों न हो, सबका लेखा-जोखा अंततः यही होता है।

अंत में यही कि अधिकतर मैंने यह देखा कि व्यक्ति अपने कुल, अपनी जाति में व्याप्त विसंगतियों से आजीवन खुद को अलग नहीं कर पाता है। गेहूं में घुन पीस जाने की तर्ज पर आजीवन उन प्रवृतियों को, खराब तौर-तरीकों को ढोता रहता है। जो व्यक्ति इन विसंगतियों से पार पाकर बेहतरी की ओर आगे बढ़ता है, वह सबसे पहले अपने ही समाज से कट जाता है। क्योंकि वह जिस प्रगतिशील मानसिकता के साथ जीवन में आगे बढ़ रहा है उसी के समाज के अधिकांश लोग उसके ठीक विपरित दिशा में जीवन जी रहे होते हैं। 

इति।

Tuesday, 10 October 2023

हम भारतीयों की भोजन की संस्कृति

पिछले सप्ताह शहर की एक फूड ब्लागर मात्र 23 की उम्र में शांत हो गई। कारण रहा - हाई सुगर लेवल और उसके बाद निमोनिया। मैंने जब उनका प्रोफाइल देखा तो बहुत सारे खाने-पीने के वीडियो से प्रोफाइल भरा पड़ा था, एक भी चीज ऐसी नहीं मिली जिसे कहा जा सके कि यह अच्छा भोजन है, अपनी प्रकृति में लघु है और सुपाच्य है। खाने के लगभग जितने भी विकल्प देखे सब कुछ अपनी प्रकृति में दीर्घ यानि प्रोसेस किया हुआ खाना, फास्ट फूड जंक फूड जैसा आपको समझने में सहूलियत हो। आजकल इस तरह के खाने को लेकर लोगों में गजब की आसक्ति है। किसी नशे की तरह लोग बाहर थोक के भाव में यह सब खा लेते हैं, यह नहीं समझ पाते हैं कि ब्रांड स्पांसरशिप और फ्री में जो यह खाना आपको परोसा जा रहा है, वह आपको मुफ्त के खाने के साथ कुछ समय के लिए शोहरत तो दे देगा, लेकिन बदले में आपकी सेहत छीन लेगा। 

कुछ लोगों का लिवर बहुत कमजोर होता है, वहीं कुछ लोगों का पूरा इम्युन सिस्टम ही कमजोर होता है, ऐसी स्थिति में व्यक्ति को कई बार यह समझने में बहुत देर लग जाती है कि वह लंबे समय से अपने शरीर को आखिर क्या दे रहा है। मुझे लगता है कि इन फूड ब्लागर के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति रही होगी। यह भी समझ आया कि ये उस खाने को पचाने के लिए पसीना बहाने जैसा कोई शारीरिक मेहनत भी न करती होंगी तभी शायद स्थिति इतनी गंभीर हो गई। एक कमजोर शरीर को इतना दीर्घ, इतना भारी खाना देना उसी तरह है कि एक पंक्चर हुई गाड़ी में ओवरलोडिंग की हद तक सामान लाद देना, इतना कि उस गाड़ी का इंजन बैठ जाए। 

फास्ट प्रोसेस फूड की शौकीन पीढ़ी को देखकर यही लगता है कि हमने अपने पेट को कूड़े का ढेर बना दिया है, जो मन में आया वहां बस फेंक आते हैं, वहां वो खाना जब सढ़े गले, हमारी चिंता नहीं है। हम अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों का निर्वहन करते हैं, अपनी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को संजोने के लिए प्रयासरत रहते हैं, अपना जीवन फूंक देते हैं लेकिन जहाँ बात भोजन की आती है, वहां हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को क्यों भूल जाते हैं यह समझ से परे है।

मेरे बहुत से दोस्त साथी जो विदेश रहकर आए हैं या दूसरे देशों में रहते हैं, उनमें से लगभग हर किसी ने हमेशा इस एक बात को कहा है कि भारतीय उपमहाद्वीप के खाने का पूरे विश्व में कोई तोड़ नहीं है, ऐसा स्वाद ऐसा फ्लेवर दुनिया के किसी खाने में नहीं है। भले विकसित कहे जाने वाले देशों ने कुछ भी हासिल कर रखा हो, जबरन खुद को बड़ा दिखाने के लिए अपने बेंचमार्क सेट किए हों और उसमें हमें तीसरी दुनिया की श्रेणी में रखा हो, लेकिन भोजन की विविधता के मामले में वे हमेशा पीछे रहेंगे। 

बहुत सोचने विचारने पर यह भी निष्कर्ष निकला कि हम भारतीयों ने अपने भोजन की संस्कृति में कभी अतिवादिता को हावी होने नहीं दिया। चीन जापान कोरिया और कुछ कुछ देशों में जैसे बिना मसालों के उबला हुआ भोजन खाने का रिवाज है, हमने इस संस्कृति को नहीं अपनाया, न ही हमने दीर्घ भोजन को स्वीकारा। हमने बीच का रास्ता चुना, हमने भोजन में तेल मसालों को जमकर जोड़ा और उसका ऐसा बेहतरीन माॅडल पेश किया कि हमे मसालेदार स्वाद भी मिलेगा और उसका नुकसान भी नहीं होगा। उदाहरण के लिए जैसे कभी हमें तेल में तली पूरी और छोले की सब्जी खानी है तो हमने पूरी में अजवाइन डाल दिया और छोले में हींग, काली मिर्च ताकि भोजन का स्वाद भी मिले और ये गुणकारी मसाले आसानी से भोजन को पचा लें और हमारी आंतों पर जोर भी न पड़े। विभिन्न प्रकार के मसाले हमेशा से हमारे भोजन का अभिन्न अंग रहे, जो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाते रहे हैं, सदियों से इस संस्कृति का हम‌ पालन करते आए हैं। भारतीय खाने‌ में भोजन को लेकर गजब का साम्य है, हमारे पास अपने स्वादांकुरों को संतुष्ट करने के लिए ढेरों विकल्प हैं, बावजूद इसके हम आज ऐसे भोजन के गुलाम बने बैठे हैं, जिसकी न तो अपनी कोई सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है न ही उससे हमारे शरीर को कुछ पोषकतत्व मिलता है। अगर हमें सचमुच अपनी चिंता है, अपने सेहत की थोड़ी भी चिंता है तो भोजन के अपने परंपरागत तौर तरीकों में रस खोजना होगा वरना दुःखों का पहाड़ हमारे सामने है ही। गुलामी सिर्फ किसी बाहरी व्यक्ति के शासन‌ करने के तौर तरीकों से नहीं आती है, भोजन के गलत तौर तरीकों को अपनाने से भी आती है। 




Thursday, 5 October 2023

रायपुर का ध्वनि प्रदूषण

सन् 2015, ठीक गणेश नवरात्रि का समय था। इत्तफाक से मैं जहाँ रहता था, वो क्षेत्र ध्वनि प्रदूषण वाले जोन में ही आता था, जहां से अधिकतर पाॅवर डीजे वाली रैली निकलती थी। गणेश और खासकर नवरात्र के समय बहुत परेशानी होती थी। पता नही उतने शोर में लोगों को कैसे आनंद मिल सकता है, मुझे तो शादियों का डीजे जो एकदम सीने तक महसूस होता है, उससे भी अजीब बैचेनी होने लगती है। 2015 में ही ठीक यही समय रहा होगा, गणेश पूजा खतम होने को थी। तब दीदी राज्य सिविल सेवा परीक्षाओं की लिखित परीक्षा देने आई थी तो मेरे साथ थी, उस समय दीदी प्रेगनेंट थी, शायद पांचवां या छठा महीना होगा, प्रेगनेंसी में वैसे भी मूड स्विंग होता ही है। एक दिन शाम को मैं कहीं बाहर था, दीदी का रोते हुए फोन आया, कहने लगी कि डीजे की आवाज से बहुत दिक्कत हो रही, इस कदर रो रही थी मानो घर में कोई दैत्य घुस आया हो और वो वहां से जान बचाकर बाहर निकलना चाहती हो, मानो बचाओ-बचाओ की आवाज लगा रही हो। शुरूआत में स्थिति की गंभीरता को समझ ही नहीं पा रहा था, मुझे लगा कि सामान्य है, डीजे ही तो है, लेकिन आप कितना भी खिड़की दरवाजा बंद कर लीजिए, पाॅवर डीजे खिड़की तोड़कर आपके शरीर तक पहुंच जाता है, पूरा झकझोर देता है। और एक गर्भवती स्त्री को तो और अधिक प्रभावित करता है। उस दिन मैंने इस डीजे के प्रकोप को बहुत करीब से महसूस किया। तब आनन फानन में अपना काम छोड़कर तत्काल घर पहुंचा और दीदी को आधे एक घंटे के लिए बाहर एक शांत क्षेत्र में ले गया। जब जब डीजे गुजरता, कई दिनों तक शाम को हम यही करते, पास के एक शांत से इलाके में जहां एक पार्क था, कुछ देर वहां समय बिताने चले जाते। 

डीजे का यह प्रकोप अभी भी बदस्तूर जारी है। पाॅवर डीजे की आवाज (डेसिबल में) हर गुजरते साल पहले से अधिक बढ़ती ही जा रही है, क्योंकि इनकी प्रतियोगिता रहती है कि जिसकी आवाज सबसे कानफोड़ू हिला देने वाली होगी, वही रैली का विजेता घोषित होगा। एक ओर जहाँ इस डीजे से सैकड़ों हजारों लोगों का रोजगार जुड़ा है, वहीं दूसरी ओर हर साल अप्रत्याशित घटनाएं भी सामने आती है, जिसमें लोगों को अस्पताल में भर्ती तक होना पड़ा है, पता नहीं इसका क्या दूरगामी समाधान निकलेगा। वैसे डीजे से इतर रोजमर्रा के दिनों की भी बात करें तो आज के समय में रायपुर में ध्वनि प्रदूषण इतने चरम पर है कि इस शहर का भूस बन चुका है, थोड़ा बाहर निकलते ही मानसिक शारीरिक थकान हावी होने लगती है, भले लोगों को यह सब एक बार में महसूस नहीं होता है। हम कभी अलग से ध्वनि प्रदूषण को एक गंभीर समस्या के तौर पर देखते भी तो नहीं है। हां, इसमें हम यह जरूर कहते हैं कि शहर में समय का पता नहीं चलता, लेकिन इसमें यह नहीं समझ पाते कि यह सब ध्वनि प्रदूषण की वजह से होता है। खासकर गर्भवती महिलाओं, छोटे बच्चों और बुर्जुगों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है लेकिन कौन इतनी पड़ताल करे। ध्वनि प्रदूषण युक्त शहर में रहने वाला एक व्यक्ति आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो गांवों या शांत छोटे कस्बों की तर्ज पर यह कह दे कि समय ही नहीं कट रहा है, क्योंकि मन मस्तिष्क में प्रदूषण इतना हावी होता है कि उसे समझ ही नहीं आता है कि उसके पास समय है भी या नहीं, पूरी दैनिक जीवनचर्या आजीवन अस्त व्यस्त रहती है, कुछ न होके भी एक भागमभाग लगी रहती है, जी मचलता रहता है। और एक दिन किसी दीमक की तरह शहर रूपी दीवार में ही व्यक्ति मिट्टी बनकर खाक हो जाता है।


