Tuesday, 7 November 2017

- राज्यों का विधानमण्डल-

• राज्यों का विधानमण्डल -


भाग-6, अनुच्छेद- (168-213)


प्रकार:-
1)विधानसभा (एकसदनीय)
2)विधानपरिषद् (द्विसदनीय,Bicameral)

विधानसभा :-
-अधिकतम सदस्य संख्या- 500
-न्यूनतम संख्या- 60
60 से कम सदस्य संख्या वाले राज्य- गोवा, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल, पुदुचेरी।

अनुच्छेद-168
प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमण्डल की व्यवस्था की गई है।
-इसमें एक सदन विधानसभा और दूसरा सदन विधानपरिषद् होगा।
-जिन राज्यों में विधानसभा है, उसे एकसदनीय व्यवस्था कहा जाता है और जिन राज्यों में विधानसभा और विधानपरिषद् दोनों होते हैं, Bicameral व्यवस्था कहलाते हैं।
-वर्तमान में 6 राज्यों में विधानपरिषद् है-
कश्मीर, बिहार, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, ।
प्रस्तावित -मध्यप्रदेश, तमिलनाडु,  असम, राजस्थान।

अनुच्छेद-170
- प्रत्येक राज्य की विधानसभा में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से निर्वाचित कम से कम 60 और अधिकतम 500 प्रतिनिधियों से मिलकर बनेगी।
-राज्य विधानसभा की सदस्य संख्या राज्य की जनसंख्या पर निर्भर करती है।
-प्रत्येक सदस्य के निर्वाचन हेतु जनसंख्या कम से कम 75000 होनी चाहिए।
-प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर राज्य की विधानसभा में स्थानों की संख्या और प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का पुन: समायोजन/सीमांकन(Delimitation) संसद द्वारा निर्धारित विधि से किया जाता है।
- राज्य की विधानसभाओं में स्थानों का आबंटन 2026 तक 1971 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा। जबकि राज्य के भीतर प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन 2001 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा।
- SC और ST के आरक्षण राज्य में उनकी जनसंख्या के अनुपात में दिया जाता है।

• अनुच्छेद-333:-
राज्यपाल द्वारा राज्य में एक आंग्ल भारतीय सदस्य का नियुक्त किया जाना।


- विधानसभा की अवधि- सामान्यतः 5 साल
कार्यकाल- प्रथम अधिवेशन की नियत तारीख से 5 वर्ष।
-समाप्ति के बाद स्वत: विघटन।
-आपातकाल के दौरान संसद विधि द्वारा राज्य विधानसभा का कार्यकाल 1 वर्ष तक बढ़ा देती है और आपातकाल हटने के बाद 6 महीने तक।
-योग्यताएं - 25 वर्ष(विधानसभा)
               - 30 वर्ष(विधानपरिषद्)
-अनुच्छेद-190 और अनुच्छेद-191 में राज्य विधानमण्डल की निर्हताओं का उल्लेख है।
-अनुच्छेद-192 राज्य विधानमण्डल के किसी सदस्य की निर्हरता के प्रश्न पर राज्यपाल का निर्णय अंतिम होता है।

• विधानमण्डल के अधिकारी-
विधानपरिषद्:-
संरचना- गठन या समाप्ति का निर्णय राज्य विधानसभा पर निर्भर करता है।

अनुच्छेद-169
यदि राज्य विधानसभा कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के 2/3 बहुमत द्वारा संकल्प पारित करती है तो संसद साधारण बहुमत से राज्य में विधानपरिषद् का सृजन और समाप्ति कर सकती है।
- विधानपरिषद् सृजन हेतु संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं होती।
- कुल सदस्य संख्या 1/3 से अधिक नहीं और संख्या 40 से कम नहीं होगी।
* निर्वाचन - कुल सदस्य संख्या के 5/6 सदस्य एकल संक्रमणीय द्वारा गुप्त मतदान तरीके से।
-1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा नाम-निर्देशित। (क्षेत्र- साहित्य, कला, विज्ञान, समाजसेवा और सहकारिता)

5/6 सदस्य का निर्वाचन -
-1/3 सदस्यों का निर्वाचन राज्य की नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों और संसद द्वारा निर्धारित अन्य स्थानीय अधिकारियों के सदस्यों द्वारा निर्वाचित।
-1/3 सदस्य राज्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा।
-1/12 राज्य क्षेत्र के ऐसे स्नातकों द्वारा निर्वाचित होते हैं जिन्हें कम से कम तीन वर्ष पहले डिग्री मिल चुकी हो।
-1/12 राज्य के माध्यमिक स्तर के अध्यापकों, डिग्री कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों जो कम से कम 3 वर्ष से अध्यापन कार्य कर रहे हों।

विधानपरिषद् की विशेषताएं -
- विधानपरिषद् शाश्वत सदन है।
- विघटन नहीं हो सकता।
- 1/3 सदस्य 2 वर्ष बाद सेवानिवृत्त।
- कार्यकाल- 6 वर्ष।
- राज्यसभा के अनुरूप शक्तियां प्राप्त नहीं है।
- एक विलंबकारी सदन है।
- विधानपरिषद् धन विधेयक को 14 दिन तक ही रख सकती है।
- साधारण विधेयक- 4 माह
- धन विधेयक की प्रक्रिया(अनुच्छेद-198)
- साझा बैठक नहीं।

• विधानसभा के कार्य एवं शक्तियां -
• विधायी शक्तियां -
- 7वीं अनुसूची में वर्णित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार।
-समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार।
-जिन राज्यों में द्विसदनात्मक है वहां विधानसभा प्रमुख होगा।

