- दर्शनशास्त्र -
दर्शनशास्त्र का स्वरूप -
दर्शनशास्त्र प्राकृतिक कौतूहल तथा उस कौतूहल से उत्पन्न जिज्ञासाओं से उत्पन्न शास्त्र है, जिसका मूल उद्देश्य विज्ञान जगत के समस्त पक्षों को खोजकर उनका वास्तविक अध्य्यन करना है।
दर्शनशास्त्र शब्द दर्शन और शास्त्र इन दो शब्दों से मिलकर बना है, जहां शास्त्र से तात्पर्य "शिष्यते अनेन इति शास्त्रम्" अर्थात् विषय का गंभीर निश्चित तथा अनिवार्यता से अध्ययन है।
वहीं दर्शन का तात्पर्य देखने अथवा के माध्यम से देखने से होता है।इस प्रकार दर्शनशास्त्र किसी वस्तु(विषय) के अध्ययन की वह प्रवृध्दि है जो विभिन्न दृष्टिकोणों से विषय का सूक्ष्मता से अवलोकन कर उसकी वास्तविकता या मूल को जानने का प्रयास करती है।
Philosophy शब्द 'फिलोप' तथा 'सोफिया' शब्द से मिलकर बना है जहां sophya का अर्थ ज्ञान तथा phylos का अर्थ प्रेम या अनुराग होता है।अतः कह सकते हैं कि वह विषय जहां वस्तु का अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसे Philosophy कहते हैं।
परिभाषाएँ -
प्लेटो - दर्शन का उद्देश्य वस्तुओँ के मूल स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना होता है।
अरस्तु - दर्शन का उद्देश्य परम तत्व के अन्वेषण का अध्ययन करना होता है।
मैकडोनल - दर्शन जीवन परमसत्ता के समग्र सत्य का खोज करता है।
परिभाषा- दर्शनशास्त्र एक समन्वित दृष्टिकोण है जो कि तार्किक विश्लेषण कर जीवन और जगत की वास्तविकता का अध्ययन करना है।
दर्शनशास्त्र का स्वरूप-
1. ज्ञान मीमांसा
2. तत्व मीमांसा
3. ईश्वर मीमांसा
4. नीति मीमांसा
संस्कार व्युत्पत्ति =
आवश्यकता >मूल्य >प्रतिमान >परंपरा >प्रथा >संस्कार
1. ज्ञान मीमांसा - ज्ञान मीमांसा को दर्शनशास्त्र का प्रारंभ माना जाता है जिसका तात्पर्य होता है ज्ञान का विज्ञान।
ज्ञान मीमांसा वस्तुतः ज्ञान के उद्गम उसके स्वरूप और उसकी प्रामाणिक तार्किक विवेचन को कहते हैं।दर्शनशास्त्र का यह अभिन्न अंग है।जिस प्रकार दर्शन विश्व को समग्रता से देखने का प्रयास है, उसी प्रकार ज्ञान मीमांसा दर्शन की समग्र समीक्षा होती है।
ज्ञान मीमांसा के अंतर्गत ज्ञान का स्वरूप ज्ञान का लक्ष्य, ज्ञानता तथा संबंध ज्ञान की प्रणाली, सीमा, संभावना तथा प्रामाणिकता का विश्लेषण किया जाता है।
2. तत्व मीमांसा - तत्व मीमांसा संपूर्ण दर्शन परमसत्ता का तार्किक अध्ययन करता है।इस परमसत्ता को ही तत्व कहते हैं।तत्व मीमांसा का तात्पर्य यह विश्लेषण करना होता है कि भौतिक जगत से परे वह मूल तत्व क्या है? उन तत्वों की संख्या कितनी है? तथा उन तत्वों का स्वरूप तथा प्रकृति क्या है?
तत्व मीमांसा के अंतर्गत सृष्टिशास्त्र(cosmology) का अध्ययन तथा सत्ता शास्त्र का अध्ययन एवं विवेचन किया जाता है।इसके अंतर्गत तीन सिध्दान्त आते हैं -
a) तत्ववाद
b) द्वितत्ववाद
c) बहुतत्ववाद
सत्ताशास्त्र- सत्ताशास्त्र के अंतर्गत हम परमसत्ता के स्वरूप का अध्ययन करते हैं और यह विचार करते हैं कि सत्ता का स्वरूप जड़ है अथवा प्रत्यय है।
3. ईश्वर मीमांसा - जहां एक ओर धर्म ईश्वर का आस्था एवं श्रध्दापूर्वक उल्लेख करता है वहीं दूसरी ओर दर्शन ईश्वर का बौध्दिक एवं तार्किक विवेचन करता है।
- ईश्वर मीमांसा के अंतर्गत यह विचार किया जाता है कि ईश्वर है अथवा नहीं?
- ईश्वर की उत्पत्ति कैसे हुई?
- ईश्वर के होने का प्रयोजन क्या है?
तथा ईश्वर किन प्रतिबंधों के अधीन है अथवा उनकी सत्ता की सीमाएं क्या है?
- ईश्वर मीमांसा के अंतर्गत ही अशुभ के प्रश्न का विवेचन किया जाता है।
4. नीति मीमांसा - नीति मीमांसा को पाश्चात्य दर्शन में अधिक महत्व प्राप्त है जिसे प्लेटो के प्रतय्यवाद से प्रारंभ माना जाता है।मोती मीमांसा में 'मूल्य का विचार' किया जाता है जहां मूल्य से तात्पर्य व्यक्ति के एवं समाज के आदर्शात्मक मूल्य से लिया जाता है।
इसके अंतर्गत
a) मूल्य क्या हैं?
