अभी तक की समझ यही कहती है कि कुछ एक तबके जातियाँ जो भी कह लें, ऐसे हैं जिनके लिए देश समाज व्यवस्था कितना भी भला कर ले, वे अपनी बेहतरी करना ही नहीं चाहते, समय परिस्थिति के अनुसार बदलना ही नहीं चाहते, अपनी पाषाणकालीन सोच से ही जीवन जीना चाहते हैं। व्यवस्था झुककर दरवाजे तक जाती है लेकिन इनके लिए इनका अहं ही सर्वोच्च होता है। ये विवश कर देते हैं कि सामने वाला व्यक्ति इन्हें इनकी बिरादरी से नापे, बार-बार मौका देते हैं। आप इन्हें नजर अंदाज करेंगे तो ये आप पर टूट पड़ेंगे, आप इन्हें आगे करेंगे तो ये समाज को पीछे ले जाएंगे, कुल मिलाकर खाई कुआं वाली स्थिति हो जाती है। इंसानी समाज के लिए भी एक बड़ी चुनौती है कि आखिर वह करे तो करे क्या, इसलिए कई बार समय पर छोड़ देना ही सही विकल्प लगता है। वाकई भारतीय समाज अनेक किस्म की जटिलताओं से अटा पड़ा है जिसका बहुत गहरे से मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की जरूरत है। गाँधी ने सही नब्ज पकड़ी थी, आजीवन राम नाम जपते हुए कमजोर पिछड़ों के उत्थान के लिए जीवन खपा दिया और उसी समाज ने जो गाँधी को भगवान नहीं बना पाए, एक दूसरा भगवान ढूंढ लिया।
हर तरीके से गुणा भाग करके सोच के देखा कि समाज का प्रतिनिधित्व या जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले क्षेत्रों में इन खास तबकों के लोग क्यों नहीं होते हैं या अगर होते भी हैं तो समाज को बहुत अधिक पीछे ले जाने का काम आखिर क्यों करते हैं। शायद इसलिए तो नहीं प्रोग्रेसिव समाज ऐसे हाथों में जिम्मेदारी देने से कतराता होगा। बिना पूर्वग्रह के अभी तक यही देखने में आया है कि कुछ खास तबके ऐसे हैं जो कभी किसी का भला या किसी का उत्थान कर ही नहीं सकते हैं, उल्टे बेवजह नुकसान जरूर करते हैं, यह एक तरह का सैडिज्म ही है। पता नहीं क्यों उनमें थोड़ी भी मानवीयता विकसित नहीं हो पाती। खैर, इसमें यह भी एक कारण है कि जो अपना ही भला नहीं कर पाता, वह दूसरों का भला करे भी तो कैसे।
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