Tuesday, 7 November 2017

- भारतीय कला -

~ भारतीय कला ~

भारतीय कला के प्रकार:-

1/मूर्त्त
प्रकार- a)संगीत

2/अमूर्त्त
प्रकार- a)वास्तुकला
          b)मूर्तिकला
          c)शिल्प
          d)चित्र

b)मूर्तिकला के प्रकार:- क)गांधार(अफगानिस्तान)
                               ख)अमरावती(कर्नाटक)
                               ग)मथुरा
मूर्तिकला के इन तीनों प्रकारों में मूलतः धार्मिक चित्रण पर जोर दिया गया है।

यूनेस्को की अमूर्त्त विरासत सूची में शामिल भारतीय कला:-
1)छाऊ(बंगाल,बिहार)
2)काल्बेलिया(राजस्थान)
3)मूडियट्टू(केरल)
4)नौरोज त्योहार(पारसी)
5)रम्मन(हिमाचल प्रदेश)
6)मुड़ियट्टम(केरल)
7)रामलीला(दिल्ली,हरियाणा,उत्तरप्रदेश)
8)परंपरागत वेदों का जप

संगीतवादियों की श्रेणियां :-
1)तंत(Cardophone):- इस श्रेणी के वाद्य यंत्रों में धुन रस्सी या तार के कंपन से उत्पन्‍न होती है।
उदाहरण- गिटार,वीणा,वायलिन।
2)सुशिर(Wind instruments):-इस प्रकार के वाद्य यंत्रों में खाली पालम या नली में हवा के द्वारा ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
उदाहरण- शहनाई, बांसुरी, हारमोनियम, trumpet.
3)अवनद्य(Membrane):-इस प्रकार के वाद्य यंत्रों में किसी ढांचे या लकड़ी के खोखले फ्रेम पर जानवर के खाल को खींचकर लगाया जाता है।
उदाहरण- मृदंग,तबला।
4)धनवारू:-ये ठोस पदार्थों से बने होते हैं जिन्हें या तो आपस में स्पर्श कर या हाथों द्वारा हिलाकर बजाया जाता है।
जैसे- मंजरा,धतकाल,काम।

चित्रकला की शैलियां -
1)राजस्थानी शैली - आमेर शैली, मेवाड़ शैली, बूंदी, जोधपुर, किशनगढ़।
2)पहाड़ी शैली - वसौली, कांगड़ा, जम्मू, चांबा, गढ़वाल।
3)मधुबनी
4)मंजूषा
5)नाथडार
6)फड़
7)वर्ली

शास्त्रीय नृत्य:-
1)भरतनाट्यम
2)ओड़िसी
3)कुचीपुड़ी
4)मोहनीअट्टम
5)कत्थक
6)मणिपुरी

•भरतनाट्यम - भारत के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यों में से एक है जिसका संबंध तमिलनाडु से है।यह नाम भरत शब्द से लिया गया लेकिन इसका संबंध नृत्य शास्त्र से है इसमें जीवन के तीन मूल तत्व दर्शनशास्त्र धर्म और विज्ञान हैं।भरतनाट्यम को प्राचीनकाल में सादिर या दासी नाट्यम नाम से जाना जाता था।प्राचीनकाल में इसका अभ्यास नृत्यांगनाओं के एक वर्ग जिन्हें देवदासी के रूप में जाना जाता है के द्वारा मंदिरों में किया जाता है।
           कालांतर में इस नृत्य को शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करते हुए आम जनजीवन से जोड़ा गया है।
      यामिनी कृष्णमूर्ति, सोनलता मानसिंह, पद्मा सुब्रह्मण्य, नीला सैमसन आदि भरतनाट्यम की प्रसिद्ध नृतिका हैं।

•ओड़िसी - ओड़िसी नृत्य को पुरातात्विक साख्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित शास्त्रीय रूपों में से एक माना जाता है।ओड़िसा के इस पारंपरिक नृत्य का जन्म मंदिर में नृत्य करने वाले देवदासियों से हुआ था।इसका उल्लेख शिलालेखों में भी मिलता है साथ ही कोणार्क के सूर्य मन्दिर के केंद्रीय कक्ष में इसका उल्लेख मिलता है।इसमें त्रिभंग पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, इसका अर्थ है शरीर को तीन भागों में बांटना इसकी अभिव्यक्तियां भरतनाट्यम के समान होती है, यह नृत्य कृष्ण के प्रति समर्पित है।संयुक्ता मानसिंह,मधुमिता राउत,सोनल,प्रियंवदा मोहंती आदि प्रसिद्ध नर्तिका हैं।

