Tuesday, 10 October 2023

हम भारतीयों की भोजन की संस्कृति

पिछले सप्ताह शहर की एक फूड ब्लागर मात्र 23 की उम्र में शांत हो गई। कारण रहा - हाई सुगर लेवल और उसके बाद निमोनिया। मैंने जब उनका प्रोफाइल देखा तो बहुत सारे खाने-पीने के वीडियो से प्रोफाइल भरा पड़ा था, एक भी चीज ऐसी नहीं मिली जिसे कहा जा सके कि यह अच्छा भोजन है, अपनी प्रकृति में लघु है और सुपाच्य है। खाने के लगभग जितने भी विकल्प देखे सब कुछ अपनी प्रकृति में दीर्घ यानि प्रोसेस किया हुआ खाना, फास्ट फूड जंक फूड जैसा आपको समझने में सहूलियत हो। आजकल इस तरह के खाने को लेकर लोगों में गजब की आसक्ति है। किसी नशे की तरह लोग बाहर थोक के भाव में यह सब खा लेते हैं, यह नहीं समझ पाते हैं कि ब्रांड स्पांसरशिप और फ्री में जो यह खाना आपको परोसा जा रहा है, वह आपको मुफ्त के खाने के साथ कुछ समय के लिए शोहरत तो दे देगा, लेकिन बदले में आपकी सेहत छीन लेगा। 

कुछ लोगों का लिवर बहुत कमजोर होता है, वहीं कुछ लोगों का पूरा इम्युन सिस्टम ही कमजोर होता है, ऐसी स्थिति में व्यक्ति को कई बार यह समझने में बहुत देर लग जाती है कि वह लंबे समय से अपने शरीर को आखिर क्या दे रहा है। मुझे लगता है कि इन फूड ब्लागर के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति रही होगी। यह भी समझ आया कि ये उस खाने को पचाने के लिए पसीना बहाने जैसा कोई शारीरिक मेहनत भी न करती होंगी तभी शायद स्थिति इतनी गंभीर हो गई। एक कमजोर शरीर को इतना दीर्घ, इतना भारी खाना देना उसी तरह है कि एक पंक्चर हुई गाड़ी में ओवरलोडिंग की हद तक सामान लाद देना, इतना कि उस गाड़ी का इंजन बैठ जाए। 

फास्ट प्रोसेस फूड की शौकीन पीढ़ी को देखकर यही लगता है कि हमने अपने पेट को कूड़े का ढेर बना दिया है, जो मन में आया वहां बस फेंक आते हैं, वहां वो खाना जब सढ़े गले, हमारी चिंता नहीं है। हम अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों का निर्वहन करते हैं, अपनी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को संजोने के लिए प्रयासरत रहते हैं, अपना जीवन फूंक देते हैं लेकिन जहाँ बात भोजन की आती है, वहां हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को क्यों भूल जाते हैं यह समझ से परे है।

मेरे बहुत से दोस्त साथी जो विदेश रहकर आए हैं या दूसरे देशों में रहते हैं, उनमें से लगभग हर किसी ने हमेशा इस एक बात को कहा है कि भारतीय उपमहाद्वीप के खाने का पूरे विश्व में कोई तोड़ नहीं है, ऐसा स्वाद ऐसा फ्लेवर दुनिया के किसी खाने में नहीं है। भले विकसित कहे जाने वाले देशों ने कुछ भी हासिल कर रखा हो, जबरन खुद को बड़ा दिखाने के लिए अपने बेंचमार्क सेट किए हों और उसमें हमें तीसरी दुनिया की श्रेणी में रखा हो, लेकिन भोजन की विविधता के मामले में वे हमेशा पीछे रहेंगे। 

बहुत सोचने विचारने पर यह भी निष्कर्ष निकला कि हम भारतीयों ने अपने भोजन की संस्कृति में कभी अतिवादिता को हावी होने नहीं दिया। चीन जापान कोरिया और कुछ कुछ देशों में जैसे बिना मसालों के उबला हुआ भोजन खाने का रिवाज है, हमने इस संस्कृति को नहीं अपनाया, न ही हमने दीर्घ भोजन को स्वीकारा। हमने बीच का रास्ता चुना, हमने भोजन में तेल मसालों को जमकर जोड़ा और उसका ऐसा बेहतरीन माॅडल पेश किया कि हमे मसालेदार स्वाद भी मिलेगा और उसका नुकसान भी नहीं होगा। उदाहरण के लिए जैसे कभी हमें तेल में तली पूरी और छोले की सब्जी खानी है तो हमने पूरी में अजवाइन डाल दिया और छोले में हींग, काली मिर्च ताकि भोजन का स्वाद भी मिले और ये गुणकारी मसाले आसानी से भोजन को पचा लें और हमारी आंतों पर जोर भी न पड़े। विभिन्न प्रकार के मसाले हमेशा से हमारे भोजन का अभिन्न अंग रहे, जो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाते रहे हैं, सदियों से इस संस्कृति का हम‌ पालन करते आए हैं। भारतीय खाने‌ में भोजन को लेकर गजब का साम्य है, हमारे पास अपने स्वादांकुरों को संतुष्ट करने के लिए ढेरों विकल्प हैं, बावजूद इसके हम आज ऐसे भोजन के गुलाम बने बैठे हैं, जिसकी न तो अपनी कोई सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है न ही उससे हमारे शरीर को कुछ पोषकतत्व मिलता है। अगर हमें सचमुच अपनी चिंता है, अपने सेहत की थोड़ी भी चिंता है तो भोजन के अपने परंपरागत तौर तरीकों में रस खोजना होगा वरना दुःखों का पहाड़ हमारे सामने है ही। गुलामी सिर्फ किसी बाहरी व्यक्ति के शासन‌ करने के तौर तरीकों से नहीं आती है, भोजन के गलत तौर तरीकों को अपनाने से भी आती है। 




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