Saturday, 3 November 2018

                   मेरा एक मुंहबोला छोटा भाई है, 12वीं पास है, अभी उसकी उम्र लगभग 20 साल की होगी। 12वीं पास करने के बाद वह काम के सिलसिले में शहर आया, सन् 2015 में उसे हमने रायपुर के एक मिठाई की एक दुकान में काम दिलवाया, 6000 रूपए प्रतिमाह फिक्स हुआ, साथ ही खाना पीना वहीं दुकान में ही, कारखाने में रहने की भी सुविधा थी, लेकिन‌ ज्यादा गुलामी की जकड़न महसूस न हो पाए इसलिए मैंने लगभग दो साल तक उसे अपने साथ रखा। साथ में उसी गांव का एक और 12वीं पास लड़का था,जो आंख के अस्पताल में काम करता था, यानि हम कुल तीन लोग थे। उन लोगों ने आगे बीए प्राइवेट का फार्म भरा, लेकिन दोनों बुरी तरीके से फेल हो गए‌। फिर मैंने उन्हें सख्त हिदायत दे दी कि मेरे से पूछे बिना आगे किसी भी प्रकार की पढ़ाई मत करना। अब पढ़ाई में उनकी कोई खास रूचि थी नहीं, तो पढ़ाई करने का क्या ही औचित्य।
इस बीच मेरे घरवाले, रिश्तेदार जब कभी मुझसे मिलने आते या फोन पर बात होती तो मुझे खूब कोसते कि कैसे लोगों के साथ रहता है, ये 12वीं पास मिठाई दुकान वाले वर्कर जैसे लोगों के साथ रहेगा तो तेरा बुध्दिभ्रष्ट हो जाएगा, अच्छे लोगों के साथ रहा कर, पढ़े-लिखे लोगों के साथ रहा कर, आदि आदि। मैं चुपचाप सुन लेता। ये वही 12वीं पास लड़के थे जो आज भी मेरे माता-पिता को पूरे हक‌ से मम्मी पापा कहकर बुलाते हैं।
खैर...

चूंकि मैं अधिकतर समय बाहर उत्तराखंड या कहीं और रहता। तो मैंने वह कमरा अपने उन दोनों छोटे भाईयों के भरोसे छोड़ दिया। साल भर पहले की बात होगी, मैं उत्तराखंड से वापस लौटा, मैं क्या देखता हूं कि वह कमरा जिसे मैंने उनके भरोसे छोड़ दिया था, उसे उन लोगों ने धर्मशाला बना दिया है, सब तरफ शराब की बोतलें, गूड़ाखु की डिबिया, चूना डब्बा, गुटखे का रैपर आदि बिखरा हुआ था। असल में उन्होंने इस बीच अपने गाँव से 3-4 और लोगों को बुला लिया था, और तो और इतने बड़े सयाने कि सबको छोटा मोटा काम दिला दिया था। ये तो चलो ठीक हुआ। लेकिन वे सारे लड़के पक्के नशेड़ी थे, आगे बढ़ने की जो लगन होनी चाहिए, वो तो उनमें बिल्कुल न थी। इन सब चीजों की वजह से मेरा सब्र का‌ बांध टूट चुका था, मैंने उन सबको दो दिन का समय दिया और कहा कि जाओ अपने लिए नया कमरा ढूंढ लो, नहीं तो मैं यहाँ से तुम सब का सामान बाहर फेंक‌ दूंगा।
मैंने अपने उस एक भाई को भी खूब डांट लगाई और समझाने की कोशिश करी कि तुम लोगों के कारण मैं घरवालों से ताने सुनता हूं, और तुम यहाँ 6000 की नौकरी करके अपने ये नशेड़ी दोस्तों के नाम‌ पर समाजसेवा मचा रहे हो, पहले खुद का फ्यूचर तो देख लिया करो।
लेकिन जड़बुध्दि थे, कहां समझते, कमरा भी नहीं ढूंढा ये सोचकर कि भैया हम लोग को ऐसे थोड़ी भगा देगा।
नवतप्पा का समय था, और मेरा पारा तो पहले ही चढ़ा हुआ था, मैंने एक दिन सुबह सुबह उन सबको वहाँ से भगा दिया और कहा कि जाओ आज के बाद कभी शक्ल मत दिखाना, लाइफ में कुछ नहीं कर सकते, कभी नहीं सुधर सकते। एक दो दिन तो बड़ा खराब लगा कि गुस्से में ये मैंने क्या कर दिया, इतनी गर्मी में कहां जाएंगे, कारखाने में रहेंगे, वहां तो कूलर तक नहीं है, यहां तो इस 40 पार गर्मी में कूलर तक काम नहीं करता है। इस बीच मैं खुद कुछ दिन बिना कूलर के रहा।
और फिर उनसे मेरा कभी संपर्क नहीं हुआ।

आज इतने लंबे समय बाद उस भाई से बात हुई तो पता चलता है कि उसने उन सभी नशेड़ी साथियों से दूरी बना ली है। और इस दौरान पैसे जमा करके पांच गाय खरीद ली है, एक गाय की कीमत तकरीबन 35000 और इतना दूध हो रहा है कि प्रतिमाह 40000 रूपए से ज्यादा कमाई हो जाती है। चूंकि खुद शहर में रहकर मिठाई दुकान में फिलहाल 10000-12000 रूपए प्रतिमाह कमा रहा है, तो गांव में गायों की देखरेख के लिए दो लोगों को 7000 रूपए प्रतिमाह में काम पर रखा हुआ है, कह रहा था 7000 रूपया ज्यादा है लेकिन अभी और कुछ बड़ा सोच रहा हूं इसलिए पैसे का नहीं देख रहा हूं, और सरकार से 5 रूपए प्रति लीटर वार्षिक बोनस यानि लगभग 50000 रूपया वहाँ से भी मिल जाएगा। बता रहा था कि अभी नवंबर के आखिरी सप्ताह में लखनऊ जाकर बकरीपालन का कोई ट्रेनिंग कोर्स करेगा और फिर जनवरी 2019 में 100 बकरियाँ खरीदने वाला है। और कह रहा था कि एक घोड़ा खरीदने का बड़ा मन है। मैंने हंसते हुए पूछा कि ये क्या है बे, लोग कार बाइक खरीदने का शौक रखते हैं और तू है कि घोड़ा पालना चाहता है‌। बोलता है बहुत मन है गांव में रहकर घोड़ा पालने का, अब इस मिठाई दुकान में कब तक सढ़ेंगे भैया, आखिर में गांव में ठाठ से रहना है। और फिर कहता है कि उस दिन जो नवतप्पे में आप हमको भगाये थे, पहले कुछ महीने तो बहुत खराब लगा कि कोई इतना बेकार आदमी कैसे हो सकता है कि अपनों को ही भगा दे।

फिर कहता है कि पहले एक दो महीने तो रहने खाने में ऐसा खर्च हुआ कि बहुत उधारी हो गया, ये नौबत आ गया था कि रायपुर छोड़ के भागने वाला था, फिर धीरे धीरे पूरा मैनेजमेंट समझ आ गया, खर्चा कम होने लगा। सच में आपके साथ रहते थे तो कोई फालतू खर्च नहीं होता था, तब लगा कि आप उस दिन अगर नहीं भगाए होते तो बढ़िया आराम से मिठाई दुकान में काम करते करते सढ़ जाता, आज ये इतना सब नहीं हो पाता‌। 

Wednesday, 11 July 2018

~ पहाड़ों की हिन्दी ~

                         मुझे बार बार ये महसूस होता है कि पहाड़ों की हिन्दी मध्य भारत के हिन्दी बेल्ट से कहीं ज्यादा परिष्कृत है। जैसे अगर मैदानी क्षेत्रों में आर्थिक समस्या आए तो ऐसा कहेंगे कि यार पैसा नहीं है, मेरे पैसे डूब गये आदि। लेकिन पहाड़ में आपको पैसा शब्द सुनने को भी नहीं मिलेगा यहाँ आपको प्राइमरी में पढ़ने वाला बच्चा भी यह कहते मिल जाएगा कि दद्दा रूपए नहीं हैं, वो पैसा बोलेगा ही नहीं, वह रुपया ही बोलेगा, वैसे भी अब पैसा प्रचलन में ही नहीं है, रूपये में ही सारा हिसाब होता है, जबकि मैदान में भाषा की अति हो जाती है, जैसे ऐसा कह जाते हैं कि "यार उसके पास तो कितना पैसा है लाखों करोड़ों का पैसा है, जबकि वास्तव में पैसा कहना गलत हुआ, रूपये कहना चाहिए।

दूसरा उदाहरण -
आज भी मैदानी इलाकों में लोगों को टाॅफी और चाॅकलेट में फर्क करना नहीं आता जबकि पहाड़ में ऐसा नहीं है। मुझे याद है जब मैं 2015 में पहली बार मुनस्यारी, उत्तराखण्ड आया था तब मैं एक परचून(किराने) की दुकान पर एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए चॉकलेट मांगा, दुकानदार भी परेशान कि आखिर मैं उनसे किस चीज की मांग कर रहा, फिर जब मैंने छूकर उस डिब्बे को उठाया तो उन्होंने कहा कि, सर टाॅफी कहो न फिर, मुझे लगा आप चाॅकलेट कह रहे, यानि चाॅकलेट माने डेयरी मिल्क जैसे बड़े पैकेट, और टाॅफी माने पचास पैसे,एक रूपए वाले छोटे पैकेट।

तीसरा उदाहरण -
जब भी पहाड़ में आप आएं और किसी दुकान या होटल में पांच सौ या दो हजार का नोट थमाकर बाकी बचे हुए पैसे मांगेंगे तो एक अनपढ़ भी आपको ये नहीं कहेगा कि चैंज दे दो, वो यह कहेगा कि भाई जी खुल्ले दो। कहीं भी आपको चैंज शब्द सुनने को ही नहीं मिलेगा।

चौथा उदाहरण -
जैसे बेड हुआ, ये तो पलंग का अंग्रेजी शब्द है। मैदानों में खाट, पलंग दोनों के लिए सामान्यतया लोग बेड कहते हैं। लेकिन पहाड़ में बच्चे से लेकर बूढ़ा, पढ़ा लिखा हो या अनपढ़ हर कोई चारपाई ही कहता है‌।

पांचवां उदाहरण -
मैं एक साथी के घर से विदा ले रहा हूं और मुझे अपने घर वापस जाना है तो मैदानों में इस स्थिति में एक अपनापन निभाने के वास्ते मेरा साथी मुझसे कहेगा कि यार एक दिन और रूक जाओ। रूकना, रोकना, रूक जाना, कितने बोझिल से भाव देते हैं ये शब्द, ऐसा भाव प्रस्फुटित होता है मानो हम कहीं जबरन किसी को तो नहीं रोक रहे, औपचारिकता तो नहीं निभा रहे। लेकिन पहाड़ में इस मामले में भी एक अलग ही किस्म का अपनापन है, सरलता है, सहजता है, पहाड़ में ऐसी स्थिति में आपको कहेंगे कि यहीं बैठो फिर, यहीं बैठ जाते फिर। सुनते ही मन में ये आता है कि फलां व्यक्ति वाकई सच्चे मन से हमें कह रहा है कि यहीं हमारे साथ ठहरो और इस पूरे वाक्य विन्यास में औपचारिकता का पुट ना के बराबर। वाकई थोड़े से शब्दों के फेर से कितना फर्क आ जाता है‌।

मुझे लगता है कि ऐसे और भी कितने उदाहरण होंगे, बाकी अभी तक तो मैंने पहाड़ को इतना ही समझा है।

