राज्य लोक सेवा आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष साहब ने असल में कुछ नया नहीं किया है। परंपरानुसार ही काम किया है। हां, ये जरूर है कि अति की है। हर कोई अपने बच्चों के लिए रास्ते बनाता है, यह सर्वविदित है, हर कोई करता है। लेकिन कोशिश ये रहती है कि मामला कम से कम विवादित रहे। जैसे इन्होंने सबको सीधे डिप्टी कलेक्टर का पद दे दिया, ठीक उसी तरह कई लोग अपने बच्चों के लिए किसी विभाग से आजीवन टेंडर का मामला सेट कर देते हैं या व्यापार संबंधी कोई और विकल्प तैयार कर देते हैं। लेकिन उसमें विवाद कम होता है, क्योंकि वहां प्रतियोगिता कम है। ठीक वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं में, जिसमें जाने के लिए लाखों लोग अपना पैसा, अपनी जीवनी ऊर्जा फूंक रहे हैं, मारकाट मची हुई है, उसमें भी सबसे हनक वाले मलाईदार पदों को छीन के ले लेना वाकई हिम्मत का काम है, या यूं कहें कि दोयम दर्जे का काम है। पहले भी यह होता रहा है लेकिन इस बार इतना खुल के सामने आने का कारण यह भी है कि साहब सबको पीएससी से चयन करवा दिए, एक दो को ठेका दिलवा देते, एनजीओ वगैरह का मामला सेट कर देते, थोड़ा मामला बैलेंस रहता। लेकिन अब सबका अपना-अपना तरीका है, अपनी-अपनी भूख, कोई किसी की मानसिकता तो नहीं बदल सकता है। असल में जब किसी व्यवस्था में भले वह जुगाड़ की हो या ईमान से काम करने की, जो एक परंपरा बन जाती है, उस परंपरा को तोड़ना इतना आसान नहीं होता है, जो भी आता है, उसी परंपरा के मुताबिक काम करता है। अभी संभवतः चुनाव के बाद जो भी नये वाले अध्यक्ष पद पर आएंगे वे भी कुछ नया नहीं कर देंगे, हो सकता है प्रतिशत में इनसे कम जुगाड़ वाली परंपरा का निर्वहन करें। लेकिन चलेगा वही जो चलता आ रहा है। बाकी देखते हैं पुराने वाले साहब के लिए प्रभु की झोली में क्या है।
हाईकोर्ट ने पीएससी मामले में क्या किया - चयन पर सवाल उठाया और कड़ी टिप्पणी की। अब इस कड़ी टिप्पणी में भी अगर अभ्यर्थियों को न्याय होता दिखता है तो इस पर अब क्या ही कहा जाए। " हाइकोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की, शर्म करो पीएससी" यह वाक्य कहकर विपक्षी नेता भी सोशल मीडिया में खानापूर्ति कर छात्रों की भावनाओं का मखौल बना रहे हैं। सब कोई अपनी दुकानदारी में व्यस्त हैं, छात्र हताश निराश परेशान, उसे समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर क्या ही करे। हाईकोर्ट भी मनोरंजन देने में, इस जख्म को नासूर बनाने में कोई कमी नहीं कर रहा है। जज का इस पूरे मामले में भोले मासूम की तरह " अरे! ये तो बहुत गलत बात है " ऐसा कहना न्याय की आस लिए लोगों के मुंह में जोरदार तमाचा है। छात्र तो मानों इनके लिए कीड़ा मकोड़ा है, मतलब एकदम तमाशा बना दिए हैं। गांधी बाबा कोर्ट को ऐसे ही नहीं गरियाता था। इस देश में पीएससी व्यापम सरकारी संस्थाओं से सबसे अधिक भ्रष्ट कोई है तो वो न्यायपालिका है। इस सच को जितनी जल्दी स्वीकार लें, सेहत के लिए उतना ही बेहतर।
अगली सुनवाई - 5 अक्टूबर
आचार संहिता - 6 अक्टूबर ( संभवतः )
सुनवाई की तारीख भी मजेदार है, ठीक आचार संहिता के एक दिन पहले। इसी से अंदरखाने की हकीकत को देखा समझा जा सकता है, खैर। दो सप्ताह का समय, अंदरखाने में खूब उठापटक होगी, जाँचकर्ता कौन- राज्य शासन, इन्हीं के हाकिम इन्हीं के मुल्ज़िम वाली बात, सो चमत्कार की उम्मीद तो कम है, लेकिन कुछ भी हो सकता है। कुल मिला के अब मामला बहुत दिलचस्प हो गया है, अब देखना यह है कि क्या कोर्ट सुनवाई को किसी ठोस फैसले में तब्दील करेगा या हमेशा की तरह स्वांत: सुखाय की तर्ज पर राज्य शासन की जय करते हुए खुद को किनारे कर लेगा।
