Friday, 29 September 2023

भोजन के प्रति सहजता

अपने उद्भव के समय से ही मनुष्यों के लिए नियमित भोजन पाना एक चुनौती रहा है। इसलिए उसने एक जगह रहकर व्यवस्थित तरीके से खेती करना शुरू किया ताकि उसे नियमित रूप से भोजन मिल सके। 1970-80 के दशक के लोग जो अभी 50 वर्ष या उससे अधिक उम्र के होंगे, उनमें और उसके बाद की पीढ़ी में एक बहुत बड़ा अंतर भोजन को लेकर दिखता है। पुरानी पीढ़ी के लोग भोजन के समय को लेकर बहुत सजग रहते हैं क्योंकि उन्होंने भोजन पा लेने के पीछे के संघर्ष को इस पीढ़ी से कहीं ज्यादा देखा है। तब के समय में समाज के हर एक वर्ग के लिए इतना आसान नहीं हुआ करता था कि उसे दो वक्त का भोजन भरपूर पोषक तत्वों के साथ मिल सके, अभी की तरह भोजन में दो तीन सब्जियाँ और सलाद, दिन में दो तीन बार नाश्ता, या जो मन किया बाहर हल्का फुल्का कुछ खा लेना होता ही नहीं था, विकल्प ही मौजूद नहीं थे। मितव्ययी समाज रहा, और तब क्रयशक्ति भी सीमित थी, विनिमय जोरों पर था क्योंकि वैसी सामाजिकता थी और उसके अपने बहुत फायदे थे, अगर किसी प्रकार की कोई कमी या गरीबी थी, उसे वह एक समय के बाद साध लेता था, हड़बड़ी नहीं थी, उस स्थिति में भी मनुष्य के पास इतना आत्मबल था कि वह ठीक-ठाक तरीके से जैसे-तैसे जीवन यापन कर लेता था, उसे टूटने बिखरने नहीं दिया जाता था।

साधन सीमित थे और उसी में से ही भोजन पाना होता था और प्रकृति के खिलाफ जाकर कोई क्रूरता नहीं की जाती थी, मशीनें हावी नहीं हुई थी तो भोजन हमेशा से संघर्षों के बाद मिलने वाली चीज रही। तब हाइब्रिड नामक जंजाल शुरू नहीं हुआ था तो जिस मौसम में जो मिल जाता था उसी का सेवन कर लिया जाता था लेकिन 1991 के उदारीकरण के दौर के पश्चात् भारत के कृषि आधारित समाज में आमूलचूल बदलाव देखने को मिले, भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के सामने खोल दिया, जिसका सीधा प्रभाव हमारे भोजन पर, संस्कृति पर, या यूं कहें सीधे हमारी जीवनशैली पर पड़ा। जिस आर्थिक-सामाजिक संस्कृति को हजारों वर्षों से लोग पोषित, संवर्धित कर अगली पीढ़ी को स्थानांतरित कर रहे थे, वह पिछले दो दशकों में ही आज हाशिए पर है। बहुत ही कम समय में अमीरी का दूसरा नाम मुद्रा का अधिक से अधिक संकलन हो गया। रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बाजार पर हमारी निर्भरता आसमान छू रही है, श्रम नेपथ्य में है। 

अभी के समय में भोजन आपको हमको एक क्लिक में उपलब्ध है। आप अपने फोन में एक क्लिक करते हैं और किसी जादू की तरह बाहर से डिब्बा बंद खाना आपके लिए तैयार होकर आ जाता है। इससे पहले कभी मनुष्यों के लिए भोजन इतनी सहज वस्तु नहीं हुई। लोग बाहर का खाना क्या होता है यह जानते तक नहीं थे। शायद कहीं घूमने निकल गए तो महीने में कभी बाहर खा लिया तो बहुत बड़ी बात होती थी, वरना कहीं घूमने भी जाते थे तो अपने भोजन के लिए साजो-समान और उतने दिन का राशन, ये सारी चीज़ें अपनी गाड़ी में लेकर चलते थे। वैसे कुछ लोग, जिसमें पुरानी पीढ़ी के लोग शामिल हों, अभी भी इस परंपरा का निर्वहन करते हैं। अभी कल ही एक भरी हुई बस रास्ते में दिखी, पूछने पर मालूम पड़ा कि वे लोग सप्ताह भर के लिए तीर्थाटन करने निकले हैं। सबसे बढ़िया बात यह कि वे भोजन की पूरी व्यवस्था लेकर चल रहे हैं, बड़े-बड़े डेक में चालीस पचास लोगों के लिए रोड के किनारे ही एक जगह खाना बन रहा था, साथ में दो तीन खानसामा भी थे, खाने की खुशबू भी बिल्कुल वैष्णव पध्दति की तरह ठीक वैसी जैसे आपको किसी मंदिर या भंडारे में मिलती है। और उस बस में सफर करने वालों में हर उम्र के लोग दिखे, अच्छा लगा कि कम से कम बच्चों की स्मृति में यह संस्कृति समाहित हो रही है। देखकर खुशी हुई कि थोड़ा ही सही लोग कहीं भी जाएं, भोजन पकाकर खाने की यह संस्कृति अभी भी अपने स्तर पर निभा रहे हैं।

