एक दुःख झेले हुए व्यक्ति को हमेशा ऐसे व्यक्ति का हाथ थामना चाहिए जिसने खुद जीवन में उसी मात्रा में दुःख को देखा हो, जीया हो, सहा हो। कई बार ऐसा होता है कि एक बहुत संघर्ष और दुःखों की यात्रा कर एक सरल जीवन यापन करने तक पहुंचने वाला व्यक्ति एक ऐसे व्यक्ति का हाथ थाम लेता है जिसने जीवन में न्यूनतम स्तर का संघर्ष भी नहीं देखा होता है। ऐसी स्थिति में एक समय के बाद रिश्तों में निर्वात पैदा होने लगता है, भले ऐसा व्यक्ति व्यवहार कुशल हो, नेक हो, लेकिन एक समय के बाद होता यह है कि एक जिसे दुःख या तकलीफ मानता है और उम्मीद करता है कि सामने वाला उसमें इतनी मात्रा में सहानुभूति जताए लेकिन सामने वाले के लिए तो अमुक दुःख, एक दुःख की श्रेणी में आ ही नहीं पाता है, उसके लिए तो मानो दुःखों की परिभाषा ही अलग है और इसमें उसकी कोई गलती भी नहीं है क्योंकि शायद उसने कभी जीवन को इस तरह से देखा ही नहीं होता है। इसीलिए रिश्तों में हमेशा इस एक बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमुक व्यक्ति का, जीवनसाथी का, दुःखों को लेकर, संघर्ष को लेकर, जीवन की तमाम विद्रूपताओं को लेकर आखिर क्या दृष्टिकोण है।
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