~ बुरे फंसे इन पहाड़ों में ~

                        अभी 15 दिन पहले कोलकाता से 9 लोगों का एक परिवार(बच्चों के साथ) मुनस्यारी घूमने आया हुआ था। जब वे मुनस्यारी‌ से वापस कोलकाता के लिए लौट रहे थे तो उसी वक्त टैक्सी वालों की हड़ताल हो गई। मुनस्यारी‌ से हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन तक जाने के लिए उन्होंने पहले ही दो दिन सुरक्षित रख लिए थे और किस्मत देखिए कि टैक्सी वालों की हड़ताल भी उसी दो दिन के दरम्यान हुई। अब हुआ ये कि पहला दिन तो उन्हें मुनस्यारी में ही रूकना पड़ गया, अब जो दूसरा दिन था, जिस दिन रात को हल्द्वानी से कोलकाता के लिए उनकी ट्रेन थी, उस दिन टैक्सी वालों का हड़ताल भी जारी था तो वे सुबह से मुनस्यारी से अपनी बुकिंग गाड़ी में निकल‌ गये। जैसे ही वे थल पहुंचे, टैक्सी यूनियन वालों ने गाड़ी रोक ली‌। वे तो अपने हड़ताल को सफल बनाने में लगे रहे, उन्होंने पूरे परिवार को गाड़ी से उतरने को कहा। अब यहाँ मामला ऐसा फंसा कि वे उस बुकिंग वाली ट्रेवल कंपनी की गाड़ी में नहीं जा सकते। थल से उन्होंने बारह हजार रूपये देकर दो अलग अलग कार करवाई, और हल्द्वानी की ओर निकल पड़े। इन दो कारों को फिर से बेरीनाग में रोका गया। कुछ इस तरह वे रात तक हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन पहुंचे और जैसे ही वे स्टेशन पहुंचे, ठीक 10 मिनट पहले उनकी ट्रेन निकल‌ चुकी थी। अब पहले जो बारह हजार अतिरिक्त लगे वो अलग, अब यहाँ 9 लोगों का रिजर्वेशन का लगभग दस हजार पार समझिए, वो भी गया, अब हल्द्वानी से उन्होंने टीटीई को कुछ पैसे दिए और जैसे तैसे बाघ एक्सप्रेस में लखनू तक पहुंच गये, अब इसके भी कितने जो पैसे लगे होंगे, इसकी मुझे उतनी जानकारी नहीं है। बाकी इस बीच उन्हें और साथ बच्चों को परेशानी हुई होगी, ये शायद आप और हम ना समझ पाएं‌। अब लखनऊ से घर कोलकाता जाने के लिए उन्होंने फ्लाइट किया। अब 9 लोगों का फ्लाइट का खर्च मान लीजिए कम नहीं ज्यादा 45 हजार पार। कुछ इस तरह वे मुनस्यारी में सुकून‌ से दो दिन गुजारने के बाद बेमन से कोलकाता पहुंचे और फिर अगले दिन उन्होंने मुझे ये सब बताया। उन्होंने कहा कि यार अखिलेश चलो मैं तो ठीकठाक नौकरी में हूं तो ये सब मैनेज कर लिया, एक आम आदमी जिसके पास पैसे कम हों वो तो बुरे तरीके से पिस जाएगा।
मुझे भी समझ नहीं आया कि इस स्थिति के लिए आखिर किस को कोसा जाए, कहां किसको जिम्मेदारी थोपी जाए।

                            आप सोच रहे होंगे कि आज इतने दिनों बाद मैं ये सब क्यों लिख रहा हूं। असल में आज मेरी भी स्थिति कोलकाता के उस भाई साहब की तरह हो गई है, बस फर्क ये है कि वे 9 लोग थे, बच्चों के साथ पूरा परिवार था, और मैं अकेला हूं। उनको कैसे भी करके कोलकाता पहुंच के अगले दिन आॅफिस जाना था, मुझे कैसे भी करके अर्जेंट घर पहुंचना है, उनकी परेशानी का कारण टैक्सी हड़ताल था, इसलिए वे चाहें तो टैक्सी यूनियन और व्यवस्था को कोस सकते हैं, लेकिन यहाँ मेरी परेशानी का कारण जमकर हो रही बारिश और उसकी वजह से रोड ब्लाॅक का होना है, अब मैं न तो किसी को कोस सकता हूं, न ही नाराज हो सकता हूं‌, मैं सिर्फ और सिर्फ मौसम ठीक होने का इंतजार कर सकता हूं‌।

Sunday, 24 June 2018

- भाई एसडीएम स्तर का अधिकारी है और बहन मुनस्यारी की सड़कों में पागलों की तरह घूमती है -


                         कुछ दिन पहले ये दीदी मेरे सामने से गुजरी, इस धुंधली तस्वीर को आपके सामने अपलोड करने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन मुझे ये जरूरी लगा सो कर रहा हूं। तो जब वो दीदी मेरे सामने से गुजरीं तो मेरे हाथ में चिप्स का पैकेट था, उन्होंने मुझे देखते ही चिप्स के पैकेट की ओर ईशारा किया, अपने हाथों से और चेहरे के हावभाव से बार-बार ईशारा किया, आप चाहें तो सुविधा के लिहाज से इन लक्षणों के आधार पर उन्हें पागल/मेंटल कह सकते हैं। जब मैं उनको चिप्स देने के लिए हाथ बढ़ाने जैसा किया, वो चिप्स को पैकेट को अपने साथ ले गई और तेजी से भाग गई‌। एक पल के लिए कुछ समझ नहीं आया क्योंकि मुझे वो हावभाव से कहीं से भी पागल जैसी तो नहीं लगी। सच कहूं‌ मुझे तो पहली‌ नजर में दया, करूणा, हताशा, उपेक्षा, विवशता आदि भाव दिखाई‌ दिए।
                        मैंने फिर अपने स्थानीय साथियों से उस महिला के बारे में पूछा, उन्होंने बताया कि ये लड़की पागल है, पास के गाँव में रहती है, अभी साल भर पहले तो इसकी शादी भी हुई है, लड़का भी सीधा साधा हुआ, अभी यहीं संविदा में काम करता है, ले देकर आठ-दस हजार रूपया महीना कमाता है,‌ साथ ही बाजा बजाने का काम भी करता है, अब वो कहां से इलाज के पैसे लाए, वो भी परेशान सा रहता है। और सबसे बड़े कमीने तो इसके दो बड़े भाई हैं, एक तो एसडीएम स्तर का अधिकारी है और जो दूसरा है वो भी ठीक-ठाक‌ सरकारी नौकरी में है, दोनों देहरादून या शायद हल्द्वानी में जाकर बस गये हैं, और आगे सुनिए उन्होंने आज तक अपने माता पिता और बहन को एक रूपये की आर्थिक सहायता नहीं की है बल। और तो और पिछले दशक भर से उन्होंने मुनस्यारी में कदम नहीं रखा हैं, अब वो किस मुंह से कदम रखेंगे।
                         दूसरे स्थानीय साथी ने बीच में बात काटते हुए कहा - यार! ये लड़की अभी एक डेढ़ महीने बहुत सही थी, बीच-बीच में फिर ऐसी हो जाती है, घूमते रहती है, किसी से भी मांगकर खा लेती है। इलाज के पैसे नहीं हैं वरना ये कब का ठीक हो जाती, इसके भाई लोग थोड़ी सी मदद कर देते तो इसका इलाज हो जाता, लेकिन वे लोग तो अपना नाम‌, अपनी प्रतिष्ठा देखने वाले हुए, इसलिए यहाँ तो आते ही नहीं। वे सोच रहे होंगे कि इसको लेकर जाएंगे तो हमारी बदनामी होगी, हमारी औकात कम हो जाएगी फिर। वे दोनों भाई यहीं इसी विवेकानंद विद्या मंदिर से पढ़ के ऊपर उठे हैं लेकिन अब तो उनके पांव जमीन में नहीं है, क्या कहा जाए।
                        मैंने फिर पूछा कि इनकी उम्र क्या होगी अभी और इनके साथ ये स्थिति कैसे निर्मित हुई तो साथियों ने बताया-
अभी तो 32-35 साल की होंगी। यार ये लड़की इंटर के दिनों में बहुत ज्यादा होनहार थीं, पढ़ाई से लेकर खेलकूद सब में अव्वल नंबर। लेकिन फिर पता नहीं 12th पास करने के बाद या शायद ग्रेजुएशन के दौरान क्या जो ऐसा हुआ, थोड़ी पगली सी हो गई। कुछ गलत हुआ होगा, हुई होगी कोई घटना। यार पहाड़ के लोगों का यही तो हुआ, कुछ अप्रत्याशित सा हो भी जाता है तो मन में लेकर वर्षों तक बैठे रहते हैं, किसी को बताते भी तो नहीं हैं, और धीरे-धीरे पागल से हो जाते हैं, गाँवों में इधर-उधर भटकते रहते हैं। कितने ऐसे लोग हैं यार भाई, हर गाँव में आपको एक‌‌ दो ऐसे लोग मिल ही जाएंगे।

                        मेरे साथियों की बात मुझे शत प्रतिशत सही लगी। क्योंकि मैंने खुद बहुत से ऐसे लोगों को देखा है, उनसे बात की है, अधिकतर लड़के भी ऐसे हैं जो थोड़े मेंटल से हैं, मेंटल क्या मैं तो उन्हें ऐसा नहीं मानता, आपकी समझ और सुविधा के लिए ऐसा लिखना जो पड़ रहा है। तो ऐसे लोगों को देखकर यही लगता है कि ये तो बहुत अच्छी स्थिति में है, ये तो बस कुछ महीनों के इलाज से ठीक हो जाएंगे। पूरे भरोसे से कहता हूं, वे ठीक हो जाएंगे। इतने भरोसे से इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि मैंने खुद अपने परिवार में ऐसा होते देखा है।
कुछ वर्ष पहले की बात है, मेरी मां घर में अकेली पड़ गई, यानि कुछ महीनों के लिए ऐसी स्थिति निर्मित हो गई कि सब अपने काम के सिलसिले में बाहर। मां लगभग एक डेढ़ महीने घर में अकेली रहीं। मुझे तो इस पूरी स्थिति के बारे में पता ही नहीं चलने दिया गया। तो हुआ यूं कि ऐसे महीनों घर में अकेले रह के मां को psychiatric समस्या आ गई। रोने लगती, बाइक की आवाज तक से डर जाती, रात रात भर बुरे सपने और नींद का नाम नहीं। फिर दवाईयों का सिलसिला चला, उससे तो कुछ खास हुआ नहीं, फिर जब घर में थोड़ी चहल-पहल हुई तो फिर धीरे-धीरे मैंने माता जी के हावभाव में थोड़ा बदलाव देखा, बहुत छोटे-छोटे बदलाव जो शायद मैं ही देख पा रहा था, मैंने सोचा कि सबसे असली दवाई तो यही है फिर हमने इस बीच माताजी को अपने माइके भेज दिया। वहां वो कुछ दिन रहकर आई, जब वो लौटकर आईं तो आप यकीन नहीं करेंगे वो पूरी तरह से ठीक हो चुकी थीं।
मुझे लगता है कि मेरी माता के ठीक होने में दवाईयों का योगदान तो है ही साथ ही हमारे अपनत्व का भी बहुत बड़ा योगदान है, दोनों चीजें बराबर चलती रहीं इसलिए वो बहुत जल्द ठीक हो गईं।

इन पहाड़ी गाँवों के उन सभी लोगों को भी इन दोनों प्रकार के दवाइयों की जरूरत है, अगर ऐसा हुआ तो वे बहुत जल्द ही ठीक हो जाएंगे, और ये दीदी भी पूरी तरह से ठीक हो जाएंगी जिन्होंने राह चलते मुझसे चिप्स का पैकेट मांगा था।