Friday, 29 September 2023

भोजन के प्रति सहजता

अपने उद्भव के समय से ही मनुष्यों के लिए नियमित भोजन पाना एक चुनौती रहा है। इसलिए उसने एक जगह रहकर व्यवस्थित तरीके से खेती करना शुरू किया ताकि उसे नियमित रूप से भोजन मिल सके। 1970-80 के दशक के लोग जो अभी 50 वर्ष या उससे अधिक उम्र के होंगे, उनमें और उसके बाद की पीढ़ी में एक बहुत बड़ा अंतर भोजन को लेकर दिखता है। पुरानी पीढ़ी के लोग भोजन के समय को लेकर बहुत सजग रहते हैं क्योंकि उन्होंने भोजन पा लेने के पीछे के संघर्ष को इस पीढ़ी से कहीं ज्यादा देखा है। तब के समय में समाज के हर एक वर्ग के लिए इतना आसान नहीं हुआ करता था कि उसे दो वक्त का भोजन भरपूर पोषक तत्वों के साथ मिल सके, अभी की तरह भोजन में दो तीन सब्जियाँ और सलाद, दिन में दो तीन बार नाश्ता, या जो मन किया बाहर हल्का फुल्का कुछ खा लेना होता ही नहीं था, विकल्प ही मौजूद नहीं थे। मितव्ययी समाज रहा, और तब क्रयशक्ति भी सीमित थी, विनिमय जोरों पर था क्योंकि वैसी सामाजिकता थी और उसके अपने बहुत फायदे थे, अगर किसी प्रकार की कोई कमी या गरीबी थी, उसे वह एक समय के बाद साध लेता था, हड़बड़ी नहीं थी, उस स्थिति में भी मनुष्य के पास इतना आत्मबल था कि वह ठीक-ठाक तरीके से जैसे-तैसे जीवन यापन कर लेता था, उसे टूटने बिखरने नहीं दिया जाता था।

साधन सीमित थे और उसी में से ही भोजन पाना होता था और प्रकृति के खिलाफ जाकर कोई क्रूरता नहीं की जाती थी, मशीनें हावी नहीं हुई थी तो भोजन हमेशा से संघर्षों के बाद मिलने वाली चीज रही। तब हाइब्रिड नामक जंजाल शुरू नहीं हुआ था तो जिस मौसम में जो मिल जाता था उसी का सेवन कर लिया जाता था लेकिन 1991 के उदारीकरण के दौर के पश्चात् भारत के कृषि आधारित समाज में आमूलचूल बदलाव देखने को मिले, भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के सामने खोल दिया, जिसका सीधा प्रभाव हमारे भोजन पर, संस्कृति पर, या यूं कहें सीधे हमारी जीवनशैली पर पड़ा। जिस आर्थिक-सामाजिक संस्कृति को हजारों वर्षों से लोग पोषित, संवर्धित कर अगली पीढ़ी को स्थानांतरित कर रहे थे, वह पिछले दो दशकों में ही आज हाशिए पर है। बहुत ही कम समय में अमीरी का दूसरा नाम मुद्रा का अधिक से अधिक संकलन हो गया। रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बाजार पर हमारी निर्भरता आसमान छू रही है, श्रम नेपथ्य में है। 

अभी के समय में भोजन आपको हमको एक क्लिक में उपलब्ध है। आप अपने फोन में एक क्लिक करते हैं और किसी जादू की तरह बाहर से डिब्बा बंद खाना आपके लिए तैयार होकर आ जाता है। इससे पहले कभी मनुष्यों के लिए भोजन इतनी सहज वस्तु नहीं हुई। लोग बाहर का खाना क्या होता है यह जानते तक नहीं थे। शायद कहीं घूमने निकल गए तो महीने में कभी बाहर खा लिया तो बहुत बड़ी बात होती थी, वरना कहीं घूमने भी जाते थे तो अपने भोजन के लिए साजो-समान और उतने दिन का राशन, ये सारी चीज़ें अपनी गाड़ी में लेकर चलते थे। वैसे कुछ लोग, जिसमें पुरानी पीढ़ी के लोग शामिल हों, अभी भी इस परंपरा का निर्वहन करते हैं। अभी कल ही एक भरी हुई बस रास्ते में दिखी, पूछने पर मालूम पड़ा कि वे लोग सप्ताह भर के लिए तीर्थाटन करने निकले हैं। सबसे बढ़िया बात यह कि वे भोजन की पूरी व्यवस्था लेकर चल रहे हैं, बड़े-बड़े डेक में चालीस पचास लोगों के लिए रोड के किनारे ही एक जगह खाना बन रहा था, साथ में दो तीन खानसामा भी थे, खाने की खुशबू भी बिल्कुल वैष्णव पध्दति की तरह ठीक वैसी जैसे आपको किसी मंदिर या भंडारे में मिलती है। और उस बस में सफर करने वालों में हर उम्र के लोग दिखे, अच्छा लगा कि कम से कम बच्चों की स्मृति में यह संस्कृति समाहित हो रही है। देखकर खुशी हुई कि थोड़ा ही सही लोग कहीं भी जाएं, भोजन पकाकर खाने की यह संस्कृति अभी भी अपने स्तर पर निभा रहे हैं।

अभी वर्तमान में जहां बाहर का खाना खाना हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है ऐसी स्थिति में समय पर भोजन कर लेना एक उपलब्धि की तरह हो चुका है। भाग दौड़ और हाइब्रिड रूपी गलाकाट प्रतियोगिता के इस जमाने में जहां हर मौसम में दूसरे मौसम की सब्जियां उपलब्ध है, हर ताजे मौसमी फल का जूस डिब्बों में बंद होकर वर्ष भर उपलब्ध है। ऐसे में नियत समय पर अच्छा भोजन ग्रहण करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। इस एक चुनौती ने तो मानो अमीर और गरीब का भेद ही खत्म कर दिया है, लोगों को समझ ही नहीं आता है कि वह भोजन के रूप में क्या ग्रहण करने जा रहे हैं। जब से भोजन मिलना जितना अधिक सर्वसुलभ हुआ है उसके प्रति उतनी अधिक उदासीनता बढ़ी है। आज ऐसी स्थिति है कि लोगों के पास अमीरी तो आई है ( खैर, मेरी नजर में तो गरीबी और गुलामी का तरीका बस बदला है ), क्रयशक्ति बढ़ी है, मुद्रा का प्रवाह बढ़ा है, मशीनों से हम घिर चुके हैं, लेकिन हमारा आत्मबल बेहद कमजोर हुआ है, हमारा धैर्य तुरंत जवाब देने लगता है।

शरीर का अपना मेकेनिज़्म अद्भुत है। जैसे हम शरीर को कोई भोजन देते हैं, शरीर की जैसी व्यवस्था है, वह उस हिसाब से उस भोजन से अपनी काम की चीज उठा लेता है, और बाकी फेंक देता है, जरूरी नहीं कि वह हमेशा काम की चीज संपूर्णता में लेता हो। ये ठीक उसी तरह की व्यवस्था है, जैसे हमारे यहाँ एक तकिया कलाम चलता है कि " सुनो सबकी, करो अपनी "। यानि आपने जैसे विचार के स्तर पर किसी की पूरी बात सुनी, लेकिन आपने अपनी जरूरत के हिसाब से, उस समय आपकी जैसी समझ और क्षमता रही उस लिहाज से अपने काम की चीज उठा ली, बाकी छोड़ दिया। शरीर की पूरी आंतरिक व्यवस्था ऐसे ही चलती है। आप ढेरों पोषकतत्व वाली चीजें शरीर को देते रहिए, अगर मन शरीर और ये पूरी व्यवस्था एक लय में नहीं है तो वह उन पोषकतत्वों को किसी अच्छे विचार को सुन कर अनसुना कर देने की तर्ज में निकाल बाहर करता रहेगा।

कैलोरी कार्ब फैट आदि नापने के लिए मोबाइल में एप्प आ चुका है, मनुष्य खुद अपनी एक-एक गतिविधि की सतत् माॅनिटरिंग करा रहा है। भोजन की सर्वसुलभता इस हद तक अपने चरम पर है कि हम क्या भोजन करते हैं इसकी कैलोरी भी नापने लगे हैं, कितने तरह के विटामिन अपने शरीर को दे रहे हैं इसकी भी गणना करने लगे हैं। तकनीक की इंतहाई कहिए कि वह शरीर की प्राकृतिक व्यवस्था तक को चुनौती दे रहा है। लेकिन क्या सचमुच इस सबसे हमको कोई दूरगामी लाभ हो रहा है, क्या हमें और हमारे शरीर को वास्तव में सही पोषक तत्व मिल पा रहे हैं, क्या हम वास्तव में एक स्वस्थ शरीर को धारण कर रहे हैं, क्या सचमुच हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है, इतनी तकनीक और सुविधाओं के बावजूद क्या हम समय पर भोजन कर पा रहे हैं, क्या हम जीवन के प्रति सहज हुए हैं, अगर ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है तो यह वाकई चिंता का विषय है जिस पर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।



Sunday, 24 September 2023

काइयां है जरूरी

एक परिचित हैं। उम्र में मेरे ठीक दुगुने हैं। गजब मेहनती, तंदुरूस्त, भोजन और स्वास्थ्य के प्रति गजब की सजगता। लेकिन शायद मेरे अलावा दुनिया का हर दूसरा आदमी इन्हें जमकर गरियाता है। अगले का स्वभाव ही ऐसा है। कुछ समय तक मैं भी इन्हें गरियाने वालों में से एक था लेकिन अब मैं ऐसा बिलकुल नहीं करता हूं। और ये हमेशा पता नहीं क्यों खासकर मेरे से अच्छे से सहज होकर पेश आते हैं, मैं भी उनका बराबर सम्मान करता हूं।

अब गरियाने की वजह पर आते हैं। एक शब्द होता है "काइयां"। तो आजतक आपने जितने भी काइयां अपने अभी तक के जीवन में देखे होंगे, ये उनके भीष्म पितामह हैं। छोटे-छोटे ठेले वालों को इतना तंग कर देते हैं कि अगला विवश होकर इन्हें छूट दे देता है, जबकि इनकी मासिक पेंशन उस ठेले वाले की कुल वार्षिक आय से अधिक होगी। लेकिन इनसे कौन जीते। अभी हाल ही में शहर में एक जगह दृष्टिबाधित लोगों का शिविर लगा, उन सभी के लिए भंडारा लगा था, इनको पता चल गया, ये उसमें भी भोजन करने चले गये और यह जानकारी उन्होंने खुद मुझे दी कि फलां जगह भोजन करके आया हूं, स्वादिष्ट खाना था। अब यह सुनकर मैं मुस्कुरा ही सकता था। 

हममें से लगभग हर कोई सब्जियां लेने बाजार जाता है। ये महाशय हमेशा शाम को ठीक दिन ढलने के वक्त जाते हैं, कारण आप समझ गये होंगे, उस दौरान हर कोई बाजार समेट रहे होते हैं तो बची खुची सब्जियां मुंह मांगी कीमत पर बहुत सस्ते में मिल जाती है। जब से मुझे यह तथ्य पता चला, मैं इस तथ्य की गहराई पर गया तब मैंने सोचा कि इन जैसे लोगों का भी समाज में होना बेहद जरूरी है, ये अगर नहीं होंगे तो उन सब्जियों का उपयोग आखिर कौन करेगा। उस दिन से मैंने उन्हें गरियाना छोड़ दिया और उनका प्रशंसक बन गया। सनद रहे, एक काइयां कभी भोग नहीं करता, और इसलिए एक काइयां व्यक्ति जब दुनिया छोड़ कर जाता है तो सबसे अधिक पूंजी दूसरों के लिए पीछे छोड़ जाने वाला वही होता है। 

Thursday, 21 September 2023

My take on CGPSC 2022 Controversy

राज्य लोक सेवा आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष साहब ने असल में कुछ नया नहीं किया है। परंपरानुसार ही काम किया है‌‌। हां, ये जरूर है कि अति की है। हर कोई अपने बच्चों के लिए रास्ते बनाता है, यह सर्वविदित है, हर कोई करता है। लेकिन कोशिश ये रहती है कि मामला कम से कम विवादित रहे। जैसे इन्होंने सबको सीधे डिप्टी कलेक्टर का पद दे दिया, ठीक उसी तरह कई लोग अपने बच्चों के लिए किसी विभाग से आजीवन टेंडर का मामला सेट कर देते हैं या व्यापार संबंधी कोई और विकल्प तैयार कर देते हैं। लेकिन उसमें विवाद कम होता है, क्योंकि वहां प्रतियोगिता कम है। ठीक वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं में, जिसमें जाने के लिए लाखों लोग अपना पैसा, अपनी जीवनी ऊर्जा फूंक रहे हैं, मारकाट मची हुई है, उसमें भी सबसे हनक वाले मलाईदार पदों को छीन के ले लेना वाकई हिम्मत का काम है, या यूं कहें कि दोयम दर्जे का काम है। पहले भी यह होता रहा है लेकिन इस बार इतना खुल के सामने आने का कारण यह भी है कि साहब सबको पीएससी से चयन करवा दिए, एक दो को ठेका दिलवा देते, एनजीओ वगैरह का मामला सेट कर देते, थोड़ा मामला बैलेंस रहता। लेकिन अब सबका अपना-अपना तरीका है, अपनी-अपनी भूख, कोई किसी की मानसिकता तो नहीं बदल सकता है। असल में जब किसी व्यवस्था में भले वह जुगाड़ की हो या ईमान से काम करने की, जो एक परंपरा बन जाती है, उस परंपरा को तोड़ना इतना आसान नहीं होता है, जो भी आता है, उसी परंपरा के मुताबिक काम करता है। अभी संभवतः चुनाव के बाद जो भी नये वाले अध्यक्ष पद पर आएंगे वे भी कुछ नया नहीं कर देंगे, हो सकता है प्रतिशत में इनसे कम जुगाड़ वाली परंपरा का निर्वहन करें। लेकिन चलेगा वही जो चलता आ रहा है। बाकी देखते हैं पुराने वाले साहब के लिए प्रभु की झोली में क्या है।