नितेश के पिता का नाम राजेश है, वह टामन सोनवानी का पुत्र ही नहीं है, शिक्षाकर्मियों का उध्दार करने वाले अधिवक्ता सिद्दीकी साहब के इस इस्तक्षेप याचिका से jolly llb फिल्म याद आ गई। जिसमें अरसद वारसी बेबस होकर कहता है कि कार ने नहीं ठोकी थी जज साहब, वो तो ट्रक था, जो कि एक साल बाद ट्रेन हो जाएगा। इसी तर्ज पर कल जाकर देश काल परिस्थिति को देखते हुए नितेश भाई को अनाथ भी घोषित किया जा सकता है और प्रज्ञा नायक नारी निकेतन से गोद ली हुई बालिका भी बनाई जा सकती है।
सोनवानी साहब ने जो किया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। इस वाक्य को पढ़कर शायद बहुत लोगों को व्यक्तिगत होकर मुझे अपशब्द कहने का खूब मन करेगा, कह भी सकते हैं, आपके विवेक पर, लेकिन यह भी ध्यान रखें कि जिसे आप अपशब्द कहेंगे उसने पिछले दस साल में आपसे बड़े बड़े भुक्तभोगी देखे हैं जिनका जीवन ही तबाह कर दिया गया, या जो भले आज व्यवस्था में किसी पद पर हैं, लेकिन उन्हें नंबर ही नहीं दिया गया, वरना वे आज किसी और पद पर होते। आज से दस पंद्रह साल पहले भी लोग आवाज उठाते थे कि आखिर इतना अच्छा पेपर लिखने के बावजूद कैसे इतना कम नंबर मिला, इंटरव्यू में इतना कम कैसे दिया, लेकिन उस समय ऐसे लोगों को जमकर अपमानित किया जाता था, उनकी योग्यता पर सवाल खड़ा किया जाता था, जबकि वे उस समय वही कर रहे थे, जो आज अधिकतर लोग सोशल मीडिया में कर रहे हैं, इस पूरी व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल पिछले बीस साल से उठाए जा रहे हैं, नया नहीं है। इंटरव्यू में इस बार एक जिस अभ्यर्थी को बुलाया ही नहीं गया, ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं, ये कोई नई घटना नहीं है, जो पहली बार देख रहा है, जाहिर है उसे आश्चर्य होगा ही। 2003 से कम अधिक यही चल रहा है लेकिन कभी ऐसे खुलकर इतना उजागर नहीं होता था, और तब तो सोशल मीडिया भी नहीं था तो लोगों को उतना पता ही नहीं चल पाता था। प्री तक पास नहीं किए रहते ऐसे लोगों का भी चयन होता रहा है, एक बार हाईकोर्ट ने दबोचा था तो चयनित छात्र सुप्रीम कोर्ट से मामला सेट करवा लिए। आप क्या ऐसे लोगों से लड़ लेंगे जो सुप्रीम कोर्ट का भी इस्तेमाल कर लेते हैं, आप नहीं लड़ सकते हैं, भाई हमारी हैसियत नहीं कि अपना परिवार, अपना जीवन दांव पर लगाकर इनसे लड़ लें, आपकी पहुंच है तो आप लड़ लें। दूसरी बात ये कि अगर आपकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि कमजोर है, आपकी पहुंच नहीं है, आप भरसक तैयारी कर लें, आपको नीचे किया ही जाएगा, ये विधान है, और यही रहेगा। आप व्यवस्था को नहीं बदल सकते हैं।
सोनवानी साहब ने इसी व्यवस्था के परंपरानुसार खुल कर ठोक पीट के काम करते हुए व्यवस्था रूपी इस पूरे मवाद को सबके सामने लाने का काम किया है, जो काबिल ए तारीफ है। उन्होंने अपने काम से यह दिखाया है कि भैया ऊपर से लेकर नीचे पूरी व्यवस्था ऐसी ही है और आज नहीं तो कल आपको इस कटु सत्य को स्वीकारना ही पड़ेगा। सोनवानी साहब ने एकदम ठेठ देसी अंदाज में काम किया इसलिए सब कुछ सामने दिख गया, यूपीएससी जैसी संस्थाओं में इनके गॉडफादर बैठे रहते हैं जो इनसे कहीं अधिक शातिर होते हैं, वे पूरी सेटिंग कर स्वर्ग भी सिधार चुके होंगे लेकिन उन्होंने कितनों का जीवन तबाह किया होगा, ये शायद आपको हमको इस जन्म में पता ही नहीं चले, तो उनकी तुलना में तो सोनवानी साहब बहुत ईमानदार हैं, कम से कम इनका किया धरा सब कुछ आपको हमको सामने दिख तो रहा है।
अस्तु।
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