Friday, 15 June 2018

~ ऐसा लगा जैसे मैंने पहाड़ को थोड़ा भी नहीं समझा है ~

रोज की तरह कल नंदा देवी मंदिर परिसर जाना हुआ, वहाँ से जब मैं नीचे उतर रहा था तो मंदिर परिसर के मुख्य द्वार पर एक पोस्टर लगा हुआ था, वह पोस्टर सप्ताह भर पहले हुए किसी एवेंट से संबंधित था। उस पोस्टर को वहाँ चिपका देखकर मेरे मन में दो ख्याल आए, पहला यह कि ये कार्यक्रम तो कब का समाप्त हो चुका है, तो इसे यहाँ से निकाला जा सकता है, दूसरा यह कि मंदिर परिसर के मुख्य द्वार पर यह कहीं से भी सही नहीं लग रहा है, यूं कहें कि अशोभनीय सा लगा।
अब जैसे ही मैं उस पोस्टर को वहाँ से निकाल‌ रहा था, उतने ही समय वहाँ से दो महिलाएँ गुजर रही थी, उन्होंने मुझे आश्चर्य भाव से कहा - भैया आप पोस्टर को क्यों निकाल रहे हैं। वैसे पहाड़ के लोग आश्चर्य के भाव से ही पूछते हैं, गुस्से या धमकाने का भाव आपको मिलेगा ही नहीं। मैंने उन्हें जवाब में कहा - दीदी ये प्रोग्राम तो हो चुका है।
फिर उन्होंने कहा - फिर भी क्यों निकाला भैया।
मैं उनके इस सवाल‌ से चुप सा हो गया, मैंने आंखे फेर ली और वहीं हमारे एक दोस्त की गाड़ी में बैठकर वहाँ से निकल गया। गाड़ी एक किलोमीटर से अधिक चल चुकी थी, मुझे अचानक महसूस हुआ कि ये मैंने क्या कर दिया। मुझे उनका बोलने का तरीका,उनके चेहरे के भाव याद आने लगे। फिर मैंने अपने दोस्त को बहाना मारकर गाड़ी रोकने को कहा और उसे आगे जाने को‌ कह दिया। अब वहाँ से मैं पैदल वापस उन दो महिलाओं के पास गया। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा महसूस हो रहा था कि शायद मेरे द्वारा उन्हें चोट पहुंची है। मैं जब उनके पास पहुंचा तो मैंने उन्हें पहाड़ी परंपरा के अनुसार दोनों हाथों से नमस्ते करते हुए कहा - दीदी, मैं कोई बाहर से आने वाला टूरिस्ट जैसा नहीं हूं। पिछले चार साल से यहां आ रहा हूं, यहाँ बच्चों को मुफ्त में पढ़ाता भी हूं, यहाँ के लोगों के जीवनस्तर को सुधारने के लिए प्रयास भी कर रहा हूं, मुझे टूरिस्ट मत समझना दीदी, मैं तो अब यहीं का‌ हो गया हूं। शायद मेरे पोस्टर निकालने से आपको अच्छा नहीं लगा होगा, मुझे माफ कर दीजिएगा। मैं उसे वापस फिर से वहीं चिपका देता हूं, इसलिए मैं वापस लौटकर आया हूं।
दीदी ने मुस्कुराते हुए जवाब में कहा - अरे! नहीं भैया, वो तो पुराना हो चुका है, उसको और क्या चिपकाना हुआ, रहने दो। फिर उन्होंने चिंता जाहिर करने के भाव से कहा - लोग तो इन पहाड़ों का पता नहीं क्या क्या कर जाते हैं भैया। बाहर से लोग आकर फूल, पौधे तहस नहस करते हैं, तोड़कर ले जाते हैं। पता नहीं क्या क्या उल्टा पुल्टा जो करते हैं लोग, कैसा जो मजा आता होगा उनको ऐसा करके।
ऐसा कहते हुए उन्होंने एक‌ विस्मयकारी मुस्कुराहट फेरी और उतने ही समय वहाँ सामान जोहने वाली मैक्स की एक गाड़ी आ रही थी, उन्होंने हाथ फेरते हुए उस गाड़ी को रोका और दौड़ते हंसते उसमें लिफ्ट लेकर वो चली गईं। उस मैक्स की गाड़ी के ठीक पीछे से जो एक टूरिस्ट गाड़ी आ रही थी, उसमें बैठे कुछ लोग इस दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे थे, मुझे पता नहीं क्यों उन टूरिस्ट लोगों के इस तरीके को देखकर हंसी आ गई।
आपको लग रहा होगा कि एक पुराने पोस्टर फाड़ने को लेकर, यानि इतनी छोटी सी बात के लिए कौन इतनी मेहनत करे। ये भी कोई बात हुई क्या। लेकिन आप पहाड़ को समझने की कोशिश करेंगे तो लगेगा कि ये ध्यान देने योग्य बात है। मैंने पहाड़ी लोगों के मन को देखा है, वे अपने में मस्त रहते हैं, वे आपसे कभी नाराज नहीं होंगे, वे आपको बस प्रेमभाव से बोल देंगे, अब वो हम पर होता है कि हम सही गलत समझ पाते हैं या नहीं। काश, काश मुझमें ये क्षमता होती कि दीदी के उस अपनेपन और सरलता से परिपूर्ण भाषायी अंदाज, उस बोलने के तरीके को आपके सामने लिख कर बता पाता, काश मैं भाषायी विस्तार दे पाता उनके चेहरे की उस मासूमियत को। आप भी कहते कि दुनिया में आज भी ऐसी चीजें बची हुई हैं क्या?
खैर..।
उस दीदी ने जब मुझसे कहा कि पोस्टर का डेट जा चुका है, फिर भी आपने क्यों फाड़ा भैया? इसका सीधा सा अर्थ यह था कि मुझे कोई हक नहीं बनता है कि मैं उस पोस्टर को‌ वहाँ से हटाऊं। यानि उन्होंने तो मुझे अन्य लोगों की तरह एक बाहरी असभ्य टूरिस्ट ही समझा होगा। उनके ऐसा सवाल करने का सिर्फ और सिर्फ यही अर्थ हुआ कि उस पोस्टर को निकालना कम‌ से कम मेरे अधिकार क्षेत्र में तो नहीं था। यानि मैं कौन हुआ उनके सही गलत का निर्धारण करने वाला।
असल में बात सिर्फ उस टुच्चे से पोस्टर को हटाने की नहीं है, पिछले कुछ सालों से जो बाहर से यहाँ टूरिस्ट आते थे, उन्होंने खूब उत्पात मचाया हुआ है, कोई खेतों में राजमा, जड़ी बूटी आदि की पौध को उखाड़ कर ले जाते, फल हुआ नहीं रहता था और तोड़ देते। बाहरी लोगों के स्वार्थ और लिप्सा की वजह से ऐसी चीजें लगातार होती आई है तो लोगों के मन में भी यही बैठ गया है कि अधिकतर बाहर मैदानों से आने वाले टूरिस्ट तो ऐसे ही होते हैं। मैं पूरे भरोसे से कहता हूं कि अगर इतिहास में ऐसी बदमाशियां नहीं हुई होती तो उस दीदी को मेरे पोस्टर फाड़ने पर सवाल नहीं करना पड़ता।
उनका मुझे सवाल करना इस बात का संकेत था कि -
- आप कैसे से जो हो गये हैं,
- पहाड़ को भी अपने शहरों की तरह समझने लगते हैं,
- आपके बस का नहीं हुआ हम‌ पहाड़ी लोगों के मन को समझना।

Monday, 11 June 2018

Life @ Munsyari

Life @ Munsyari

मुनस्यारी फिर से अंधकारमय। 5 घंटे से अधिक हो चुके हैं। अब कल सुबह तक लाइट आने से रही। कल‌‌ भी कितने टाइम तक लाइट आएगी कोई भरोसा नहीं है। पहाड़ों का जीवन बहुत दुखमय है र, अपार कठिनाइयों से भरा है। कभी भी बारिश कभख भी ओले, कपड़े तक नहीं सूख पाते, आखिर कितना लिखा जाए। बस ये हिमालय की खूबसूरती को देख के ही मन संतुष्ट कर लेने वाली बात है।

Life @ Munsyari

मुनस्यारी में मेरे ठंड झेलने की कैपेसिटी का‌ अंदाजा आप इसी से लगाइए कि मैं इस बार जैकेट तक लेकर नहीं आया हूं। अभी तापमान 8'c न्यूनतम और अधिकतम 25'c है। आने वाले दिनों में तापमान में बढ़ोतरी तो होगी नहीं, गिरावट ही होगी। अब यहाँ दो ही तरह का मौसम होता है एक ठंड दूसरा बरसात।

सचमुच जुदा है हिमालय को सामने से देखने का ये एहसास।
एक कवि द्वारा रची गई सुंदर कविता या लाख रूपये के कैमरे से खींची गई तस्वीर भी हिमालय की इस खूबसूरती को बयां नहीं कर सकती। हिमालय के इस एहसास को महसूस करने के लिए तुम्हें इसे सामने अपनी आंखों से ही देखना होगा।

मुनस्यारी में सामान्य वर्ग के लोगों का हाल‌ वही है, जो बस्तर में आदिवासियों का है। यहाँ सामान्य वर्ग के लोगों का दशकों से हो रहे शोषण का आप इसी से अंदाजा लगाइए कि अधिकतर होटल में काम करने वाले, गाड़ी चालक, पत्थर फोड़ने वाले, मजदूरी करने वाले अधिकांशतः सामान्य वर्ग के लोग ही हैं।

मुनस्यारी में समाज सेवा के नाम पर गजब का विरोधाभास है। यहाँ समाजसेवा का ऐसा पैटर्न चलता है जो आपको पूरे भारत में कहीं नहीं मिलेगा। यहाँ तो सेवा शब्द की एक अलग ही परिभाषा गढ़ दी गई है।
एक ऐसी सेवा जिसका अपना एक दायरा है, कुछ तय सीमित लोग हैं। उसके अलावे बाकी लोग दर दर की ठोकरें खाते रहें, इन्हें कोई सरोकार नहीं।
समाजसेवियों का भी एजेंडा निर्धारित है कि ये फलां फलां लोग हैं, हमें इन्हें ही आसमान की ऊंचाइयों तक ले जाना है, बाकी इसके अलावे कोई मरता भी रहे हमें क्या। और तो और शहर गंदा होता रहे, हमें क्या।
अजी हां, देश समाज ऐसे ही बनता है, अरे ऐसे में सिर्फ और सिर्फ खाई बनती है, जिसमें एक न एक दिन हमें और आपको ही गिरना है।
सीधे एक लाइन में कहा जाए तो ये समाजसेवी समसजसेवक न होकर जातिसेवक हैं। और जातिसेवक भी इतने प्रतिबध्द और ईमानदार ठहरे कि इनको मुनस्यारी के लोगों और यहाँ की समस्याओं से कोई मतलब नहीं।
इन तथाकथित जातिसेवियों के पास हिमनगरी मुनस्यारी का महिमा मंडन करने के‌ लिए वही दशकों से चली आ रही दो चार सूक्तियां हैं,
जैसे कि , स्वर्ग जैसा मुनस्यारी, सार संसार एक मुनस्यार, रंगीलो जोहार मेरो मुनस्यार, आदि आदि। बस इसी से खानापूर्ति हो जाती है।
इन्हीं वाक्यों से मुनस्यारी की ऐसी सैकड़ों नालियाँ भी साफ हो जाएंगी, सच तो ये है कि ऐसी नाली रूपी गंदगी जोंक की तरह हमारे मन मस्तिष्क में भी जगह बना चुकी है।
बाकी स्वर्ग तो है ही बल अपना मुनस्यारी। कितना भी उत्पात मचा लो स्वर्ग ही रहने वाला हुआ।



पता नहीं चंद पैसों और सुविधाओं के लिए, अधिकतर दिखावे और भेड़चाल में आकर लोग कैसे इन खूबसूरत वादियों से यानि अपनी जड़ों से पलायन कर जाते हैं। कैसे छोड़ जाते हैं संयुक्त परिवार, दादी-नानी का लाड़ प्यार, पर्व, त्यौहार, कौतिक(मेले), ये हवा, पानी। कैसे त्याग कर चले जाते हैं इस संस्कृति को, कहां से लाते होंगे ऐसा करने का हौसला, कैसे जुटाते होंगे इतनी हिम्मत। मेरा बस चले तो मैं एक‌ वक्त का खाना खाकर इस संस्कृति का लालन‌‌ पालन‌ कर दूं।
‌‌‌‌‌‌‌ अगस्त 2017 में मैंने यहाँ के‌ लोगों की जीवनशैली और यहाँ की संस्कृति को करीब से जानने के लिए, यहाँ की समस्याओं की बेहतर समझ बनाने के लिए लगातार 9 दिन तक एक‌ ही‌ वक्त का खाना खाया था‌। नौ दिनों के दरम्यान शारीरिक तपस्या से ज्यादा मेरे पड़ोसियों के अपनेपन से जूझना, उनके लगातार चाय नाश्ते खाने के लिए पूछना ये सबसे बड़ी चुनौती थी, हर दिन सुबह शाम झूठ बोलना यानि 15-20 झूठ तो मैंने बोले ही होंगे कि हां मैंने नाश्ता कर लिया है, मैंने खाना खा लिया है।

In picture - फाइनली, चार दिनों के बाद पानी आना शुरू हो गया है। हमने कपड़े भी धो लिए हैं साथ ही ठंडे पानी से खुद को भी धो लिया है। स्नोफाल के वक्त नहाते थे तो ये ठंड क्या चीज है, "इट्स जस्ट ए स्टेट आॅफ माइंड"।


जब मैं पहली बार मुनस्यारी आया था तो एक बार रात को अपनी ही सांस लेने की साफ आवाज सुनकर घबरा गया था, यानि रात को यहां इतनी ज्यादा शांति रहती है। एक चूं की भी आवाज नहीं। 

"सबसे शक्तिवान ही सबसे बुध्दिमान"