हाईकोर्ट ने पीएससी मामले में क्या किया - चयन पर सवाल उठाया और कड़ी टिप्पणी की। अब इस कड़ी टिप्पणी में भी अगर अभ्यर्थियों को न्याय होता दिखता है तो इस पर अब क्या ही कहा जाए। " हाइकोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की, शर्म करो पीएससी" यह वाक्य कहकर विपक्षी नेता भी सोशल मीडिया में खानापूर्ति कर छात्रों की भावनाओं का मखौल बना रहे हैं। सब कोई अपनी दुकानदारी में व्यस्त हैं, छात्र हताश निराश परेशान, उसे समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर क्या ही करे। हाईकोर्ट भी मनोरंजन देने में, इस जख्म को नासूर बनाने में कोई कमी नहीं कर रहा है। जज का इस पूरे मामले में भोले मासूम की तरह " अरे! ये तो बहुत गलत बात है " ऐसा कहना न्याय की आस लिए लोगों के मुंह में जोरदार तमाचा है। छात्र तो मानों इनके लिए कीड़ा मकोड़ा है, मतलब एकदम तमाशा बना दिए हैं। गांधी बाबा कोर्ट को ऐसे ही नहीं गरियाता था। इस देश में पीएससी व्यापम सरकारी संस्थाओं से सबसे अधिक भ्रष्ट कोई है तो वो न्यायपालिका है। इस सच को जितनी जल्दी स्वीकार लें, सेहत के लिए उतना ही बेहतर।

अगली सुनवाई - 5 अक्टूबर 
आचार संहिता - 6 अक्टूबर ( संभवतः )

सुनवाई की तारीख भी मजेदार है, ठीक आचार संहिता के एक दिन पहले। इसी से अंदरखाने की हकीकत को देखा समझा जा सकता है, खैर। दो सप्ताह का समय, अंदरखाने में खूब उठापटक होगी, जाँचकर्ता कौन- राज्य शासन, इन्हीं के हाकिम इन्हीं के मुल्ज़िम वाली बात, सो चमत्कार की उम्मीद तो कम है, लेकिन कुछ भी हो सकता है। कुल मिला के अब मामला बहुत दिलचस्प हो गया है, अब देखना यह है कि क्या कोर्ट सुनवाई को किसी ठोस फैसले में तब्दील करेगा या हमेशा की तरह स्वांत: सुखाय की तर्ज पर राज्य शासन की जय करते हुए खुद को किनारे कर लेगा।

नितेश के पिता का नाम राजेश है, वह टामन सोनवानी का पुत्र ही नहीं है, शिक्षाकर्मियों का उध्दार करने वाले अधिवक्ता सिद्दीकी साहब के इस इस्तक्षेप याचिका से jolly llb फिल्म याद आ गई। जिसमें अरसद वारसी बेबस होकर कहता है कि कार ने नहीं ठोकी थी जज साहब, वो तो ट्रक था, जो कि एक साल बाद ट्रेन हो जाएगा। इसी तर्ज पर कल जाकर देश काल परिस्थिति को देखते हुए नितेश भाई को अनाथ भी घोषित किया जा सकता है और प्रज्ञा नायक नारी निकेतन से गोद ली हुई बालिका भी बनाई जा सकती है।




सोनवानी साहब ने जो किया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। इस वाक्य को पढ़कर शायद बहुत लोगों को व्यक्तिगत होकर मुझे अपशब्द कहने का खूब मन करेगा, कह भी सकते हैं, आपके विवेक पर, लेकिन यह भी ध्यान रखें कि जिसे आप अपशब्द कहेंगे उसने पिछले दस साल में आपसे बड़े बड़े भुक्तभोगी देखे हैं जिनका जीवन ही तबाह कर दिया गया, या जो भले आज व्यवस्था में किसी पद पर हैं, लेकिन उन्हें नंबर ही नहीं दिया गया, वरना वे आज किसी और पद पर होते। आज से दस पंद्रह साल पहले भी लोग आवाज उठाते थे कि आखिर इतना अच्छा पेपर लिखने के बावजूद कैसे इतना कम नंबर मिला, इंटरव्यू में इतना कम कैसे दिया, लेकिन उस समय ऐसे लोगों को जमकर अपमानित किया जाता था, उनकी योग्यता पर सवाल खड़ा किया जाता था, जबकि वे उस समय वही कर रहे थे, जो आज अधिकतर लोग सोशल मीडिया में कर रहे हैं, इस पूरी व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल पिछले बीस साल से उठाए जा रहे हैं, नया नहीं है। इंटरव्यू में इस बार एक जिस अभ्यर्थी को बुलाया ही नहीं गया, ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं, ये कोई नई घटना नहीं है, जो पहली बार देख रहा है, जाहिर है उसे आश्चर्य होगा ही। 2003 से कम अधिक यही चल रहा है लेकिन कभी ऐसे खुलकर इतना उजागर नहीं होता था, और तब तो सोशल मीडिया भी नहीं था तो लोगों को उतना पता ही नहीं चल पाता था। प्री तक पास नहीं किए रहते ऐसे लोगों का भी चयन होता रहा है, एक बार हाईकोर्ट ने दबोचा था तो चयनित छात्र सुप्रीम कोर्ट से मामला सेट करवा लिए। आप क्या ऐसे लोगों से लड़ लेंगे जो सुप्रीम कोर्ट का भी इस्तेमाल कर लेते हैं, आप नहीं लड़ सकते हैं, भाई हमारी हैसियत नहीं कि अपना परिवार, अपना जीवन दांव पर लगाकर इनसे लड़ लें, आपकी पहुंच है तो आप लड़ लें। दूसरी बात ये कि अगर आपकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि कमजोर है, आपकी पहुंच नहीं है, आप भरसक तैयारी कर लें, आपको नीचे किया ही जाएगा, ये विधान है, और यही रहेगा। आप व्यवस्था को नहीं बदल सकते हैं। 

सोनवानी साहब ने इसी व्यवस्था के परंपरानुसार खुल कर ठोक पीट के काम करते हुए व्यवस्था रूपी इस पूरे मवाद को सबके सामने लाने का काम किया है, जो काबिल ए तारीफ है। उन्होंने अपने काम से यह दिखाया है कि भैया ऊपर से लेकर नीचे पूरी व्यवस्था ऐसी ही है और आज नहीं तो कल आपको इस कटु सत्य को स्वीकारना ही पड़ेगा। सोनवानी साहब ने एकदम ठेठ देसी अंदाज में काम किया इसलिए सब कुछ सामने दिख गया, यूपीएससी जैसी संस्थाओं में इनके गॉडफादर बैठे रहते हैं जो इनसे कहीं अधिक शातिर होते हैं, वे पूरी सेटिंग कर स्वर्ग भी सिधार चुके होंगे लेकिन उन्होंने कितनों का जीवन तबाह किया होगा, ये शायद आपको हमको इस जन्म में पता ही नहीं चले, तो उनकी तुलना में तो सोनवानी साहब बहुत ईमानदार हैं, कम से कम इनका किया धरा सब कुछ आपको हमको सामने दिख तो रहा है। 

अस्तु।

Sunday, 17 September 2023

Psychological similarities in approaching cgpsc mains and engineering theory exams -

इंजीनियरिंग के फाइनल सेमेस्टर में मुझे 83% मिला था। कैसे मिला, यह खुद मेरे लिए आजतक जाँच का विषय है। क्योंकि मैंने ऐसे ऐसे उत्तर लिखे थे कि अगर मेरा पेपर आउट किया जाए तो अभी जो राज्य सेवा परीक्षाओं में "आईने दहशाला" का उत्तर वायरल हो रहा है। कुछ एक वैसा मिल जाएगा, स्तर उससे बेहतर होगा, उतना हवा हवाई भी नहीं होगा, खैर। और ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं था, एक बहुत बड़ी आबादी यही करती थी, इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अपवाद स्वरूप बहुत लोग वास्तव में मेहनत भी करते थे, लेकिन उसके बदले उन्हें वैसा मिलता नहीं था। पेपर में फेंकने की स्किल की बात करें तो ये एक दिन में डेवलप नहीं हुई, ये कला भी मुझे देर से समझ आई। 

हमारे सीनियर्स कहा करते - देखो बालक, अपराधबोध तो होगा लेकिन पूरा पेपर भर के आना है, जो पढ़ के गये हो, उसे ही मिला जुला के लिख आओ, कहानी गढ़ो, चेक करने वाले को उलझाओ, उसे भी काम निपटाना है और तुम्हें भी। पेपर के शुरूआती पेज में पूरी ईमानदारी से उत्तर लिखो, यहाँ फेंकने का काम थोड़ा भी न हो, यह सुनिश्चित करो। फेंकने का काम वहाँ शुरू करो जहाँ चेक करने वाले की आंखें थकने लगे, वहां उसे छंकाओ। बड़े प्रश्नों में भी शुरूआत और अंत सही रखो, बीच में खेलो। लेकिन अंतिम लक्ष्य यह कि पेपर भरा हुआ दिखना चाहिए, गंभीरता दिखनी चाहिए कि तुम्हें थोड़ा थोड़ा सब आता है, दिखना चाहिए कि तुमने प्रयास तो किया, मैदान छोड़कर भागे तो नहीं, और पेपर बहुत ज्यादा भी नहीं भरना है लेकिन खाली भी नहीं दिखना चाहिए और यह सब काम सुंदर राइटिंग में करो। सीमित समय रहता है, ज्यादा माथापच्ची करोगे, ईमानदारी से लिखूंगा सोचोगे तो कभी पूरा पेपर ढंग से लिख ही नहीं पाओगे, ह्यूमन ब्रेन की वर्किंग केपेसिटी को समझो, पेपर चेक करने वाले भी इस हकीकत को जानते हैं, इसलिए वे भी काम चलाओ वाले मोड में रहते हैं। यही हकीकत है पार्थ, इस हकीकत को स्वीकारो और अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ो। 

यहाँ आप देखेंगे कि राज्य सेवा परीक्षाओं की मेंस की तैयारी में और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में पेपर लिखने के पीछे के इस मनोविज्ञान में काफी समानताएं हैं। पिछले कुछ सालों में इंजीनियरिंग क्षेत्र के बहुत सारे लोगों का सिविल सेवा में चयन होने का कारण गणित नहीं बल्कि ये कला है, जिसमें वे बहुत पहले से निपुण होते हैं, जिस कला को सीखने में एक नाॅन-इंजीनियरिंग छात्र को काफी समय लग जाता है। मैंने भी जब यह कला सीखी तो तब तक काफी देर हो चुकी थी, छठवां सेमेस्टर आ चुका था। तब लाइब्रेरी में बैठकर जहाँ सब कोई इंजीनियरिंग की किताबें पढ़ा करते, मैंने नावेल चाटना शुरू किया, चूंकि हिन्दी मीडियम का छात्र रहा और पेपर अंग्रेजी में लिखना होता, तो भाषा की मजबूती पर, उसकी स्वच्छता पर काम किया। क्योंकि पेपर भरने के लिए भी एक अच्छा कहानीकार होना जरूरी है, और उसके लिए आपके पास एक कसी हुई भाषा का होना बेहद जरूरी है। इसलिए जैसे ही कालेज खत्म होता, लाइब्रेरी में जाकर बैठ जाता, मैंने उस दौरान खूब नावेल पढ़े, हर तरह के नावेल पढ़े, कोर्स बुक पढ़ने वाले कोई दोस्त यार पास से गुजरते तो हंसा करते कि अबे साले सप्ताह भर बाद पेपर है, रात को यहां बैठ के ये क्या पढ़ रहा है। इंजीनियरिंग के आखिरी सेमेस्टर तक मैं इस विद्या में निपुण हो चुका था, और जब मैंने इस विद्या का बढ़िया से उपयोग किया तो इसके परिणाम मेरे सामने थे। वो दिन है और आज का दिन है, तब से मैंने इस कला का उपयोग हमेशा के लिए बंद कर दिया।

Wednesday, 13 September 2023

Mantak Chia wisdom words

Que. If the goal is to build up one's sexual energy, what's the harm of sleeping with a lot of different women (or men) to increase your Life energy? 