अभी वर्तमान में जहां बाहर का खाना खाना हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है ऐसी स्थिति में समय पर भोजन कर लेना एक उपलब्धि की तरह हो चुका है। भाग दौड़ और हाइब्रिड रूपी गलाकाट प्रतियोगिता के इस जमाने में जहां हर मौसम में दूसरे मौसम की सब्जियां उपलब्ध है, हर ताजे मौसमी फल का जूस डिब्बों में बंद होकर वर्ष भर उपलब्ध है। ऐसे में नियत समय पर अच्छा भोजन ग्रहण करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। इस एक चुनौती ने तो मानो अमीर और गरीब का भेद ही खत्म कर दिया है, लोगों को समझ ही नहीं आता है कि वह भोजन के रूप में क्या ग्रहण करने जा रहे हैं। जब से भोजन मिलना जितना अधिक सर्वसुलभ हुआ है उसके प्रति उतनी अधिक उदासीनता बढ़ी है। आज ऐसी स्थिति है कि लोगों के पास अमीरी तो आई है ( खैर, मेरी नजर में तो गरीबी और गुलामी का तरीका बस बदला है ), क्रयशक्ति बढ़ी है, मुद्रा का प्रवाह बढ़ा है, मशीनों से हम घिर चुके हैं, लेकिन हमारा आत्मबल बेहद कमजोर हुआ है, हमारा धैर्य तुरंत जवाब देने लगता है।

शरीर का अपना मेकेनिज़्म अद्भुत है। जैसे हम शरीर को कोई भोजन देते हैं, शरीर की जैसी व्यवस्था है, वह उस हिसाब से उस भोजन से अपनी काम की चीज उठा लेता है, और बाकी फेंक देता है, जरूरी नहीं कि वह हमेशा काम की चीज संपूर्णता में लेता हो। ये ठीक उसी तरह की व्यवस्था है, जैसे हमारे यहाँ एक तकिया कलाम चलता है कि " सुनो सबकी, करो अपनी "। यानि आपने जैसे विचार के स्तर पर किसी की पूरी बात सुनी, लेकिन आपने अपनी जरूरत के हिसाब से, उस समय आपकी जैसी समझ और क्षमता रही उस लिहाज से अपने काम की चीज उठा ली, बाकी छोड़ दिया। शरीर की पूरी आंतरिक व्यवस्था ऐसे ही चलती है। आप ढेरों पोषकतत्व वाली चीजें शरीर को देते रहिए, अगर मन शरीर और ये पूरी व्यवस्था एक लय में नहीं है तो वह उन पोषकतत्वों को किसी अच्छे विचार को सुन कर अनसुना कर देने की तर्ज में निकाल बाहर करता रहेगा।

कैलोरी कार्ब फैट आदि नापने के लिए मोबाइल में एप्प आ चुका है, मनुष्य खुद अपनी एक-एक गतिविधि की सतत् माॅनिटरिंग करा रहा है। भोजन की सर्वसुलभता इस हद तक अपने चरम पर है कि हम क्या भोजन करते हैं इसकी कैलोरी भी नापने लगे हैं, कितने तरह के विटामिन अपने शरीर को दे रहे हैं इसकी भी गणना करने लगे हैं। तकनीक की इंतहाई कहिए कि वह शरीर की प्राकृतिक व्यवस्था तक को चुनौती दे रहा है। लेकिन क्या सचमुच इस सबसे हमको कोई दूरगामी लाभ हो रहा है, क्या हमें और हमारे शरीर को वास्तव में सही पोषक तत्व मिल पा रहे हैं, क्या हम वास्तव में एक स्वस्थ शरीर को धारण कर रहे हैं, क्या सचमुच हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है, इतनी तकनीक और सुविधाओं के बावजूद क्या हम समय पर भोजन कर पा रहे हैं, क्या हम जीवन के प्रति सहज हुए हैं, अगर ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है तो यह वाकई चिंता का विषय है जिस पर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।



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