मुनस्यारी में ये कहावत कहीं कहीं सटीक बैठती है। असल में यहां एक छोटे से व्यापारी हैं, उन्हें यहां आए ज्यादा समय नहीं हुआ है, बहुत ही मेहनती व्यक्ति हैं, मैं उनका नाम बदलकर उन्हें रोशन नाम से संबोधित करता हूं। रोशन जी बाहर से आए हैं, मतलब यहीं उत्तराखण्ड के ही किसी दूसरे जिले से हैं। उनकी मेहनत को देखकर कुछ लोग यानि कुछ व्यापारी वर्ग के सदस्य इतने आहत हुए कि उनको दुकान बंद कर सामान समेटने तक की धमकी दे डाली, क्योंकि उनके द्वारा की गई मेहनत से, नवाचार से क्षेत्रवासियों का तो भला हो ही रहा है, साथ ही उन गिने चुने दुकानदारों पर आने वाले ग्राहक कम हुए हैं जो ठीक उसी व्यापार में हैं जिस व्यापार में रोशन जी हैं। तो वे दुकानदार अपने बाहुबल का इस्तेमाल करते हुए दबाव बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
रोशन जी भले और नेक आदमी हैं, किसी से ज्यादा कुछ बोलते नहीं हैं, कहीं इधर-उधर जाते भी नहीं, चुपचाप अपना काम करते रहते हैं, पब्लिक डोमेन में इस तरह रोशन जी के बारे में लिखने से उनके सामने और कोई विपदा न आए, इसलिए मैं उनके पेशे को लेकर भी गोपनीयता बरत रहा हूं।
बस रोशन जी के बारे में इतना ही कहूंगा कि पूरे मुनस्यारी में मैंने इतना मेहनती, इतना लगनशील व्यक्ति आजतक नहीं देखा। ये बात सिर्फ मैं नहीं कहता, मुनस्यारी के और भी बहुत से लोग कहते हैं।

जब से उनको कुछ लोग बोलकर गये हैं कि यहाँ से चले जाओ, तब से वे दिन रात काम कर रहे हैं। एक दिन तो सुबह 5 बजे उनके दुकान की लाइट जल रही थी, मैं मार्निंग वाक‌ के लिए जा रहा था, मैंने देखा फिर बाद में लौटकर जब उनसे पूछा तो पता चला कि आज वे सोने के लिए अपने कमरे में गए ही नहीं हैं। उन्होंने कहा कि कई कई दिन तो बस सुबह 6 बजे से 9 बजे तक सोने के लिए चले जाते हैं, सचमुच उनके चेहरे की लकीरों को देखकर कोई भी बता सकता है कि ये व्यक्ति दिन रात खुद को तपा रहा है। मैंने जब उनसे इतना अधिक काम‌ करने की वजह पूछी तो उन्होंने कहा - सर जी काम थोड़ा ज्यादा था, अब यहाँ तो देखो कितने दिन के लिए जो हैं, जब तक हैं जम‌ के काम कर लेना हुआ, फिर हम चलें वापिस अपने गांव घर और क्या।
आखिर उन्हें ऐसा क्यों बोलना पड़ा, कहां सोया है मुनस्यारी का नागरिक समाज।
स्थानीय लोगों को सोचना चाहिए, ऐसे मेहनतकश लोगों से ईर्ष्या भाव न रखकर इनसे तो सीख लेनी चाहिए। लेकिन मुनस्यारी के कुछ जो छटे किस्म के बदमाश हैं उनकी तो आदत हुई कि खुद तो कुछ करना है नहीं और जो कुछ बेहतरी का काम कर रहे हैं उनके‌ लिए सिर्फ और सिर्फ परेशानियाँ खड़ी करनी है।

हमारे लिए ये कितनी शर्म‌ की बात है कि पहाड़ के आदमी को ही पहाड़ में ऐसी चीजें झेलनी पड़ रही है, फिर कोई क्यों न‌ करे पलायन। और लोग फिर सोशल मीडिया में, सभा, सम्मेलन, सेमिनार में रोना रोते हैं कि गाँव खाली हो रहे, पलायन हो रहा वगैरह वगैरह।
बात सिर्फ मुनस्यारी की नहीं है, ऐसी छोटी बड़ी जो भी समस्याएं जिस भी क्षेत्र में हैं, ये हर उस क्षेत्र के नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि‌ ऐसे लोगों को‌ वे पहचानें, उनसे बात करें और फिर कहें कि भाई जी आप अपना काम करें, हम‌ आपके साथ खड़े हैं।

Wednesday, 6 June 2018

~ ये मंदिर परिसर तो मेरे लिए मां समान है ~

साल भर के अंतराल के बाद मेरी मुलाकात देव सिंह पापड़ा (रिटायर्ड आर्मीमैन) जी से हुई जो मुनस्यारी के पापड़ी-पैकुती गाँव के मूल निवासी हैं, वे अकेले ही पिछले कई सालों से डानाधार स्थित माँ नंदा देवी मंदिर की देखरेख करते आ रहे हैं।

मैं - यार दा, पहचाना?

देव सिंह जी - हां आप हर साल तो आते ही हो यहाँ।

मैं - जी और अभी मंदिर परिसर में सब ठीक?

देव सिंह जी - हां, सब ठीक ही हुआ।

मैं - ये बताइए वहाँ जो किनारे में पानी के स्टोरेज के लिए जो आयताकार गड्ढा बनवाया है आपने, उस पर लोगों ने दारू की बोतलें फोड़ रखी है? कुछ करवा दो यार उसका। वही एक जगह बड़ी खराब हो रखी है।

देव सिंह - अब मैं कितनों को समझाऊं, जिसे शराब पीकर बोतल‌ फोड़नी ही है, उसे कोई कैसे रोके। मैंने तो यहाँ के रखरखाव के‌ लिए, यहां की समस्याओं को लेकर कितने मंत्रियों को खत लिखा, पर कुछ नहीं होने वाला हुआ। तब मुझे लगा कि जो करना है, मुझे ही करना है।

मैं - अच्छा। ठीक है, ये बताइए, अभी जो मंदिर परिसर की ये सुंदरता है, आपके भगीरथ प्रयास के कारण ही आज ये मुनस्यारी का सबसे फेमस टूरिस्ट स्पाॅट बन चुका है, तो ये पहले से ऐसा था क्या?

देव सिंह जी - अरे नहीं तो। पहले यहां जानवर,घोड़े, खच्चर आया करते थे, जहाँ आज जो आपको ये फूल दिख रहे हैं उसके जगह कांटे ही कांटे थे, कांच ही कांच था। लोहे के ये जो बाड़े थे, इसको भी सब उखाड़ कर ले गये, चुराकर बेच दिया, पता नहीं क्या किया, ये टंकी को ढंकने का जो लोहे का ढक्कन था, वो भी लोग ले गये। वो वहाँ मंदिर के गेट का पल्ला भी ले गये, इसे तो मैंने दुबारा बनवाया।

मैं - तो इन सबके लिए आपको गाँव के लोगों ने सहयोग दिया होगा?

देव सिंह जी - नहीं। गाँव वालों ने कोई सहयोग नहीं दिया।

मैं - अच्छा, बाहर के कुछ लोगों ने सहयोग किया होगा फिर?

देव सिंह जी - बाहर वालों ने भी नहीं किया। मैंने तो इसे मां की कृपा समझकर अपने बलबूते खुद ही काम करता रहा। जब उन्होंने मेरे सिर में पटक‌ दिया कि आपने आवाज उठाया तो आप ही झेल लो, तो मैंने उसे झेल लिया। लोग ये कहते थे कि ये फौजी बुड्ढू भाग जाएगा, ये कुछ नहीं कर सकता है। मैंने जो है अपने दिल से लगाकर, अपने लगन से करके दिखाया उनको।‌ मैंने कहा कि पांच साल से रहूंगा और करके दिखाया।

मैं - तो आप यहाँ इस मंदिर परिसर को कब से संभाल‌ रहे हैं?

देव सिंह जी - मैं यहाँ 2013-14 से हूं।

मैं - जी, अच्छा।

देव सिंह जी - लाइट के‌ लिए भी कुछ नहीं किया तो फिर मैंने गांव वालों से लड़ाई करके दो लाइट यहाँ पर लाया, एक वहाँ गेट पर लगाया और दूसरा यहाँ लगाया।

मैं - यार दाज्यू, लोगों तक मैं आपकी बात पहचाऊंगा।

देव सिंह जी - यहाँ तो मेरा ऐसा है न कि जो चढा़वे का पैसा है, दानपेटी का, वो सारा इकट्ठा करके जो भी कुछ होता है, उसी से मैं ये हर साल होने वाले मेले का पूरा आयोजन ये जितना भी चूना, गेरू, पेंट सब उसी से कराता हूं, मैं इसके लिए किसी को‌ मांगता नहीं हूं, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता हूं।

मैं - यहाँ के प्रशासन से किसी प्रकार का कोई सहयोग नहीं मिलता?

देव सिंह जी - कोई कुछ नहीं। ये सब ऐसी हैं, सढ़े हुए आदमी हैं। आते हैं, जाते हैं।

मैं - पिछले बार जो एसडीएम थे उनसे आपने तो सहयोग के लिए बात की थी क्या?

देव सिंह जी - हां, एक बार क्या हुआ कि वो इन्क्वायरी करने जैसा यहाँ आए थे, मैं इधर गार्डन की कुराई कर रहा था। उन्होंने मुझे कहा - आप मडुवे की रोटी बनाओ, यहाँ का लोकल सब्जी बनाओ, टेंट लगाने की व्यवस्था बनाओ।

मैं - यानि ज्ञान देकर चले गये।

देव सिंह जी - हां और बोले कि उसमें से जो भी फायदा होगा, उसमें से चार भाग करके उसका एक भाग ब्लाक को देंगे, एक भाग गांव को‌ देंगे, एक भाग हम लेंगे और एक भाग आपको देंगे।

मैं - हद है।

देव सिंह जी - मैंने तो सर पकड़ किया। उस समय बस हां‌ हां करते गया, दूसरा मैंने उन्हें एक शब्द नहीं बोला। वो अपना बोलकर चले गये फिर दुबारा न तो कभी मिले न ही इस बारे में कोई बात हुई।

मैं - तो फिर अभी और क्या सोचा?

देव सिंह जी - ऐसा है कि ये मंदिर परिसर तो मेरे लिए मां समान है, अब मां की सेवा करने में क्या सोचना।


Maa Nanda devi temple, Munsyari

Dev Singh Papra ji inspecting the temple premise

Wednesday, 30 May 2018

Day - 5 with Prince

Last Day

आज पूरे पंद्रह दिन बाद मैं प्रिंस से मिला। निजी व्यस्तताओं के कारण मैं उससे मिल नहीं पा रहा था। बीच में एक दिन समय मिला भी था तो यही सोच के टाल दिया कि दो घंटे तो मेरे ऐसे ही चले जाएंगे। तो आज हुआ यूं कि प्रिंस मुझे देखते ही मुझसे लिपट गया वो भी 40'c की इस भीषण गर्मी में। कहने लगा - कहां थे भैया, नहीं आते हो, फिर वो मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचते हुए अपने किसी डांस क्लास वाली मैडम से मिलवाने ले गया। उसके बाद वह झूला झूलने में मस्त हो गया। प्रिंस की‌ मम्मी यानि दीदी ने बताया कि इस बीच जब मैं गार्डन नहीं आता था तो प्रिंस रोज कुछ समय तक गार्डन में खेलकर वापस चला जाता और जब मम्मी घर वापस आती तो हर रोज मम्मी से यह पूछता कि आज भैया गार्डन आए थे कि नहीं। दीदी ने और बताया कि एक दिन तो ऐसा हुआ कि एक कोई भैया उसे बड़े प्रेमभाव खेलने के लिए अपने पास बुला रहे थे, प्रिंस ठहरा अपनी मर्जी का‌ मालिक, कहां किसी के पास जाने वाला ठहरा, नहीं गया।

मैं - प्रिंस मैं कल जा रहा उत्तराखण्ड। अब और नहीं आऊंगा गार्डन।
प्रिंस - झूठ बोलते हो भैया।
मैं - सच कह रहा हूं।
प्रिंस - फिर मुझे भी ले चलो।
मैं - अगली बार ले चलूंगा फिर।
प्रिंस - नहीं। छुपा के ले जाओ चलो मुझे।
मैं - अभी नहीं अगली बार।

