Monday, 2 April 2018

My fist visit to Munsyari

साल 2015,
मुनस्यारी से गोरीपार जिस झूलापुल की सहायता से जाते हैं, उस पुल के निर्माण से संबंधित एक फेसबुक पोस्ट मुझे अचानक किसी एक पेज में दिखाई दिया, वहाँ एक भाईजी ने बड़ी सरल‌ भाषा में अपनी समस्या को सीमित शब्दों में पिरोया था, उस वक्त उन दो-तीन लाइनों को पढ़कर लगा कि कितने सही तरीके से इन्होंने अपनी बात रखी है‌। मेरी उस समय उनसे फेसबुक पेज पर ही कमेंट के माध्यम से बात हुई, फिर हमारी दोस्ती हुई और फिर कुछ यूं मैं सितम्बर 2015 में पहली बार अकेले दिल्ली से मुनस्यारी पहुंचा। मुझे कुछ नहीं पता था कि‌ मैं कहां जा रहा हूं, कब लौटूंगा, क्या करूंगा वहाँ, कैसे लोग होंगे। काठगोदाम से मैक्स की गाड़ी में बैठने के बाद बस मुझे एक ही बात याद आ रही थी जो साल 2014 में हमें एक ड्राइवर ने कहा था जब हम रानीखेत घूमने आए थे,
उस ड्राइवर ने कहा था- भाईजी एक बार मुनस्यारी हो के आओ, वो जगह सपने में आएगा‌। बस यही बात याद करके, वहाँ की तस्वीरें देखके मैं मुनस्यारी पहुँचा। मैं सिर्फ घूमने के लिए ही गया था, वहां जाकर अपने उस फेसबुक के दोस्त से मिला, उनके साथ रहा, और फिर तीन दिन के पश्चात वापस दिल्ली लौट आया।

अब वापसी के समय जो सबसे आश्चर्य की बात थी वो ये कि मैं जब मुनस्यारी से काठगोदाम वापस मैक्स की गाड़ी में लौट रहा था, मेरे आंसू बहने लगे, वैसे तो मैं कभी रोता नहीं हूं, बद से बदतर हालात में भी मेरे आंसू नहीं निकलते, खुद को संभाल लेता हूं। लेकिन उस दिन मैं‌ अपने आंसू रोक नहीं पा रहा था। मैं‌ पीछे किनारे की सीट पर बैठा हुआ था, हल्की बारिश भी हो रही थी, मेरे बाजू में बैठने वाले लोग मुझे छुपी हुई नजरों से बार-बार देख रहे थे, लेकिन वे लोग भी मुझे कोई कुछ बोल नहीं पा रहे थे, उनकी स्थिति ऐसी हो गई थी मानो किसी ने उनकी जुबान सिल दी हो, मुझे भी अटपटा लग रहा था क्योंकि मैं बिना किसी वजह के फूट-फूटकर रो रहा था, मेरे आंसू रूक‌ ही नहीं रहे थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये मेरे साथ क्या हो रहा है। आप यकीन नहीं‌ करेंगे मैं लगभग घंटे भर रोया, मुझे याद है गाड़ी उस वक्त बेरीनाग और अल्मोड़ा के बीच थी। वो एक विशिष्ट अनुभव था, ऐसा लगा मानो मैं कहीं और ही हूं, ऐसा लगा जैसे शरीर के भीतर सब कुछ पिघलता जा रहा हो, एक‌ अलग ही अनुभूति, अजीब तरह का हल्कापन। वो हल्कापन ऐसा था कि जब अल्मोड़ा पहुंचने के बाद मेरा रोना शांत हुआ तो मैं उस चीज को फिर से पाने के लिए ऐसा तड़पा कि मुझे कुछ घंटे और रोने का मन होने लगा, ऐसा लगा कि बस आज ये पूरा दिन‌ रोता रहूं। मुझे बहुत गुस्सा आई कि मैं फिर से क्यों नहीं रो पा रहा हूं, मैं आंखें बंद करके फिर से सोने की कोशिश करता कि फिर से वो मजबूत सा अहसास वापस लौट आए और मुझे और कुछ घंटों के लिए रूला दे। पर फिर ऐसा कभी नहीं हुआ। वो जो भी था, आखिरी था।

कुछ घंटों के पश्चात ये घटना मेरे दिमाग से हट गई, मुझे याद रहा तो सिर्फ अपना रोना। एक ऐसा रोना जिसकी कोई वजह ही नहीं थी, बस मैं रोया। उस दिन के बाद से पता नहीं क्यों मेरा पहाड़ों के प्रति एक अलग ही तरह का ज्यादा लगाव स्थापित हो चुका है।


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