पिछड़ों, वंचितों, शोषितों की समस्याओं से, उनके आंदोलनों से हमेशा सहानुभूति रही है, लंबे समय से उनकी पक्षधरता की है, आगे भी यह प्रक्रिया आजीवन जारी रहेगी। इस दौरान कई लोग बीच-बीच में यह कह जाते कि मैं गलत हूं, मुझे समझ नहीं है और फिर अपनी समस्या भी बताते कि जिन्हें समाज पिछड़े तबके का कहता है, जिन्हें विशेषाधिकार हासिल है, उस प्राप्त विशेषाधिकार का दुरूपयोग कर कुछ लोग बेहूदगी की हद पार कर गये जिनकी वजह से उन्होंने कितनी पीड़ा कितनी हिंसा झेली। ऐसे मामले होते रहते हैं, वह बात अलग है कि ऐसे मामलों को कई बार विशेष कवरेज नहीं मिल पाती है। एक सभ्य व्यक्ति चाहे वह किसी भी तबके का हो, वह कभी अपने आपको कोर्ट कचहरी में नहीं घसीटना चाहता है। इसमें भी सभ्यता का एकमात्र बड़ा पैमाना यह कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन में कितना कम दखल देता है, कितनी कम हिंसा करता है।
एक बार एक करीबी ने बताया कि उनके पड़ोस में एक विशेष जाति के लोगों ने अपने जातीय विशेषाधिकार से इतना आतंकित किया कि अंततः उन्हें वह जगह बेचकर कहीं और जाना पड़ा। जो साथी अपने अनुभव बताते हैं, उन्होंने शायद कभी मेरे अनुभव जानने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कभी यह नहीं पूछा कि क्या मैंने कभी यह सब झेला है। जी हां, ऐसी हिंसाएं मैंने भी देखी है, खूब मानसिक तनाव झेला है, फिर भी कभी खिलाफ जाकर बात नहीं लिखी, उसके पीछे मेरे अपने कारण है। ऐसे मामलों में हमेशा मैंने चुप रहकर नजर अंदाज कर देने को ही प्राथमिकता दी है। क्योंकि मुझे मालूम रहता है कि अमुक व्यक्ति अपने जीवन के साथ कोई सुधार नहीं करना चाहता है, तो बेहतर है कि ऐसे लोगों के प्रभाव से खुद को अलग किया जाए भर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। वैसे भी कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, पंथ, समुदाय का क्यों न हो, सबका लेखा-जोखा अंततः यही होता है।
अंत में यही कि अधिकतर मैंने यह देखा कि व्यक्ति अपने कुल, अपनी जाति में व्याप्त विसंगतियों से आजीवन खुद को अलग नहीं कर पाता है। गेहूं में घुन पीस जाने की तर्ज पर आजीवन उन प्रवृतियों को, खराब तौर-तरीकों को ढोता रहता है। जो व्यक्ति इन विसंगतियों से पार पाकर बेहतरी की ओर आगे बढ़ता है, वह सबसे पहले अपने ही समाज से कट जाता है। क्योंकि वह जिस प्रगतिशील मानसिकता के साथ जीवन में आगे बढ़ रहा है उसी के समाज के अधिकांश लोग उसके ठीक विपरित दिशा में जीवन जी रहे होते हैं।
इति।
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