b) मूल्य की सत्तात्मक स्थिति
c) मूल्य के प्रकार तथा परम मूल्य
जैसे प्रश्नों का विवेचन किया जाता है।
मूल्य - 1/ भौतिक - वस्तु मूल्य
2/ अभौतिक - जीवन मूल्य
जीवन मूल्य के दो प्रकार- a/व्यक्तिगत b/ सामाजिक
मूल्य मीमांसा में विचार के आधार पर तीन शास्त्रों की उत्पत्ति हुई -
a) तर्कशास्त्र
b) नीतिशास्त्र
c) सौंदर्यशास्त्र
- दर्शन एवं विज्ञान -
दर्शन - समग्र, आगमन, प्रत्येक मान्यता को परखना, वस्तुओं का अध्ययन मुख्यतः अभौतिक।
विज्ञान - विशिष्ट, निगमन, वस्तुओं का अध्ययन मुख्यतः भौति।
दर्शन एवं विज्ञान में समानता-
a)वस्तु/ जगत
b)तार्किक विश्लेषण
c)मानव कल्याण
d)निश्चित प्रविधि
दर्शन एवं विज्ञान में पूरक(असमानता)-
a)वस्तु(भौतिक-विज्ञान) , जगत(अभौतिक-दर्शन)
b)अध्ययन की पध्दति- 1/आगमन
2/ निगमन
c)दर्शन-समस्याएं <---> विज्ञान-हल
d)विज्ञान-भौतिक सुख
दर्शन - अभौतिक सुख
दर्शन एवं विज्ञान -
दर्शनशास्त्र को सभी विषयों का मातृविषय(mother of all subjects) कहा जाता है। अतः स्वाभाविक है कि दर्शनशास्त्र का संबंध किसी भी विषय से सहजता से जोड़ा जा सकता है।
किन्हीं दो विषयों के मध्य संबंध का निर्धारण उनके मध्य की समानताओं और भिन्नताओं के आधार पर समझा जा सकता है।यूं तो दर्शन तथा विज्ञान दोनों ही विश्व एवं जीवन का अध्ययन करते हैं।तथा दर्शन को विज्ञानों का विज्ञान कहा जाता है इस अर्थ में दर्शन तथा विज्ञान में समानता प्रतीत होती है किंतु निम्नांकित अर्थों में इनके मध्य अंतर देखा जा सकता है।
a)विज्ञान जहां विश्व का अध्ययन विशिष्ट दृष्टिकोण से करता है वहीं दर्शन का दृष्टिकोण समग्र होता है।
b)विज्ञान वस्तु जगत के विषय में 'क्या है'? का विवेचन करता है वहीं दर्शन 'क्यों है'? प्रश्न का समाधानात्मक विवेचन कर वस्तु जगत के उद्देश्य स्पष्ट करता है।
c)विज्ञान के अध्ययन की पद्धति निगमनात्मक अर्थात् "सामान्य ज्ञात तथ्यों से विशिष्ट की प्राप्ति" होती है वहीं दर्शन आगमनात्मक अर्थात् "विभिन्न विशिष्टीकरण से सामान्य की प्राप्ति" पध्दति का उपयोग करता है।
d)विज्ञान कुछ पूर्व स्थापित मान्यताओं के आधार पर विवेचन करता है और उन मान्यताओं को स्वयं सत्य मानता है वहीं दर्शन प्रत्येक मान्यता को नये सिरे से विश्लेषित करता है।
समानताएं-
a)दर्शन एवं विज्ञान दोनों के ही चिंतन का विषय विश्व तथा जीवन है।
b)दर्शन एवं विज्ञान दोनों के द्वारा तार्किक एवं वैज्ञानिक विवेचन करते हैं।
c)दर्शन तथा विज्ञान द्वारा किए गए चिंतन में मूल समानता यह है कि दोनों ही सुनिश्चित सिद्धांतों की स्थापना करते हैं।
परस्पर पूरक-
a)विज्ञान का विषय विश्व एवं जीवन के भौतिक संदर्भों का अध्ययन करना है वहीं दर्शन मानसिक संदर्भों का अध्ययन करता है इस प्रकार दोनों परस्पर पूरक विषयों का अध्ययन करते हैं।
b)जहां एक ओर दर्शन विज्ञान की मान्यताओं का विवेचन कर विषय को अधिक स्पष्ट करता है वहीं विज्ञान दर्शन की मान्यताओं को वैज्ञानिक मानदंडों पर परखकर उसे मजबूत बनाता है।
c)दर्शन द्वारा दी गई परिकल्पनाएं विज्ञान के लिए विषय प्रदान करते हैं।
जैसे:- दर्शन द्वारा दिया गया परमाणुवाद आज विज्ञान में अहम स्थान रखता है।
d)दर्शन को भी विज्ञान से सहायता प्राप्त हुई है।वैज्ञानिक प्रयोगों से दर्शन क्षेत्र में व्याप्त विभिन्न संदेहों को सुलझाने में मदद मिली।
e)इस प्रकार देखा जा सकता है कि दर्शन और विज्ञान के मध्य असमानताएं अपने स्वरूप में मात्रात्मक हैं।वस्तुतः दोनों विषयों के मध्य अंग-अंगी संबंध है और इनका यह पारस्परिक संबंध वैश्विक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है।
संस्कृति - संस्कृति किसी समाज में उन वैचारिक या अभौतिक प्रत्ययों का समूह है जो उस समाज के अनुकूल व्यक्ति के जीवन को ढालती है तथा यथानुकूल परिष्कृत होते हुए अगली पीढ़ी को हस्तांतरित होती है।इस प्रकार साधारण अर्थों में कहा जाए तो संस्कृति से तात्पर्य समाज के सभी सदस्यों के साझा व्यवहार के तरीके जिन्हें वो सीखते हैं उनमें सुधार करते हैं तथा अगली पीढ़ी को हस्तांतरित कर देते हैं से है।
संस्कृति को दो अर्थों में देखा जा सकता है प्रथमतः उस समाज की कला,संगीत तथा साहित्य में जो कि उसके साधारण स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं वहीं द्वितीयत: संस्कृति का विशिष्ट स्वरूप उस समाज के चिंतन,मूल्य,विश्वास,प्रतिमान,भाषा,कला,संगीत एवं दर्शन में देखा जा सकता है।
दर्शन एवं संस्कृति में संबंध -
दर्शन का उद्देश्य विश्व एवं जीवन के मूल तत्व तथा उसके संव्यवहार को जानना होता है ऐसे में जबकि किसी समाज के बुनियादी विश्वास तथा मूल्य जो कि संस्कृति का अनिवार्य भाग होते हैं का अध्ययन करना दर्शन के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है इस प्रकार दर्शन को संस्कृति से 'अध्ययन की विषयवस्तु' प्राप्त होती है।
दर्शन संस्कृति की मूलभूत मान्यताओं का विवेचन तथा परीक्षण कर उसे तर्कसंगत बनाता है जिससे संस्कृति का आधार सुदृढ़ होता है वहीं संस्कृति दर्शन को अपने मूल्य एवं सहज विश्वासों के जरिए न केवल विषयवस्तु प्रदान करती है अपितु दार्शनिक चिंतन को भी व्यापक बनाती है।
किसी समाज जी संस्कृति उस समाज के वैचारिक स्वरूप या दर्शन की अभिव्यक्ति है इस अर्थ में भी संस्कृति एवं दर्शन का पारस्परिक संबंध है।
दर्शन और जीवन -
a.विश्व क्या है?
b.विश्व में उसका स्थान क्या है?
c.सार्थकता क्या है?
