सितम्बर 2015,
मैं मुनस्यारी से काठगोदाम वापस लौट रहा था। मैक्स की जिस गाड़ी में मैं आ रहा था, उसमें चार लोगों का एक परिवार भी था, पति-पत्नी और दो बच्चे। वे जो भाईसाहब थे, उनकी पत्नी और उनके वे दोनों बच्चे रास्ते भर भयंकर उल्टी करने लगे।
वे मुनस्यारी के ही थे, उन्होंने बताया कि छुट्टी में आए हुए थे मुनस्यारी और अब वे वापस जा रहे हैं दिल्ली, फिलहाल दिल्ली ही रहते हैं, वहीं कोई प्राइवेट नौकरी करते हैं। ऐसे साल में कभी मौका देखकर मुनस्यारी आ जाते हैं।
मैंने उनके बच्चों को उल्टी करते देखा तो मेरे पास जो भी उल्टी की गोली और कुछ मिंट वाली टाॅफी थी, मैंने उन्हें सब दे दिया। अल्मोड़ा आते तक उनका उल्टी करना पूरी तरह से बंद हो गया।
गाड़ी अभी अल्मोड़ा के एक बैंड(मोड़) में बाल मिठाई वाले की दुकान के पास रूकी हुई है, वे मुझसे आगे आकर बात करते हैं और शुक्रिया कहते हैं, और फिर हमारे बीच रोजगार वगैरह को लेकर कुछ हल्की फुल्की बातें होती है।
इसी बीच वे सामने एक खड़े पहाड़ की ओर इशारा करते हुए कहते हैं - " क्या रखा है इन पहाड़ों में, कुछ भी तो नहीं है".
मुझे आज भी याद है हूबहू उन्होंने ऐसा ही कहा था। उस वक्त उनकी वो बात सुनकर मैं एकदम चुप सा हो गया था,कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। सच कहूं तो रंज हुआ उनकी बात सुनकर। मैं सोचने लगा कि जिन पहाड़ों से मैंने इतना गहरा लगाव महसूस किया है, वहाँ वे ऐसा क्यों कह रहे हैं कि कुछ भी नहीं है, इतना कुछ तो है यहाँ, फिर भी वे इन पहाड़ों को छोड़कर आखिर क्यों चले गये?
फिर लगा कि ऐसी सोच रखना ठीक नहीं, उनकी भी अपनी कुछ जिम्मेवारियां होंगी, रोटी,कपड़ा,मकान रूपी उनकी भी कुछ समस्याएं रही होंगी। इसलिए उन्होंने पलायन किया होगा और वैसे भी एक दो बार घूमकर तो इन खूबसूरत पहाड़ों से तो कोई भी लगाव महसूस करेगा लेकिन वो एक भावनात्मक जुड़ाव के अलावा और कुछ भी नहीं होगा।
तो उस दिन उनकी कही गई उस बात से मेरा पहाड़ों के प्रति लगाव कम होने के बजाय और बढ़ गया। और फिर मैंने कुछ महीने पहाड़ में ही पहाड़ियों की तरह रहने का फैसला किया साथ ही एक पहाड़ी की तरह खान-पान, रहन-सहन और आचार-व्यवहार के तरीकों को भी अपनाया।
तो कुछ महीने यूं पहाड़ों में रहने के बाद मन में ढेरों सवाल आए, उनमें से कुछ सवाल जो उन भाईसाहब(जो गाड़ी में मिले थे) को केंद्र में रखकर मैं करना चाहूंगा वो इस तरह हैं-
मैं उन्हें कहूंगा---
- जिन Basic needs( मूलभूत जरूरतों) के लिए आपने पलायन को चुना है वे आखिर होती क्या हैं?
- क्या महंगे स्कूल में बच्चों की पढ़ाई, मार्बल टाइल्स वाले घर, गाड़ी, शापिंग माॅल की खरीददारियां क्या मूलभूत जरूरतें यही होती है?
- अगर मूलभूत जरूरतें यही है तो ये भी जरा बताइए कि क्या दिल्ली जैसे शहर में आपके बच्चों का सर्वांगीण विकास हो रहा है, क्या उनको वहां इन पहाड़ों की तरह शुध्द हवा मिलती है, क्या यहाँ की तरह साफ मीठा पानी मिलता है?
- स्वच्छ हवा और पीने लायक शुध्द पानी मूलभूत जरूरतें नहीं है क्या दाज्यू?
- चलिए इन्हें भी छोड़िए खान-पान पर आते हैं, जहाँ हवा और पानी शुध्द नहीं है वहाँ आपको क्या इन पहाड़ों की तरह ताजे फल और सब्जियाँ मिल सकती है? क्या पहाड़ों जैसा स्वाद मिल सकता है?
- क्या वहाँ आपके बच्चों को यहाँ की तरह दूध,घी,मट्ठा, बुरांस का जूस मिल पाएगा, क्या मिल पाएगा माल्टा, काफल, हिसालु, घिंघारू का स्वाद। पतूर, भट्ट की दाल, मड़ुवे की रोटी, गहद, जम्बु की छौंक से बना रायता, कढ़ी, भांग की चटनी और न जाने कितना कुछ।
- आप ही बताएं कि आपके बच्चे पहाड़ों में ज्यादा स्वस्थ रहेंगे या मैदानी महानगरों में?
- क्या वहां रहकर आप अपने बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी का प्यार दिला पाएंगे?
- जिन पहाड़ों में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार हैं, लोग इतने मेलजोल के साथ रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुख में हमेशा साथ निभाते हैं, इस कठिन जीवनशैली में भी हर महीने कोई न कोई पर्व त्यौहार मना लेते हैं। आपने इन सभी चीजों को नौकरी और रोजगार के चक्कर में छोड़ दिया, आप ही बताएं कि क्या करोड़ों रुपए लुटाकर भी आपको यह अपनापन उस बनावटी दुनिया में कहीं मिल पाएगा?
न जाने ऐसे कितने सवाल हैं, शायद इनमें से कुछ एक सवाल समय के हिसाब से अप्रासंगिक लग सकते हैं वैसे भी कुछ महीनों के अनुभव से जो देखा,वही लिखा है।
और इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पहाड़ों में पलायन के दर्द को समझते हुए आपको भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी समझते हुए स्वावलम्बन के विभिन्न तरीकों की ओर ध्यान देकर पहाड़ लौटना चाहिए। नहीं, ऐसा करना संभव नहीं दिखता। लेकिन जब तक ऐसा संभव ना दिखे, हम जैसे सिरफिरे पहाड़ों की खाक छानते रहेंगे, आपको आप ही के मूल्यों, रीति-रिवाजों, त्यौहारों, खान-पान, आचार-व्यवहार के तरीकों के बारे में समय समय पर बताते रहेंगे।
चौना-मटैना गाँव, तहसील- मुनस्यारी, उत्तराखंड |
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