सन् 2015, ठीक गणेश नवरात्रि का समय था। इत्तफाक से मैं जहाँ रहता था, वो क्षेत्र ध्वनि प्रदूषण वाले जोन में ही आता था, जहां से अधिकतर पाॅवर डीजे वाली रैली निकलती थी। गणेश और खासकर नवरात्र के समय बहुत परेशानी होती थी। पता नही उतने शोर में लोगों को कैसे आनंद मिल सकता है, मुझे तो शादियों का डीजे जो एकदम सीने तक महसूस होता है, उससे भी अजीब बैचेनी होने लगती है। 2015 में ही ठीक यही समय रहा होगा, गणेश पूजा खतम होने को थी। तब दीदी राज्य सिविल सेवा परीक्षाओं की लिखित परीक्षा देने आई थी तो मेरे साथ थी, उस समय दीदी प्रेगनेंट थी, शायद पांचवां या छठा महीना होगा, प्रेगनेंसी में वैसे भी मूड स्विंग होता ही है। एक दिन शाम को मैं कहीं बाहर था, दीदी का रोते हुए फोन आया, कहने लगी कि डीजे की आवाज से बहुत दिक्कत हो रही, इस कदर रो रही थी मानो घर में कोई दैत्य घुस आया हो और वो वहां से जान बचाकर बाहर निकलना चाहती हो, मानो बचाओ-बचाओ की आवाज लगा रही हो। शुरूआत में स्थिति की गंभीरता को समझ ही नहीं पा रहा था, मुझे लगा कि सामान्य है, डीजे ही तो है, लेकिन आप कितना भी खिड़की दरवाजा बंद कर लीजिए, पाॅवर डीजे खिड़की तोड़कर आपके शरीर तक पहुंच जाता है, पूरा झकझोर देता है। और एक गर्भवती स्त्री को तो और अधिक प्रभावित करता है। उस दिन मैंने इस डीजे के प्रकोप को बहुत करीब से महसूस किया। तब आनन फानन में अपना काम छोड़कर तत्काल घर पहुंचा और दीदी को आधे एक घंटे के लिए बाहर एक शांत क्षेत्र में ले गया। जब जब डीजे गुजरता, कई दिनों तक शाम को हम यही करते, पास के एक शांत से इलाके में जहां एक पार्क था, कुछ देर वहां समय बिताने चले जाते।
डीजे का यह प्रकोप अभी भी बदस्तूर जारी है। पाॅवर डीजे की आवाज (डेसिबल में) हर गुजरते साल पहले से अधिक बढ़ती ही जा रही है, क्योंकि इनकी प्रतियोगिता रहती है कि जिसकी आवाज सबसे कानफोड़ू हिला देने वाली होगी, वही रैली का विजेता घोषित होगा। एक ओर जहाँ इस डीजे से सैकड़ों हजारों लोगों का रोजगार जुड़ा है, वहीं दूसरी ओर हर साल अप्रत्याशित घटनाएं भी सामने आती है, जिसमें लोगों को अस्पताल में भर्ती तक होना पड़ा है, पता नहीं इसका क्या दूरगामी समाधान निकलेगा। वैसे डीजे से इतर रोजमर्रा के दिनों की भी बात करें तो आज के समय में रायपुर में ध्वनि प्रदूषण इतने चरम पर है कि इस शहर का भूस बन चुका है, थोड़ा बाहर निकलते ही मानसिक शारीरिक थकान हावी होने लगती है, भले लोगों को यह सब एक बार में महसूस नहीं होता है। हम कभी अलग से ध्वनि प्रदूषण को एक गंभीर समस्या के तौर पर देखते भी तो नहीं है। हां, इसमें हम यह जरूर कहते हैं कि शहर में समय का पता नहीं चलता, लेकिन इसमें यह नहीं समझ पाते कि यह सब ध्वनि प्रदूषण की वजह से होता है। खासकर गर्भवती महिलाओं, छोटे बच्चों और बुर्जुगों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है लेकिन कौन इतनी पड़ताल करे। ध्वनि प्रदूषण युक्त शहर में रहने वाला एक व्यक्ति आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो गांवों या शांत छोटे कस्बों की तर्ज पर यह कह दे कि समय ही नहीं कट रहा है, क्योंकि मन मस्तिष्क में प्रदूषण इतना हावी होता है कि उसे समझ ही नहीं आता है कि उसके पास समय है भी या नहीं, पूरी दैनिक जीवनचर्या आजीवन अस्त व्यस्त रहती है, कुछ न होके भी एक भागमभाग लगी रहती है, जी मचलता रहता है। और एक दिन किसी दीमक की तरह शहर रूपी दीवार में ही व्यक्ति मिट्टी बनकर खाक हो जाता है।
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