संबंध-
a)पशु- मनुष्य
b)जीवन- सुसंस्कारी
c)गूढ़ चिंतन- वैचारिक समस्याओं का समाधान
d)सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक विचारधारा- परिवर्तन लाता है
e)जीवन में मूल्य की आवश्यकता- समुचित व्यवहार का नियंत्रण
मनुष्य एवं पशु में दो मूलभूत अंतर -
a.विचारशीलता
b.गुणों को अर्जित करने की क्षमता।
दर्शनशास्त्र को प्राप्त होने वाली अध्ययन सामग्री का विषय क्षेत्र जीवन से संबंधित होता है तथा दर्शन का मुख्य उद्देश्य जीवन की मूल वैचारिक समस्याओं का निराकरण करना होता है इस प्रकार दर्शनशास्त्र जीवन से गहराई से जुड़ा है।
जीवन पर दर्शनशास्त्र के प्रभाव भी बहुआयामी स्वरूप के हैं जिन्हें निम्नांकित बिंदुओं में देखा या समझा जा सकता है-
a)दर्शन अर्थात् जीवन के प्रति मानव का चिंतन और मरण उसे पशुवत् श्रेणी से ऊपर उठाकर मनुष्य कहलाने योग्य बनाता है यह चिंतन मनुष्य को विश्व के स्वरूप, विश्व में उसके स्थान तथा विश्व में होने की उसकी सार्थकता जैसे प्रश्नों का विवेचन कर उसे पशुत्व से उठाकर विचारशील मनुष्य की श्रेणी में प्रतिष्ठित करता है।
b)दर्शन मनुष्य में जीवन मूल्य के प्रति चिंतन की प्रेरणा देता है और व्यक्ति के जीवन का वैयक्तिक एवं सार्वजनिक चिंतन उसमें मूल्यों का विकास करता है और यह मूल्य प्रतिमान तथा कालान्तर में संस्कार के रूप में परिवर्तित होते हैं जिससे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में सरलता आती है।
c)दर्शन जीवन की समस्याओं के प्रति गहन विचारण की क्षमता उत्पन्न करता है और यह गहनता समस्याओं को सुलझाने में सहायक सिद्ध होती है।
d)दर्शन समाज के संपूर्ण परिदृश्य के प्रति चिंतन के लिए प्रेरित करता है जिससे इन क्षेत्रों के प्रति उत्पन्न नवीन दृष्टिकोण क्रांति(परिवर्तन) में सहायक होता है।विश्व में हुई समस्त आर्थिक, सामाजिक,राजनैतिक क्रांतियां इसी दार्शनिक चिंतन का परिणाम है।
• व्यक्ति> दृष्टिकोण >विश्व एवं जीवन >नवीन दृष्टिकोण >क्रांति >संघर्ष > विकास
धर्म - दर्शन =
प्रकार - a)बाह्य - 1. कर्मकांड
b)आंतरिक-
1.व्यापक मनोवृति
2.अलौकिक सत्ता
3.मुक्ति का आश्वासन
4.आत्मा - क)सैध्दांतिक
ख)संवेदनात्मक अनुभूति
ग)व्यवहार
धर्म के चार स्त्रोत- a)वेद
b)स्मृति
c)आचार
d)आत्मसंतुष्टि
दर्शन के चार स्त्रोत- a)स्पष्टीकरण
b)संगति का नियम
c)तथ्यों की खोज/परीक्षा
d)प्रमाणों की स्वीकृति
धर्म-दर्शन~
धर्म दर्शन दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसके अंतर्गत धार्मिक मान्यताओं,विश्वासों,सिद्धांतों एवं आस्थाओं को विवेचना की कसौटी पर कसकर धर्म के मूल एवं निष्पक्ष स्वरूप को जानने की कोशिश करते हैं।
धर्म-दर्शन शब्द के अंतर्गत धर्म से तात्पर्य उस मनोवृति से है जो व्यक्ति के सभी पक्षों को प्रभावित करती है।अलौकिक,पवित्र,सर्वगुणसंपन्न सत्ता के प्रति अखंड आस्था से उत्पन्न होती है।इस उपास्य के प्रति मोक्षमूलक श्रध्दा कर्मकांडों के रूप में अभिव्यक्त होती है।
दर्शन से तात्पर्य उस बौध्दिक प्रयास से है जिसके द्वारा किसी भी विषय से संबंधित मूल या आधारभूत मान्यताओं की तर्कसंगत परीक्षा कर अपना मत निश्चित किया जाता है।
इस प्रकार धर्म-दर्शन दर्शन की उस शाखा के रूप में जाना जाता है जो सभी धार्मिक विश्वासों,अनुभवों तथा सिद्धांतों के सत्य अथवा मिथ्या होने की सुव्यवस्थित, तर्कसंगत एवं निष्पक्ष परीक्षा करती है।
धर्म-दर्शन का क्षेत्र -
धर्म-दर्शन के अंतर्गत चूंकि मनुष्य की समस्त धारमय मान्यताओं का ही विवेचन किया जाता है अतः यह मिलता धार्मिक जीवन से ही संबंध रखता है।किन्तु धर्म जीवन के प्रत्येक पहलू पर अपना प्रभाव रखता है अतः धर्म-दर्शन का क्षेत्र अत्यंत व्यापक हो जाता है।
किन्तु धर्म-दर्शन का क्षेत्र विशेषतः चार भागों में बांटा जाता है -
1/ धर्म-दर्शन में धर्म का दार्शनिक विवेचन अर्थात् धर्म के मूल तत्वों की खोज की जाती है साथ ही धर्म का ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन कर विषय के रूप में तथ्यों का संकलन किया जाता है।
2/धर्म-दर्शन धर्म की तात्विक मीमांसा करता है अर्थात् किसी धर्म के अंतर्गत
-मूल तत्व क्या है?
-ईश्वर क्या है?
-ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण क्या हैं?
-ईश्वर के गुण कौन कौन से हैं?
-अशुभ क्या है?
इत्यादि की व्याख्या की जाती है।
3/ धर्म-दर्शन धर्म की ज्ञान मीमांसा करता है।इसके अंतर्गत --धार्मिक भाषा क्या है?
-धार्मिक भाषा का स्वरूप?
-धार्मिक अनुभूतियों क्या है?
-अनुभूतियों की प्रामाणिकता क्या है?
तथा धर्म में धर्मशास्त्रों की भूमिका का विवेचन किया जाता है।
4/ धर्म-दर्शन में इनके अतिरिक्त धार्मिक मूल्य, श्रध्दा तथा तर्क संबंधी अध्ययन किए जाते हैं और विचारण किया जाता है कि यह कितने तर्कपरक हैं।
धर्म-दर्शन के अध्ययन की विधियाँ -
धर्म-दर्शन में अध्ययन की चार विधियाँ प्राप्त होती हैं जो इस प्रकार हैं -
1/श्रूतिमूलक विधि - इसके अंतर्गत धर्मशास्त्रों में उपलब्ध प्रमाणों को ही धर्म-दर्शन के विवेचन का आधार बनाया जाता है किंतु इस विधि के विरुद्ध आपत्ति है कि यह तर्क और अनुभव को दरकिनार करते हैं और धर्मशास्त्र को ही अनिवार्य प्रमाण मानते हैं।
2/अंत:प्रज्ञामूलक विधि - इस विधि के अंतर्गत बाह्य प्रमाणों को आधार न मानकर अंतः प्रज्ञा को ही मूल आधार माना जाता है इसकी मान्यता है कि अलौकिक तथ्य, लौकिक ज्ञान का विषय नहीं हो सकते, परम सत्य का साक्षात्कार अंतः प्रज्ञा द्वारा ही संभव है।किन्तु इस विधि के विरूध्द भी इसी प्रकार के आक्षेप लगाये जाते हैं।
3/बौध्दिक निदर्शन विधि - धर्म-दर्शन में दर्शन की यह विधि केवल तर्क के आधार पर धर्म के विषय का अन्वेषण करती है जिसमें केवल तर्कों को ही प्रमाण माना जाता है यह धर्म-दर्शन में सर्वाधिक सहायक विधि है चूंकि यह व्यक्ति के अनुभवों को अस्वीकार करती है अतः व्यक्ति सापेक्ष ज्ञान को स्वीकार नहीं करती।
4/अनुभव मूलक विधि - इस विधि का समर्थन करने वाले दार्शनिक मनुष्य की इंद्रियजन्य अनुभवों को प्राथमिकता देते हैं, इनकी मान्यता है कि जिस ज्ञान का अनुभव नहीं किया जा सकता वह विषय तर्क के लिए हो सकता है ज्ञान के लिए नहीं।
धर्म दर्शन में मूल समस्याएं -
धर्म की उत्पत्ति - भय और कौतूहल से।
1/सर्वात्मवाद - अलौकिक सर्वसत्ता का आचरण।
2/माना - विशेष गुण(मनुष्य का)
3/टोटम - विशेष शक्ति या कुल चिन्ह
ईश्वर -
ईश्वर की सत्ता -
ईश्वर संबंधी धारणा का विवेचन धर्म-दर्शन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विचारणीय प्रश्न है जिसके अंतर्गत ईश्वर के अस्तित्व अथवा उसकी सत्ता का विचारण किया जाता है।
इस संबंध में अधिकांश प्रमाण 'मानवत्वारोधी' स्वरूप के हैं इस संबंध में ईश्वर के सत्ता को सिध्द करने के लिए दिए गए प्रमाणों को दो वर्गों में रखा जा सकता है।
1/आनुभाविक -