• वित्तीय शक्तियां -
-धन विधेयक और वित्त विधेयक राज्यपाल की उपस्थिति में विधानसभा में प्रस्तुत।
- विधानसभा अध्यक्ष, कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं,  निर्धारित करता है।
- वित्त मंत्री प्रतिवर्ष वित्तीय विवरण प्रस्तुत करता है राज्यपाल की अनुमति से।
- राज्य की संचित निधि से कोई व्यय विधानसभा की अनुमति के बिना नहीं।

राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय-
राज्यपाल की संचित निधि पर भारित लेकिन पेंशन केन्द्र होता है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश और हाईकोर्ट के प्रशासनिक खर्च किसी न्यायालय के अधिकरण या निर्णय, पंचार्ड को लागू करने के अपेक्षित व्यय।

Decree- दीवानी मामलों में  जारी होता है। Civil Court जारी करते हैं।
Award- अधिकरणों(Tribunals) द्वारा जारी किया जाता है। क्षतिपूर्ति और प्रतिपूर्ति।

• कार्यपालिका शक्तियां -
-राज्य की कार्यपालिका सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी- अनुच्छेद-164/2.
-अविश्वास प्रस्ताव विधानसभा में ही लाया जाता है।
-विधानसभा के सदस्य बजट पर चर्चा करके, प्रश्न पूछकर कटौती की मांगों पर, सार्वजनिक विषयों पर प्रश्न पूछकर कार्यपालिका पर नियंत्रण रखते हैं।

• निर्वाचन संबंधी शक्तियां -
-राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में भाग लेते हैं।
-विधानसभा के एक तिहाई सदस्य।
-राज्यसभा  के सदस्यों के निर्वाचन में भाग लेते हैं।
-अपने विधानसभा में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष नियुक्त करते हैं।

• न्यायिक शक्तियां -
-विधानसभा सदन की अवमानना करने वाले को दण्ड देने की शक्ति है।
-अपने सदस्यों के निलंबन और दुर्व्यवहार के लिए सदन से निष्कासित करने का अधिकार है।

• संविधान संशोधन -
संविधान के कुछ जिनमें राज्यों के हित प्रभावित हों ऐसे संशोधनों के लिए कम से कम अधिक राज्यों की विधानमण्डल से पारित होना अनिवार्य है।

• अन्य शक्तियां -
अनुच्छेद-169
-विधानपरिषद् को सृजन या समाप्ति करने की शक्ति।
-विधानसभा राज्य के लिए आकस्मिक कोष की व्यवस्था कर सकती है।

 


• मुख्यमंत्री -

-राज्य का वास्तविक प्रमुख, नीति-निर्देशक होता है।
-संविधान में इसके निर्वाचन के लिए विशेष प्रक्रिया नहीं है।
-राज्यपाल बहुमत दल के व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है।
-बहुमत ना हो तो एक सप्ताह का समय बहुमत दल को मिलता है।
-राज्यपाल व्यक्तिगत फैसले से मुख्यमंत्री की नियुक्ति तब कर सकता है जब कार्यकाल पर मृत्यु हो जाए और उत्तराधिकारी ना हो।
-संविधान में ऐसी पूर्ण अपेक्षा नहीं है कि मुख्यमंत्री बनाने से पहले वह सदन में बहुमत सिध्द करे।
-मुख्यमंत्री का कार्यकाल निश्चित नहीं होता और राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त कार्य करता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राज्यपाल मंत्री को बर्खास्त करता है बल्कि जब तक विधानसभा का बहुमत हो।
- मुख्यमंत्री के वेतन, भत्ते, विधानमण्डल तय करती है।

मुख्यमंत्री की शक्तियां-
1)मंत्रिपरिषद् के संदर्भ में
2)राज्यपाल के संदर्भ मे
3)राज्य-विधानमंडल के संदर्भ मे
4)अन्य शक्तियां

1)मंत्रिपरिषद् के संदर्भ में-
-मुख्यमंत्री की सिफारिश पर राज्यपाल मंत्रियों की नियुक्ति एवं विभागों का बंटवारा, फेरबदल।
-राज्यपाल त्यागपत्र ले सकता है।
-राज्यपाल को उसे बर्खास्त करने का परामर्श
-मंत्रिपरिषद् के बैठकों की अध्यक्षता।
-क्रियाकलापों में सहयोग, नियंत्रण निर्देश, मार्गदर्शन देता है।
-अपने कार्य से त्याग पत्र देकर मंत्रिपरिषद् समाप्त होता है।
-मंत्री के मृत्यु के बाद मंत्रिपरिषद् स्वतः विघटित हो जाती है।

2)राज्यपाल के संदर्भ में-
-राज्य के प्रशासन संबंधी कार्यों और विधान विषयक मामलों और मंत्रिपरिषद् के सभी निर्णयों से राज्यपाल को अवगत कराना।
-किसी विषय पर जिस पर मंत्री ने निर्णय दिया हो लेकिन मंत्रिपरिषद् द्वारा विचार ना किया गया हो, तो मुख्यमंत्री विषय को राज्यपाल के समक्ष रख सकता है।
-महत्वपूर्ण अधिकारियों,  राज्य का महाअधिवक्ता, PSC का अध्यक्ष एवं सदस्य,  राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में परामर्श देना।

3)राज्य-विधानमंडल के संदर्भ में-
-विधानसभा का सत्र बुलाने और स्थगित करने के संबंध में सलाह देना।
-राज्यपाल को किसी भी समय विधानसभा विघटित करने की सिफारिश कर सकता है और मुख्यमंत्री सभापटल पर शासकीय नीतियों की घोषणा करता है।