•कुचीपुड़ी - कुचीपुड़ी आंध्रप्रदेश का स्वदेशी नृत्य है, जिसने इसी नाम के गांव में जन्म लिया।इसका मूल नाम कुचेलापुरम था।इस नृत्य का जन्म भी अन्य नृत्यों के समान धर्म व मंदिरों से जुड़ा हुआ था।एक लंबे समय से यह कला आंध्रप्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिकोत्सव के मौके पर प्रदर्शित की जाती है।कालान्तर में इस नृत्य कला की परंपरा में ह्रास आते गया।जिसे बाद में कुछ कला विशेषज्ञ लोगों ने पुनः प्रतिष्ठित किया।इस नृत्य को कभी-कभी अड्डा भागवतम् भी कहते हैं।इसका सबसे अधिक लोकप्रिय रूप मटका नृत्य है।आज के समय में कुचीपुड़ी में भरतनाट्यम के समान अनेक परिवर्तन हो गये हैं और यह नृत्य नाटिका से घटकर नृत्य तक रह गया है। चिंताकृष्ण मुरली, यामिनी कृष्णमूर्ति, राजा और राधा रेड्डी आदि कुचीपुड़ी के प्रसिद्ध नर्तक हैं।

•मोहनीअट्टम - यह केरल की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला अर्धशास्त्रीय नृत्य है जो कत्थकली से भी पुराना माना जाता है,मंदिरों में देवदासियों के द्वारा किया जाता है।

•वालाढोक - इस नृत्यकला को पुनः नया जीवन प्रदान किया गया। इस नृत्य की विषयवस्तु प्रेम तथा भगवान के प्रति समर्पण है। नृत्यांगना द्वारा धीमी और मध्यम गति में अभिनय के द्वारा भाव प्रकट किया जाता है। इसकी गतिविधियां ओड़िसी के समान भव्य परिधान सादे और आकर्षक जबकि भाव रूप में भरतनाट्यम के समान लगता है।इसके लिए संगीत की कर्नाटक शैली का उपयोग होता है और साथ में हाल के वर्षों में मृदंग और वायलिन का भी उपयोग होने लगा है इसकी प्रमुख नृत्यांगना मालती शिवाजी हैं।

•सत्तरिया - इसे हाल ही में संगीत कला अकादमी में प्रमुख शास्त्रों की सूची में शामिल किया है।यह असम राज्य में 15वीं सदी में वैष्णव धर्म के संस्थापक शंकरदेव द्वारा किया जाता था।अब महिलाएं भी यह नृत्य करती हैं।इसके वाद्ययंत्रों में भांज, बांसुरी और खोल हैं।इसके प्रमुख कलाकारों में दैविक व प्रकृति ओरा हैं।

•कथकली - यह केरल का एक शास्त्रीय नृत्य है जिसका अर्थ है एक कथा का नाटक या कहानी कहना या नृत्य नाटिका।इस नृत्य में अभिनेता रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों के चरित्रों का अभिनय करते हैं।ये अत्यंत रंगबिरंगा नृत्य है जिसके नर्तक उभरे हुए परिधानों, दुप्पटों, आभूषणों एवं मुकुट से सजे होते हैं।विभिन्न विशेषताएं मानव,देवता,दैत्य आदि को शानदार वेशभूषा एवं परिधानों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।इसके चरित्र कभी बोलते नहीं है।केवल उनके हाथों के हाव-भाव की उच्च विकसित भाषा तथा चेहरे की अभिव्यक्ति होती है जिसके द्वारा विभिन्न भावनाओं को प्रकट किया जाता है इसमें अधिकांशत: पुरूष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं। हालाँकि कुछ समय से महिलाओं को भी इसमें लिया जा रहा है इसी से मिलती-जुलती एक अन्य कला घुल्तल/ओट्टपुल्लल को गरीबों की कथकली भी कहा जाता है।
   कृष्णनकुट्टी, माधवन एवं आनंद शिवरामन्, उदयशंकर, शांताराव आदि कथकली के प्रसिद्ध नर्तक हैं।

•कत्थक - शास्त्रीय नृत्य में कत्थक का नृत्य रूप सौ से अधिक घुंघरूओं को पैरों में बांधकर तालबद्ध पदचाप विहंगम चक्कर द्वारा पहचाना जाता है।कत्थक का जन्म उत्तर भारत में हुआ किन्तु फारसी व मुस्लिम प्रभाव से यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजक तक पहुंच गई।इस नृत्य को नटवरी नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।कत्थक शब्द का उद्भव कथा से हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है कहानी कहना।लगभग 15वीं शताब्दी में इस नृत्य परंपरा में मुगल नृत्य और संगीत के कारण परिवर्तन आया।इस नृत्य में अब धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया जाने लगा।आगे चलकर इस नृत्य परंपरा के दो प्रमुख घराने बने -
a)लखनऊ घराना
b)जयपुर घराना
              दमयंती जोशी, भारती गुप्ता, सितारा देवी कत्थक के प्रमुख नर्तकी हैं।