Ans : The goal is not to build up one's sexual energy—it is to transform raw sexual energy into a refined subtle energy. Sex is only one means of doing that. Promiscuity can easily lower your energy if you choose partners with moral or physical weakness. If you lie with degenerates, it may hurt you, in that you can temporarily acquire your partner's vileness. By exchanging subtle energy, you actually absorb the other's substance. You become the other person and assume new karmic burdens. This is why old couples resemble each other so closely: they have exchanged so much energy that they are made of the same life-stuff. This practice accelerates this union, but elevates it to a higher level of spiritual experience.  So the best advice I can give is to never compromise your integrity of body, mind and spirit. In choosing a lover you are choosing your destiny, so make sure you love the woman with whom you have sex. Then you will be in harmony with what flows from the exchange and your actions will be proper. If you think you can love two women at once, be ready to spend double the life energy to transform and balance their energy. I doubt if many men can really do that and feel deep serenity. For the sake of simplicity, limit yourself to one woman at a time. It takes a lot of time and energy to cultivate the subtle energies to a deep level. It is impossible to define love precisely. You have to consult your inner voice. But cultivating your life energy sensitizes you to your conscience. What was a distant whisper before may become a very loud voice. For your own sake, do not abandon your integrity for the sake of physical pleasure or the pretense that you are doing deep spiritual exercises. If you sleep with one whom you don't love, your subtle energies will not be in balance and psychic warfare can begin. This will take its toll no matter how far apart you are physically until you sever or heal the psychic connection. It's better to be honest in the beginning. For the same reason make love only when you feel true tenderness within yourself. Your power to love will thus grow stronger. Selfish or manipulative use of sex even with someone with whom you are in love can cause great disharmony. If you feel unable to use your sexual power lovingly, then do not use it at all! Sex is a gleaming, sharp, two-edged sword, a healing tool that can quickly become a weapon. If used for base purposes, it cuts you mercilessly. If you haven't found a partner with whom you can be truly gentle, then simply touch no one. Go back to building your internal energy and when it gets high you will either attract a quality lover or learn a deeper level within yourself.

Monday, 4 September 2023

135 days around india - A Film

 About the Film

Compiling such long journeys in a form of film is indeed a complicated task, but somehow i made it. This film is a tale of a 135-day odyssey that spanned 16,000+ kilometers, touching 11 states across India. It takes u on an extraordinary journey, not merely across geographical landscapes or historical monuments, but into the depths of the human experience.

I witnessed the ever-changing landscapes, from the majestic Himalayas to the sun-kissed dry terrains, remote villages to bustling metro cities. But this film is not just about the picturesque beauty of India; it's about the people i encountered along the way. Each state has its own unique culture, language, food and hospitality. The film captures the essence of these interactions, as strangers become friends and stories intertwine.

This film is a tribute to the indomitable human spirit, the unquenchable thirst for adventure, and the courage to embrace the unknown. It is a metaphor for the relentless pursuit of one's dreams, the willingness to break free from the ordinary, and the discovery of the extraordinary within.

In the end, this cinematic piece leaves u with a profound sense of wonder and inspiration. It will remind u that the world is vast and full of untold stories, waiting for those brave enough to embark on their own epic journeys. The film on my 135-days long, All India solo winter ride is a testament to the human spirit's boundless capacity to explore, to endure, and to find meaning in the adventure called life.

Stay tuned....




Monday, 24 July 2023

एक धूर्त ऐसा भी -

किसान आंदोलन के बाद किसी एक लिखी बात को बेवजह मुद्दा बनाकर मुझे पुलिस की धमकियाँ मिलने लगी थी। मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हो क्या रहा है। मैं इतनी सी बात को लेकर स्पष्ट था कि मैंने अपनी तरफ से कोई गलती नहीं की है इसलिए मैं टिका रहा। लेकिन बात वही है, हैं तो हम इंसान। सामान्य जीवन चलता रहता है, पुलिस का जबरन फोन आए तो इंसान के मन मस्तिष्क में उथल पुथल होती ही है, सेल्फ डाउट होता ही है, मुझे भी हुआ। अपने स्वजनों से बातें की। इसी समय एक ऐसे व्यक्ति जिन्हें मैं अपना स्वजन समझता रहा। उनका असल चाल चरित्र समझ आने लगा। मुझे आज भी यकीन नहीं होता है कि दुनिया में इस तरह के हिंसक लोग भी होते हैं। 

जो वास्तव में मेरे अपने करीबी रहे उन्होंने यही कहा कि अपना ख्याल रखो, सब सही होगा, तुम संभाल लोगे। लेकिन ये जो महान व्यक्ति जिन्हें मैं अपना करीबी मानता रहा। उन्होंने‌ मुझे ऐसी-ऐसी सलाहें दी कि मैं और घबरा जाऊं। चीजों को और जटिल कर मुझे और अधिक अवसाद में ढकेलने की पूरी तैयारी करने लगे। तब समझ आया कि ऐसे लोग किसी की समस्या को कैसे अपने फायदे के लिए भुनाते हैं। ऐसा करने के लिए असल में बहुत मोटी चमड़ी चाहिए होती है। उन्होंने कहा था - अगर तुमने कुछ गलत किया ही नहीं है तो बराबर पुलिस से बात करो और उनके सामने और झुक जाओ, खैर मैंने उनकी किसी बात पर अमल नहीं किया। मेरा तर्क यही रहा कि जब मैंने कुछ किया ही नहीं है तो क्यों किसी को जवाब दूं, मेरी गलती है तो आकर मेरे खिलाफ कार्यवाई कर लें, मेरी अंतरात्मा ने आखिर तक यही कहा और इसी ने मुझे संभाला भी। 

जिनको करीबी मानता रहा उन्होंने तो एक दिन यह तक सलाह दे दी कि फलां जेल चले जाओ, हम भी जेल में रहे हैं, तुम्हारे लिए एक बढ़िया जेल की व्यवस्था कर देते हैं, बढ़िया मौज करके आओ, बस रह के आओ, माहौल देख के आना बढ़िया, नया अनुभव रहेगा। मैं उनकी यह बात सुनकर हैरान था। मैंने उस वक्त यही सोचा कि एक तो सामने वाला समस्या में है, भयानक उलझन में है, उसमें भी जो व्यक्ति आपको अलग-अलग अनुभव देने के नाम पर जेल में रहने की सलाह दे रहा है वह सब कुछ हो सकता है, आपका करीबी आपका शुभचिन्तक तो हो ही नहीं सकता। एक बात और समझ आई कि जो आपका अपना है वह कभी आपके निजी जीवन में दखल नहीं देता है, आप पर भरोसा करता है कि आप संभाल लेंगे, अदृश्य रूप से वह आपके साथ रहता है, उसकी दुआएं आपके साथ रहती है।

फिर धीरे-धीरे मैंने इस महान आत्मा से दूरी बना ली, इसको फुटेज देना बंद कर दिया। इसने जबरन एक दो बार और मेरे व्यक्तिगत जीवन में दखल देने की कोशिश की, लेकिन मैंने अपने सारे दरवाजे इस जैसों के लिए हमेशा के लिए बंद कर दिए। वैसे, ये महान आत्मा अभी भी मेरी फेसबुक में जुड़ा हुआ है, लेकिन इसे तूल देना बंद कर दिया है। अगला भी देखता सब है, बस अब मेरी पोस्ट लाइक नहीं करता। क्योंकि इसको ये समझ आ गया कि मैं इसकी सारी करतूतें समझ चुका हूं। अभी की स्थिति यह है कि ये अब बहुत अधिक बीमार हो चुका है, दिवालिएपन की स्थिति में जा चुका है, चेहरे के हाव-भाव से आजकल खुलके दिखता भी है। लेकिन ये आज भी लोगों के जीवन में घुसकर ऐसे ही चरस बोते रहता है, उनको ऐसे ही गलत सलाह देकर फंसाता है, लेकिन वो कहते हैं न, धूर्तता की भी अपनी एक उम्र होती है, उम्र हो चुकी है, उसके दिन लद चुके हैं। ऐसे लोगों की धूर्तता को समाज अपने आप देर सबेर पहचान ही लेता है, और यही हो भी रहा है, लोग इसे किनारे करने लगे हैं। और यही होना भी चाहिए। कचरे को एक समय के बाद डंप कर देने में ही भलाई होती है। 

Sunday, 2 July 2023

गपोड़ी और सोने का पिंजरा - एक लघुकथा

प्राचीन समय में एक बहुत विख्यात गपोड़ी हुआ करता था। थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा था तो हर किसी को अपने गप्प का शिकार बना लेता। लोगों को अपनी बातों से फुसलाकर, उनके सामने झुककर उनका विश्वास जीत लेता और अंत में उन्हें धोखा‌ देकर गायब हो जाता। इसी तरह उस गपोड़ी ने झूठे तरीके से एक दूसरे नगर की राज कन्या से विवाह भी कर लिया। समय के साथ राज कन्या को गपोड़ी की हकीकत पता चलती गई। अब गपोड़ी उस कन्या से पीछा छुड़ाने के तरीके खोजने लगा लेकिन चूंकि उसने पहले ही अलग अलग नगरों में बहुत लोगों को अपने गप्प का शिकार बनाया था तो उसके लिए सारे रास्ते पहले ही बंद हो चुके थे। राजकन्या ने अपने दरबानों को आदेश दिया कि गपोड़ी को नगर से बाहर कहीं भी जाने की इजाजत न दी जाए। बाहर जा नहीं सकता था, और अंदर मिलने वाली राजसी सुविधाएं, उसे छोड़ नहीं सकता था। कुछ इस तरह गपोड़ी सोने के पिंजरे में हमेशा के लिए कैद हो गया।

समाप्त।

Sunday, 25 June 2023

डेवलपमेंट सेक्टर की नंगी हकीकत -

डेवलपमेंट सेक्टर यानि समाज सेवा। इसमें आप छोटा बड़ा एनजीओ चलाने वाले, बिस्कुट बांटने वाले से लेकर सेमिनार कराने वाले सबको जोड़ लीजिए। जो लोग जितने अधिक अपने व्यक्तिगत जीवन में असामाजिक होते हैं, वे उतने ही बड़े सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं। अमूमन इस क्षेत्र के लोगों के प्रति भारत के आम लोगों के मन में बहुत अधिक सहानुभूति रहती है और यह प्रथम दृष्टया स्वाभाविक भी है क्योंकि जमीन में यही जाकर अपना चेहरा दिखाते हैं, काम करते हैं। चूंकि आम आदमी सीधा सपाट जीवन जी रहा होता है, उसी में ही तमाम तरह के दायित्व, कर्तव्य, जिम्मेदारियां एवं अनेक तरह की सामाजिकताएं निभा रहा होता है, और जब वह इसी सब में फंसा होता है तो उसे यह अलग से ये सामाजिक कार्य का दिखावा करने वाले लोग बहुत ही अधिक विशिष्ट मालूम होते हैं, जबकि कायदे से देखा जाए तो ये भी मासिक तनख्वाह पर होते हैं और विशुध्द नौकरी काट रहे होते हैं। 