4)अन्य शक्तियां-
-मुख्यमंत्री राज्य योजना बोर्ड का अध्यक्ष होता है।
-क्षेत्रीय परिषद् की अध्यक्षता गृहमंत्री करता है।
-क्षेत्रीय परिषद् के क्रमवार उपाध्यक्ष के रूप में कार्य करता है।
-इस समय इसका कार्यकाल एक वर्ष का होता है। वह सभी क्षेत्रीय परिषदों का अध्यक्ष होता है।
-अंतर्राज्यीय परिषद्(अनुच्छेद-263) राष्ट्रीय विकास परिषद् का सदस्य होता है।
-राज्य परिषद् का मुख्य प्रवक्ता होता है।
-आपातकाल के दौरान राजनीतिक स्तर पर मुख्य प्रबंधक होता है।
-मुख्यमंत्री सेवाओं का राजनीतिक प्रमुख होता है।

• राज्य मंत्रिपरिषद् -
- राज्य की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन मंत्रिपरिषद् के माध्यम से।
- मंत्रिपरिषद् का मुखिया मुख्यमंत्री होता है।
- अनुच्छेद-163
- अनुच्छेद-164
- राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन का सदस्य यदि दलबदल के आधार पर यदि सदस्यता से निर्हर करार दिया जाता है, तो ऐसा सदस्य मंत्रिपद के लिए भी निर्हर होगा।
5 साल बाद निर्हर चुनाव भी नहीं लड़ सकता।
अतः ना चुनाव ना ही मंत्री।
- राज्यों में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की अधिकतम संख्या विधानसभा के कुल सदस्य के 15% से अधिक नहीं होगी। लेकिन मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या 12 से कम नहीं होगी।(91वां संविधान संशोधन 2003).
ये प्रावधान राजकोषीय घाटे को कम करने हेतु(स्थापना व्यय)
- लोकसभा- 543 (15%-82 मंत्री = मंत्रिपरिषद्)
विधानसभाओं में भी 15% सदस्य।

• मंत्रियों के प्रकार-
केन्द्र की तरह राज्य के तीन वर्ग
-केबिनेट मंत्री(गृह, शिक्षा, वित्त, कृषि)
-राज्य मंत्री
-उप मंत्री।

* नोट- मंत्रालय शब्द केंद्र के लिए प्रयुक्त होता है ना कि राज्यों के लिए। अर्थात् राज्य सरकार विभागों में बंटा होता है ना कि मंत्रालयों में।

• राज्य मंत्री- केबिनेट मंत्री के प्रति उत्तरदायी या तो स्वतंत्र प्रभार या केबिनेट मंत्री के साथ शामिल।
- कई बार council of ministers में उपमुख्यमंत्री को भी शामिल किया जाता है।
(स्थानीय राजनीतिक कारणों से उपमुख्यमंत्री की नियुक्ति।
-दलबदल के आधार पर (10वीं अनुसूची) पर यदि कोई मामला उठाया जाए तो विधानसभा के संदर्भ में सभापति फैसला और दलबदल के अलावा किसी अयोग्यता से ग्रसित हो तो फैसला राज्यपाल, निर्वाचन आयोग की सलाह पर।
- यहां पर दिया गया निर्णय न्यायिक समीक्षा के अंदर।
- बिना शपथ लिए कोई सदस्य ना ही सदन में मत दे सकता है ना ही कार्यवाही में भाग ले सकता है।
- एक ही व्यक्ति एक ही समय दोनों सदनों का सदस्य नहीं हो सकता।
- कोई सदस्य बिना पूर्वानुमति से लगातार 60 दिन तक सदन की बैठकों में अनुपस्थित हो तो वह पद रिक्त घोषित।

• विधानमण्डल का पीठासीन अधिकारी -
* विधानसभा अध्यक्ष- विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों के बीच में से ही अध्यक्ष का निर्वाचन करते हैं।
सामान्यतः कार्यकाल विधानसभा के कार्यकाल तक का होता है।(5 साल)
पद की रिक्ति - विधानसभा की सदस्यता समाप्त हो जाए यदि-
-वह उपाध्यक्ष को अपना त्यागपत्र दे दे।
-विधानसभा के तात्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत और उनके द्वारा पारित संकल्प से अपने पद से हटाए जा सकते हैं।
-इस तरह का कोई प्रस्ताव 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।

• विधानसभा और विधानपरिषद् की तुलना-

समानता-
1)विधानपरिषद् की स्थिति को विधानसभा के बराबर माना जाता है।
2)सामान्य विधेयक को पुन: पारित करना।
3)राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश की शक्ति।
4)मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों का चयन।(उत्तरदायी -वि.स.)
5)संवैधानिक निकायों जैसे:- राज्य विद्युत आयोग, कैग, राज्य लोक सेवा आयोग की रिपोर्ट पर विचार करना।
6)राज्य लोक सेवा आयोग के न्याय क्षेत्र में वृध्दि करना।

असमानता-
1)वित्त विधेयक सिर्फ विधानसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है।
2)विधानपरिषद् न ही इसे संशोधित न ही अस्वीकृत कर सकता है, सिर्फ 14 दिन रोक सकती है।
3)विधानसभा, विधानपरिषद् की सिफारिशों को स्वीकार करे/न करे।(कोई बाध्यता नहीं)
4)वित्त विधेयक है या नहीं, विधानसभा अध्यक्ष के पूर्व क्षेत्राधिकार में आता है।
5)साधारण विधेयक को पास करने का अधिकार विधानसभा को है।(3+1)
6)विधानपरिषद् बजट पर बहस कर सकता है लेकिन लोक अनुदान की मांग पर मतदान नहीं कर सकता।
7)राज्यपाल के क्रियाकलाप,नीतियों की आलोचना व बहस कर सकता है।
8)यदि कोई विधेयक विधानपरिषद् में आया हो और विधानसभा में भेजा हो और विधानसभा अस्वीकृत कर दे तो विधेयक समाप्त हो जाए।
9)उपराष्ट्रपति और राज्य प्रतिनिधि के चुनाव में विधानपरिषद् का अस्तित्व विधानसभा पर निर्भर करता है।