रात के 9 बज चुके थे। गार्डन बंद होने वाला था, अब वह हमेशा की तरह गार्डन से मुझे अपने घर को ले गया। प्रिंस की‌ मम्मी और मैं बैठकर यही चर्चा कर रहे थे कि प्रिंस को आखिर मुझसे इतना लगाव कैसे हो गया। अब जब धीरे-धीरे उस चार साल के बच्चे प्रिंस को ये अहसास होने लगा कि मैं सच में जा रहा हूं, और अब मैं उससे मिलने नहीं आ पाऊंगा तो उसने मेरा हाथ जोर से पकड़ लिया, और फिर छोड़ने का नाम नहीं। वह अकेला नीचे तक मुझे छोड़ने आ गया। मैंने कहा चलो मैं चलता हूं अब मुझे जाने दो। वो बार बार नहीं नहीं नहीं, बस यही बोलता रहा। कभी धीरे बोलता कभी जोर से चिल्लाता, लेकिन मेरा हाथ न‌ छोड़ता। फिर जब मैंने उससे अपना हाथ छुड़ाया, और अपनी बाइक के पास गया, बाइक आॅन कर जब मैं जाने लगा तो वो वह दौड़कर मेरे पास आ गया और बाइक में चढ़ने लग गया। लेकिन मैंने उसे ऐसा करने से रोक लिया तब वो मेरे पास आकर बड़े भोलेपन से कहने लगा, चलो न भैया हम दोनों साथ में कुछ खाएंगे। मैं उसकी बात सुनकर सोचने में मजबूर हो गया। 9:30 बज चुके थे, मैंने कहा, चलो मैं चलता हूं, फिए आऊंगा ठीक है। पता नहीं वो क्या सोच रहा था। एकदम भरी हुई आवाज में उसने मुझसे कहा - "अब आप आओगे तो भी मैं नहीं मिलूंगा देखना" ऐसा कुछ कुछ कहने लगा और फिर फूट-फूटकर रोने लग गया। इतने बुरी तरीके से रोया कि उसकी जुल्फें उसके चेहरे पर चिपकने लगी थी। लगभग 15-20 मिनट तक उसने आंसू बहाया होगा, मैं आराध्या उसकी मम्मी उसे मनाने लग गये, लेकिन उसका रोना बंद ही नहीं हो रहा था, मुझे लगा कि इसका रोना अगर कोई शांत करा सकता है तो वो मैं ही करा सकता हूं, तो जैसे ही मैंने इस जिम्मेदारी को समझा, मुझे एक बढ़िया तरकीब सूझी और उसके बाद वह मान गया और उसका रोना शांत हो गया। और उसने हंसते हुए मुझसे वादा किया कि वह और नहीं रोएगा।

Monday, 21 May 2018

नवरात्र पूजा, भराड़ी मंदिर, मुनस्यारी

नवरात्र की पूजा के लिए हम भराड़ी मंदिर गये थे, यह मंदिर मुनस्यारी से लगभग दस से बारह किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ तक जाने के लिए कोई सड़क नहीं है। आधी दूरी तक यानि पापड़ी-पैकुती गांव तक जाने के लिए गाड़ी से जा सकते हैं, यह सड़क कुछ बहुत अच्छी नहीं है, काफी पथरीली सड़क है। यहाँ से आधे घंटे पैदल चलकर भराड़ी मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
दोपहर को बलि प्रथा शुरू हुई। भराड़ी मंदिर में आंखों के सामने बीस पच्चीस सुंदर सुंदर बकरियों की बलि देखने के बाद मन मसोस कर रह गया था‌, सही गलत कुछ समझ नहीं आ रहा था। इस बारे में कुछ ज्यादा लिखने की इच्छा भी नहीं हो रही है, असमंजस में हूं।
शाम के पांच बज चुके थे। पूजा समाप्त हो चुकी थी। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ भराड़ी मंदिर से खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए मुनस्यारी की ओर लौट रहा था। यह रास्ता ठीक नंदा देवी मंदिर, डानाधार के पास जाकर खत्म होता है। हमें ये खड़ी चढ़ाई पूरा करने में दो घंटे से अधिक का समय लग गया। मुनस्यारी पहुंचते तक अंधेरा होना शुरू हो गया था, मेरे दोस्त चढ़ाई चढ़ते मुझसे कुछ आगे निकल गये, इस बीच रास्ते में मुझे एक दीदी मिली,
उन्होंने खुद आगे से मुझसे पूछा - भैया आप यहाँ घूमने आए हो?
मैंने कहा - नहीं बस ऐसे ही कुछ महीनों के लिए आया हूं।
दीदी - आप कहां से हो?
मैं - जी मैं छत्तीसगढ़ से हूं।
दीदी - ये कहां हुआ भैया।
मैं - काफी दूर हुआ। तीन दिन लग जाता है यहाँ से जाने में।
दीदी - यहाँ कैसे?
मैं - बस ऐसे ही पहुंच गया। एक कमरा यहाँ किराए पे ले रखा है। समय समय पर बच्चों को पढ़ाता भी हूं। बाकी समय आसपास के गाँवों की सैर करने चला जाता हूं।
दीदी - चलो ठीक ही हुआ। हमको तो अभी जाकर बच्चों के लिए खाना भी बनाना है। घर में दोनों को छोड़कर आई हूं।
मैं - अच्छा, दीदी आपके पति बाहर रहते होंगे फिर?
दीदी - हां दिल्ली रहते हैं, वहीं प्राइवेट में काम करना हुआ। साल में कभी-कभी आ जाते हैं।
मैं - अच्छा‌।
दीदी - आपका बढ़िया हुआ भैया, आप तो जाकर खाना खा के सो जाएंगे‌। हमको तो अभी बच्चों को देखना भी हुआ।
मैं - आप ऐसा क्यों कहती हैं।
दीदी - यहाँ पहाड़ों में तो ऐसा ही हुआ।
मैं - चलिए दीदी जी आप मुझे अपने घर ले चलिए, आपको एतराज न हो तो मैं आप लोगों के लिए खाना बनाना चाहता हूं।
दीदी - नहीं भैया, ऐसी कोई बात नहीं है, मैंने ऐसे ही बता दिया।
मैं - आपने मुझ अनजान को अपना समझकर अपने मन की बात की‌। आपके लिए थोड़ी मेहनत कर लूंगा तो कौन सा थक जाऊंगा।
दीदी - आपने इतना कह दिया भैया। मैं इसे याद रख लूंगी।
मैं - चलिए ठीक है।

और फिर ढाई घंटे की चलाई के बाद हम मुनस्यारी पहुंच चुके थे।





Tuesday, 15 May 2018

A Poem by Kriti Bhargav

ज़ख्म कितने जमाने ने इस दिल को‌ दिए,
आज कोई देखे तो दिखा दूं उसको।

जिंदगी ने करवटें कितनी बदली,
आज कोई पूछे तो बता दूं उसको।

पथरीली राहों पर ठोकरें खाना कोई शिकस्त नहीं,
कोई हारता कहे तो समझा दूं उसको।

मेरे गम की नींद न चुरा पाए,
कोई ग़र है जगा तो बता मैं सुला दूं उसको।

हर शख्स कुछ खोजता है और खो जाता है,
न खोजता कोई मिले तो मैं खुदा दूं उसको।

तपती जमीं को सावन ने महका दिया मगर,
सावन से कोई जले तो मैं टूटा अरमान दूं उसको।

सुनाए जब दर्द कोई, दामन छीन लेने का अपने,
मैं कफन न देने वाले का शुक्र सीखा दूं उसको।

गिरते गिरते उठ पाने का, साहस खो चुका जब कोई,
थाम बांह उसकी, दे मेरे हाथ मैं, किसी का साथ दूं उसको।

एक तू ही नहीं, खफा और भी हैं जमाने से,
जो दे दर्द तुझे, तू न दे आंसुओं के समंदर उसको।

Sunday, 13 May 2018

Day - 4 with prince


प्रिंस - ऐ! मोटा भाई मैं खाना खा खा के बर्बाद हो गया।
मैं - बागबान‌ देख के आए हो क्या प्रिंस? और ये खाना खाकर कैसे बर्बाद होते हैं?
प्रिंस ( एक्सरसाइज के दौरान हंस हंस के अपना पेट दिखाते हुए) - ये देखो ये, मोटा हो गया मैं, आपके जैसे फिट नहीं हूं, मेरे पापा भी आपकी तरह फिट नहीं है। पापा तो पानी पी पी के बर्बाद हो गए , मोटे हो गए। हाहाहा।
ये सब सुनकर बाजू में खड़े एक अंकल अपनी हंसी‌ नहीं रोक पाए। आज ये लड़का कुछ भी कुछ कहे जा रहा था।

अब गार्डन से वापस घर जाने का समय हो गया था।
प्रिंस कहता है - भैया आप चले जाते हो, फिर मैं आपके बारे में ही सोचते रहता हूं, नींद नहीं आती।
मैं - चल झूट्ठे।
प्रिंस - सच में नींद नहीं आती‌।
मैं - क्यों नहीं आती।
प्रिंस - आप साथ में रहते हो तो अच्छा लगता है न इसीलिए।


In Picture - Left to Right (Me, Prince, Aradhya, Ananya)

Saturday, 12 May 2018

Day- 3 with Prince



मैं - चलता हूं, पानी का क्या है, कभी भी पी लूंगा।
प्रिंस - आप कल भी ऐसे ही बोले थे‌ और चले गये थे, आज तो चलो।
मैं - अच्छा मैं यहीं नीचे हूं, जाओ ऊपर से मेरे लिए पानी लेकर आओ।
प्रिंस - गिलास यहाँ नहीं आएगा चलकर, उसके लिए ऊपर जाना पड़ेगा।
ठीक कुछ ऐसा ही उसने कहा और फिर मैं और उसकी मम्मी हंसने लग गये। दीदी ने भी कहा कि चलो आओ पानी पी लेना फिर जाना। और इसके बाद प्रिंस मेरे पेंट की जेब पकड़ कर मुझे खींचते हुए अपने घर ले गया। और उनके घर के बाहर बालकनी में जैसे ही मैं बैठा, वो अपनी मम्मी को चिल्लाकर आॅर्डर देने लगा कि भैया के लिए पानी लाओ। अब वो मेरी दी हुई डेरी मिल्क चाकलेट जो गर्मी की वजह से पिघल चुकी थी, उसे वह उतने ही समय खाने लग गया। ऊंगलियों में सानकर, चेहरे में यहाँ-वहां लेपते हुए वह बुरी तरीके से चाकलेट खाने लगा। मैं, आराध्या और उसकी मम्मी हम सबने मिलकर बारी बारी से उसका खूब मजाक बनाया कि अभी गार्डन से आया है तू, हाथ नहीं धोया है गंदे, रेत का फ्लेवर खा रहा, घास का फ्लेवर खा रहा, धूल मिट्टी का फ्लेवर खा रहा आदि आदि। प्रिंस हंसने लग जाता, और बेफिक्र होकर फिर से ऊंगली चाट चाटकर खाने लग जाता। चाकलेट खाने के बाद जब वो घर के अंदर हाथ धोने गया तो उसने अपनी मम्मी को कहा- मम्मी मैं अभी आया, भैया का ख्याल रखना। जाना मत भैया, अभी आया। ये सब सुनकर आराध्या ने झुंझलाते हुए कहा - भैया, ये मुझसे इतना प्यार क्यों नहीं करता, मेरे से तो बस लड़ता रहता है हमेशा।
फिर मैंने आज प्रिंस को कहा - मैं कुछ दिन बाद चला जाऊंगा, मेरी ट्रेन है, तुम फिर कैसे करोगे।
प्रिंस - मैं भी आपके साथ उस ट्रेन में जाऊंगा।
मैं - उस ट्रेन में बच्चों को नहीं ले जाते।
प्रिंस - फिर मैं मम्मी पापा को साथ ले जाऊंगा न।
मैं - इसकी हाजिरजवाबी देखकर तो मैं पहले दिन से ही हैरान हूं। फिर मैंने उसे कहा कि ये जो तुम्हारे लंबे घुंघरालु बाल हैं ना, इसके कारण तुम्हें नहीं जाने देंगे।
प्रिंस - सच में नहीं जाने देंगे।
मैं - हां सच में‌।
प्रिंस - तो फिर मैं बाल कटवा लूंगा।
ऐसा बोलते ही वो खिलखिलाकर हंसने लग गया। 