किसी भी व्यवस्था के लिए या सरकार के लिए यह संभव नहीं हो पाता कि वह अपनी योजनाओं या उद्देश्यों को समाज के हर एक व्यक्ति तक पहुंचा दे। कई बार बहुत कुछ छूट ही जाता है, इसी गैप को भरने के लिए, इसी वाल्व को जोड़ने के लिए समाजसेवी संस्थाओं की जरूरत सरकारों को पड़ती रहती है और वे इनका समय-समय पर इस्तेमाल करते रहते हैं या यूं कहे कि सरकार के एक अस्थायी अंग की तरह कार्य करते हैं। चूंकि ये लोगों के दुःख पीड़ा और असंतोष को पाटते हैं, उसे उद्वेलित होने से रोकते हैं, यानि एक सरकार रूपी व्यवस्था की छवि को ही बचाने का काम करते हैं, इसलिए मैं इन्हें सेफ्टी वाल्व भी कहता हूं। और यह कोई मामूली काम नहीं है, पीआर का काम तो इस काम के सामने कुछ भी नहीं। जमीन पर किए गये काम का वजन हमेशा अधिक ही होता है। अब चूंकि इतना बड़ा काम करते हैं तो बदले में इन्हें एक अच्छी धनराशि भी प्राप्त होती है। यूं समझिए कि एक ठीक-ठाक समाजसेवी की तनख्वाह एक जिलाधीश या उपजिलाधीश के समकक्ष ही होती है। और उतनी ही जिम्मेदारियाँ, काम का भयानक दबाव, तनाव और उतनी ही सुविधाएँ भी मिलती है। और हिंसा भी उसी स्तर की करनी पड़ती है, असल में उससे कहीं अधिक करनी पड़ती है, लेकिन विनम्रता और सामाजिक कार्यकर्ता की ओढ़ी हुई छवि के आगे सब कुछ छिप जाता है, ये इस कला में निपुण भी हो जाते हैं।

इस सेक्टर के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहाँ अधिकतर ऐसे लोगों को जोड़ा जाता है जिसे समाज ने हाशिए पर ढकेल दिया हो या किसी कारणवश दारूण जिंदगी जी रहे हों। अधिकतर तलाकशुदा, परित्याक्ता, अनाथ लोग जो थोड़े बहुत पढ़े-लिखे, स्किल्ड होते हैं, वे इस सेक्टर के लिए बहुत आसान शिकार होते हैं। दूसरा बड़ा शिकार ग्रेजुएट बैचलर युवा बनते हैं, खासकर वे बैचलर जिनके घर-परिवार का माहौल कुछ ठीक नहीं रहता है, इन्हीं के भीतर कुछ अलग करने का असंतोष ठीक ठाक उबाल मारता है, जिसका बढ़िया इस्तेमाल किया जाता है। अब इन सभी लोगों के लिए यह सेक्टर एक तरह से संरक्षक भी भूमिका में काम करता है, इससे एक भावनात्मक दबाव पहले ही तैयार हो जाता है कि हमने आप पर बहुत बड़ी कृपा की। आप देखिएगा कि भारत में इस एक सेक्टर में काम करने वाला व्यक्ति आसानी से इस मकड़जाल से नहीं निकल पाता है, क्योंकि आपके दिल दिमाग से खेला जाता है, आपको नौकरी नहीं दी जाती है, आपको तो एक परिवार का हिस्सा बनाया जाता है और उसी एवज में तमाम तरह की हिंसाएं की जाती है, तभी तो आपसे बंधुआ मजदूर की भांति दिन रात काम लिया जा सकता है। इसलिए आप देखेंगे कि भारत के लगभग सभी एनजीओ मानवीय रिश्ते बनाने पर जोर देते हैं। ये एक तरह का इंवेस्टमेंट होता है, इसी नींव पर तमाम तरह की हिंसाएं की जाती है। 

डेवलपमेंट सेक्टर में शीर्ष पदों पर काम करने वालों की बात करते हैं। इन पदों पर अधिकतर सभ्रांत परिवारों के लोग होते हैं। ऐसे लोग जो आर्थिक सामाजिक रूप से समृद्ध होते हैं, जिन्होंने किसी भी तरह की घरेलू हिंसा नहीं देखी होती है, जीवन में बहुत अधिक किसी भी प्रकार का तनाव या कोई उतार-चढ़ाव नहीं देखा होता है। यह लोग एक कॉरपोरेट या बिजनेस की तरह इस सेक्टर में काम करते हैं। अब चूंकि इस सेक्टर में काम करते हैं तो इस सेक्टर को चलाने के लिए बरती जाने वाली तमाम तरह की हिंसाएं, तीन तिकड़म, मीडियाबाजी और फंडबाजी भी इनके द्वारा की जाती है। इस सेक्टर में काम करते रहने की वजह से इन्हें अपनी वेशभूषा, आचार-व्यवहार और रहन-सहन के तरीकों पर काम करना पड़ता है, बहुत ही सामान्य जीवनशैली अपनाते हैं। वैसे ही अपने आप को दिखाने की कोशिश करते हैं जैसा भारत का आम ग्रामीण मध्यमवर्गीय व्यक्ति दिखता है, यही इनकी दुकान खड़ी करने और इनके पीआर के लिए सबसे जरूरी तत्व होता है, एक बार वैसी छवि तैयार हो जाती है, फिर हमेशा के लिए आराम हो जाता है। और फिर इलीटनेस अगर जीते भी हैं तो उसे एक बंद कमरे तक ही रखते हैं जिसकी कोई थाह नहीं पाता है। 

इस सेक्टर के साथ एक सबसे मजेदार चीज यह है कि इस सेक्टर में काम करते हुए आप पूरा जीवन खपा देंगे तब भी आपको अंत तक समझ ही नहीं आएगा कि आप वास्तव में कर क्या रहे हैं। एक चोरी करने वाले, गांजा शराब बेचने वाले तक को स्पष्टता रहती है कि वो फलां अपराध कर रहा है, लेकिन इस सेक्टर के लोग आजीवन भ्रम में रहते हैं कि वे समाज के लिए काम कर रहे हैं। असल में ये लोग समाज के लिए नहीं वरन् समाज को पीछे धकेलने के लिए काम कर रहे होते हैं। समाज को पश्चगामी दिशा में ले जाने में इनका सर्वाधिक योगदान होता है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण में ये सबसे बड़े शत्रु होते हैं।

मेरी एक करीबी हैं। इस क्षेत्र के प्रति सहानुभूति रखती हैं, और मैं उनके इस व्यक्तिगत फैसले का सम्मान भी करता हूं। क्योंकि वैसे भी नौकरीपेशे लोगों के पास इतनी गहराई में जाकर चीजों को देखने समझने आंकलन करने का समय नहीं होता है। अगर कहीं कुछ डोनेशन करना होता है, वे कर देती हैं। मेरी करीबी दीदी विश्वास के साथ हमेशा यह कहती हैं कि ठीक है यार, जाने दो, अंततः कुछ तो लोगों के पास पहुंचेगा ही। इस पर मैं यही कहता हूं कि आप सहयोग करें या ना करें पहुंचेगा उतना ही, जितना पहुंचना चाहिए, आपके योगदान से कुछ कम ज्यादा नहीं हो जाएगा। दूसरा वह कहती हैं कि भारत के युवाओं को एक साल डेवलपमेंट सेक्टर में देना चाहिए। मैं उनको विनम्रता से आज कहना चाहता हूं कि गलती से भी ऐसी गलती न की जाए, इससे बेहतर हो कि युवा खुद से अकेले भीख मांग ले या रेहड़ी चला ले, लेकिन भूल से भी इधर समय न खपाए। क्योंकि यहां बौध्दिक मानसिक क्षति होने की भरपूर गारंटी होती है।

जब मैं इस सेक्टर का नया नया हिस्सा बना था, तब मुझे एक करीबी ने कहा था कि ये समाज कार्य क्या बला है। और हम क्यों इतने खाली हैं कि सामाजिक कार्य करना चाहते हैं, क्या सचमुच हम‌ इतने असामाजिक हो चुके हैं कि हमें अलग से ये सब करने‌ की आवश्यकता आन पड़ी है? उनके इन सवालों ने मुझे कभी दिग्भ्रमित होने नहीं दिया, मुझे हमेशा अपने आप को बचा ले जाने में मदद की। 

एक स्वतंत्र रिपोर्ट के मुताबिक भारत में समाज कार्य के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर लोगों का शादी शुदा जीवन सफल नहीं हो पाता है, तुलनात्मक रूप से यहाँ आंकड़े चौंकाने वाले हैं। अन्य सेक्टर्स की तुलना में सबसे अधिक तलाक इसी सेक्टर में देखने को मिले। प्रेम वाले रिश्तों के लिए बहुत कम जगह होती है, क्योंकि इस सेक्टर में काम करने वालों के भीतर सबसे पहले प्रेम के नवांकुर को खत्म कर दिया जाता है, आबोहवा ही ऐसी रहती है। इसके अलावा एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी रही जिन्होंने आजीवन शादी ही नहीं की, इसके पीछे तुर्रा यह रहा कि समाज कार्य को ही जीने का आधार बना लिया, खैर शादी न करना व्यक्ति का अपना निजी मसला होता है, लेकिन इस सेक्टर की कहानी अलग होती है, जिसने इस सेक्टर को करीब से देखा है, उसे अच्छे से मालूम होता है कि ऐसा क्यों होता है। 

तस्वीर : इस भौकाल तस्वीर में पीठ दिखाता हुआ घृणित व्यक्ति मैं ही हूं जिसने कभी समाजसेवा रूपी पाप किया था और महिलाओं को माहवारी जागरूकता के विषय में प्रवचन दिए थे। 

इति।।



Wednesday, 14 June 2023

मोदी जी और चार घंटे नींद -

2014 में जब आदरणीय नरेंद्र मोदी जी प्रधानमंत्री बनकर आए तब उनकी एक मजबूत छवि पेश करने के लिए तमाम तरह की चीजें मीडिया में प्रसारित की गई। कॉमिक्स में प्रधानमंत्री जी को बाल नरेंद्र के रूप में दिखाया गया और कहानियां गढ़ी गई। उन कहानियों का मोटा-मोटा सार यही था कि प्रधानमंत्री जी बचपन से जुझारू, संघर्षशील रहे हैं। फिर कुछ समय बाद उनके सात्विक भोजन और निरंतर योग करने को लेकर भी सकारात्मक चीजें सामने लाई गई। इन सब का सार यही रहा कि देश के प्रधानमंत्री शारीरिक रूप से स्वस्थ और सक्रिय व्यक्ति हैं। ऐसा नहीं है कि ये पहले ऐसे नेता या प्रधानमंत्री हैं जो ऐसा कर रहे थे, शक्ति प्रदर्शन हर कोई करता रहा है, एक नेता में यह गुण न हो तो वह टिक भी नहीं पाएगा। शक्ति प्रदर्शन वाले उसी क्रम में काम करने वाली छवि बनाए रखने के लिए यह तक प्रचारित किया गया कि प्रधानमंत्री जी केवल 3-4 घंटे ही सोते हैं। इस पर नहीं जाते हैं कि वे कितना सोते होंगे, असल‌ में ऐसा प्रचारित करने का उद्देश्य यही था कि प्रधानमंत्री भले कैसे भी हों लेकिन वे एक बेहद सक्रिय, ऊर्जावान व्यक्ति हैं। देश के लोगों के मन मस्तिष्क में प्रधानमंत्री की एक मजबूत छवि बनाई गई और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। आज शक्ति प्रदर्शन का युग है। और अपनी सुरक्षा के लिए, स्थायित्व के लिए हर कोई तोड़ मरोड़ के चीजें पेश करता ही है। 

अब नींद की समयावधि की बात करते हैं। साधु बाबा लोग जो तमाम तरह की साधना करते हैं, जिनको घर परिवार नहीं चलाना होता है, जो गृहस्थ की जिम्मेदारियों और दुनियावी दांवपेंच से अलग होकर सिर्फ भजन साधना त्राटक करते हैं। वे कितने भी समय खाएं सोएं किसी को फर्क नहीं पड़ता है, कोई बर्तन धोने के लिए उनके खा‌ना खा लेने का इंतजार नहीं कर रहा होता है। ऐसा व्यक्ति ही घंटों बैठकर साधना कर सकता है, अपनी सांसों को साध सकता है, कम‌ सोते हुए भी सक्रिय रह सकता है, क्योंकि दुनिया जहाँ का और कोई तनाव है ही नहीं तो ऐसे में कम नींद से ही काम चल जाता है। कौन सा सुबह उठकर आफिस जाकर चार लोगों को मैनेज करना है या व्यापार संभालना है। दूसरा यह भी है कि शारीरिक रूप से भी खुद को बहुत खपाता नहीं है तो सारी ऊर्जा ध्यान साधना में लग जाती है, ऊर्जा स्थिर बनी रहती है।