केंद्र शासित प्रदेश(Union Territories) -

भाग-8
अनुच्छेद- (239-241)


गठन- 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम में केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में पुनर्गठित किया गया।
-दिल्ली  और लक्षद्वीप 1956 में.
- दादरा और नगर हवेली 1961 में.
-दमन दीव-1962, पुदुचेरी-1966, चंडीगढ़-1966।
-1992 में दिल्ली को NCR का दर्जा दिया गया।
-2006 में पांडिचेरी को पुदुचेरी नाम दिया।

केन्द्र शासित प्रदेश के गठन के कारण -
1)राजनीतिक-प्रशासनिक आधार - दिल्ली
2)सांस्कृतिक भिन्नता (पुदुचेरी, दादरा नगर हवेली)
3)सामरिक महत्व(अंडमान, लक्षद्वीप)
4)पिछड़े और अनुसूचित लोगों की विशेष देखभाल(दमन और दीव)

प्रशासन-
अनुच्छेद 239 से अनुच्छेद 241।
-सभी केन्द्र शासित प्रदेश एक ही श्रेणी के हैं लेकिन प्रशासनिक पध्दति में समानता नहीं है।
-केन्द्र शासित प्रदेशों का प्रशासन राष्ट्रपति द्वारा संचालित होता है जो प्रशासक के द्वारा होता है।
-केन्द्र शासित प्रदेशों में प्रशासक राष्ट्रपति का अभिकर्ता होता है। लेकिन राज्यपाल राज्य में अभिकर्ता नहीं होता।
-राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल को उस राज्य के सटे केन्द्र शासित प्रदेश का प्रशासक बना सकता है।
-पांडिचेरी 1963 में केन्द्र शासित प्रदेश बनी
और दिल्ली 1992 में विधानसभा बनी।
-दिल्ली में 10% मंत्री।
-तथापि केन्द्र शासित प्रदेशों में इस तरह की व्यवस्था का अर्थ यह नहीं होता कि राष्ट्रपति और संसद का नियंत्रण कम हो गया हो।
-संसद केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए तीनों सूची में कानून बना सकती है, यह शक्ति दिल्ली और पांडिचेरी तक सीमित है।
-अर्थात् इन केन्द्र शासित प्रदेशों की विधायिका होने के बावजूद संसद की विधायी शक्ति खत्म नहीं होती लेकिन पांडिचेरी विधानसभा राज्य और समवर्ती सूची पर कानून बना सकती है।
-दिल्ली भी राज्य सूची(लोक व्यवस्था, पुलिस बल, भूमि) को छोड़कर और समवर्ती सूची पर कानून बना सकती है।
-राष्ट्रपति अंडमान और निकोबार, लक्षद्वीप, दादरा नगर हवेली, दमन दीव में शांति और अच्छी सरकार के लिए विनियम बना सकते हैं।
-दिल्ली ही एक ऐसा केन्द्र शासित प्रदेश है जिसका स्वयं का हाईकोर्ट है।(1966 से)
-अंडमान का हाईकोर्ट कोलकाता में, दादरा नगर हवेली और दमन दीव का हाइकोर्ट मुंबई में है। लक्षद्वीप- केरल और पुदुचेरी- मद्रास हाईकोर्ट।

• दिल्ली के लिए विशेष उपबंध-
1)71वें संविधान संशोधन अधिनियम 1991 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 238(1)a और 239(1)b जोड़कर दिल्ली कप दिल्ली एनसीआर का दर्जा दिया गया और विशेष उपबंध किए गए।
2) 238(1)a {5} के अनुसार NCR क्षेत्र के मुख्यमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं और अन्य मंत्री राष्ट्रपति की सलाह पर पद धारण। मंत्रिपरिषद् का प्रतिशत- 10%.
3) 239(1)b के अनुसार संवैधानिक तंत्र विफल होने पर राष्ट्रपति विधानसभा के नियमों को निलंबित कर आवश्यक उपबंध कर सकता है।


अनुसूचित क्षेत्र:-
भाग-10
अनुच्छेद -244

ऐसे क्षेत्र जिन्हें अनुसूचित क्षेत्र नामित किया गया है, के प्रशासन की व्यवस्था की गई है।

- वर्तमान में अनुसूचित क्षेत्र- आंध्रप्रदेश, गुजरात, हिमाचल, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड।

- वर्तमान में जनजातीय क्षेत्र-
1. असम (उत्तरी कछार पहाड़ी जिला, बोडोलैंड)
2. मेघालय (गाती, खासी, जयन्तिया)
3. त्रिपुरा (त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र जिला)
4. मिजोरम (चकमा, मारा, लाई)

संविधान की 6वीं अनुसूची में चार पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम) के प्रशासन के संबंध में उपबंध है।

• अनुसूचित क्षेत्रों का प्रशासन -
अन्य राज्यों की तुलना में अनुसूचित क्षेत्रों के साथ भिन्न रूप से व्यवहार किया जाता है क्योंकि यहां आदिम निवासी है। ये क्षेत्र सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। विकास के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता है। अत: सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं होती।