a)सृष्टिमूलक-
क/गति
ख/अनिवार्य सत्ता
ग/कार्यकारण
b)प्रयोजन मूलक
c)नीतिमूलक
d)धार्मिक अनुभव
2/प्रागआनुभाविक-
a)प्रत्ययसत्ता मूलक
b)विचार
a)सृष्टिमूलक-
"ईश्वर में अगर गति का होना माना जाए तो अनवस्था दोष हो जाएगा।"
क/गति के विरुद्ध तर्क - जड़ वस्तु गति नहीं दे सकती।
ख/अनिवार्य सत्ता - अनिवार्य सत्ता का सिध्दान्त दोषपूर्ण है।
ग/कार्यकारण - कोई भी सत्ता स्वयं में पूर्ण कारण या पूर्ण कार्य नहीं हो सकते।
b)प्रयोजनमूलक -
समर्थन में प्रमाण ->
क/घड़ी को देखकर निर्माता का अनुमान
ख/ओजोन गैस का प्रमाण
ग/आग एवं धुआं
विरोध में प्रमाण ->
क/घड़ी निर्माता और ईश्वर में कोई साम्य नहीं है।
ख/उत्तरजीविता का सिद्धांत समन्वय का खंडन करता है।
ग/बाढ़,तूफान,भूकंप आदि सृष्टि रचना में दोष को बताते हैं।
c)नीतिमूलक -
समर्थन में प्रमाण ->
क/ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किए बिना नैतिक मूल्य उच्चतम और पूर्ण शुभ तथा शुभ संकल्प को प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
विरोध में प्रमाण ->
क/अशुभ का अस्तित्व तथा नैतिक नियमों का व्यक्तिनिष्ठ होना इसका खंडन करता है।
d)धार्मिक अनुभव -
समर्थन में प्रमाण ->
क/व्यक्ति को होने वाले धार्मिक संवेगात्मक अनुभव इस बात का प्रमाण हैं कि ईश्वर होता है इनके विरूध्द तर्क है कि मनोरोगियों को भी विभिन्न काल्पनिक अनुभव होते हैं।
विरोध में तर्क ->
क/धार्मिक अनुभवों में वस्तुनिष्ठता का अभाव होता है।
2/ प्रागआनुभाविक -
समर्थन में प्रमाण ->
प्रागअनुभववादी/पूर्णप्रत्ययवादी यह मानते हैं कि एक पूर्ण प्रत्यय से ही इस विश्व की रचना हुई है प्रथमतः प्रत्यय(विचार) उत्पन्न होता है तदनुरूप वस्तु का निर्माण होता है।
विरोध में ->
विचार से वस्तु की उत्पत्ति का अनुभव नहीं किया जा सकता।
अशुभ -
दर्शनशास्त्र में अशुभ की समस्या को ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध प्रबल तर्क के रूप में प्रयोग किया जाता है, अशुभ का शाब्दिक तात्पर्य बुराई से माना जाता है किंतु दर्शन में अशुभ से तात्पर्य ऐसे दुःख या कष्ट से होता है जो कि मानसिक या शारीरिक रूप में मनुष्य को गैर न्यायोचित प्राप्त होता है।
अशुभ के प्रकार -
अशुभ को विचारों के साथ दुःख की यथार्थ सत्ता के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योंकि यह कोई रहस्यमयी वस्तु नहीं है अपितु शारीरिक एवं मानसिक दुःख तथा मानवीय दुराचरण के रूप में सभी के द्वारा इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है।
अशुभ को दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है -
1/भौतिक (अशुभ क्यों जरूरी है?)
2/अभौतिक (जरूरी नहीं है?)
1/भौतिक अशुभ(प्राकृतिक अशुभ) -
यह वे अशुभ हैं जिनके घटित होने में प्राणियों का कोई नियंत्रण नहीं होता इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं से उत्पन्न दुःख, शारीरिक तथा मानसिक दुःख को शामिल किया जाता है।
2/अभौतिक अशुभ(नैतिक अशुभ) -
इस अशुभ का संबंध केवल मानव जगत से है इसके अंतर्गत ईर्ष्या, द्वेष की भावना, स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों को कष्ट पहुंचाने की इच्छा, लालच वासना इत्यादि दुर्गुणों से प्रेरित होकर किया जाने वाला मानवीय दुराचरण शामिल हैं।
यूं तो यह दोनो अशुभ परस्पर स्वतंत्र प्रतीत होते हैं किन्तु यह कभी कभी एक दूसरे को उत्पन्न करते हैं।
अशुभ का स्वरूप -
अशुभ की समस्या के संबंध में विचारण करते हुए दार्शनिकों ने ईश्वर के विरूध्द गंभीर आपत्तियां उठाई।इस संबंध में तीन कथनों पर विचार किया जाता है:-
1/संसार में दुःख और मानवीय दुराचरण के रूप में अशुभ का अस्तित्व है।
2/इस संसार का रचयिता सर्वशक्तिमान ईश्वर है।
3/ईश्वर पूर्ण रूप से दयालु और प्रेममय है।
अशुभ की समस्या के विचारण में ईशवरवादियों से यह प्रश्न पूछा जाता है कि यदि सर्वशक्तिमान प्रेममय ईश्वर है तो अशुभ का अस्तित्व क्यों है इस संबंध में ईश्वरवादियों द्वारा निम्न तर्क दिए जाते हैं -
1/अशुभ का निर्माण ईश्वर ने नहीं किया अपितु यह मनुष्य के अपने पापों का ही दुष्परिणाम है जिनका दण्ड देने के लिए ईश्वर ने इसे उत्पन्न किया है यहां पाप से तात्पर्य ईश्वर के विरूद्ध कार्यों से लिया जाता है।
इस तर्क के विरुद्ध दो आपत्तियां हैं -
क/यह निर्णय करना असंभव है कि ईश्वर का आदेश क्या है क्योंकि धर्मग्रन्थ विपरित बातें कहते हैं।
ख/प्राकृतिक आपदाओं का दण्ड पापी और पुण्य आत्मा सभी को कष्ट देता है।
ग/यह तर्क बच्चों और पशु-पक्षियों के दुःखों की व्याख्या करने में असफल है।
2/ईश्वरवादी अशुभ को एक चेतावनी के रूप में मानते हैं जिसके जरिए वह रचयिता के महानता और अपारशक्ति को महसूस करता है।
इस तर्क के विरुद्ध आपत्तियां हैं -
क/अशुभ से उत्पन्न भय श्रध्दा उत्पन्न नहीं करता।
ख/शक्ति का प्रदर्शन करने वाला निंदनीय माना जाता है तब ईश्वर क्यों नहीं।
ग/ईश्वर के द्वारा किए गये कार्य कभी-कभी मनुष्य को नैतिक होने की अपेक्षा अनैतिक बनाते हैं।
3/ईश्वरवादियों द्वारा तर्क दिया जाता है कि शुभ को जानने और उसके महत्व के लिए अशुभ अनिवार्य है, दुःख को जानकर ही व्यक्ति सुख का महत्व समझता है।व्यक्ति के जीवन में उत्पन्न दुःख उसे साहस तथा दृढ़ता प्रदान करते हैं जिससे व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति होती है।
यह एक प्रबल तर्क माना जाता है किंतु इसके विरुद्ध आपत्ति है कि-
क/शुभ की सत्ता अशुभ पर निर्भर है।
ख/इससे ईश्वर का उत्तरदायित्व कम नहीं हो जाता अर्थात् यह ईश्वर की समस्या कि शुभ का पृथक अनुभव नहीं किया जाता।
ग/यह प्रमाणित है कि व्यक्ति नकारात्मक अभिप्रेरणा की अपेक्षा सकारात्मक अभिप्रेरणा से अधिक उन्नत होता है।
कर्मवाद -
प्रकार - 1/ऐच्छिक - a)काम्य कर्म
b)निस्काम कर्म
2/अनैच्छिक
यदृच्छावाद - विश्व में होने वाली घटनाएं संयोग का परिणाम हैं।अतः इसके संदर्भ में कर्म की व्याख्या नहीं की जा सकती।
नियतिवाद - हर कार्य निश्चित है।
अदृष्ट या अपूर्व - अदृष्ट(न्याय) अथवा अपूर्व(मीमांसा) से तात्पर्य उन सूक्ष्म संस्कारो से है जो कर्म से उत्पन्न होते हैं और आत्मा से जुड़े रहते हैं और यह तय करते हैं कि किसी कर्म का फल कब प्राप्त होगा।
कर्म सिध्दान्त से संबंधित कुछ समस्याएं -
1/कर्म सिद्धांत की प्रथम समस्या है कि कर्म का वास्तविक कर्ता किसे माना जाए।
2/कर्म सिद्धांत की व्याख्या में यह समस्या है कि यदि आत्मा तथा शरीर भिन्न हैं तब इन दोनों में पारस्परिक संबंध की व्याख्या कैसे की जाये।
3/कर्म सिध्दान्त की तीसरी समस्या है कि काल की दृष्टि से किसका अस्तित्व पहले है जीव का अथवा कर्म का।
•समस्याएं- a)यदि कर्म जीव से पहले आया तो समस्या है कि क्रिया कर्म जीव के बिना संभव है।
b)यदि जीव कर्म से पूर्व था तो जीवों में असमानताएं क्यों हैं?