हममें से जो कोई भी फेसबुक पर हैं, हम सभी गृहस्थ जीवन जीते हैं। सुबह का नाश्ता दो वक्त का भोजन, घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ, नौकरी व्यापार कृषि कार्य इन सब में लगे रहते हैं तो पूरा मन शरीर खप रहा होता है। इसलिए समय पर ठीक-ठाक भोजन की भी आवश्यकता होती है और 6-7-8 घंटे की अच्छी नींद भी चाहिए होती है ताकि अनवरत गृहस्थ की जिम्मेदारियों का अच्छे से पालन किया जा सके। गृहस्थ में रहते हुए इन जिम्मेदारियों जा निर्वहन करते हुए कहीं से भी संभव नहीं है कि व्यक्ति 3-4 घंटे सोकर सक्रिय रह सके। अगर कोई ऐसा कहता है तो वह सीधे सीधे बेवकूफ बना रहा है। हां कभी एक दो दिन के लिए समझ आता है, और इतना तो हर भारतीय करता है, कभी अस्पताल का जागरण या कभी शादियों की जिम्मेदारी या अन्य ऐसी किसी आपात स्थिति में पूरे 24 घंटे बिना सोए रह लेता है, लेकिन अगले दिन उसे भी नींद की आवश्यकता होती है। 

अपनी बात कहूं तो शरीर को इन सब अलग-अलग प्रयोगों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ यातना ही दी है। क्या ठंडी क्या गर्मी क्या बरसात, माइनस ठंड में बिना कंबल के रहना, भीषण गर्मी में बिना कूलर पंखे के रहना, ठंड में ठंडे पानी से नहाना, बिना नींद के 25-30 घंटे खुद को जागृत रखने की कोशिशें, 70-80 घंटे बिना भोजन के रहना, 22-23 घंटे लगातार अकेले बाइक चलाना। असल में इन सब का हासिल कुछ भी नहीं होता है। आपके हिस्से बैचेनी, अपच, अनिद्रा, अस्थिरता ही आती है। खुद को भीड़ से अलग महसूस करने के लिए ये सब खयाली पुलाव एक समय तक ही ठीक लगता है। खासकर एक गृहस्थ की तरह जीवन जी रहे व्यक्ति को तो इन सब चीजों से दूर ही रहना चाहिए। जो दुनियावी चीजों से विरक्त हो चुका है, उसे ही यह सब प्रयोग शोभा देता है। 

जब भी कोई गृहस्थ कम नींद का महिमामंडन कर अपने आप को महान दिखाता है और लोगों को बरगलाने का प्रयास करता है, तो ऐसे लोगों के लिए हंसी और दया दोनों ही आती है। विशिष्टता और आत्मश्लाघा से ग्रसित ये लोग असल में जीवन जीने को ही बहुत जटिल और भारी काम बना लेते हैं। असल में ये लोग अपने आप को‌ महान सिध्द करने, भीड़ से अपने आप को जुदा दिखाने के लिए ऐसा करते हैं। इसकी पूर्ति के लिए अपने भोजन, दैनिक जीवनशैली और नींद के तरीकों को जान बूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते रहते हैं। और यह सब फर्जी तरीका इन्होंने देश के प्रधानमंत्रियों से ही तो सिखा होता है। एक प्रधानमंत्री का एक बार समझ आता है, उसकी तो हर एक गतिविधि खबर है, सनसनी है। अगर वह मशरूम भी खा रहा तो उसकी एक अलग स्टोरी बनेगी। लेकिन इन तथाकथित गृहस्थी जीवन जी रहे गुमनाम सरीखे लोगों को किस बात का गुमान रहता है, समझ नहीं आता है। प्रधानमंत्री का कम सोने का प्रचार करना शक्ति प्रदर्शन ही है, सत्ता बनाए रखने के लिए यह सब प्रपंच एक नेता के लिए जरूरी भी है। और ऐसा करने वाले मोदीजी अकेले नहीं हैं। स्व. इंदिरा गांधी बेलछी नरसंहार के बाद हाथी में चढ़कर उस गांव तक गई थी, इसके पीछे भी शक्ति प्रदर्शन ही था क्योंकि तब आयरन लेडी के रूप में प्रचारित प्रधानमंत्री की उम्र भी ठीक ठाक थी, और जो कांग्रेस उस समय डूब रही थी, उसे इस शक्ति प्रदर्शन के बाद मानो संजीवनी मिल गई थी। तब सोशल मीडिया होता तो आयरन लेडी उतनी ही ट्रोल होती जितना आज प्रधानमंत्री को संसद के सामने शीश झुकाने के लिए किया गया। राजनीति में शक्ति प्रदर्शन के लिए ऐसी चीजें चलती रहती है। 

पुनश्च : कम सोने को लेकर खुद को महिमामंडित करने वालों से बस यही कहना है कि आपसे लाख गुना बेहतर वे कामगार, मजदूर और वे लाखों ट्रक वाले हैं, जिनके पास अपनी संघर्ष गाथा सुनाने के लिए एक अदद भाषा तक नहीं होती है। जो दिन रात चौबीसों घंटे डाब खाते हुए या नशे का सेवन करते हुए अपनी नींद मारकर देश समाज को बेहतर बनाने में अपना सर्वस्व झोंक रहे होते हैं। सनद रहे कि आप कम सोने का प्रचार कर, उपवास कर उस पर रामकथा लिखकर ऐसे तमाम मेहनतकश लोगों का सरासर अपमान कर रहे हैं। 

इति।

Sunday, 11 June 2023

फंसे रहना ही दुनिया की रीत है

A - कहीं घूम नहीं रहे।
B - इस भीषण गर्मी में कौन घूमे।
A - क्या नया कर रहे फिर?
B - कुछ भी नहीं।
A - फिल्में, किताबें?
B - वो भी नहीं। बस थोड़ा बहुत इंटरनेट।
A - पक्के किसान हो गये हो।
B - वो कैसे?
A - कुछ भी नहीं कर रहे।
B - हमेशा क्यों कुछ करना है।
A - कुछ करते रहना भी जरूरी हुआ जीवन में।
B - रूक जाना भी जरूरी हुआ जब नहीं रूकने से कुछ खास अंतर न पड़ता हो।
A - हां, एक किसान गर्मी के कुछ महीने यही करता है।
B - बिल्कुल, ये एक चीज तो हर किसी को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए।
A - फिर भी लोग तो लगे रहते हैं।
B - नहीं लगे रहेंगे तो बैचेनी चबा कर उन्हें खा जानी है।
A - बैचेनी दूर करने के लिए क्या क्या जो करते हैं लोग‌।
B - व्यस्त रहते हैं, और व्यस्त रखने के ढेरों विकल्प व्यवस्था ने, बाजार ने तैयार रखे ही हैं।
A - कभी ये सोचा नहीं। कितना जटिल है यह सब। 
B - क्या ही कहें, हम सब फंसे हुए हैं।
A - बाबा, फंसे रहना ही दुनिया की रीत है।
B - ये भी ठीक है।

Saturday, 20 May 2023

हिंसा बनाम हिंसा

अभी कुछ समय पहले की एक घटना है। छत्तीसगढ़ में एक नशेड़ी सिरफिरे युवा ने अपने माता-पिता एवं दादी की पीट पीटकर हत्या कर उन्हें आग के हवाले कर दिया। पुलिस की जाँच, पत्रकारों की रिपोर्टिंग से जितनी सूचना लोगों के हिस्से आई उसका मोटा-मोटा सार यही है। लेकिन ऐसी घटनाओं के पीछे गहराई में जाकर घटना के पीछे के कारणों की पड़ताल करना जरूरी नहीं समझा जाता है, ऐसी घटना को आखिरकार क्यों अंजाम दिया, इस पर बात नहीं की जाती है। किसी ने अपराध किया, उसे कानून के माध्यम से सजा मिली, हम इतने में ही खुद को कार्यमुक्त कर लेते हैं, अपनी जिम्मेदारी खतम कर लेते हैं। जबकि ऐसी घटनाओं का गहरे से विवेचन किया जाना चाहिए। जब से यह घटना हुई है। आम जनमानस, अड़ोसी पड़ोसी या यूं कहें कि समाज यह कहता फिर रहा है कि लड़का नशेड़ी है, सिरफिरा है तभी ऐसा कदम उठाया, यह भी कहा जा रहा है कि लड़के ने अपने शिक्षक पिता की नौकरी अनुकम्पा में पाने हेतु उन्हें चुपके से मौत के घाट उतार दिया। यह सब ऊपरी बातें चल रही है लेकिन गहराई में जाकर देखें तो असल मामला कुछ और ही निकलता है, जो न्याय कानून संविधान से कहीं आगे की चीज है। मामला परिवार का है, पारिवारिक माहौल का है, समाज का है, सामाजिक ढांचे का है, मूल गड़बड़‌ वहीं से शुरू होती है। इस पोस्ट का उद्देश्य कहीं से भी किसी भी प्रकार के अपराध या हिंसा की पक्षधरता करना नहीं है। उस लड़के ने निस्संदेह एक भयावह कृत्य को अंजाम दिया है, जिसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है। ऐसे मामलों में सबसे पहला सवाल जो मेरे मन में आता है वह ये है कि क्या वह लड़का अपनी माता के गर्भ से अपराधी बनकर आया था। जब ऐसा नहीं है तो क्या ऐसा कारण है कि युवावस्था में आते तक वह कुस्संग की राह में बढ़ता चला गया, क्या ऐसा हो गया कि वह अपने ही परिवारजनों से इतना कट गया कि उन्हें एक झटके में हाॅकी के डंडे से मौत के घाट उतार दिया। 

लड़के का एक भाई शायद डाॅक्टर है या डाॅक्टरी की पढ़ाई करता है यानि समाज की नजर में एक सफल व्यक्ति है। पता चला कि बड़े भाई की आड़ में इस लड़के को आए दिन घर परिवार और समाज ने निरंतर पिछले कुछ सालों में खूब लानतें भेजी हैं, निकृष्ट घोषित किया है। और तंग आकर यह लड़का भयानक नकारात्मक होता चला गया, हर कोई ऐसे अपमान झेलकर यह सब नजर अंदाज कर आगे नहीं बढ़ पाता है, कुछ लोग हाथ से छूट ही जाते हैं, सही समय पर इनका हाथ थामकर इन्हें सही दिशा देने वाला भी कोई नहीं होता है। मैंने अधिकतर शिक्षक परिवार के बच्चों की स्थिति देखी है, अपवाद हटा दिया जाए तो बच्चों को एकदम‌ मशीन बनाकर रख देते हैं, भावुकता संवेदनशीलता खत्म कर देते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति इस परिवार की भी रही होगी। समाज अपने गिरेबां में झांके बिना डंके की चोट पर कह रहा है कि लड़का भयानक हिंसक है, अपराधी है, चलिए मान लिया इसमें कोई दो राय है भी नहीं, लेकिन एक सवाल यह भी पैदा होता है कि इस लड़के को अपराधी आखिर किसने बनाया?