• 5वीं अनुसूची की विशेषताएँ -
1)राष्ट्रपति संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श कर किसी अनुसूचित क्षेत्र के क्षेत्रफल को बढ़ाने, घटाने, नाम बदलने के आदेश दे सकता है।
2)राज्य की कार्यकारी शक्ति अनुसूचित क्षेत्रों में लागू होती है। -ऐसे क्षेत्रों में राज्यपाल की विशेष जिम्मेदारी।
-ऐसे क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में राज्यपाल राष्ट्रपति को वार्षिक प्रतिवेदन देता है।
-इन क्षेत्रों के बारे में राज्यों को निर्देश देना केन्द्र की कार्यकारी शक्ति में आता है।
3)ऐसे राज्य जिनके अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र हैं, वहां जनजातीय सलाहकार परिषद् का गठन किया जाता है। ये अनुसूचित जातियों के कल्याण विकास हेतु सलाह देती है।

• संरचना- 20 सदस्य जिनमें तीन चौथाई सदस्य राज्य विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधि होने चाहिए।
विशेष- इस तरह की परिषद ऐसे राज्यों में भी गठित की जा सकती है जहां अनुसूचित जनजातियां तो हैं लेकिन अनुसूचित क्षेत्र नहीं हैं।( राष्ट्रपति के निर्देशानुसार)
                राज्यपाल को यह अधिकार है कि संसद और विधानमण्डल के किसी विशेष अधिनियम को अनुसूचित क्षेत्र में लागू करे/ना करे या करे तो परिवर्तन के साथ और अपवाद स्वरूप करे।
- राज्यपाल अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और अच्छी सरकार के लिए जनजातीय सलाहकार परिषद् से विचार-विमर्श के नियम बना सकते हैं।
-भूमि हस्तांतरण का निषेध और सीमित करना।
-भूमि आबंटन को नियंत्रित करना।
-साहूकारों के विकास को नियंत्रित करना।
इन सब कार्यों के लिए राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है।

- राष्ट्रपति राज्य में अनुसूचित जनजाति के कल्याण हेतु और अनुसूचित क्षेत्रों के प्रबंधन हेतु एक आयोग का गठन करेंगे, इसी तरह का प्रथम आयोग 1960 में U.N डेबर आयोग गठित किया जिसने अपनी रिपोर्ट 1961 में दी।
- 2002 में दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में।
- 6वीं पंचवर्षीय योजना में जनजातीय उपयोजना शुरू हुई।
- जनजातियों का मसीहा ठक्कर बाबा को कहा जाता है।
- जनजातियों के लिए विशेष कार्य -वेरियर ऐल्विन।

• जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन-
6वीं अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम के लिए विशेष प्रावधानों का उपबंध।
कारण- असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम की जनजातियां इन राज्यों के अन्य लोगों के साथ समायोजित नहीं हो पाई है। ये क्षेत्र मानव विज्ञानी सैम्पलिंग क्षेत्र के रूप में है।
- असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम के लोग अभी भी अपनी सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और सभ्यता से जुड़े हुए हैं अतः इन क्षेत्रों को संविधान द्वारा अलग स्थान दिया है और स्वशासन के लिए पर्याप्त स्वायत्तता दी गई है।

• विशेषताएँ -
-असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय के जनजातीय क्षेत्रों में स्वशासी जिलों का गठन।(10 जिले)
-प्रत्येक स्वशासी जिले में एक जिला परिषद् होगी जो 30 सदस्यों से मिलकर बनेगी।4 राज्यपाल द्वारा मनोनीत और 26 व्यस्क मताधिकार से निर्वाचित।
-प्रत्येक स्वशासी क्षेत्र में एक अलग से प्रादेशिक परिषद् होती है।
-जिला और प्रादेशिक परिषद् को अपने अधीन क्षेत्रों के लिए कानून बनाने की शक्ति होती है।भूमि, वन,नहर, परिवर्तित खेती, ग्राम प्रशासन, संपत्ति की रक्षा,विवाह, तलाक, सामाजिक रूढ़ियां आदि विषयों पर कानून बना सकते हैं।(राज्यपाल से स्वीकृति आवश्यक)
-जिला और प्रादेशिक परिषद् अपने अधीन क्षेत्रों में जनजाति के आपसी मामलों के निपटारे हेतु ग्राम परिषद् या न्यायालय का गठन।
-जिला परिषद् जिले में प्राथमिक विद्यालयों, औषधालयों, मत्स्य क्षेत्रों का निर्माण।
-जिला परिषद् भू-राजस्व का संकलन करती है।
-संसद का कानून इन क्षेत्रों में लागू नहीं होता, होता भी है तो अपवाद स्वरूप।
- असम के संबंध में यह शक्ति राज्यपाल को है और मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय के लिए राष्ट्रपति को शक्ति है।

• केन्द्र-राज्य संबंध-
भारतीय संविधान अपने स्वरूप में संघीय है और समस्त शक्तियां केन्द्र और राज्यों के मध्य विभाजित है। केन्द्र और राज्यों के संबंधों का अध्ययन तीन दृष्टिकोण से किया गया है-
1) विधायी संबंध (245-255)
2) प्रशासनिक संबंध (256-263)
3) वित्तीय संबंध (264-300)

1) विधायी संबंध (245-255)-
केन्द्र राज्य विधायी संबंधों के संदर्भ में चार स्थितियां हैं-
a)विधायी विषयों का बंटवारा
b)राज्य क्षेत्र में संसदीय विधायन
c)राज्य विधानसभा पर केंद्र का नियंत्रण
d)केंद्र और राज्य विधायन के सीमांत क्षेत्र।
               केन्द्र और राज्य विधान का क्षेत्रीय विस्तार निम्न तरीकों से परिभाषित किया गया है-
-संसद पूरे भारत या इसके किसी भी क्षेत्र के लिए कानून बना सकती है।
-राज्य विधानमण्डल पूरे राज्य के लिए कानून बना सकता है। जब राज्य और वस्तु में संबंध पर्याप्त हो।
-केवल संसद अकेले अतिरिक्त क्षेत्रीय विधान(Extra Territorial Nexus) बना सकती है। अर्थात् इस तरह संसद का कानून भारतीय नागरिक और उनकी विश्व में कहीं भी संपत्ति पर लागू होता है।
- संसद के कानून निम्नांकित क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे, राष्ट्रपति चार केन्द्र शासित प्रदेशों में कानून बना सकता है- लक्षद्वीप, दमन दीव, दादरा, अंडमान।
-राज्यपाल को यह शक्ति है कि संसद के किसी कानून को अनुसूचित क्षेत्र में लागू न करे या विशेष संशोधन करके लागू करे।
-असम का राज्यपाल संसद के कानून को जनजातीय जिलों में लागू न कर या परिवर्तनों के साथ लागू कर सकता है।
-राष्ट्रपति को यही शक्ति मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय के लिए है।