c)यदि कर्म और जीव की उत्पत्ति एक साथ हुई है तो यह समस्या उत्पन्न होती है कि विभिन्न शरीरों में पाए जाने वाले भेद किस प्रकार उत्पन्न होने चाहिए।
d)यदि कर्म और जीव में शाश्वत संबंध है तब यह मानना पड़ेगा कि प्रत्येक जीव का एक निश्चित कर्म है।
4/कर्मवाद की एक बड़ी समस्या कर्म फल नियंता की है।
योग-दर्शन :-
इसका अर्थ उस दर्शन से है जो चित्त की वृतियों के निरोध के माध्यम से तात्विक ज्ञान प्राप्त करता है।
योग-दर्शन की शब्दावली :-
1/चित्त से तात्पर्य मन,बुद्धि और अहंकार के सम्मिलित रूप से है जिसके तीन रूप होते हैं-
a)प्रक्षाशील(जानने की इच्छा)
b)प्रवृतिशील(करने की इच्छा में रत)
c)स्थितिशील(स्थिर अवस्था में)
2/चित्त की भूमि से तात्पर्य उसकी स्वाभाविक अवस्था से है।यह पांच प्रकार की होती है-
a)क्षिप्त(रजोगुण का अधिक प्रभाव,अस्थिर)
b)मूढ़(तमस की अधिकता,less active)
c)विक्षिप्त(रज+सत्, स्वतः विचलन)
d)एकाग्र(सत् की अधिकता, hyper active)
e)निरुद्ध(कोई वृति नहीं, समाधि की अवस्था)
योग वह साधन है जिससे चित्त की वृतियों का निरोध किया जाता है।
योग-दर्शन के अंग(साधन)-
क) शरीरापेक्षी साधन- वृति,यम,नियम,आसन,प्रणायाम, प्रत्याहार।
ख) मनसापेक्षी साधन- धारणा,ध्यान,समाधि ।
3/ वृति - जब चित्त इंद्रियों के माध्यम से बाहर निकलकर विषय का आकार ग्रहण कर लेता है तो उसे वृति कहा जाता है।
चित्त की पांच वृतियां होती हैं -
a)प्रमाण
b)विपर्यय
c)विकल्प
d)निद्रा
e)स्मृति
नोट:- प्रवृति व्यक्ति विशिष्ट के कार्य से संबद्ध है।
4/यम- अष्टांग मार्ग में बाह्य और आंतरिक इंद्रिय संयम को यम कहा जाता है यह पांच होते हैं -
a)सत्य
b)अहिंसा
c)अस्तेय
d)अपरिग्रह
e)ब्रम्हचर्य
5/नियम- यह सदाचार को प्रश्रय देते हैं।
प्रकार:-
a)शौच-(अंदर या बाहर से शरीर की शुद्धि)
b)संतोष
c)तप(आकस्मिक सुखों का दमन)
d)स्वाध्याय(स्वचिंतन)
e)ईश्वर प्राणिधान(ईश्वर मुझमें और मैं ईश्वर में, यह भाव)
6/आसन - आसन का तात्पर्य योग अवस्था में बैठने से लिया जाता है, योग दर्शन में आसन के संबंध में "स्थिरम् सुखम् आसनम्" अर्थात् आसन वह है जिसमें सुखपूर्वक स्थिर रहा जा सकता है इस धारणा के अंतर्गत कई प्रकार के आसन योग दर्शन में बताये गये हैं आसन के अभ्यास से चित्त की एकाग्रता बढ़ती है।
7/प्राणायाम् - आसन के उपरांत श्वास,प्रश्वास में जो गति विच्छेद किया जाता है, उसे प्रणायाम कहते हैं।वही प्रणायाम योग का भाग होता है जिससे चित्त की एकाग्रता होती है।
प्रणायाम चार प्रकार के होते हैं :-
a)बाह्य वृति रेचक
b)आभ्यान्तर वृति रेचक
c)स्तंभ वृति कुंभक
d)बाह्य आभ्यान्तर विषयापेक्षी कुभंक
8/प्रत्याहार - प्रत्याहार इंद्रियों को उनके विषय से असंयुक्त कर चित्त को स्वरूप प्रदान करता है अर्थात् इंद्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अंतर्मुखी करना ही प्रत्याहार कहलाता है।
प्रत्याहार के दो साधन होते हैं -
1/बाह्य विषयों से ध्यान हटाना।
2/मानस भाव ग्रहण करना।
9/धारणा- धारणा का तात्पर्य चित्त को किसी एक विषय पर अथवा देस पर बद्ध करने से है।योग दर्शन में धारणा के दो भेद बताये गये हैं -
a)बाह्य विषय से चित्त का इंद्रिय बद्ध होना।
b)आध्यात्मिक विषय से चित्त का अनुभव द्वारा बद्ध होना।
10/ ध्यान- ध्यान का गंतव्य धारण किए गए विषय पर चित्त की एकलयता से लिया जाता है ध्यान में चित्त विषय अथवा प्रत्यय में अखण्ड धारा की भांति प्रवाहित होता है।
11/समाधि- समाधि योग दर्शन का आठवां अंग है जिसका प्रमुख लक्ष्य मोक्ष या कैवल्य है।योग-दर्शन में सांख्य-दर्शन के विपरित समाधि की अवस्था को आनंद मूलक माना गया है।
योग-दर्शन के अनुसार समाधि की अवस्था में पुरुष की समस्त वृतियों का निरोध होने पर वह कैवल्य जो प्राप्त करता है और यही योग कहलाता है।
चित्त के वृतियों को निरोध की भूमि पर लाने के लिए आठ योगांग बताये गये हैं जिनमें समाधि आठवां अंग है।
समाधि की अवस्था में व्यक्ति निर्भास,स्वरूप ध्येयाकार, शून्य के समान अवस्थित हो जाता है अर्थात् व्यक्ति का अस्तित्व ध्येय विषय में विलीन हो जाता है, इस अवस्था में ध्याता-ध्यान-ध्येय की त्रिपुटि समाप्त हो जाती है, ध्याता को यह भाव नहीं रहता कि "मैं" ध्यान कर रहा हूं, यही अवस्था समाधि कहलाती है।
इस अवस्था में आत्मचेतना लुप्त हो जाती है तथा आत्म साक्षात्कार प्राप्त होता है।
योग-दर्शन में समाधि के दो भेद बताये गये हैं -
1/संप्रज्ञात् समाधि- संप्रज्ञात समाधि को सबीज समाधि भी कहा जाता है क्योंकि इसके अंतर्गत अभीष्ट विषय पर चित्त को स्थिर रखा जाता है तथा उस विषय/आलंबन में निर्भास होकर समाधि की अवस्था को प्राप्त करते हैं।
सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद -
a)सवितर्क
b)सविचार
c)सआनंद
d)सास्मित
a)सवितर्क- इस अवस्था में स्थूल विषय पर ध्यान केंद्रित किया जाता है यहां स्थूल विषय से तात्पर्य नासिका का अग्र भाग,चंद्रमा,पेन की नोक इत्यादि विषयों पर ध्यान केंद्रित करने से होता है।
सवितर्क समाधि के दो भेद होते हैं -
क)वितर्कानुगत
ख)निवितर्कानुगत
b)सविचार- इस अवस्था में स्थूल भूतों के कारण पंच तनमात्रा आदि सूक्ष्म विषयों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
प्रकार - क)विचारानुगत
ख)निर्विचारानुगत
