मार्च 2021 को भारत घूम के आने के बाद से कहीं अलग से घूमने गया ही नहीं हूं। लोग पेशेवर यात्री मानकर पूछते रहते हैं कि अब कहां जा रहे, तो ऐसा है कि मैं हमेशा घूमता नहीं हूं, जब तक भीतर से आवाज नहीं आती तब तक तो बिल्कुल भी नहीं। इसीलिए पिछले ढाई साल से अलग से ऐसे कहीं नहीं गया, काॅलिंग ही नहीं आई। इस बीच दूसरी बाइक भी आ गई, उसे भी आए 7 महीने हो चुके, लेकिन कहीं भी जाना नहीं हुआ। इन ढाई सालों में एक भी कोई लंबा ट्रैक नहीं किया, जिसका थोड़ा मलाल है ही। वैसे दूसरी जिम्मेदारियों में व्यस्त हूं और कहीं न जाकर भी उतना ही मजे में हूं, जितना भारत घूमते हुए था। एक दो दिन के लिए कहीं घूमने चले गये, कहीं रूक गये, इसे मैं घूमना मानता ही नहीं हूं, उल्टे इससे हरारत ही होती है, ये एक दो दिन में मन शरीर जस का तस ही रहता है, कुछ नयापन आता ही नहीं है। अभी के समय में वीकेंड और कुछ नहीं बस एक तिलिस्म मात्र है, जो मार्केट के परोसे गये फास्ट फूड से भी ज्यादा खतरनाक है। इंसान के लिए एक-एक दिन मानो जीने का तत्व न होकर काट कर खा जाने की वस्तु हो गई है, वह शांत नहीं बैठ सकता, वह उन दिनों को भी किसी भी हाल में मानो चबाकर खा लेना चाहता है।
वैसे भी हर चीज का अपना एक मूड होता है, और वो अपने आप जब नियति को मंजूर होता है, स्वयमेव बन जाता है, अपने आप अस्तित्व के यहां से जो चीजें आपके लिए तैयार होती है, उसका अपना अलग ही सुख है। इसलिए जबरदस्ती घूमने नहीं जाना चाहिए, और यह बात सिर्फ घूमने पर लागू नहीं होती है।
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