Monday, 11 June 2018

Life @ Munsyari

Life @ Munsyari

मुनस्यारी फिर से अंधकारमय। 5 घंटे से अधिक हो चुके हैं। अब कल सुबह तक लाइट आने से रही। कल‌‌ भी कितने टाइम तक लाइट आएगी कोई भरोसा नहीं है। पहाड़ों का जीवन बहुत दुखमय है र, अपार कठिनाइयों से भरा है। कभी भी बारिश कभख भी ओले, कपड़े तक नहीं सूख पाते, आखिर कितना लिखा जाए। बस ये हिमालय की खूबसूरती को देख के ही मन संतुष्ट कर लेने वाली बात है।

Life @ Munsyari

मुनस्यारी में मेरे ठंड झेलने की कैपेसिटी का‌ अंदाजा आप इसी से लगाइए कि मैं इस बार जैकेट तक लेकर नहीं आया हूं। अभी तापमान 8'c न्यूनतम और अधिकतम 25'c है। आने वाले दिनों में तापमान में बढ़ोतरी तो होगी नहीं, गिरावट ही होगी। अब यहाँ दो ही तरह का मौसम होता है एक ठंड दूसरा बरसात।

सचमुच जुदा है हिमालय को सामने से देखने का ये एहसास।
एक कवि द्वारा रची गई सुंदर कविता या लाख रूपये के कैमरे से खींची गई तस्वीर भी हिमालय की इस खूबसूरती को बयां नहीं कर सकती। हिमालय के इस एहसास को महसूस करने के लिए तुम्हें इसे सामने अपनी आंखों से ही देखना होगा।

मुनस्यारी में सामान्य वर्ग के लोगों का हाल‌ वही है, जो बस्तर में आदिवासियों का है। यहाँ सामान्य वर्ग के लोगों का दशकों से हो रहे शोषण का आप इसी से अंदाजा लगाइए कि अधिकतर होटल में काम करने वाले, गाड़ी चालक, पत्थर फोड़ने वाले, मजदूरी करने वाले अधिकांशतः सामान्य वर्ग के लोग ही हैं।

मुनस्यारी में समाज सेवा के नाम पर गजब का विरोधाभास है। यहाँ समाजसेवा का ऐसा पैटर्न चलता है जो आपको पूरे भारत में कहीं नहीं मिलेगा। यहाँ तो सेवा शब्द की एक अलग ही परिभाषा गढ़ दी गई है।
एक ऐसी सेवा जिसका अपना एक दायरा है, कुछ तय सीमित लोग हैं। उसके अलावे बाकी लोग दर दर की ठोकरें खाते रहें, इन्हें कोई सरोकार नहीं।
समाजसेवियों का भी एजेंडा निर्धारित है कि ये फलां फलां लोग हैं, हमें इन्हें ही आसमान की ऊंचाइयों तक ले जाना है, बाकी इसके अलावे कोई मरता भी रहे हमें क्या। और तो और शहर गंदा होता रहे, हमें क्या।
अजी हां, देश समाज ऐसे ही बनता है, अरे ऐसे में सिर्फ और सिर्फ खाई बनती है, जिसमें एक न एक दिन हमें और आपको ही गिरना है।
सीधे एक लाइन में कहा जाए तो ये समाजसेवी समसजसेवक न होकर जातिसेवक हैं। और जातिसेवक भी इतने प्रतिबध्द और ईमानदार ठहरे कि इनको मुनस्यारी के लोगों और यहाँ की समस्याओं से कोई मतलब नहीं।
इन तथाकथित जातिसेवियों के पास हिमनगरी मुनस्यारी का महिमा मंडन करने के‌ लिए वही दशकों से चली आ रही दो चार सूक्तियां हैं,
जैसे कि , स्वर्ग जैसा मुनस्यारी, सार संसार एक मुनस्यार, रंगीलो जोहार मेरो मुनस्यार, आदि आदि। बस इसी से खानापूर्ति हो जाती है।
इन्हीं वाक्यों से मुनस्यारी की ऐसी सैकड़ों नालियाँ भी साफ हो जाएंगी, सच तो ये है कि ऐसी नाली रूपी गंदगी जोंक की तरह हमारे मन मस्तिष्क में भी जगह बना चुकी है।
बाकी स्वर्ग तो है ही बल अपना मुनस्यारी। कितना भी उत्पात मचा लो स्वर्ग ही रहने वाला हुआ।



पता नहीं चंद पैसों और सुविधाओं के लिए, अधिकतर दिखावे और भेड़चाल में आकर लोग कैसे इन खूबसूरत वादियों से यानि अपनी जड़ों से पलायन कर जाते हैं। कैसे छोड़ जाते हैं संयुक्त परिवार, दादी-नानी का लाड़ प्यार, पर्व, त्यौहार, कौतिक(मेले), ये हवा, पानी। कैसे त्याग कर चले जाते हैं इस संस्कृति को, कहां से लाते होंगे ऐसा करने का हौसला, कैसे जुटाते होंगे इतनी हिम्मत। मेरा बस चले तो मैं एक‌ वक्त का खाना खाकर इस संस्कृति का लालन‌‌ पालन‌ कर दूं।
‌‌‌‌‌‌‌ अगस्त 2017 में मैंने यहाँ के‌ लोगों की जीवनशैली और यहाँ की संस्कृति को करीब से जानने के लिए, यहाँ की समस्याओं की बेहतर समझ बनाने के लिए लगातार 9 दिन तक एक‌ ही‌ वक्त का खाना खाया था‌। नौ दिनों के दरम्यान शारीरिक तपस्या से ज्यादा मेरे पड़ोसियों के अपनेपन से जूझना, उनके लगातार चाय नाश्ते खाने के लिए पूछना ये सबसे बड़ी चुनौती थी, हर दिन सुबह शाम झूठ बोलना यानि 15-20 झूठ तो मैंने बोले ही होंगे कि हां मैंने नाश्ता कर लिया है, मैंने खाना खा लिया है।

In picture - फाइनली, चार दिनों के बाद पानी आना शुरू हो गया है। हमने कपड़े भी धो लिए हैं साथ ही ठंडे पानी से खुद को भी धो लिया है। स्नोफाल के वक्त नहाते थे तो ये ठंड क्या चीज है, "इट्स जस्ट ए स्टेट आॅफ माइंड"।


जब मैं पहली बार मुनस्यारी आया था तो एक बार रात को अपनी ही सांस लेने की साफ आवाज सुनकर घबरा गया था, यानि रात को यहां इतनी ज्यादा शांति रहती है। एक चूं की भी आवाज नहीं। 

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