c)सआनंद- इसके अंतर्गत सूक्ष्म एवं स्थूल विषयों से ध्यान हटाकर इंद्रियों पर ध्यान को एकाग्र किया जाता है चूंकि इंद्रियां अनुभव प्रदान करती हैं और इंद्रियों से प्राप्त अनुभव आनंदमूलक होते हैं इसीलिए समाधि की इस अवस्था को सआनंद समाधि कहा जाता है।
d)सास्मित- यह समाधि की अंतिम तथा पूर्ण अवस्था होती है जिसमें न तो स्थूल विषय ध्यान का आलंबन होते हैं और न ही सूक्ष्म विषय या इंद्रियों का सहारा लिया जाता है।अपितु अहंकार को ध्यान का विषय बनाया जाता है इसीलिए इसे सास्मित समाधि कहा जाता है।
2/असंप्रज्ञात - इसे निरालंबन समाधि भी कहते हैं समाधि के स्वरूप में साधक को समस्त आंतरिक तथा बाह्य विषयों का ज्ञान हो जाता है तथा वह बिना किसी विषय से चित्त का संबंध रखते हुए ध्यानस्थ होता है।समाधि की इस अवस्था में चित्त किसी भी विषय से संलिप्त नहीं रहता अर्थात् चित्त की समस्त वृतियों का निरोध हो जाता है और साधक को आनंद प्राप्त होता है चूंकि इस अवस्था में कोई विषय/बीज शेष नहीं रहता इसीलिए इसे निर्बीज या निर्विशेष समाधि भी कहते हैं।
असंप्रज्ञात समाधि की दो अवस्थाएं होती हैं जिन्हें प्रत्ययों में व्यक्त किया जाता है-
a)भव प्रत्यय -जब समस्त वृतियों का निरोध हो जाए और चित्त अविद्या में लीन हो जाए तो उसे भव प्रत्यय कहते हैं।
b)उपाय प्रत्यय -जब प्रज्ञा का उदय हो तथा समस्त अविद्या का नाश हो जाए और वृतियां भी शेष ना रहे तो उसे उपाय प्रत्यय कहते हैं।इसके पश्चात् जब संस्कारों का भी लय हो जाता है तो उसे कैवल्य की अवस्था कहते हैं।
योग-दर्शन की व्यवहारिकता-
योग-दर्शन यूं तो मोक्ष का मार्ग माना जाता है अर्थात् आध्यात्मिक बाधाओं से मुक्ति का मार्ग।भारतीय दर्शन की मान्यता है कि आध्यात्मिक पवित्रता के लिए पूर्ण शारीरिक स्वस्थता और पवित्रता आवश्यक होती है।इस दृष्टि से योग-दर्शन में प्रयुक्त साधन अष्टांगिक मार्ग दैनिक जीवन के लिए भी उपयोगी हैं-
1)अष्टांग योग में प्रथम अंग यह निषेधकारी नियम कहलाते हैं अर्थात् जिनके व्यवहार से मन और शरीर को विभिन्न विषयों में जाने से रोका जाता है।जिनमें सत्य हमारे जीवन में संदेह,अविश्वास तथा भ्रम जैसे विचारों को दूर करता है वहीं इससे समय की बचत भी होती है जिससे न केवल सामाजिक विश्वास कायम रहता है अपितु अन्य लाभ भी होते हैं।
2)अहिंसा जैसे साधन की प्रासंगिकता सदैव रहती है और वर्तमान की आतंकवाद,नक्सलवाद और माओवाद जैसे विप्लवकारी माहौल में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
3)अस्तेय और अपरिग्रह जैसे साधन व्यक्तिगत दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हैं ही साथ ही करचोरी,कालाबाजारी और जमाखोरी जैसी राष्ट्रीय समस्याओं के लिए भी महत्वपूर्ण है।
4)अष्टांग योग के दूसरे अंग 'नियम' प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य,आर्थिक,शैक्षिक एवं सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
5)अष्टांगिक मार्ग में किए जाने वाले आसन विभिन्न शारीरिक रोगों को दूर करने तथा शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए महत्वपूर्ण है।
6)ब्रम्हचर्य जैसी अवधारणाओं से विश्व में फैल रही विभिन्न यौनजनित बीमारियों को रोकने में मदद मिलती है।
7)एक्रागता- ध्यान के लिए आवश्यक है।
8)प्राणायाम- श्वास-प्रश्वास की बीमारियों को दूर करने के लिए आवश्यक है।
योगी की तीन अवस्थाएं :-
a)योगारूढ़ -जो योग पर पहले से आरूढ़ हो।
b)आरूरूक्ष -अचानक से योग की तरफ आकृष्ट हो।
c)युञ्जान -इस जन्म में योग का ज्ञान प्राप्त हो।
आठ सिद्धियां:-
a)अणिमा-अणु मात्र को जानना
b)लघिमा-लघु रूप में हो जाना
c)महिमा-बड़े अणु के रूप में हो जाना
d)प्राप्ति-प्राप्त करना
e)प्राकाम्य-किसी के लिए इच्छित हो जाना
f)ईश्त्व-किसी के लिए ईश्वर हो जाना
g)वशित्व-वश में करना
h)यथाकामावसायित्व-सातों शामिल
वैराग्य: -
प्रकार-a)पर वैराग्य
b)अपर वैराग्य
कर्मफल:-
प्रकार -a)दृष्टजन्मवेदनीय
b)अदृष्टजन्मवेदनीय
ऐश(अइश का नियम):-
ईश्वर द्वारा प्रतिपादित वह नियम जिसमें ईश्वर ने पहले यह निर्धारित कर लिया है कि अमुक व्यक्ति भविष्य में विवेक(ज्ञान) प्राप्त करेगा।
प्रणव:- यह ईश्वरवाचक शब्द है जिसका ध्यान करने से चित्त स्थिर होता है।
धार्मिक सहिष्णुता -धार्मिक सहिष्णुता का विषय विभिन्न दृष्टिकोणों से अलग-अलग रूप में व्याख्यायित होता है जिसके संबंध में विभिन्न विचारक संकीर्ण और व्यापक भाव को लक्षित कर प्रस्तुत करते हैं।
धार्मिक सहिष्णुता में सहिष्णुता का मंतव्य साधारण शब्दों में सहने से लगाया जाता है इस अर्थ में यह भाव छुपा हुआ है कि वह विषय या वस्तु हमारे लिए सुख का विषय नहीं है और साथ ही हम उसे पसंद नहीं करते हैं किन्तु आदर्श रूप में सहिष्णुता का अर्थ सकारात्मक रूप में लिया जाता है।
धार्मिक सहिष्णुता का तात्पर्य उस स्थिति से है जब विभिन्न धर्मों अथवा एक ही धर्म के अलग-अलग संप्रदायों के अनुयायी परस्पर मिलकर शांतिपूर्वक रहते हों तथा एक दूसरे के धार्मिक विचारों,सिद्धांतों,विश्वासों तथा अनुष्ठानों के महत्व को स्वीकार करते हुए पारस्परिक विरोध या शत्रुता की भावना नहीं रखते।इसी उदार मनोवृति को धार्मिक सहिष्णुता की संज्ञा दी जाती है।
धार्मिक सहिष्णुता के लिए यह आवश्यक है कि -