• केन्द्र-राज्य संबंध-
भारतीय संविधान अपने स्वरूप में संघीय है और समस्त शक्तियां केन्द्र और राज्यों के मध्य विभाजित है। केन्द्र और राज्यों के संबंधों का अध्ययन तीन दृष्टिकोण से किया गया है-
1) विधायी संबंध (245-255)
2) प्रशासनिक संबंध (256-263)
3) वित्तीय संबंध (264-300)

1) विधायी संबंध (245-255)-
केन्द्र राज्य विधायी संबंधों के संदर्भ में चार स्थितियां हैं-
a)विधायी विषयों का बंटवारा
b)राज्य क्षेत्र में संसदीय विधायन
c)राज्य विधानसभा पर केंद्र का नियंत्रण
d)केंद्र और राज्य विधायन के सीमांत क्षेत्र।
               केन्द्र और राज्य विधान का क्षेत्रीय विस्तार निम्न तरीकों से परिभाषित किया गया है-
-संसद पूरे भारत या इसके किसी भी क्षेत्र के लिए कानून बना सकती है।
-राज्य विधानमण्डल पूरे राज्य के लिए कानून बना सकता है। जब राज्य और वस्तु में संबंध पर्याप्त हो।
-केवल संसद अकेले अतिरिक्त क्षेत्रीय विधान(Extra Territorial Nexus) बना सकती है। अर्थात् इस तरह संसद का कानून भारतीय नागरिक और उनकी विश्व में कहीं भी संपत्ति पर लागू होता है।
- संसद के कानून निम्नांकित क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे, राष्ट्रपति चार केन्द्र शासित प्रदेशों में कानून बना सकता है- लक्षद्वीप, दमन दीव, दादरा, अंडमान।
-राज्यपाल को यह शक्ति है कि संसद के किसी कानून को अनुसूचित क्षेत्र में लागू न करे या विशेष संशोधन करके लागू करे।
-असम का राज्यपाल संसद के कानून को जनजातीय जिलों में लागू न कर या परिवर्तनों के साथ लागू कर सकता है।
-राष्ट्रपति को यही शक्ति मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय के लिए है।

• विधायी शक्तियों का बंटवारा -
42वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा 5 विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में रखा गया-
{शिक्षा, नापतौल, वन, वन्य जीवों का संरक्षण, न्याय का प्रशासन}

• राज्य क्षेत्र में संसदीय विधायन-
संविधान संसद को यह शक्ति प्रदान करता है कि 5 असाधारण परिस्थितियों में कानून बनाए(राज्य सूची के विषयों पर)
1)जब राज्यसभा एक प्रस्ताव पारित करे (अनुच्छेद-249)
2)राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान(अनुच्छेद-352)
3)राज्यों के अनुरोध पर
-वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972
-जल(प्रदूषण, नियंत्रण, निवारण) 1974
-मानव अंग प्रतिरोपण अधिनियम 1994
4)अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को लागू करना
-केन्द्र को अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने के लिए बनाया जाए।
5)राष्ट्रपति शासन के दौरान(अनुच्छेद-256)

• राज्य विधानमण्डल पर केन्द्र का नियंत्रण -
राज्यपाल कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की संस्तुति के लिए सुरक्षित रख सकता है। राष्ट्रपति को इन पर विशेष वीटो की शक्ति है।
-राज्य सूची से संबंधित कुछ मामलों पर राष्ट्रपति की पूर्व सहमति पर लाया जा सकता है।
जैसे:- राज्यों के व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाने संबंधी विधेयक, नये राज्य का गठन।
-राष्ट्रपति राज्य विधानमंडल द्वारा पारित धन या वित्त विधेयक को वित्तीय आपातकाल के दौरान सुरक्षित रखने का निर्देश दे सकता है।
-संविधान ने विधायी विषयों पर विधि बनाने के मामले में केन्द्र को शक्तिशाली बनाया है।

•  केन्द्र राज्य प्रशासनिक संबंध-
भाग-11, अनुच्छेद (256-263)

अनुच्छेद 256 -राज्यों और संघ की बाध्यता।
                 प्रत्येक राज्य अपनी कार्यपालिक शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करेगा कि संघ द्वारा बनायी गयी विधियों और राज्य में लागू विधियों का अनुपालन सुनिश्चित हो सके। इस संबंध में केंद्र राज्यों को निदेश दे सकता है।

अनुच्छे 257 -राज्यों पर संघ का नियंत्रण।
                 प्रत्येक राज्य अपनी कार्यपालिक शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करेगा कि संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में बाधा न आये।
-राष्ट्रीय और सैनिक महत्व के संचार साधन।
-नेशनल हाईवे, वाटरवे, ट्रेन की सुरक्षा।
-केन्द्र सरकार राज्यों में केंद्रीय संपत्ति की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल(CRPF) भेज सकती है।

