इंजीनियरिंग के फाइनल सेमेस्टर में मुझे 83% मिला था। कैसे मिला, यह खुद मेरे लिए आजतक जाँच का विषय है। क्योंकि मैंने ऐसे ऐसे उत्तर लिखे थे कि अगर मेरा पेपर आउट किया जाए तो अभी जो राज्य सेवा परीक्षाओं में "आईने दहशाला" का उत्तर वायरल हो रहा है। कुछ एक वैसा मिल जाएगा, स्तर उससे बेहतर होगा, उतना हवा हवाई भी नहीं होगा, खैर। और ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं था, एक बहुत बड़ी आबादी यही करती थी, इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अपवाद स्वरूप बहुत लोग वास्तव में मेहनत भी करते थे, लेकिन उसके बदले उन्हें वैसा मिलता नहीं था। पेपर में फेंकने की स्किल की बात करें तो ये एक दिन में डेवलप नहीं हुई, ये कला भी मुझे देर से समझ आई।
हमारे सीनियर्स कहा करते - देखो बालक, अपराधबोध तो होगा लेकिन पूरा पेपर भर के आना है, जो पढ़ के गये हो, उसे ही मिला जुला के लिख आओ, कहानी गढ़ो, चेक करने वाले को उलझाओ, उसे भी काम निपटाना है और तुम्हें भी। पेपर के शुरूआती पेज में पूरी ईमानदारी से उत्तर लिखो, यहाँ फेंकने का काम थोड़ा भी न हो, यह सुनिश्चित करो। फेंकने का काम वहाँ शुरू करो जहाँ चेक करने वाले की आंखें थकने लगे, वहां उसे छंकाओ। बड़े प्रश्नों में भी शुरूआत और अंत सही रखो, बीच में खेलो। लेकिन अंतिम लक्ष्य यह कि पेपर भरा हुआ दिखना चाहिए, गंभीरता दिखनी चाहिए कि तुम्हें थोड़ा थोड़ा सब आता है, दिखना चाहिए कि तुमने प्रयास तो किया, मैदान छोड़कर भागे तो नहीं, और पेपर बहुत ज्यादा भी नहीं भरना है लेकिन खाली भी नहीं दिखना चाहिए और यह सब काम सुंदर राइटिंग में करो। सीमित समय रहता है, ज्यादा माथापच्ची करोगे, ईमानदारी से लिखूंगा सोचोगे तो कभी पूरा पेपर ढंग से लिख ही नहीं पाओगे, ह्यूमन ब्रेन की वर्किंग केपेसिटी को समझो, पेपर चेक करने वाले भी इस हकीकत को जानते हैं, इसलिए वे भी काम चलाओ वाले मोड में रहते हैं। यही हकीकत है पार्थ, इस हकीकत को स्वीकारो और अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ो।
यहाँ आप देखेंगे कि राज्य सेवा परीक्षाओं की मेंस की तैयारी में और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में पेपर लिखने के पीछे के इस मनोविज्ञान में काफी समानताएं हैं। पिछले कुछ सालों में इंजीनियरिंग क्षेत्र के बहुत सारे लोगों का सिविल सेवा में चयन होने का कारण गणित नहीं बल्कि ये कला है, जिसमें वे बहुत पहले से निपुण होते हैं, जिस कला को सीखने में एक नाॅन-इंजीनियरिंग छात्र को काफी समय लग जाता है। मैंने भी जब यह कला सीखी तो तब तक काफी देर हो चुकी थी, छठवां सेमेस्टर आ चुका था। तब लाइब्रेरी में बैठकर जहाँ सब कोई इंजीनियरिंग की किताबें पढ़ा करते, मैंने नावेल चाटना शुरू किया, चूंकि हिन्दी मीडियम का छात्र रहा और पेपर अंग्रेजी में लिखना होता, तो भाषा की मजबूती पर, उसकी स्वच्छता पर काम किया। क्योंकि पेपर भरने के लिए भी एक अच्छा कहानीकार होना जरूरी है, और उसके लिए आपके पास एक कसी हुई भाषा का होना बेहद जरूरी है। इसलिए जैसे ही कालेज खत्म होता, लाइब्रेरी में जाकर बैठ जाता, मैंने उस दौरान खूब नावेल पढ़े, हर तरह के नावेल पढ़े, कोर्स बुक पढ़ने वाले कोई दोस्त यार पास से गुजरते तो हंसा करते कि अबे साले सप्ताह भर बाद पेपर है, रात को यहां बैठ के ये क्या पढ़ रहा है। इंजीनियरिंग के आखिरी सेमेस्टर तक मैं इस विद्या में निपुण हो चुका था, और जब मैंने इस विद्या का बढ़िया से उपयोग किया तो इसके परिणाम मेरे सामने थे। वो दिन है और आज का दिन है, तब से मैंने इस कला का उपयोग हमेशा के लिए बंद कर दिया।
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