a)उस स्थान पर अलग-अलग संप्रदाय के लोग रहते हों।
b)धार्मिक विचार तथा अनुष्ठान भिन्न-भिन्न हों।
c)इन आधारों पर न ही किसी को शारीरिक चोट पहुंचाना न ही संघर्ष करना।
धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्मसंभाव में अंतर:-
धार्मिक सहिष्णुता सर्वधर्मसंभाव की गांधीजी की अवधारणा से भिन्न है गांधीजी जब सर्वधर्मसंभाव को अपने अनुयायियों को समझाते हैं तो कहते हैं कि उन्हें दूसरे के धर्म का आदर करना चाहिए तथा परस्पर स्नेह और सौहार्द्र की भावना रखनी चाहिए जिसमें यह निहित होता है कि दूसरे का धर्म आपके व्यक्तिगत धर्म के समान ही मूल्यवान तथा समआदरणीय है।
जबकि धार्मिक सहिष्णुता रखने वाला व्यक्ति अन्य धर्म को सहन करता है, थोड़ा बहुत महत्व भी देता है किन्तु अपने धर्म के समान महत्व नहीं देता।
समाज में धार्मिक असहिष्णुता की उत्पत्ति के कारण-
1/धार्मिक सहिष्णुता का प्रमुख कारण स्वयं मनुष्य में निहित है,मनुष्य में स्वयं को तथा स्वयं से जुड़ी वस्तु को महान समझने की स्वाभाविक मनोवृति होती है जिसके चलते वह अपनी वस्तु को और विचारों को और अधिक श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण मानता है यह मनोवैज्ञानिक नियम धर्म के संबंध में भी लागू होता है।अतः ऐसी स्थिति में जब धर्म के प्रति संवेदनशीलता एक सीमा से अधिक हो जाती है तो धार्मिक सहिष्णुता जन्म लेती है।
2/अधिकतर धार्मिक परिवारों में धर्म के मूल मंतव्य को न बताते हुए गलत धार्मिक शिक्षा दी जाती है।उन्हें बताया जाता है कि उनका धर्म श्रेष्ठ है और अन्य सब धर्म मिथ्या जिसके चलते बच्चों में अनुदारता जन्म लेती है।
3/लगभग सभी धर्मपरायण परिवार अपने बच्चों को अपने ही धर्म की शिक्षा तक सीमित रखते हैं अन्य धर्मों को जानने का अवसर नहीं दिया जाता अतः इस स्थिति में अन्य धर्मों के विषय में व्यक्ति की अनभिज्ञता उनके प्रति असहिष्णुता को जन्म देती है।
4/प्रायः देखा गया है विभिन्न धर्मावलम्बियों के सामाजिक व्यवहार पृथकता को लिए होते हैं अर्थात् उनमें सामाजिक मेलजोल नहीं होता।
धार्मिक सहिष्णुता की आवश्यकता निम्न कारणों से है:-
1/विश्व के लगभग सभी देशों में अलग-अलग मतों का अवलम्बन करने वाले अनुयायी निवास करते हैं तथा उनके विचारों के साथ उनके कर्मकांड भी भिन्न होते हैं जिससे असहिष्णुता के खतरे उत्पन्न होते हैं अतः सभी निवासियों के शांति और सौहाद्रपूर्ण तरीके से रहने के लिए यह आवश्यक है कि उस राष्ट्र में धार्मिक सहिष्णुता बनी रहे।
2/समाज में धार्मिक असहिष्णुता की उपस्थिति निष्पक्ष चिंतन,नवीन खोज,नवाचार तथा वैज्ञानिक अनुसंधानों में रूकावट उत्पन्न करती है अतः इस दृष्टि से भी आवश्यक है कि धार्मिक सहिष्णुता उस समाज में बनी रहे।
3/धार्मिक सहिष्णुता की उपस्थिति उस समाज में लोकतांत्रिक व्यवहारों के लिए भी आवश्यक मानी जाती है।
4/धार्मिक असहिष्णुता किसी राष्ट्र में आर्थिक व्यवहारों में बाधा उत्पन्न करती है जिसके चलते उस राष्ट्र की आर्थिक उन्नति कमजोर पड़ जाती है।अतः आर्थिक विकास की दृष्टि से भी धार्मिक सहिष्णुता आवश्यक है।
5/किसी राष्ट्र में राजनीतिक अधिकारों के सम्यक् व्यवहार के लिए जरूरी है कि राष्ट्रीय वातावरण स्वस्थ हो इसके लिए आवश्यक है धार्मिक कट्टरता और उन्माद की परिस्थितियां जन्म न लें इसलिए धार्मिक सहिष्णुता जरूरी है।
धार्मिक सहिष्णुता स्थापित करने के उपाय :-
1/इस मनोवैज्ञानिक धारणा को तोड़ना कि मैं श्रेष्ठ हूं इसके लिए जरूरी है कि बचपन से ही सहअस्तित्व की भावना पिरोई जाए।
2/परिवारों को चाहिए कि यह शिक्षा देना बंद करें कि उनका धर्म श्रेष्ठ है और अन्य धर्म मिथ्या और साथ ही यह कि 'हमारे' साथ भेदभाव किया जा रहा है।
3/सभी स्कूलों,शिक्षण संस्थानों,सार्वजनिक संस्थानों विभिन्न नाट्य मंडलीयों एवं अन्य प्रसार माध्यमों से सभी धर्मों की शिक्षा देना सुनिश्चित किया जाए।
4/व्यक्तिगत, समाजिक तथा शासकीय स्तर पर सभी त्योहारों जो कि विभिन्न धर्मों के हों को मनाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाये जिससे पारस्परिक सामाजिक मेल-जोल बढ़ती है।
5/विभिन्न संस्थानों में यह सुनिश्चित किया जाये कि अलग-अलग धर्मों के अनुयायी परस्पर साथ-साथ शिक्षा लें अथवा कार्य करें।
धर्मनिरपेक्षता - धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा का जन्म यूरोप में हुआ जहां पोप की सत्ता के विरुद्ध राजसत्ता द्वारा चुनौती के रूप में व्याख्यायित किया गया।धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों का मानना है कि धर्म शब्द का प्रयोग सामान्यतः मजहब के रूप में किया जाता है।मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है कि वह इस प्रचलित अर्थ में धर्म का परित्याग करते हुए अथवा कम से कम तटस्थ या उदासीन रहते हुए जीवन व्यतीत करे क्योंकि अलौकिक सत्ता के प्रति धारणा या विश्वास जो कि धर्म का मूल आधार है को धारण करने से वह लौकिक जीवन के प्रति उदासीन हो जाता है।
इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता का सिध्दान्त इहलोकवाद सिध्दान्त पर आधारित है।
धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा का जन्म पुनर्जागरण युग के बाद तर्क और स्वतंत्र चिंतन पर बल देने के फलस्वरुप हुआ।18-19वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में जैकब हेलियो द्वारा इस अवधारणा का दार्शनिक प्रतिपादन किया गया जिसके पश्चात् यह विचारधारा तेजी से लोकप्रिय हुई।
धर्मनिरपेक्षता से तात्पर्य उस विचारधारा से है जो धर्म को व्यक्तिगत जीवन का विषय मानती है, किसी अलौकिक अथवा अतिप्राकृतिक सत्ता में विश्वास का निषेध करती है और लौकिक जीवन को सुखमय और सार्थक बनाना व्यक्ति का कर्त्तव्य मानती है।
धर्मनिरपेक्षता को सामान्यतः एक नकारात्मक अर्थ के रूप में देखा जा सकता है किन्तु इसका सकारात्मक पक्ष भी है जिसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
इसकी आवश्यकता को इन संदर्भों में देखा जा सकता है-
1/धर्मनिरपेक्षता का सिध्दान्त मनुष्य जीवन में न केवल धर्म का निषेध करता है अपितु बौध्दिक तथा वैज्ञानिक उपायों द्वारा व्यापक अर्थ में मानव कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
2/यह जीवन में प्रत्येक समस्या पर तर्कसंगत रूप से विचार करने के लिए प्रेरित करता है और समुचित समाधान खोजने के लिए भी प्रेरणा देता है।
3/यह मनुष्य के स्वतंत्र बौध्दिक चिंतन तथा निष्पक्ष विवेचन को महत्व देता है जिसके चलते वैज्ञानिक विवेचन का मार्ग प्रशस्त होता है।
4/धर्मनिरपेक्षता इहलोकवादी सिध्दान्त होने के कारण इसी लोक की समस्याओं पर केंद्रित रहते हैं तथा मनुष्य को और उसके कल्याण को चिंतन का प्रमुख विषय मानने के कारण मानवतावाद की स्थापना करता है।
5/धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक पक्ष यह भी है कि वह नैतिकता को व्यक्तिगत एवं सामूहिक कर्त्तव्य मानते हैं तथा नैतिकता को लागू करने पर विशेष बल देते हैं।
6/धर्मनिरपेक्षता का सिध्दान्त इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि अलौकिक सत्ता में विश्वास न रखने के कारण यह अंधविश्वासों का भी निषेध करता है।
लक्षण-
a)मानवतावादी दर्शन।
b)धर्म तथा आध्यात्म को शिक्षा,राजनीति,सामाजिक व्यवहार,नैतिकता से पृथक रखना।
c)पारलौकिक सत्ता का निषेध।
d)स्वयं में विश्वास।
e)सुखमय तथा सार्थक बनाना।
सर्वधर्मसंभाव -यह अवधारणा इस दार्शनिक पक्ष पर आधारित है कि सभी धर्मों में एक समान मूलतत्त्व विद्यमान है जिस पर प्रत्येक धर्म का अवलम्बन होता है यदि ऐसे तत्व खोजे जा सकें तो सैद्धान्तिक दृष्टि से सभी धर्मों में समन्वय की संभावना हो सकती है जो व्यवहारिक जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सर्वधर्मसंभाव का एक मंतव्य यह भी है कि संसार में किसी भी धर्म को उत्कृष्ट या निकॄष्ट को प्रमाणित करना ना तो वांछनीय है न ही संभव है अतः सर्वधर्मसंभाव सभी धर्मों के प्रति समान रूप से श्रध्दा और महत्व देने की बात करता है।
गांधीजी के शब्दों में कहें तो सर्वधर्मसंभाव से तात्पर्य है कि"मेरा अपना विचार यह है कि सभी महान धर्म मूलतः समान है हमें दूसरे धर्मों का उसी प्रकार आदर करना चाहिए जैसे अपने धर्म का करते हैं।
सर्वधर्मसंभाव के विषय में ययह स्पष्ट है कि यह सभी धर्मों के मूल तत्वों को एक सा मानता है किन्तु उन्हें मिलाकर न तो एक विश्व धर्म बनाने की बात करता है न ही किसी विशेष धर्म को सार्वभौम मान लेता है।
सर्वधर्मसंभाव का महत्व-
1/यह विचारधारा धार्मिक कट्टरतावाद को नियंत्रित करने में पूर्णतः सक्षम है क्योंकि यह सभी धर्मों को समान मानते हैं और किसी को भी हेय दृष्टि से नहीं देखते।
2/यह विचारधारा स्वयं में लोकतांत्रिक है अर्थात् निज् धर्म की महत्ता के साथ परधर्म का सम्मान भी महत्वपूर्ण मानती है।
3/चूंकि इस विचारधारा में प्रत्येक धर्म का न केवल सम्मान होता है अपितु हर धर्म के नैतिक ज्ञान को अपनाने पर जोर दिया जाता है जिससे व्यक्ति का दृष्टिकोण विस्तृत होता है तथा उसके व्यक्तित्व का भी विस्तार होता है।
4/सर्वधर्मसंभाव चूंकि सभी धर्मों के प्रति उदार भाव रखने के लिए प्रेरित करता है अतः धर्म परिवर्तन जैसे संवेदनशील मुद्दों पर सांप्रदायिक समस्याओं को उठने से रोकता है।
5/सर्वधर्मसंभाव इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि यह स्वतः ही किसी राष्ट्र में पंथनिरपेक्षता का मार्ग प्रशस्त करता है।
इस प्रकार सर्वधर्मसंभाव धार्मिक सहिष्णुता के साथ-साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भी गारंटी देता है।
सर्वधर्मसंभाव स्थापित करने के उपाय:-
1/इस मनोवैज्ञानिक धारणा को तोड़ना कि मैं श्रेष्ठ हूं इसके लिए जरूरी है कि बचपन से ही सहअस्तित्व की भावना पिरोई जाए।
2/परिवारों को चाहिए कि यह शिक्षा देना बंद करें कि उनका धर्म श्रेष्ठ है और अन्य धर्म मिथ्या और साथ ही यह कि 'हमारे' साथ भेदभाव किया जा रहा है।
3/सभी स्कूलों,शिक्षण संस्थानों,सार्वजनिक संस्थानों विभिन्न नाट्य मंडलीयों एवं अन्य प्रसार माध्यमों से सभी धर्मों की शिक्षा देना सुनिश्चित किया जाए।
4/व्यक्तिगत, समाजिक तथा शासकीय स्तर पर सभी त्योहारों जो कि विभिन्न धर्मों के हों को मनाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाये जिससे पारस्परिक सामाजिक मेल-जोल बढ़ती है।
5/विभिन्न संस्थानों में यह सुनिश्चित किया जाये कि अलग-अलग धर्मों के अनुयायी परस्पर साथ-साथ शिक्षा लें अथवा कार्य करें।
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