सन् 1992 के बाद उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण का दौर आया, जिसे एक बड़ा आर्थिक सुधार कहा गया। बड़े जोर शोर से इसे प्रचारित प्रसारित किया गया और कहा गया कि भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया। इस तरह से कहा गया कि मानो 1947 से 1992 तक जितने भी लोग हुए उन्हें तो जैसे इस बात की समझ ही नहीं थी। आजादी के बाद से अब तक एक आम आदमी की जीवनशैली को, या यूं कहें कि उसकी जेब को उसकी तिजोरी को सीधे प्रभावित करने वाली यह एक बड़ी परिघटना थी। तब से लेकर अब तक इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर लंबी चर्चाएं हुई हैं, अंततः मिला-जुलाकर इसे मोटे तौर पर देश के लिए, देश के लोगों के लिए सकारात्मक ही कहा गया है। लेकिन मेरा बहुत मजबूती से यह मानना है कि इस एक बड़े बदलाव ने भारत के लोगों के हाथ से बालिश्त भर लोकतंत्र झटके में छीन लिया, लोग तब से लेकर अब तक इन 31 सालों में सामाजिक आर्थिक मानसिक हर तरह से बेहद कमजोर हुए हैं, और कमजोर होने की यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। हर गुजरते साल यह और अधिक महसूस होता है। आज जो यह सुनने में आता है कि भारत की अर्थव्यवस्था में 90% धन भारत के सिर्फ 5-10% लोगों के पास है। 1992 की नीति की यह परिणीति है जो आज हमारे सामने है।
भारत के आम आदमी को हमेशा इस बात को समझना चाहिए कि जिस तरह का हमारा देश है, उसमें हमेशा यह कोशिश करनी चाहिए कि सरकार अधिक से अधिक आर्थिक रूप से मजबूत रहे न कि कोई निजी संस्था। निजी संस्था एक बेलगाम पागल हाथी की तरह होते हैं और हमेशा इनका चरित्र ऐसा ही रहेगा, उन्हें आप नियंत्रित नहीं कर सकते हैं, लाभ अर्जित करना जितना अंतिम लक्ष्य हो, उनका चरित्र लोककल्याणकारी कभी नहीं हो सकता है। और सरकार के पास अमीरी होती है, तो उसकी अमीरी देर सबेर लोगों तक आ ही जाती है, और इससे आम लोगों के जीवन में हस्तक्षेप भी कम होता है। आज स्थिति यह है कि सरकार की तथाकथित निजी संस्थाएं हमारे दरवाजे तक क्या हमारे घर के भीतर तक नजर बनाए हुए हैं, हमें इस हद तक बेतहाशा लोकतंत्र नहीं चाहिए जो पैसा फेंक तमाशा देख की तर्ज पर सुविधाएं मुहैया कराए, इसके दूरगामी परिणाम भयावह होते हैं। आज भोजन, आवास, रोजगार और जीवनशैली के तमाम पहलुओं को देखें तो हर तरह से हमें कमजोर किया जा रहा है लेकिन इस मुफलिसी की, इस गुलामी की हमें कोई खबर नहीं है। हमें समझना होगा कि सिर्फ मुद्रा संचित करना ही अमीरी का पर्याय नहीं होता है। मुद्रा के ईर्द-गिर्द घूमने वाले लोकतंत्र से लोग अमीर नहीं बल्कि कमजोर और गरीब होते जाते हैं।
एक बड़े परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो लोकतंत्र अब आम नागरिकों के लिए एक किराए के कमरे की तरह हो चुकी है। लोगों की न अपनी कोई जमीन है, ना उनका अपना कोई वजूद है, लोगों के पास सिर्फ एकमात्र विकल्प है कि वह बेहतर से बेहतर किराया चुकाते हुए अपना जीवन यापन करें। बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब, इस कमजोर हो रहे लोकतंत्र की आंच सब तक पहुंच रही है। लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस किराए के मकान रूपी लोकतंत्र में वह अपना जीवन यापन कर रहा है, वह उसमें कपड़ा टांगने के लिए कमरे के किसी कोने में ज्यादा से ज्यादा कील ठोक सकता है वह भी ड्रिल मशीन से, और अपने मुताबिक भीतर के कमरों में रंग रोगन कर सकता है, ताकि उसे थोड़ा बेहतर महसूस हो, इससे अधिक उसे स्वतंत्रता नहीं है। कमाते रहिए पैसे, करते रहिए नौकरी व्यापार और जोड़ते रहिए सामान, घर, पैसा और जमीन और इस तरह से दिन रात खुद को खपा दीजिए, लेकिन कभी जीवन में चैन नहीं पाएंगे, स्वतंत्रता का सुख क्या होता है आजीवन नहीं समझ पाएंगे क्योंकि आपके हमारे हिस्से के लोकतंत्र को तो पहले ही कमजोर कर दिया गया है, एक तरह से एक बड़ा हिस्सा छीन लिया गया है। हम लोकतंत्र के इस भयावह स्तर तक पहुंच चुके हैं। 1992 की नीतियों को यह कहा गया कि उससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गया लेकिन वास्तविकता में तो इसने एक तरह से आग में घी डालने का ही काम किया, जिसकी लपटें आज हमें तबाह किए हुए हैं, ऐसी आग लगी है कि बुझने का नाम ही नहीं लेती, इससे बेहतर तो यह होता कि उस वक्त हम एक रोटी कम खाकर अपने हिस्से का लोकतंत्र खुद बचा लेते। कम्प्यूटर फोन केएफसी डोमिनो हमें शेष दुनिया से देर से मिलता, कोई समस्या नहीं थी।
लेकिन हमारे साथ एक समस्या है, हमें हमेशा एक हीरो चाहिए होता है। कल एक फिल्म देख रहा था, उसमें एक किरदार ने यह कहा कि भारत के लोगों को हमेशा एक हीरो जैसा इंसान चाहिए जो उनको अपने हिसाब से घेरता रहे और बजाता रहे, लोगों को अपनी बजाने में मजा सा आता है। फिल्म का वह किरदार एक प्राइवेट प्लेयर था, जो कि एक फ्राॅड था, लेकिन उसे आज भी लोग भगवान की तरह मानते हैं। इसमें भी मेरा यह कहना है कि अगर आम लोगों का शोषण भी होता है तो वह सरकारी तंत्र के माध्यम से ही हो, क्योंकि सरकार से बड़ी विश्वासपात्र और कोई नहीं होती है। आज भी कोई सरकारी नौकर या कोई व्यापारी अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपना पैसा सरकार के ही खाते में ही क्यों दान कर जाता है, क्योंकि वह लोकतंत्र की तासीर को समझता है, उसे पता होता है कि गड़बड़ी तो हर जगह है लेकिन सरकार के हिस्से पैसे जाएंगे तो पैसा देर सबेर आम लोगों के बीच ही बंटेगा, कुछ गिने चुने निजी लोगों की हिस्सेदारी उसमें नहीं होगी।
इति।
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