Monday, 15 May 2023

आम आदमी व्यवस्था की नजर में कीड़ा मकोड़ा है

अभी पिछले कुछ दिनों से पीएससी के परीक्षा परिणाम के पश्चात माहौल गरमाया हुआ है। कुछ एक सामाजिक कार्यकर्ता जिन्होंने सीट बिक्री और 75 लाख को लेकर सनसनी बटोर ली। उनकी मासूमियत पर भी हंसी आती है और लोगों की भी। लोग इतने भोले हैं उन्हें महान समझकर सर आंखों पर बिठा लेते हैं। और उसमें ये लोग यह तर्क भी दे देते हैं कि भाई व्यवस्था में अयोग्य लोगों का चुनाव हो जाता है। ऐसे लोगों से पूछने का मन होता है की ऐसी व्यवस्था जिसमें सिर्फ इंसान आदेश का पालन करने के लिए बाध्य होता है। जहां इंसान का एक सूत्री कार्यक्रम ही आदेश की पालना करना होता है वहां योग्य या अयोग्य जैसी कोई चीज होती कहां है।

बड़ी मासूमियत से ऐसे लोग आम लोगों की भावनाओं से खेल जाते हैं। ऐसे लोगों की हिम्मत नहीं कि खुलकर कुछ कह सकें इसलिए रटी रटाई बातें दुहराकर ईमानदारी का शिगूफा छोड़ देते हैं, लोग लपक लेते हैं। अब एक आम व्यक्ति भी जो आजीवन अपने आसपास भ्रष्टाचार से दो-चार हो रहा होता है वह भी बहुत आश्चर्य जताता है कि अरे यह तो कमाल हो गया, ये हम ईमानदार लोगों की धरती में ये इतने लाख का खेल चल रहा है, गलत बात है ये, जबकि खुद भी उसी व्यवस्था का हिस्सा है जो खुद में भ्रष्ट है। हममें से हर कोई भ्रष्टाचार करता है और भ्रष्टाचार सिर्फ पैसे से नहीं होता है आचार व्यवहार से, रिश्तों में, अपने दैनिक जीवन की हर एक गतिविधि में इंसान भ्रष्टाचार कर ही रहा होता है।

रही बात पिछले कुछ समय से आ रही अनेक भर्ती परीक्षाओं की। तो इसमें सिर्फ यही कहना है कि जब राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में नेता और अधिकारियों ने अपने बच्चों को सेट कर लिया तो व्यापम स्तर की परीक्षाओं में छुटपुट अधिकारी और ब्लॉक प्रमुख अपने बच्चों को आगे करेंगे ही और इसमें कोई दो राय नहीं है यह सब पहले भी होता आया है, अभी भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। बस अंतर यह है कि इस बार थोड़ा रेट बढ़ गया है और चीजें खुलकर, अधिक पारदर्शिता के साथ हो रही हैं। पीएससी का जो रिजल्ट आया उसमें बड़े-बड़े पद रसूख वालों ने हथिया लिया, हमेशा की तरह आम आदमी के लिए नायब तहसीलदार, जेल अधीक्षक, लेखा सेवा यही सब छोड़ दिया गया। आपने कमजोर को कमजोर ही रखा। वह प्रमोट होते होते बूढ़ा हो जाएगा लेकिन रहेगा आपका नौकर ही, आपने ऐसी व्यवस्था कर दी। 

अब सवाल यह खड़ा होता है कि आम आदमी करे तो करे क्या। आखिर इतने छात्र क्यों सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं। मां-बाप अपना सर्वस्व न्यौछावर कर क्यों अपने बच्चों को एक सरकारी नौकरी मिल जाए इसके लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए रहते हैं। असल में भारत के आम, कमजोर, निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार के पास जीवन यापन के लिए और कोई स्पेस बचता ही नहीं है। इसमें भी जो आराम में हैं, सुविधाभोगी लोग हैं, वे लोग बड़ी आसानी से मुंह उठाकर कह देते हैं कि आप में योग्यता है तो व्यापार कर लीजिए, खुद का कुछ कीजिए लेकिन क्या भारत के एक आम आदमी के पास यह स्पेस है ? कुछ रूपया जोड़कर कुछ करना भी चाहे तो उसके सामने पहाड़ जैसी मुश्किलें हैं। वहां तो और भी स्पेस नहीं है, एक बहुत बड़े तबके ने पहले ही सब कुछ आरक्षित करके रखा हुआ है, आपको बाजार में टिकने ही नहीं देंगे।

इसीलिए भारत के आम आदमी के पास एक कोई छोटी मोटी सरकारी नौकरी के अलावा कोई दूसरा सुरक्षित स्पेस बचता ही नहीं है, तभी लोग लगे रहते हैं। संघर्ष सिर्फ नौकरी पाने का नहीं होता है, जीवन मरण का प्रश्न होता है, अस्मिता की बात होती है। उसमें भी व्यक्ति नौकरी पाकर क्या ही कर लेता है उसका पूरा जीवन पारिवारिक उलझन, तनाव और जिम्मेदारियों के ईर्द गिर्द ही खत्म हो जाता है और एक दिन‌ वह चुपचाप दुनिया से चला जाता है। जीवन भर की पूंजी के रूप में एक कार और एक कोई घर या थोड़ी सी जमीन पीछे छोड़ जाता है। 

कुछ साल पहले भारत के माननीय प्रधानमंत्री जी ने देश के युवाओं को बहुत सही सुझाव दिया था। उन्होंने युवाओं से अपील की थी की युवा रोजगार के लिए पकौड़े बेचे। प्रधानमंत्री जी की बात सही है, भारत के आम युवा के पास चाय पकोड़े बेचने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प दिखता ही नहीं है। इससे ज्यादा उसके पास स्पेस ही नहीं है। वह थोड़ा भी अपने सामर्थ्य से आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो रसूख वाले पहले ही गिध्द की भांति उसे नोचने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। इस आम आदमी के हिस्से जब असफलता हाथ लगती है, जब उसे छला जाता है, वह बड़ी मासूमियत से या तो अपने भाग्य को कोस लेता है या फिर अपनी योग्यता पर सवाल खड़ा कर खुद को शांत कर लेता है। शायद आम आदमी की इसी पीड़ा को प्रधानमंत्री जी भी समझ ही रहे होंगे तभी उन्होंने असहाय होकर ऐसा विकल्प सुझाया होगा।

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