नोट:- अनुच्छेद 256  और अनुच्छेद 257 राज्य पर यह कर्तव्य निर्धारित करते हैं कि वह संसद द्वारा बनायी गयी विधि और संघ की कार्यपालक शक्ति को ध्यान में रखकर अपनी कार्यपालक शक्ति का प्रयोग करें। इस हेतु राज्य सरकार द्वारा किया गया व्यय भारत सरकार द्वारा देय होगा।

• अनुच्छेद 258(1)-
संघ को कार्य सौंपने की राज्यों की शक्ति।
-किसी राज्य का राज्यपाल भारत सरकार की सहमति से उसे या उसके अधिकारियों को ऐसे कार्य सौंप सकता है जिस पर राज्य कार्यपालक शक्ति का विस्तार है।

• अनुच्छेद 263-
राज्यों के बीच समन्वय हेतु अंतर्राज्यीय परिषद् राष्ट्रपति लोकहित में राज्यों का संघ और राज्यों के बीच विवादों की जांच करने और सलाह देने के लिए अंतर्राज्यीय परिषद् का गठन कर सकता है।
गठन- सन् 1990

• सहयोगी संबंध(Union and State) -
संसद किसी अंतर्राज्यीय नदी, नदी घाटियों के पानी के प्रयोग और नियंत्रण के संबंध में किसी विवाद या शिकायत पर निर्णय(न्याय निर्णय) दे सकती है। केन्द्र और राज्यों में लोक अधिनियमों, Records और न्यायिक प्रक्रिया के संचालन के लिए भारत के भू-क्षेत्र को पूर्ण विश्वास प्रदान करना।

• अन्य प्रशासनिक संबंध -
1)राज्यपाल की नियुक्ति ।
2)अखिल भारतीय सेवाओं में नियुक्ति(UPSC), जिस पर संघीय कार्यपालिका का पूर्ण नियंत्रण।
3)1947 में ICS का नाम बदलकर IAS और भारतीय पुलिस को IPS किया और 1966 में IFS का सृजन।
4)तीनों अखिल भारतीय सेवाओं का बंटवारा राज्य के आवश्यकतानुसार किया जाता है।
5)प्रत्येक में समान स्तर के अधिकारी और समान वेतन प्रदान किया जाता है।
6)अखिल भारतीय सेवा, स्वायत्तता और संरक्षण को सीमित कर संविधान के संघीय सिद्धांत का उल्लंघन करती है। इन सेवाओं का समर्थन निम्न आधारों पर होता है-
a)केन्द्र और राज्य स्तर पर उच्चस्तरीय प्रशासन के रख-रखाव में।
b)देश में प्रशासनिक एकीकरण व्यवस्था सुनिश्चित करने में।
c)केन्द्र-राज्य सामूहिक हितों के संबंधों में सहयोग और संयुक्त प्रयासों में।

नोट- संसद विधि द्वारा इस प्रकार के(जल विवाद) मामलों में न्यायालय की अधिकारिता को रोक सकती है इसलिए संसद में इन विषयों के समाधान हेतु जल विवाद अधिनियम 1956 बनाया जिसके लिए संसद पंचार्ड(Tribunals) की स्थापना कर सकती है।

• वित्तीय संबंध (अनुच्छेद 264 - अनुच्छेद 300)
-संघ और राज्यों के बीच वित्तीय मामलों का विभाजन।

अनुच्छेद-265
कोई कर विधि के प्राधिकार से ही आरोपित या संग्रहित किया जाएगा अन्यथा नहीं।अर्थात् कार्यपालिक आदेश या प्रशासनिक निर्देश द्वारा कोई कर नहीं लगाया जा सकता।
(बिना प्रतिनिधित्व के कर नहीं।)
- संविधान ने राज्यों की कर निर्धारण की शक्ति पर कुछ प्रतिबंध लगाये हैं।
-अवशिष्ट शक्तियां कर निर्धारण की संसद में निहित हैं। इसी से संसद उपहार कर, समृध्दि कर और व्यय कर लगाये हैं।
-विधानमण्डल व्यवसाय, व्यापार और रोजगार पर कर लगा सकता है। लेकिन एक व्यक्ति पर 2500 से अधिक नहीं होना चाहिए।
-राज्य विधानमंडल वस्तुओं की खरीदी बिक्री पर कर लगा सकता है।
* पाबंदी-
a)राज्य के बाहर खरीद फरोख्त पर नहीं।
b)राज्य के बाहर आयात निर्यात पर नहीं।
c)अंतर्राष्ट्रीय व्यापार वाणिज्य में खरीदी बिक्री पर नहीं।
d)संसद द्वारा घोषित अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य में क्रय-विक्रय के आधार पर प्रतिबंध।
-राज्य विधानमण्डल बिजली की बिक्री और उपभोग पर कर लगा सकता है।
*पाबंदी-
a)केन्द्र द्वारा खरीदी और बेची जा रही है।
b)रेल्वे का रखरखाव।
-राज्य विधानमण्डल अंतर्राज्यीय नदी और उसकी धारा के विनियमन या विकास हेतु संसद द्वारा स्थापित किसी प्राधिकरण को पानी और बिजली का एकीकरण, खपत, उत्पादन, वितरण और बिक्री पर कर निर्धारण कर सकता है।
(राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति आवश्यक)

• नोट- 88वां संविधान संशोधन 2003
- नया अनुच्छेद 268(A) जोड़ा गया जो सेवा कर से संबंधित है।

अनुच्छेद- 266
भारत और राज्यों की संचित निधियां और लोक लेखे।

अनुच्छेद- 267
आकस्मिक निधि।
गठन- 1950 में।

• संघ और राज्यों के बीच राजस्व का वितरण-व्यापार
अनुच्छेद-270 के अनुसार संघ द्वारा आरोपित और उद्गृहीत(collect) कर वित्त आयोग की सिफारिश के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश द्वारा संघ और राज्यों के बीच वितरित किए जाएंगे।
राज्य का हिस्सा -32%