Friday, 11 May 2018

Day -2 with prince



                                इसके घर का नाम प्रिंस है। ये आज फिर खींच के मुझे अपने घर ले जा रहा था। मैंने मना कर दिया। आज गार्डन में इसकी दादी नहीं आई थी लेकिन इसकी बड़ी बहन आराध्या साथ आई थी। आराध्या अभी 5th क्लास में है, बहुत ही तेज है। वो बोली कि भैया आपके बारे में न दादी मुझे बताई। जिस दिन आप दादी से, प्रिंस से, मम्मी से सब से मिले थे न उसी दिन घर में बात हुई। मैंने कहा अच्छा क्या बताई। दादी ने बताया कि एक भैया हैं कोई, यहाँ अभी कुछ दिन के लिए ही हैं, फिर चले जाएंगे। और आप अभी जहाँ रहते हो, पता नहीं क्या नाम बताई वहाँ गर्मी में भी कंबल ओढ़ना पड़ता है, बहुत ठंडा ठंडा होता है। और दादी बताई कि प्रिंस आपको अचानक ही देखकर आपके साथ खेलने लग गया था, और भी बहुत कुछ बता रही थी कि एक अच्छे अच्छे वाले ही भैया हुए आप, दादी वैसा ही कुछ कह रही थी पता नहीं, अभी आप मिले तो लग रहा जैसा दादी ने बताया बिल्कुल वैसे ही हो आप। आराध्या हंसते मुस्कुराते हुए एक कहानीकार की तरह ये बातें मेरे सामने मुझसे कह रही थी। मुझे ये जानकर बड़ा ताज्जुब हुआ कि उस दस साल की लड़की को दादी ने जो भी बताया होगा मेरे बारे में, वो सब कुछ उसे मुंह जुबानी याद था, मुझे देखते ही वो लगातार बोलने लग गई।

गार्डन में आधा घंटा खेलने के बाद जब हम लौटे तो फिर से प्रिंस गार्डन से अपने घर के गेट तक मुझे खींचते ले गया। फिर वही रट लगाने लगा, घर चलो, घर चलो।
मैंने उससे आज कहा - क्यों। वजह बताओ।
उसने बड़े सरल भाव से कहा - ऐसी बैठना थोड़ी देर हम लोग के साथ।
मैंने कहा - लेट हो रहा है, कल आता हूं।
प्रिंस ने कहा - पानी ही पी लेना साथ में एक गिलास।
मैंने कहा - चलो कल आता हूं, दो गिलास एक साथ पी लूंगा, ठीक है।
इसके बाद वो मान गया।
मैं गार्डन के पास अपनी गाड़ी लेने गया, तब तक वे ऊपर अपने घर को जा चुके थे। बाइक आॅन करके जब मैं उनके घर से गुजरा तो आराध्या प्रिंस और उनकी मम्मी तीनों बाल्कनी में खड़े होकर हाथ हिलाकर अलविदा कर रहे थे, हां चिल्ला कर बाॅय बोलने वाला एक ही था; "प्रिंस"।

Friday, 4 May 2018

~ दो अजनबी ~


अभी कुछ देर पहले एक गार्डन में टहलने गया था, गार्डन में बहुत से बच्चे थे, उस गार्डन के गेट में जैसे ही घुसा वहीं मुझे एक बच्चा मिल गया जो पता नहीं क्यों मुझे देखते ही खुद ही मेरा हाथ पकड़ कर टहलने लग गया, अपना नाम खुद ही बताने लग गया। अपनी मां और दादी के साथ आया था लेकिन उनको पीछे छोड़ मेरे साथ तेजी से चलने लग गया। वो बच्चा चार साल का था, उस अनजान बच्चे को और मुझे मिले अभी तीस सेकेंड भी नहीं हुए थे और वो मुझे ये कहने लगा कि बोलो आप क्या खाओगे, आपके लिए घर में क्या बनवाऊं, चलो आप चलना मेरे साथ घर, हम दोनों साथ में खाएंगे। उसकी बातें सुनके मैं तो सोच पड़ गया कि ये क्या हो रहा है। वो बच्चा मेरे साथ खेलने लग गया, मैं जैसा करता वो भी वैसे ही देखकर करने लग जाता। मेरे साथ पुश अप्स करने लगा, दौड़ने लगा, दंड बैठक करने लगा, योगासन करने लगा। एक बार तो उछल कूद करते जोर से गिर भी गया, हाथ पांव छिल गये, लेकिन जैसे ही मैं दौड़कर उसके पास गया और उसकी आंखों में देखकर मुस्कुराया तो वो जो फूट-फूट के बस रोने ही वाला था, अब हंसने लग गया और अपना सारा दर्द भूल गया और फिर से मेरे साथ खेलने लग गया, गार्डन में यहाँ से वहाँ पकड़ पकड़ के मुझे ले गया‌‌। उसकी मम्मी और दादी भी बस एकटक देखते ही रह गये कि कैसे एक अनजान के साथ इतना घुल मिल गया है, मुझे भी बराबर हैरानी हो रही थी। एक बार वो एक मशीन को पकड़ के एक्सरसाइज कर रहा था फिर उसी समय मेरा एक फोन आया तो मैं जैसे ही थोड़ी दूर चलकर गया, उतने में ही उसने चिल्लाकर कहा कि मैं जब तक ये कर रहा हूं आप यहीं रहना पास, जबकि उसकी दादी वहीं पास में थी।
पूरे एक घंटे तक मैं उसके साथ रहा, चाह के भी उससे खुद को अलग नहीं कर पाया, उसने ऐसा होने ही नहीं दिया, उसकी सारी हरकतें देखकर ऐसा लग रहा था कि शायद मैं भी तो बचपन में ऐसा ही रहा होऊंगा।
जब हम गार्डन से जा रहे थे तो उसने अपनी मम्मी का हाथ पकड़ने के बदले मेरा हाथ पकड़ लिया, मैंने कहा कि चलो अब मैं जाता हूं, फिर भी वो नहीं नहीं करने लग गया, आखिर में वो मुझे अपने घर लेकर ही माना। उन्होंने मुझे चाय के लिए पूछा, चाय पीता नहीं इसलिए मैंने मना कर दिया, फिर पानी पी लिया, और कुछ देर बातें हुई। एक कहानी की तरह ये सब कुछ अपने आप हो रहा था। उस चार साल के बच्चे के हिसाब से ही तो हो रहा था ये सब, शायद हम उसी के इशारों में नाच रहे थे।
अब उसकी मम्मी ने मुझसे कहा कि पता नहीं आजतक किसी अनजान से इतना घुला मिला नहीं है, आज ऐसा क्या हुआ है इसे पता नहीं आपमें ऐसा क्या देख लिया इसने कि घर तक खींच लाया। वो बच्चा वहीं था, मैंने भी उससे पूछा कि कैसे मैं ही क्यों दिखा तुमको गार्डन में, और भी तो लोग थे, मेरा ही हाथ क्यों पकड़ लिये, मैं तुम्हें नुकसान पहुंचा देता तो, तुम तो मुझे जानते भी नहीं हो न, पहली बार मिले हो, उसने प्रतिक्रिया में बड़ी गंभीर मुस्कुराहट फेर दी, जिसे सिर्फ मैं ही देख पा रहा था, समझ पा रहा था‌। फिर उसकी दादी ने कहा कि बोल भैया अच्छे हैं क्यों इसलिए? तो उस बच्चे ने सर हिलाते हुए हां किया।
फिर मैंने थोड़ी देर बाद वहां से विदा लिया।
हमेशा की तरह मैं उन सभी लोगों के बारे में कुछ भी नहीं पूछा, उस बच्चे की तस्वीर तक नहीं ली, बस उसने अपना जो नाम शुरूआत में बताया था सम्राट वही याद है। कई बार हालात ऐसे होते हैं कि आप उसमें ऐसे खो‌ जाते हैं कि फिर आपको ये ख्याल ही नहीं आता कि आपको तस्वीर भी लेनी थी।
खैर....

अधिकतर ऐसा हुआ है कि जब मैं कुछ परेशान सा रहता हूं। जब मन में तरह-तरह के सवाल घूमने लग जाते हैं कि अब समय के मुताबिक तुम्हें भी ढल जाना चाहिए। ढोंग, स्वार्थ, लिप्सा, बाजारवाद आदि आदि गुणों का समावेश कुछ मात्रा में ही सही, कर लेना चाहिए, नहीं तो जीना दूभर हो जाएगा। जब-जब टूटने को होता हूं ढेरो सवाल मन में चलते रहते हैं और तब तब पता नहीं क्यों उसी वक्त ऐसे वाकये अनायास ही होते जाते हैं। मैं समझ नहीं पाता कि ऐसा कैसे होता है, क्यों होता है, किसलिए होता है, और मेरे साथ ही अधिकतर ऐसा कैसे हो जाता है। वैसे ये सब होने के बाद एक अच्छी चीज ये होती है कि मैं काफी हल्का महसूस करता हूं। ऐसा लगता है कि किसी ने मेरे अंदर तक पहुंचकर मुझे शांत करने की कोशिश की हो।

Thursday, 3 May 2018

क्या स्वच्छता को जीवन में उतारना सचमुच इतना आसान है?


                          इस झोले में सिर्फ प्लास्टिक की थैलियाँ हैं, कितनी थैलियाँ होंगी क्या मालूम लेकिन आज अचानक उठाकर देखा तो पता चला कि वजन 5 किलो से भी अधिक होगा। ये थैलियां मेरे द्वारा पिछले लगभग दस महीने में इकट्ठी की गई है। मैंने ऐसे ही‌ एक दिन सोचा कि अब से एक भी प्लास्टिक की थैली कहीं बाहर नहीं फेकूंगा, न ही कूड़ेदान में डालूंगा। शुरूआती कुछ दिनों में तो बहुत आसान लगा, लेकिन धीरे-धीरे समझ आया कि स्वच्छता को जीवन में उतारना वाकई बड़ी सजगता का काम है। यानि आप दिन भर से थक कर घर लौट रहे हैं तो भी आपको प्लास्टिक की थैली को अपने जगह रखना है, आपका मन ठीक है, शरीर ठीक नहीं है, फिर भी आलसीपन में प्लास्टिक की थैली इधर-उधर नहीं कहीं भी नहीं फेंक देना है‌, चाहे कैसी भी परिस्थिति आए आपको हमेशा अपना ये एक काम छोटा सा काम करते रहना है। कभी-कभी तो ऐसा हुआ कि जैसे अमूमन कपड़े धोते वक्त लोगों की जेब से कोई कागज का टुकड़ा या नोट निकलता है, मेरी जेब से अधिकतर प्लास्टिक की थैलियां निकल ही जाती। मैं जहाँ जाता, प्लास्टिक की थैली अगर मेरे इस्तेमाल में आती तो उसे अपने जेब में ही रख लेता और इस वजह से मुझे हंसी का पात्र बनना पड़ता, ऐसा कई बार हुआ लेकिन प्लास्टिक की थैलियां इकट्ठी होती रही। उन प्लास्टिक थैलियों में जो बहुत साफ सुथरी और अच्छी स्थिति में थी, मैंने उन्हें फोल्ड करके कुछ एक सब्जी बेचने वालों को देना शुरू किया, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि कुछ लोगों ने लेने से मना कर दिया, फिर कुछ लोगों ने भरोसा किया और ले लिया। महीनों गुजर गए, अब ये थैलियां इकट्ठा करना धीरे-धीरे मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गया या यूं कहें कि आदत में ही शामिल हो गया है। मेरी देखादेखी में मेरे आसपड़ोस के भाई दोस्त यार भी कुछ हद तक ये काम करने लगे। कुछ एक दोस्त लोग सप्ताह भर तक थैली इकट्ठा करने के बाद कहते कि इससे कौन सा क्या हो जाएगा, और इसको इकट्ठा करके क्या कर लेंगे। मेरे पास ऐसे सवालों का एक ही जवाब है कि हमें अपने हिस्से के काम को करने के लिए बहाने तलाशना छोड़ देना चाहिए। हर चीज में क्या क्यूं कैसे की आदत छोड़ कुछ ऐसे काम इसलिए भी कर देने चाहिए ताकि हमें अपने इंसान होने का बोध होता रहे।

Wednesday, 25 April 2018

Panchachuli peak-3 Unclimbed

Panchachuli-3

Panchachuli - 3
6312 metre
Picture Clicked from chulkotdhar range.

This peak is still not climbed, there have been a few expeditions and attempts. The first attempt was in 1996 via the Dakshini Balati Glacier on the Munsyari side, this attempt ended after an accident and avalanche. The second attempt was in 1998, by a large Army expedition via the Duktu Glacier on the Dhauli Ganga river side, this too was not successful as the team summiting had an accident on the final approach ridge.
Other reports of a successful climb have not been independently verified.