•मणिपुरी - पूर्वोत्तर के मणिपुर क्षेत्र से आए शास्त्रीय नृत्य मणिपुरी नृत्य भारत के अन्य नृत्य रूपों से भिन्न है यह धीमी गति से चलता है तथा सांकेतिक भव्यता और मनमोहक गति से भुजाएं धमनियों तक प्रवाहित होती है।यह नृत्य रूप 18वीं शताब्दी में वैष्णव संप्रदाय के साथ विकसित हुआ।इसमें मणिपुर राज्य की संस्कृति को दर्शाया जाता है।यह प्राथमिक रूप से भगवान विष्णु के जीवन की घटनाओं को प्रदर्शित करता है।संतुलन एवं शक्ति को बांधे रखना इस नृत्य शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं।
आबेली बहनें, सविता मेहता, रीता देवी, खंबल आदि इसके प्रसिद्ध नर्तक हैं।


•चित्रकला शैली :-
सर्वप्रथम भारत में शैल चित्रों की खोज का श्रेय अंग्रेज जार्ज काकर्बन तथा आर्चिवाल्ड कालाईल को जाता है क्योंकि इन्होंने ही भारत में सर्वप्रथम प्रागैतिहासिक चित्रकला की खोज की।भारतीय चित्रकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है पाषाणकाल में मानव ने गुफाओं में चित्रण करना प्रारंभ कर दिया था इसके प्रमाण पचमढ़ी और भीमबेटिका की गुफाओं में है।इन चित्रों में शिकार, पशु-पक्षियों एवं स्त्रियों आदि के दृश्य थे।

1) हड़प्पा संस्कृति की चित्रकला- हड़प्पा की खुदाई के पश्चात प्राप्त मुहरें, मिट्टी के बर्तन तथा अन्य वस्तुओं से पशु-पक्षी, मानव आकृतियाँ तथा कुछ ज्यामितीय नमूने मिले हैं।इस काल के विभिन्न चित्रों में नर्तकी का चित्र, योगी का चित्र इत्यादि कुछ प्रमुख चित्र हैं।
छत्तीसगढ़ - जोगीमारा की गुफा (सरगुजा)
2) अजंता की गुफा- भारतीय कला के इस पावन तीर्थ में तीस गुफाएं हैं जो दो प्रकार की हैं:-
क)चैत्य(स्तूप-पूजा का स्थान)
ख)विहार(रहने का स्थान)
        इसमें सबसे बड़ी 29वीं गुफा है तथा नौवीं व दसवीं गुफा सबसे प्राचीन मानी जाती है और 17वीं गुफा में सबसे अधिक चित्र हैं अजंता के चित्र मुख्यतः बौध्द से संबंधित हैं।
3) बाघ गुफाएँ- धार जिला(मध्यप्रदेश)में स्थित है।बाघ नदी के पास होने की वजह से ये इसका नाम बाघ गुफा है।
4) बादामी के गुफा क्षेत्र- मुंबई के इहोल नामक स्थान के निकट ये गुफाएं स्थित हैं। इसके चार गुफा एवं मंदिरों का निर्माण चालुक्य शासकों ने किया जो कि शैव धर्म से संबंधित हैं।
5) सित्तनवासन की गुफाएं- चेन्नई में तंजौर के पास अवस्थित है। जैन धर्म से संबंधित तथा अजंता व बाघ गुफाओं से मिलते-जुलते हैं।

•पाल शैली :- 9वीं से 12वीं शताब्दी तक बंगाल में पाल वंश का शासन रहा।इसकी शैली की विषयवस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित रही है। तारंग में ताड़पत्र और बाद में कागज पर बनाये जाने वाले चित्रों में वज्रयान बौद्ध धर्म के दृश्य अंकित हैं।इस शैली ने तिब्बत और नेपाल की चित्रकला को भी प्रभावित किया है।

•अपभ्रंश शैली :- यह पश्चिम भारत में विकसित नये चित्रों की शैली थी जो 11वीं से 15वीं शताब्दी में विकसित हुई। प्रारम्भ में ताड़ पत्रों पर और बाद में काग़ज़ पर चित्रित हुई।अपभ्रंश शैली के चित्रों की सर्वप्रमुख विशेषता है चेहरे की विशेष बनावट, नुकीलीनाकतथाआभूषणोंकी अत्यधिक सज्जा। प्रारम्भ के चित्रों में जैन धर्म से सम्बंधित घटनाओं का चित्रण हुआ। परंतु बाद में वैष्णव धर्म से प्रभावित चित्र बनाये गये।