Friday, 19 May 2023

डुबान योग - 2

अभी तक की समझ यही कहती है कि कुछ एक तबके जातियाँ जो भी कह लें, ऐसे हैं जिनके लिए देश समाज व्यवस्था कितना भी भला कर ले, वे अपनी बेहतरी करना ही नहीं चाहते, समय परिस्थिति के अनुसार बदलना ही नहीं चाहते, अपनी पाषाणकालीन सोच से ही जीवन जीना चाहते हैं। व्यवस्था झुककर‌ दरवाजे तक जाती है लेकिन इनके लिए इनका अहं ही सर्वोच्च होता है। ये विवश कर देते हैं कि सामने वाला व्यक्ति इन्हें इनकी बिरादरी से नापे, बार-बार मौका देते हैं। आप इन्हें नजर अंदाज करेंगे तो ये आप पर टूट पड़ेंगे, आप इन्हें आगे करेंगे तो ये समाज को पीछे ले जाएंगे, कुल मिलाकर खाई कुआं वाली स्थिति हो जाती है। इंसानी समाज के लिए भी एक बड़ी चुनौती है कि आखिर वह करे तो करे क्या, इसलिए कई बार समय पर छोड़ देना ही सही विकल्प लगता है। वाकई भारतीय समाज अनेक किस्म की जटिलताओं से अटा पड़ा है जिसका बहुत गहरे से मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की जरूरत है। गाँधी ने सही नब्ज पकड़ी थी, आजीवन राम नाम जपते हुए कमजोर पिछड़ों के उत्थान के लिए जीवन खपा दिया और उसी समाज ने जो गाँधी को भगवान नहीं बना पाए, एक दूसरा भगवान ढूंढ लिया‌। 

हर तरीके से गुणा भाग करके सोच के देखा कि समाज का प्रतिनिधित्व या जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले क्षेत्रों में इन खास तबकों के लोग क्यों नहीं होते हैं या अगर होते भी हैं तो समाज को बहुत अधिक पीछे ले जाने का काम आखिर क्यों करते हैं। शायद इसलिए तो नहीं प्रोग्रेसिव समाज ऐसे हाथों में जिम्मेदारी देने से कतराता होगा। बिना पूर्वग्रह के अभी तक यही देखने में आया है कि कुछ खास तबके ऐसे हैं जो कभी किसी का भला या किसी का उत्थान कर ही नहीं सकते हैं, उल्टे बेवजह नुकसान जरूर करते हैं, यह एक तरह का सैडिज्म ही है। पता नहीं क्यों उनमें थोड़ी भी मानवीयता विकसित नहीं हो पाती। खैर, इसमें यह भी एक कारण है कि जो अपना ही भला नहीं कर पाता, वह दूसरों का भला करे भी तो कैसे।

Thursday, 18 May 2023

डुबान योग

इंसानी जीवन की अपनी तमाम तरह की जटिलताएँ हैं। इंसान के व्यवहार की सैकड़ों परतें होती हैं, लेकिन एक उसका मूल व्यवहार इन सभी परतों का आईना होता है, सामने यही रहता है, यही दिखता है। समाज में व्यक्ति हमेशा हर तरह के लोगों से मेलजोल बनाकर चलता है, व्यवहार में बरती जा रही असमानताओं को और छुटपुट अतिवादिताओं को किनारे करते हुए एक दूसरे के साथ समन्वय बनाकर जीवन यापन करता है, समाज हमेशा से ऐसे ही चलता रहा है, आगे भी ऐसे ही चलता रहेगा। ऐसे ही जहाँ मदद करने का मौका आता है, लोग एक-दूसरे की मदद भी करते हैं यह एक सामान्य मानवीय प्रक्रिया है। लेकिन इसमें भी एक विशिष्ट प्रजाति होती है जो डुबान योग से ग्रसित होती है, ऐसे व्यक्ति की मदद आप हमेशा नहीं कर सकते हैं, आपको बाद में पश्चाताप होता है, आप ग्लानि से भर जाते हैं। ये कुछ उसी तरीके की बात है कि कोई डूब रहा है तो आप उसे बचाने के लिए रस्सी फेंकते हैं लेकिन सामर्थ्यवान होने के बावजूद वो रस्सी नहीं लपकता है, वह रस्सी पकड़कर खुद की जान बचाने की बजाय आपको कोसने लगता है। वह अपने तरफ से कोई योगदान नहीं देता है जबकि वह खुद डूब रहा होता है। वो चाहता है कि आप खुद को झोंककर छलांग लगाकर उसे बचाएं। और जब आप ऐसा करते हैं तो अमुक व्यक्ति अपने वजन से आपको पहले डूबा देता है, उसके पागलपन की वजह से आप अपनी जान गंवा बैठते हैं। डुबान योग से ग्रसित व्यक्ति ऐसे ही होते हैं, अवनति ही इनकी नियति में होता है, ये मूर्ख नहीं होते बल्कि धूर्त होते हैं, क्योंकि एक मूर्ख जान बूझकर उसी गलती को बार-बार नहीं दोहराता है। ये लाख समझाने के बावजूद गलती करते हैं क्योंकि इनके लिए इनका अहं सर्वोपरि होता है। ये अपनी मदद नहीं करते हैं, ऐसे लोगों को कितना भी सतमार्ग का रास्ता दिखा दिया जाए, फिर भी वे किसी की एक नहीं सुनेंगे, उस रास्ते में चलकर नहीं जाएंगे। इसलिए एक समय के बाद डुबान योग वालों से दूरी बना लेनी चाहिए ताकि हम जिंदा रह सकें।‌

Monday, 15 May 2023

आम आदमी व्यवस्था की नजर में कीड़ा मकोड़ा है

अभी पिछले कुछ दिनों से पीएससी के परीक्षा परिणाम के पश्चात माहौल गरमाया हुआ है। कुछ एक सामाजिक कार्यकर्ता जिन्होंने सीट बिक्री और 75 लाख को लेकर सनसनी बटोर ली। उनकी मासूमियत पर भी हंसी आती है और लोगों की भी। लोग इतने भोले हैं उन्हें महान समझकर सर आंखों पर बिठा लेते हैं। और उसमें ये लोग यह तर्क भी दे देते हैं कि भाई व्यवस्था में अयोग्य लोगों का चुनाव हो जाता है। ऐसे लोगों से पूछने का मन होता है की ऐसी व्यवस्था जिसमें सिर्फ इंसान आदेश का पालन करने के लिए बाध्य होता है। जहां इंसान का एक सूत्री कार्यक्रम ही आदेश की पालना करना होता है वहां योग्य या अयोग्य जैसी कोई चीज होती कहां है।

बड़ी मासूमियत से ऐसे लोग आम लोगों की भावनाओं से खेल जाते हैं। ऐसे लोगों की हिम्मत नहीं कि खुलकर कुछ कह सकें इसलिए रटी रटाई बातें दुहराकर ईमानदारी का शिगूफा छोड़ देते हैं, लोग लपक लेते हैं। अब एक आम व्यक्ति भी जो आजीवन अपने आसपास भ्रष्टाचार से दो-चार हो रहा होता है वह भी बहुत आश्चर्य जताता है कि अरे यह तो कमाल हो गया, ये हम ईमानदार लोगों की धरती में ये इतने लाख का खेल चल रहा है, गलत बात है ये, जबकि खुद भी उसी व्यवस्था का हिस्सा है जो खुद में भ्रष्ट है। हममें से हर कोई भ्रष्टाचार करता है और भ्रष्टाचार सिर्फ पैसे से नहीं होता है आचार व्यवहार से, रिश्तों में, अपने दैनिक जीवन की हर एक गतिविधि में इंसान भ्रष्टाचार कर ही रहा होता है।

रही बात पिछले कुछ समय से आ रही अनेक भर्ती परीक्षाओं की। तो इसमें सिर्फ यही कहना है कि जब राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में नेता और अधिकारियों ने अपने बच्चों को सेट कर लिया तो व्यापम स्तर की परीक्षाओं में छुटपुट अधिकारी और ब्लॉक प्रमुख अपने बच्चों को आगे करेंगे ही और इसमें कोई दो राय नहीं है यह सब पहले भी होता आया है, अभी भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। बस अंतर यह है कि इस बार थोड़ा रेट बढ़ गया है और चीजें खुलकर, अधिक पारदर्शिता के साथ हो रही हैं। पीएससी का जो रिजल्ट आया उसमें बड़े-बड़े पद रसूख वालों ने हथिया लिया, हमेशा की तरह आम आदमी के लिए नायब तहसीलदार, जेल अधीक्षक, लेखा सेवा यही सब छोड़ दिया गया। आपने कमजोर को कमजोर ही रखा। वह प्रमोट होते होते बूढ़ा हो जाएगा लेकिन रहेगा आपका नौकर ही, आपने ऐसी व्यवस्था कर दी। 

अब सवाल यह खड़ा होता है कि आम आदमी करे तो करे क्या। आखिर इतने छात्र क्यों सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं। मां-बाप अपना सर्वस्व न्यौछावर कर क्यों अपने बच्चों को एक सरकारी नौकरी मिल जाए इसके लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए रहते हैं। असल में भारत के आम, कमजोर, निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार के पास जीवन यापन के लिए और कोई स्पेस बचता ही नहीं है। इसमें भी जो आराम में हैं, सुविधाभोगी लोग हैं, वे लोग बड़ी आसानी से मुंह उठाकर कह देते हैं कि आप में योग्यता है तो व्यापार कर लीजिए, खुद का कुछ कीजिए लेकिन क्या भारत के एक आम आदमी के पास यह स्पेस है ? कुछ रूपया जोड़कर कुछ करना भी चाहे तो उसके सामने पहाड़ जैसी मुश्किलें हैं। वहां तो और भी स्पेस नहीं है, एक बहुत बड़े तबके ने पहले ही सब कुछ आरक्षित करके रखा हुआ है, आपको बाजार में टिकने ही नहीं देंगे।

इसीलिए भारत के आम आदमी के पास एक कोई छोटी मोटी सरकारी नौकरी के अलावा कोई दूसरा सुरक्षित स्पेस बचता ही नहीं है, तभी लोग लगे रहते हैं। संघर्ष सिर्फ नौकरी पाने का नहीं होता है, जीवन मरण का प्रश्न होता है, अस्मिता की बात होती है। उसमें भी व्यक्ति नौकरी पाकर क्या ही कर लेता है उसका पूरा जीवन पारिवारिक उलझन, तनाव और जिम्मेदारियों के ईर्द गिर्द ही खत्म हो जाता है और एक दिन‌ वह चुपचाप दुनिया से चला जाता है। जीवन भर की पूंजी के रूप में एक कार और एक कोई घर या थोड़ी सी जमीन पीछे छोड़ जाता है। 

कुछ साल पहले भारत के माननीय प्रधानमंत्री जी ने देश के युवाओं को बहुत सही सुझाव दिया था। उन्होंने युवाओं से अपील की थी की युवा रोजगार के लिए पकौड़े बेचे। प्रधानमंत्री जी की बात सही है, भारत के आम युवा के पास चाय पकोड़े बेचने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प दिखता ही नहीं है। इससे ज्यादा उसके पास स्पेस ही नहीं है। वह थोड़ा भी अपने सामर्थ्य से आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो रसूख वाले पहले ही गिध्द की भांति उसे नोचने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। इस आम आदमी के हिस्से जब असफलता हाथ लगती है, जब उसे छला जाता है, वह बड़ी मासूमियत से या तो अपने भाग्य को कोस लेता है या फिर अपनी योग्यता पर सवाल खड़ा कर खुद को शांत कर लेता है। शायद आम आदमी की इसी पीड़ा को प्रधानमंत्री जी भी समझ ही रहे होंगे तभी उन्होंने असहाय होकर ऐसा विकल्प सुझाया होगा।

Sunday, 14 May 2023

बात चली शराब की - ( भाग - 2 )

शराब अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है। भारत के बहुत से ऐसे राज्य हैं जहाँ सरकारें अपने राज्य के आम लोगों के सेहत के साथ बहुत अधिक खिलवाड़ नहीं करती है। शराब हर राज्य में बिकती है, लेकिन जिन राज्यों में शराब पर सरकार पूरी तरह से आश्रित नहीं है या जहाँ शराब को लेकर बहुत अधिक कायदे कानून न लगाकर सरकारों ने लचीलेपन से काम लिया है, वहाँ अपेक्षाकृत प्रति व्यक्ति शराब की खपत बहुत कम है।