Data source - Wikipedia

Khuliya Top, Munsyari


                          इस तस्वीर को जब आप ध्यान से देखेंगे तो आप पाएंगे कि घास के इन मैदानों में दो आयताकर गड्ढे दिखाई दे रहे हैं। अब जो पहाड़ में रहते हैं उन्हें तो इसके उपयोग और बनाए जाने के कारणों के बारे में अच्छे से पता होगा ही। लेकिन जो पहाड़ बस एक बतौर टूरिस्ट घूमने आते हैं, उन्हें भी हम बताना चाहते हैं कि ये आयताकार खांचे असल में एक तरह के जल‌ स्त्रोत हैं, जो ढलान वाले पहाड़ों में आपात स्थिति के लिए तैयार किए जाते हैं। क्या पता कब किसी को जरूरत पड़ जाए, चाहे वे इंसान‌ हो या मवेशी। पानी की जरूरत तो अभी जीवधारियों को है।
अब पहाड़ में ऐसा है कि कुओं या तालाबों का निर्माण तो नहीं किया जा सकता तो इन‌ तरीकों से, इन छोटे-छोटे जल स्त्रोतों के निर्माण से पहाड़ों में जल एकत्र किया जाता है।
हमारे पूर्वजों की दूरदृष्टि को‌ नमन।

If you clearly watch this picture, you will observe that there are few horizontal holes in the meadows..these hollow blocks are actually small water reseviors which are made just to maintain water availability during any emergency.
It is not possible to create any pond or well in the hills so as a resultant these hollow blocks are made for water storage.
Hats off to our visionary ancestors.

नंदा देवी मंदिर, मुनस्यारी



                   डानाधार के इस मंदिर परिसर में जो यह एक छोटा सा मकान‌ है, वहाँ एक सुंदर सा कैंटीन है, जिसे देवेंद्र सिंह जी संभालते हैं, वे आर्मी से रिटायर्ड हैं, इस पूरे मंदिर परिसर की देखरेख करने का जिम्मा भी उन्हीं के हाथ में है। उनका गांव यहीं डानाधार के नीचे पापड़ी-पैकुती है। वे मंदिर परिसर को अपने घर की तरह समझते हैं, रोज आते हैं और मंदिर परिसर का जायजा लेते हैं और तो और पूरे मंदिर परिसर में दिखने वाली तरह तरह की फूलों की क्यारियां, छोटे-छोटे पौधे और तरह-तरह के पेड़ सब इन्हीं की देन है, इन्होंने ही अपने परिश्रम से इस मंदिर परिसर को पर्यटकों के लिए एक आकर्षण का केन्द्र बना दिया है। जो कोई भी मुनस्यारी आता है, भले ही एक दिन के लिए क्यों न आया हो, वह एक बार डानाधार के इस नंदा देवी मंदिर परिसर में जरुर प्रस्थान करता है।

Friday, 20 April 2018

~ कुमाऊं में रहना है, तू-तड़ाक करना है ~

                     ये साढ़े तीन साल का लड़का प्रीतेश, जब इसने मुझसे पहली बार बात की तो इसने कुछ यूं कहा - तू कहां से आया है? तू क्या करता है? मुझे शुरूआत में बड़ा अटपटा लगा कि कैसे ये मुझे तू पे तू बोले जा रहा है। पर वो तो मुझे "तू" ही बोलने वाला हुआ। प्रीतेश की आमा(मां) ने एक बार जब उसे ऐसा बोलते सुना तो उन्होंने प्रीतेश को डांट लगाई कि ऐ! भैया बोला कर। फिर भी प्रीतेश ठहरा ठेठ पहाड़ी वो तो मुझे तू ही कहता, वो जब भी मेरे पास आता, मुझसे बातें करता तो हमेशा मुझे "तू" करके ही संबोधित करता। प्रीतेश मेरे पास सिर्फ दो चीजों के लिए आता एक मैं और मेरा लैपटाॅप, उसे लैपटाॅप से उतना लगाव था ही नहीं जितना कि मुझसे था, मुझसे इसलिए क्योंकि‌ एक बार मैंने उसे पकड़कर ऊंचाई में गेंद जैसा उछाल दिया था, मेरे ख्याल में तो उसे ये भी समझ आ गया था कि मैं लंबा हूं तो सबसे ज्यादा ऊंचाई तक उसे मैं ही उछालूंगा, तभी तो वो मुझे ही इस मामले में वरीयता देने वाला हुआ। अब वो एक चीज उसे इतनी पसंद आई कि रोज उसको गेंद की तरह ऊपर उछलने का शौक हो गया, वो खाल्ली ठहरा मुझ छै फुटिए को ही तंग करने वाला हुआ। जब आता, दरवाजा खटखटाता और हमेशा आकर यही कहता - ऐ! तू मुझे ऊपर उ़छाल दे एक बार।
लेकिन इसके ठीक उलट जो किताब पढ़ने वाले यानि जो स्कूल जाने वाले बच्चे थे वे मुझे आप कहते। फिर भी कुमाऊंनी हिन्दी में तो तू का चलन है‌ ही। बाद में ध्यान दिया तो समझ आया कि संबोधन में "तू" कहना तो कुमाऊंनी हिन्दी का एक जरूरी हिस्सा हुआ, मिठास है बल इसमें भी। तभी तो दीदी, बोज्यू(भाभी) लोग भी मुझे तू ही बोलने वाले हुए। यहां यूपी बिहार टाइप तुम या आप नहीं चलता, यहां की हिन्दी को "तू-तड़ाक" में ही विश्वास है। यहाँ का "तुम" भी "तू" और यहाँ का "आप" भी "तू" है। यहाँ के "तू" में बड़ा अपनापन है रे।


Thursday, 12 April 2018

Trip to Munsyari

                        आखिरकार हमने यह फैसला लिया है कि हम अपने साथियों को मुनस्यारी की ही सैर कराएंगे, कराएंगे तो हिमालय दर्शन ही कराएंगे। समय भी तय है जून का पहला सप्ताह।‌ आने वाले कुछ दिनों में यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि आपको किस दिन का रिजर्वेशन कराना है और कब मुनस्यारी आना है। बस अभी मोटा मोटा यह समझिए कि जून का पहला सप्ताह तय है।

तो मुनस्यारी आने के लिए आपको ये करना है -
1. आपको ट्रेन से काठगोदाम या हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन तक पहुंचना है। इसमें ट्रेन के बारे में और अधिक जानकारी आप मुझसे ले सकते हैं।
2. काठगोदाम और हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन आगे-पीछे ही हैं। काठगोदाम इस रूट का सबसे आखिरी रेल्वे स्टेशन है और हल्द्वानी उसके ठीक पहले का स्टेशन है, बस पंद्रह मिनट का फर्क है। तो दोनों‌ से किसी एक जगह जहां भी आप पहुंचे वहां से आपको हम गाड़ी से मुनस्यारी ले जाएंगे। यहाँ से हमारी जिम्मेदारी शुरू होती है।
3. काठगोदाम आपको कैसे भी करके सुबह पहुंचना है। क्योंकि काठगोदाम से सुबह 6-7 बजे मुनस्यारी के लिए आपकी गाड़ी निकलेगी। जो कि शाम 6-7 बजे तक आपको मुनस्यारी पहुंचाएगी।
4. अगर आपकी ट्रेन की टाइमिंग थोड़ी अलग हो रही है और आप सुबह काठगोदाम पहुंचने की स्थिति में नहीं है तो आपको एक दिन पहले यानि शाम‌ को काठगोदाम या हल्द्वानी पहुंचकर एक रात स्टे कर अगली सुबह मुनस्यारी जाने के लिए तैयार रहना होगा। आप सोच रहे होंगे इतनी मेहनत, यार अब हिमालय दर्शन करना है तो इतना तो करना पड़ेगा न। बाकी हमारी तो पूरी कोशिश रहेगी कि आपको‌ किसी प्रकार की कोई असुविधा न हो‌।
5. हां तो काठगोदाम से मुनस्यारी का सफर काफी लंबा और थका देने वाला है, पूरे 12 घंटे का घुमावदार पहाड़ी रास्ता, तो सबसे निवेदन है कि आप अपने साथ उल्टी की गोलियाँ जरूर रखें। गाड़ी भी आपको बता दे रहा हूं, फोर्स की ट्रेवलर में आप‌ मुनस्यारी आएंगे, जिसमें उबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्तों में भी आपको बहुत कम‌ जर्क महसूस होगा फिर भी आप उल्टी की गोलियाँ जरूर लेकर चलें।
6. जूते तो आप पहनकर आएंगे ही, साथ ही आवश्यकतानुसार गर्म कपड़े भी रख लीजिएगा, अब मुनस्यारी के जून के महीने की ठंड को यूं समझिए कि मैदानी‌ इलाकों‌ का दिसंबर का महीना, यानि उतना भी नहीं होगा, कहने का अर्थ यह है कि अगर बारिश हुई तो अधिकतम तापमान उतना जा सकता है, नहीं तो दिन में मौसम सामान्य और शाम ढलते गुलाबी ठंड।
7. अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो शराब का सेवन करता हो उनके लिए विशेष सूचना है कि आप इस ट्रिप में‌ किसी प्रकार का नशा नहीं कर पाएंगे, हम आपको ऐसा करने ही नहीं देंगे, क्योंकि हो सकता है कि कुछ फैमली वाले भी आएंगे तो हम अपनी इस एक बात को लेकर प्रतिबध्द हैं, तो अगर आप इस यात्रा का हिस्सा बनना चाहते हैं तो इस एक बात का विशेष ध्यान रखना पड़ेगा।
8. आपके ट्रेवलिंग के दिनों को अलग रखें तो मुनस्यारी में आपका ट्रिप दो से तीन दिन का होगा, इससे ज्यादा नहीं। इसमें आपको परंपरागत पहाड़ी व्यंजन खिलाया जाएगा, यहां की संस्कृति से रूबरू कराया जाएगा, रात के वक्त बोन फायर का आनंद भी मिलेगा, साथ ही आपको ट्रैकिंग कराया जाएगा। पहाड़ में 10-15 किलोमीटर की ट्रैकिंग करने के लिए अभी से खुद को तैयार कर लीजिए। क्योंकि इस पूरे ट्रिप की सबसे असली चीज यही है।
9. अब आप सोच रहे होंगे कि ये सब बता दिया वो ठीक, कितना खर्च लगेगा वो बताओ, तो ऐसा है नोमिनल रेट्स ही होगा, आपको एक बार कम लग सकता है पर ज्यादा तो लगेगा ही नहीं। आने वाले कुछ दिनों में जब रिजर्वेशन की तारीख आपको बताएंगे तो उसी के साथ इस ट्रिप के खर्च के बारे में स्थिति स्पष्ट कर दी जाएगी।
10. अब पहाड़ों में बारे में एक बेसिक जानकारी वो ये कि पहाड़ों में भी क्या है, दो तरह के पहाड़ होते हैं, एक गर्म पहाड़ और दूसरा ठंडा पहाड़, तो रास्ते भर आपको यह विरोधाभास देखने को मिल सकता है कि शुरूआत में कम ऊंचाई में ही आपको ठंडी का अहसास होगा और अचानक ऊंचाई में जाने के बाद भी तेज गर्मी का अहसास हो जाए, तो विचलित न होइएगा क्योंकि भाई अपना हिमनगरी मुनस्यारी तो सबसे ठंडा पहाड़ हुआ।
11. एक और जरूरी बात कहना चाहूंगा कि जैसे आप ट्रेन से लंबा सफर करके आएंगे और फिर काठगोदाम से ट्रेवलर की गाड़ी में बैठकर मुनस्यारी के लिए रवाना होंगे तो आपको इस बीच बार-बार ऐसा लगेगा कि क्यों‌ इतनी दूर जा रहे हैं, क्यों इतनी तकलीफ उठा रहे हैं, बस अब नहीं हो पाएगा, भाड़ में जाए ये ट्रिप, मैं यहीं से वापस चला जाता हूं, ऐसा आपको मुनस्यारी आते तक लग सकता है। मैं तो‌ हमेशा अकेले आता हूं तो मैंने इस चीज को गहरे तक‌ महसूस किया है। लेकिन एक बात कहूं जैसे ही आप मुनस्यारी पहुंचने वाले होंगे न, आप सब कुछ एक झटके में भूल जाएंगे, मैं दावे के साथ कहना चाहता हूं कि जब आप ढलती शाम में मुनस्यारी की वादियां देखेंगे, जब आप अपनी आंखों‌ के सामने हिमालय देखेंगे और जब मुनस्यारी की ठंडी हवा आपके शरीर को छुएगी तो देखिएगा आप सफर की सारी थकान एक झटके में भूल जाएंगे। फिर आप सोचेंगे, यार कितना अच्छा हुआ मैं आ गया, न जाने क्यों बेवजह घबरा रहा था।
12. आखिरी बात ये कि मुनस्यारी में पूरे समय मैं आपके साथ रहूंगा, मेरा वादा है कि आपको पहाड़ों की एक अलग ही दुनिया से रूबरू होने का मौका मिलेगा। तो फिलहाल जो भी साथी इच्छुक हैं, आना चाहते हैं, या अपने साथियों को‌ भी लाना‌ चाहते हैं, वे कृपया एक बार मैसेज में, व्हाट्स एप्प में, या कमेंट में सूचित करें।