• संघ द्वारा अधिरोपित और राज्यों द्वारा संग्रहित और विनियोजित किए जाने वाले शुल्क -
अनुच्छेद-268.
1)स्टाम्प शुल्क
2)औषधि और प्रसाधन पर उत्पाद शुल्क।

• संघ द्वारा अधिरोपित और संग्रहित लेकिन राज्यों को सौंपे जाने वाले कर-
1)अंतर्राज्यीय वाणिज्य और व्यापार के दौरान।
2)वस्तुओं के क्रय-विक्रय से संबंधित कर।(अखबार को छोड़कर)
3)वस्तुओं के अंतर्राज्यीय व्यापार या वाणिज्य का पारेषण(Transmission) से संबंधित कर।
4)शुल्क और करों पर संघ के प्रयोजन के लिए अधिभार(अनुच्छेद-271)
5)राज्यों को संघ से अनुदान।(अनुच्छेद 275)
6)स्थानीय स्वशासी इकाईयों के लिए कर(अनुच्छेद 276)

• संघीय कर-
-आयकर(कृषि आय को छोड़कर)
-निगम कर(corporate tax)
-सीमा शुल्क(Custom duty)
-Central Excise tax
-संपत्ति और उत्तराधिकार शुल्क
-संपत्ति  कर
-Gift tax
-अंतर्राज्यीय कर (inter-state tax)
-sell-purchase tax
-रेल भाड़ा, किराए पर कर
-रेल्वे, समुद्रमार्ग या वायुमार्ग पर चुंगी कर।

• राज्य कर-
-समाचार पत्रों के अतिरिक्त विपणन पर कर
-कृषि आय पर कर
-व्यवसाय,पेशा, रोजगार पर कर
-भू-राजस्व
-कृषि भूमि संपदा और उत्तराधिकारी शुल्क(12%)
-कृषि भूमि, भवनों पर कर
-बिक्री कर(अखबार के अलावा)
-राज्य उत्पाद शुल्क
-प्रवेश कर(चुंगी)
-विद्युत कर
-मनोरंजन कर
-पथ कर

• स्थानीय संस्थाओं पर कर-
-सीमांत कर
-संपत्ति कर
-चुंगी

नोट:-
1)संघ की संपत्ति को राज्य के कराधान से छूट।
2)भारत सरकार और रेल के उपयोग के लिए विद्युत पर कर से छूट।
3)राज्यों की संपत्ति और आय संघ के कराधान से छूट।
4) संघ की कार्यपालिका को संसद द्वारा बनायी गयी विधियों के अधीन भारत की संचित निधि से उधार देने की शक्ति होगी।(राज्य में भी यही प्रक्रिया)
5)राज्य बिना संघ की अनुमति के बाह्य ऋण नहीं ले सकते।

• गैर कर राजस्व का वितरण-

केन्द्र:-
1)डाक और तार
2)रेल्वे
3)बैंकिंग
4)प्रसारण
5)सिक्के और मुद्रा
6)PSU's
7)समय अवधि समाप्त होने पर वसूली।

राज्य:-
1)सिंचाई(नहर,बांध) कर
2)वन
3)मत्स्यपालन
4)State PSU's
5)समय चुकने पर उगाही।

• सरकार के अधिकार और दायित्व-
-केन्द्र और राज्यों की संपत्ति, संविदा, बाध्यताएं और वाद से संबंधित।
-राजगामी(Eschet), व्यपगत(Lapse) और स्वामिहीन संपत्ति।
-राजगामी(Eschet)-
उत्तराधिकारी की मृत्यु पश्चात् उत्तराधिकार।
-व्यपगत(Lapse)-
अनुपयोगी और उचित तरीके की विफलता के कारण अधिकारों की संपत्ति।
-स्वामिहीन संपत्ति-
बिका मालिकाना हक वाली संपत्ति।

• राज्यों के लिए अनुदान -
प्रकार:-
1)Legal grant
2)Discritionary grant

1)Legal grant-
-(अनुच्छेद 275) संसद को इस बात का अधिकार देता है कि वह राज्यों को आवश्यकता पड़ने पर अनुदान उपलब्ध कराये लेकिन यह प्रत्येक राज्य के लिए आवश्यक नहीं है।
-अलग-अलग राज्य के लिए अनुदान राशि भिन्न-भिन्न हो सकती है।
-संचित निधि पर भारित।
-जनजातियों के उत्थान, कल्याण और इनके बाहुल्य वाले राज्यों में प्रशासनिक निकास के लिए।
-यह अनुदान(सामान्य और विशेष दोनों) वित्त आयोग की अनुशंसा पर।

2)Discritionary grant-
-(अनुच्छेद-282) संघ और राज्य दोनों को इस बात का अधिकार देता है कि किसी लोक नियोजन के लिए वे अनुदान दे सकते हैं।
- इसके अंतर्गत केन्द्र योजना आयोग की अनुशंसा पर अनुदान प्राप्त करती है।
-इन अनुदानों को विवेकाधीन अनुदान के नाम से जाना जाता है।
-इसके लिए केन्द्र बाध्य नहीं है। वह पूर्णत: उसके स्वविवेक पर निर्भर है।
-दिये जाने के दो लक्ष्य:-
a)योजनागत लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए राज्यों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना।
b)राष्ट्रीय योजना के लिए राज्यों को प्रभावित करना।
-विवेकाधीन अनुदान केन्द्र द्वारा राज्यों को प्राप्त होने वाली सहायता का बड़ा हिस्सा होते हैं इसलिए केन्द्र-राज्य संबंधों में योजना आयोग की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है।


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