जैसे उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य ओड़िशा को ही ले लीजिए। इस राज्य में शराब की खपत तुलनात्मक रूप से बहुत कम होती जा रही है। सन 2000 से पहले की बात है। तब छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में नहीं आया था। ओड़िशा गरीब राज्य की श्रेणी में आता था, लानतें भेजी जाती थी कि गरीबहा राज्य है, लोग लीचड़ होते हैं, शराब के नशे में धुत्त रहते हैं आदि आदि। आज की स्थिति ऐसी है कि कोई कह के दिखा दे कि गरीब और शराबी राज्य है। इसके बहुत से कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है गुड गर्वनेंस। सरकार आम लोगों को राहत दे दे, उनको तनावमुक्त रखे, उनका सामाजिक आर्थिक शोषण न हो पाए, उनको मान-सम्मान मिल जाए। इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं चाहिए होता है, इस न्यूनतम प्रबंधन को पाकर आम‌ लोग खुश रहते हैं। सरकारें पता नहीं क्यों इतनी मामूली सी बात आखिर कैसे नहीं समझ पाती है। क्योंकि इस एक समझ के विकसित हो जाने से काम का दिखावा नहीं करना पड़ता है। ओड़िशा की सरकार राज्य की अर्थव्यवस्था चलाने के लिए शराब के अलावा दूसरे तरीकों से मैनेजमेंट कर लेती है लेकिन लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ नहीं करती है। 

दूसरा एक राज्य है कर्नाटक। यहाँ सच्चे मायनों में शराब को लेकर लोकतंत्र कायम है। राजधानी बैंगलोर में आपको जगह-जगह छोटे-छोटे ग्राॅसरी स्टोर की तर्ज पर शराब की दुकानें मिल जाएंगी। ऐसा लगेगा कि शापिंग माॅल है। बकायदा टोकरी लेकर अपनी पसंद की शराब की खरीददारी करते हैं, क्या महिला क्या पुरूष सब खुलकर खरीददारी करते हैं, कोई किसी को जज नहीं करता है। कोई धक्का मुक्की नहीं, कोई जल्दबाजी नहीं। बैंगलोर के आसपास वाइन की बहुत सी रिफाइनरी है। बैंगलोर का मौसम वैसे भी वाइन रिफाइनरी के हिसाब से उपयुक्त माना जाता है। ऊपर से यहाँ के जितने पब क्लब रेस्तराँ हैं, वहाँ वे खुद अपना क्राफ्ट बियर बेचते हैं जिसमें वे दुनिया जहाँ के फ्लेवर परोसते हैं, इस मामले में ये शहर भारत के सभी शहरों से आगे है। शराब की गुणवत्ता के मामले में बैंगलोर देश में अव्वल नंबर पर है। अब सवाल यह कि यह राज्य जब नकली शराब नहीं बेच रहा, तीन तिकड़म नहीं कर रहा है तो अर्थव्यवस्था चलाने के लिए बाकी मैनेजमेंट कैसे कर रहा है तो इसका जवाब यह है कि बैंगलोर शहर पूरे देश में करप्शन में नंबर वन है। रोड टैक्स यहाँ सबसे ज्यादा है। और आफिस लेवल पर जो भ्रष्टाचार होता है, वह अलग ही लेवल पर चलता है। सेमी लीगल तरीके से एक बढ़िया व्यवस्था बनी हुई है। पैसे का मजबूत प्रवाह बना रहता है।

देवभूमि नाम से विख्यात राज्य हिमाचल और उत्तराखण्ड की बात करें तो वहाँ भी शराब में ठीक-ठाक मिलावट होती है लेकिन उतनी नहीं होती है जितनी भारत के अन्य राज्यों में होती है। भले देवभूमि कहा जाता है लेकिन वहाँ होने वाली पूजा में देवताओं को भी तो शराब चढ़ाया जाता है, और भगवान तो कण-कण में विद्यमान हैं, उस कण में मनुष्य भी आता है और मनुष्य तो आदिकाल से सोमरस का पान कर रहा है। तो वहाँ के लोगों का भी शराब के प्रति अटूट प्रेम है। अच्छी खासी खपत होती है, राज्य को ठीक-ठाक राजस्व मिल जाता है। बाकी नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण होने की वजह से वहाँ का टूरिज्म अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर ही देता है। 

अब उस राज्य पर आते हैं जहाँ बकायदा लोग या तो शराब पीने जाते हैं या फिर वहाँ से शराब की बोतलें लेकर आते हैं। तो इस राज्य का नाम है गोवा। गोवा को वैसे तो राज्य कहना ही अपने आप में बेमानी है क्योंकि 451 साल तक पुर्तगालियों के आधिपत्य में रहा और अभी 62 साल पहले ही हमारे हिस्से आया है तो वहाँ की आबोहवा थोड़ी अलग है। गोवा का आम आदमी शराब छूता तक नहीं है वाली स्थिति है। काजू से बनने वाली शराब भी अधिकतर पर्यटकों के हिस्से ही आती है, वही इसे उदरस्थ करते हैं। बाकी स्थानीय लोगों में शराब का मोह उतना नहीं है। लेकिन गोवा जाने वाले पर्यटकों में शराब के प्रति अजीब तरह का मोह है, चूंकि शराब और पेट्रोल दोनों वहाँ टैक्स फ्री है तो लोग जमकर मौज काटते हैं। और हम भारतीयों की आदत है ही कि थोड़ा भी कुछ सस्ता मिले तो सारी नैतिकता वहीं ताक पर। कोई चीज अगर हमें सस्ती मिल जाए तो "इतना कम कर दोगे तो दो किलो खरीद लूंगा" इसी तर्ज पर अपनी क्षमता से अधिक खरीददारी करते हैं। इसी साइकोलाॅजी से गोवा की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है। 

कोरोना जब चल रहा था तो शराब को लेकर गजब की आपाधापी मची हुई थी। हर जगह से वीडियो वायरल हो रहे थे जिसमें लोग कतारबध्द दिखाई दे रहे थे। आज भी आपको इंटरनेट में वीडियो मिल जाएंगे। उसमें भी आपको सर्वाधिक मारामारी और भीड़ वाली वीडियो में अव्वल नंबर पर छत्तीसगढ़ ही दिखाई देगा। ऐसा क्यों है इसके पीछे के कारणों पर कभी और चर्चा की जाएगी। अभी के लिए बस इतना ही कि सारी गलती नामुराद टेथिस सागर की है और ये हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा क्षेत्र गोण्वाना लैण्ड में पड़ता है।

Friday, 12 May 2023

बात चली शराब की --

अपने जान-पहचान के स्कूल कालेज के तमाम दोस्तों को मैंने बार-बार अवगत कराया कि छत्तीसगढ़ में शराब का सेवन संभल कर करें। चूंकि मिलावट वाली शराब का खेल चहुंओर व्याप्त है, ऐसे में शरीर को और अधिक नुकसान‌ पहुंचता है, वैसे भी एक बार का जीवन है, थोड़ा तो अपने जीवन की गुणवत्ता के लिए ध्यान देना ही चाहिए। तेल, प्राकृतिक गैस, खनिज के अलावा शराब किसी भी राज्य या देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। मेक्सिको, कोलंबिया जैसे देशों की बात करें तो वहां की अर्थव्यवस्था ही कोकेन, मारिजुआना से चलती है, वहां की जलवायु ऐसी है कि अच्छी गुणवत्ता की पैदावार होती है, जिसकी खपत पूरी दुनिया में होती है। और उसी पैसे से देश की अर्थव्यवस्था चलती है, लोगों को रोजगार मिलता है, गांवों शहरों का विकास होता है, सरकार लोगों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराती है..आदि आदि।

भारत में अलग-अलग राज्यों में शराब बिक्री का अलग-अलग तरह का नेक्सस है। उदाहरण के लिए शराबबंदी वाले राज्य गुजरात को लीजिए, वहाँ सबसे अधिक एक्साइज ड्यूटी राज्य को शराब से मिलती है। जबकि भ्रम इस बात का, कि शराबबंदी है। लीगल तरीके से सरकार हमेशा नये नये कानून बनाकर दुगुने-तिगुने दाम में शराब बेचती है। जैसे अभी नियम यह है कि मैं दूसरे राज्य से हूं और अगर मुझे शराब चाहिए तो मैं यहाँ कार्ड बनाकर खरीद सकता हूं, लेकिन गुजरात का लोकल आदमी नहीं खरीद सकता है, लेकिन मैं कार्ड बनाकर यहाँ के किसी लोकल को दे दूं तो वह लगातार शराब आनलाइन घर तक मँगवा सकता है, लेकिन दाम दुगुने हैं। शराब वहाँ भी वैसे ही बिकती है जैसे बाकी राज्यों में बिकती है। बाकी राज्यों से कहीं अधिक कमाई होती है क्योंकि रेट दुगुने तिगुने हैं। 

शराबबंदी वाले राज्यों में दूसरा चर्चित नाम बिहार का आता है। बिहार में मामला एकदम अलग है। वहाँ गुणवत्ता को लेकर भयानक समस्या है। जो चुनिंदा ब्रांड वाली शराब है, कहीं से आपको जुगाड़ से मिल जाए, उसमें भी इतनी अधिक मिलावट है कि आप दुगुने दाम में लेकर आएंगे फिर भी आप विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि आपको सही चीज मिल रही है। यही सिलसिला स्थानीय शराब बनाने वालों के साथ भी है। मिलावट कर कुछ भी बेच रहे हैं। इसलिए कई बार बिहार से ऐसी घटनाएं सुनने को भी मिलती हैं कि नकली शराब से बहुत लोगों की जान चली गई। बिहार के मेरे कुछ एक करीबी मित्र बताते हैं कि जो लोग कभी कभार महीने साल में पी लेते थे उन्होंने भी अब डर के‌ मारे पीना छोड़ दिया है, क्योंकि इतनी अधिक मिलावट है, कभी किसी दूसरे राज्य जाना होता है तब पी लेते हैं और गुणवत्ता में जमीन आसमान का अंतर महसूस होता है। 

अब छत्तीसगढ़ पर आते हैं, यहाँ शराब को लेकर कुछ अलग ही तरह का नेक्सस है जो पिछली सरकार के समय से चला आ रहा है। यहाँ शराबबंदी जैसा कोई नियम नहीं है लेकिन आपको ढूंढने पर भगवान मिल जाएगा लेकिन यहाँ शराब का ब्रांड नहीं मिलेगा। छत्तीसगढ़ में शराब के ऐसे-ऐसे ब्रांड इजात हुए हैं, जो नाम‌ आपको पूरे ब्रम्हाण्ड में कहीं नहीं मिलेंगे। शराब का जो ब्रांड पूरे देश में मिलता है, जो एक तय मानक के आधार पर तैयार होता है, उसकी खपत छत्तीसगढ़ में 20% के आसपास है, बाकी 80% मार्केट स्थानीय नेक्सस के आधार पर तैयार हुए शराब का है जो अधिकृत रूप से सभी शराब दुकानों में बकायदा पैकिंग के साथ बिकता है। और लंबे समय से वही बिक रहा है तो लोगों के दिमाग में भी यही फिट हो गया है कि फलां ब्रांड बढ़िया है, यानि स्थानीय स्तर पर बने उस ब्रांड ने असली ब्रांड को पीछे छोड़ दिया है। कुछ एक दोस्त शिकायत करते हैं कि क्या नकली शराब है, चढ़ता ही नहीं है। कोई कहता है कि पीने के अगले दिन सुबह सिरदर्द की समस्या रहती है। वैसे बिहार में नकली शराब से बहुधा लोग स्वर्ग सिधार जाते हैं, शुक्र है यहाँ मामला सिरदर्द तक सीमित है। मेरे एक करीबी शराबी मित्र जो पाक्षिक पी लेते थे, उन्होंने तो पिछले एक साल से शराब पीना ही छोड़ दिया है। हाल ही में इसी 80% लोकल ब्रांड को खपाने वाले मामले को लेकर ही माननीय ईडी ने छापा मारा है। अब भई केन्द्र हो या राज्य, व्यवस्था चलाने के लिए पैसा तो सबको चाहिए। अब इस छापेमारी में हकीकत जो भी हो, जितने भी करोड़ का बंदरबांट हो, हम सभी को इस सच को स्वीकार लेना चाहिए कि शराब अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। हम अपने आसपास सड़क निर्माण, भवन निर्माण, स्कूल, काॅलेज, उद्योग या अन्य विकास कार्यों को जो देखकर खुश होते हैं उसके लिए भी पैसा इसी शराब से ही आता है। अब हमें इसमें यह देखना होगा कि इस सच को हम कैसे स्वीकारते हैं।