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धन्यवाद।

Monday, 2 April 2018

My fist visit to Munsyari

साल 2015,
मुनस्यारी से गोरीपार जिस झूलापुल की सहायता से जाते हैं, उस पुल के निर्माण से संबंधित एक फेसबुक पोस्ट मुझे अचानक किसी एक पेज में दिखाई दिया, वहाँ एक भाईजी ने बड़ी सरल‌ भाषा में अपनी समस्या को सीमित शब्दों में पिरोया था, उस वक्त उन दो-तीन लाइनों को पढ़कर लगा कि कितने सही तरीके से इन्होंने अपनी बात रखी है‌। मेरी उस समय उनसे फेसबुक पेज पर ही कमेंट के माध्यम से बात हुई, फिर हमारी दोस्ती हुई और फिर कुछ यूं मैं सितम्बर 2015 में पहली बार अकेले दिल्ली से मुनस्यारी पहुंचा। मुझे कुछ नहीं पता था कि‌ मैं कहां जा रहा हूं, कब लौटूंगा, क्या करूंगा वहाँ, कैसे लोग होंगे। काठगोदाम से मैक्स की गाड़ी में बैठने के बाद बस मुझे एक ही बात याद आ रही थी जो साल 2014 में हमें एक ड्राइवर ने कहा था जब हम रानीखेत घूमने आए थे,
उस ड्राइवर ने कहा था- भाईजी एक बार मुनस्यारी हो के आओ, वो जगह सपने में आएगा‌। बस यही बात याद करके, वहाँ की तस्वीरें देखके मैं मुनस्यारी पहुँचा। मैं सिर्फ घूमने के लिए ही गया था, वहां जाकर अपने उस फेसबुक के दोस्त से मिला, उनके साथ रहा, और फिर तीन दिन के पश्चात वापस दिल्ली लौट आया।

अब वापसी के समय जो सबसे आश्चर्य की बात थी वो ये कि मैं जब मुनस्यारी से काठगोदाम वापस मैक्स की गाड़ी में लौट रहा था, मेरे आंसू बहने लगे, वैसे तो मैं कभी रोता नहीं हूं, बद से बदतर हालात में भी मेरे आंसू नहीं निकलते, खुद को संभाल लेता हूं। लेकिन उस दिन मैं‌ अपने आंसू रोक नहीं पा रहा था। मैं‌ पीछे किनारे की सीट पर बैठा हुआ था, हल्की बारिश भी हो रही थी, मेरे बाजू में बैठने वाले लोग मुझे छुपी हुई नजरों से बार-बार देख रहे थे, लेकिन वे लोग भी मुझे कोई कुछ बोल नहीं पा रहे थे, उनकी स्थिति ऐसी हो गई थी मानो किसी ने उनकी जुबान सिल दी हो, मुझे भी अटपटा लग रहा था क्योंकि मैं बिना किसी वजह के फूट-फूटकर रो रहा था, मेरे आंसू रूक‌ ही नहीं रहे थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये मेरे साथ क्या हो रहा है। आप यकीन नहीं‌ करेंगे मैं लगभग घंटे भर रोया, मुझे याद है गाड़ी उस वक्त बेरीनाग और अल्मोड़ा के बीच थी। वो एक विशिष्ट अनुभव था, ऐसा लगा मानो मैं कहीं और ही हूं, ऐसा लगा जैसे शरीर के भीतर सब कुछ पिघलता जा रहा हो, एक‌ अलग ही अनुभूति, अजीब तरह का हल्कापन। वो हल्कापन ऐसा था कि जब अल्मोड़ा पहुंचने के बाद मेरा रोना शांत हुआ तो मैं उस चीज को फिर से पाने के लिए ऐसा तड़पा कि मुझे कुछ घंटे और रोने का मन होने लगा, ऐसा लगा कि बस आज ये पूरा दिन‌ रोता रहूं। मुझे बहुत गुस्सा आई कि मैं फिर से क्यों नहीं रो पा रहा हूं, मैं आंखें बंद करके फिर से सोने की कोशिश करता कि फिर से वो मजबूत सा अहसास वापस लौट आए और मुझे और कुछ घंटों के लिए रूला दे। पर फिर ऐसा कभी नहीं हुआ। वो जो भी था, आखिरी था।

कुछ घंटों के पश्चात ये घटना मेरे दिमाग से हट गई, मुझे याद रहा तो सिर्फ अपना रोना। एक ऐसा रोना जिसकी कोई वजह ही नहीं थी, बस मैं रोया। उस दिन के बाद से पता नहीं क्यों मेरा पहाड़ों के प्रति एक अलग ही तरह का ज्यादा लगाव स्थापित हो चुका है।


Tuesday, 20 March 2018

~ क्या रखा है इन पहाड़ों में ~

सितम्बर 2015,
मैं मुनस्यारी से काठगोदाम वापस लौट रहा था। मैक्स की जिस गाड़ी में मैं आ रहा था, उसमें चार लोगों का एक परिवार भी था, पति-पत्नी और दो बच्चे। वे जो भाईसाहब थे, उनकी पत्नी और उनके वे दोनों बच्चे रास्ते भर भयंकर उल्टी करने लगे।
वे मुनस्यारी के ही थे, उन्होंने बताया कि छुट्टी में आए हुए थे मुनस्यारी और अब वे वापस जा रहे हैं दिल्ली, फिलहाल दिल्ली ही रहते हैं, वहीं कोई प्राइवेट नौकरी करते हैं। ऐसे साल में कभी मौका देखकर मुनस्यारी आ जाते हैं।
मैंने उनके बच्चों को उल्टी करते देखा तो मेरे पास जो भी उल्टी की गोली और कुछ मिंट वाली टाॅफी थी, मैंने उन्हें सब दे दिया। अल्मोड़ा आते तक उनका उल्टी करना पूरी तरह से बंद हो गया।

गाड़ी अभी अल्मोड़ा के एक बैंड(मोड़) में बाल मिठाई वाले की दुकान के पास रूकी हुई है, वे मुझसे आगे आकर बात करते हैं और शुक्रिया कहते हैं, और फिर हमारे बीच रोजगार वगैरह को लेकर कुछ हल्की फुल्की बातें होती है।
इसी बीच वे सामने एक खड़े पहाड़ की ओर इशारा करते हुए कहते हैं - " क्या रखा है इन पहाड़ों में, कुछ भी तो नहीं है".
मुझे आज भी याद है हूबहू उन्होंने ऐसा ही कहा था। उस वक्त उनकी वो बात सुनकर मैं एकदम चुप सा हो गया था,कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। सच कहूं तो रंज हुआ उनकी बात सुनकर। मैं सोचने लगा कि जिन पहाड़ों से मैंने इतना गहरा लगाव महसूस किया है, वहाँ वे ऐसा क्यों कह रहे हैं कि कुछ भी नहीं है, इतना कुछ तो है यहाँ, फिर भी वे इन पहाड़ों को छोड़कर आखिर क्यों चले गये?
फिर लगा कि ऐसी सोच रखना ठीक नहीं, उनकी भी अपनी कुछ जिम्मेवारियां होंगी, रोटी,कपड़ा,मकान रूपी उनकी भी कुछ समस्याएं रही होंगी। इसलिए उन्होंने पलायन किया होगा और वैसे भी एक दो बार घूमकर तो इन खूबसूरत पहाड़ों से तो कोई भी लगाव महसूस करेगा लेकिन वो एक भावनात्मक जुड़ाव के अलावा और कुछ भी नहीं होगा।
तो उस दिन उनकी कही गई उस बात से मेरा पहाड़ों के प्रति लगाव कम होने के बजाय और बढ़ गया। और फिर मैंने कुछ महीने पहाड़ में ही पहाड़ियों की तरह रहने का फैसला किया साथ ही एक पहाड़ी की तरह खान-पान, रहन-सहन और आचार-व्यवहार के तरीकों को भी अपनाया।
तो कुछ महीने यूं पहाड़ों में रहने के बाद मन में ढेरों सवाल आए, उनमें से कुछ सवाल जो उन भाईसाहब(जो गाड़ी में मिले थे) को केंद्र में रखकर मैं करना चाहूंगा वो इस तरह हैं-
मैं उन्हें कहूंगा---
- जिन Basic needs( मूलभूत जरूरतों) के लिए आपने पलायन को चुना है वे आखिर होती क्या हैं?
- क्या महंगे स्कूल में बच्चों की पढ़ाई, मार्बल टाइल्स वाले घर, गाड़ी, शापिंग माॅल की खरीददारियां क्या मूलभूत जरूरतें यही होती है?
- अगर मूलभूत जरूरतें यही है तो ये भी जरा बताइए कि क्या दिल्ली जैसे शहर में आपके बच्चों का सर्वांगीण विकास हो रहा है, क्या उनको वहां इन पहाड़ों की तरह शुध्द हवा मिलती है, क्या यहाँ की तरह साफ मीठा पानी मिलता है?
- स्वच्छ हवा और पीने लायक शुध्द पानी मूलभूत जरूरतें नहीं है क्या दाज्यू?
- चलिए इन्हें भी छोड़िए खान-पान पर आते हैं, जहाँ हवा और पानी शुध्द नहीं है वहाँ आपको क्या इन पहाड़ों की तरह ताजे फल और सब्जियाँ मिल सकती है? क्या पहाड़ों जैसा स्वाद मिल सकता है?
- क्या वहाँ आपके बच्चों को यहाँ की तरह दूध,घी,मट्ठा, बुरांस का जूस मिल पाएगा, क्या मिल पाएगा माल्टा, काफल, हिसालु, घिंघारू का स्वाद। पतूर, भट्ट की दाल, मड़ुवे की रोटी, गहद, जम्बु की छौंक से बना रायता, कढ़ी, भांग की चटनी और न जाने कितना कुछ।
- आप ही बताएं कि आपके बच्चे पहाड़ों में ज्यादा स्वस्थ रहेंगे या मैदानी महानगरों में?
- क्या वहां रहकर आप अपने बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी का प्यार दिला पाएंगे?
- जिन पहाड़ों में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार हैं, लोग इतने मेलजोल के साथ रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुख में हमेशा साथ निभाते हैं, इस कठिन जीवनशैली में भी हर महीने कोई न कोई पर्व त्यौहार मना लेते हैं। आपने इन सभी चीजों को नौकरी और रोजगार के चक्कर में छोड़ दिया, आप ही बताएं कि क्या करोड़ों रुपए लुटाकर भी आपको यह अपनापन उस बनावटी दुनिया में कहीं मिल पाएगा?
न जाने ऐसे कितने सवाल हैं, शायद इनमें से कुछ एक सवाल समय के हिसाब से अप्रासंगिक लग सकते हैं वैसे भी कुछ महीनों के अनुभव से जो देखा,वही लिखा है।
और इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पहाड़ों में पलायन के दर्द को समझते हुए आपको भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी समझते हुए स्वावलम्बन के विभिन्न तरीकों की ओर ध्यान देकर पहाड़ लौटना चाहिए। नहीं, ऐसा करना संभव नहीं दिखता। लेकिन जब तक ऐसा संभव ना दिखे, हम जैसे सिरफिरे पहाड़ों की खाक छानते रहेंगे, आपको आप ही के मूल्यों, रीति-रिवाजों, त्यौहारों, खान-पान, आचार-व्यवहार के तरीकों के बारे में समय समय पर बताते रहेंगे।

चौना-मटैना गाँव, तहसील- मुनस्यारी, उत्तराखंड