•सल्तनत काल :- इस काल के प्रसिद्ध मंदिरों में 1553 ईसवी में चित्रित फिरोजशाह तुगलक का चित्र तथा बीकानेर की रंगनाला लघु चित्रावली विजयनगर एवं तुर्की शैलियों के मिश्रित रूप हैं।

•मुगलकालीन चित्रकला :- मुगल साम्राज्य का इतिहास सांस्कृतिक प्रगति के लिए उल्लेखनीय है वस्तुतः मध्यकालीन भारतीय चित्रकला मुगल सम्राटों के प्रोत्साहन का ही परिणाम है। मुगल चित्रकला का विकास हुमायूं के शासनकाल से प्रारम्भ हुआ था। हुमायूँ के ईरान निवास के दौरान मीर सैय्यद अली और ख्वाजा अब्दुसम्मद के द्वारा पांडुलिपि का चित्रण कराया।
             ईरानी शैली का प्रभाव मुगल दरबार के चित्रकारों पर निर्णायक ढंग से पड़ा।यह स्मरणीय है कि भारतीय चित्रकार अधिकतर धार्मिक विषयों का चित्रण करते थे जबकि ईरानी चित्रकारों ने राजदरबार के जीवन, युध्द के दृश्य आदि का चित्रण किया।आगे चलकर अकबर के समय मुगल चित्रकला ने नया रूप धारण कर लिया जिस पर अकबर की सांस्कृतिक समन्वय की नीति का प्रभाव दिखाई देता है।विशेषकर राजपूत चित्रकला ने मुगल शैली को प्रभावित किया।जिसकी विशेषताओं में चौड़े व्रज की जगह गोल व्रज का प्रयोग और गहरे नीले & लाल रंग का प्रयोग होता है।
              अकबर के द्वारा फतेहपुर सीकरी में चित्रकारों के लिए कार्यशाला का निर्माण कराया।इसके समय के उल्लेखनीय चित्रकारों में बसावन व जसवन्त के नाम प्रमुख थे।अकबरकालीन चित्रों में प्रमुख हैं :- भारतीय कथाओं के चित्र, ऐतिहासिक चित्र, अकबर नामा, रज्मनामा( महाभारत का फारसी में अनुवाद आदि।
              अकबर के काल में यूरोपीय चित्रकला का प्रभाव भी मुगल शैली पर पड़ा और मुगल चित्रकारों ने दो विशेषताएँ ग्रहण की -
1)Portrait (व्यक्ति विशेष के चित्र)
2)अग्रसंक्षेपण(दृश्य में आगे दिखने वाली वस्तुओं के बड़े रूप को छोटे आकार में बनाना, जिससे चित्रों में उचित अनुपात संभव हुआ।
           जहांगीर का शासनकाल मुगल चित्रकला के चरमोत्कर्ष का युग था इस साल में दो नयी विशेषताएं सामने आई-
1) मोरक्का:- अर्थात् चित्रों का संकलन विषयवस्तु के अनुसार करना जैसे पशुओं का चित्र एक जगह,पक्षियों का चित्र एक जगह।
2) किनारों का सुंदर चित्रण:- शाहजहाँ का शासनकाल चित्रकला की दृष्टि से शिथिलता का काल है क्योंकि उसकी रुचि मुख्यतः स्थापत्य कला में थी और चित्रकला का चरमोत्कर्ष जहांगीर के काल में प्रारंभ हो चुका था अतः इस काल में चित्रकला में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
                औरंगजेब का शासनकाल वास्तविक रूप से पतन काल है दरबार में कट्टरपंथी प्रभाव के कारण चित्रकला व अन्य कलाओं को प्रोत्साहन मिलना बंद हो गया फलस्वरूप मुगल दरबार से कलाकारों का पलायन हुआ जिन्हें अन्य क्षेत्रीय शासकों ने अपने यहां संरक्षण दिया फलतः आगे चलकर अनेक क्षेत्रीय शैलियों का विकास हुआ।

आधुनिक चित्र शैलियाँ :- भारत में चित्रकला के आधुनिक युग की शुरूआत 1900 से शुरू हुई। इतने थोड़े से समय में भारतीय चित्रकला ने जो प्रगति की इसका श्रेय वर्तमान पीढ़ी के उन सभी कलाकारों को है जिन्होंने आर्थिक,सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों की चिंता किये बिना अपनी साधना जारी रखी।ये कलाकार विभिन्‍न वर्गों से संबंधित है इन सब ने मिलकर खो चुके मूल्यों को पुनर्जीवित करने और अपनी स्वदेशी कला को नया कलेवर देने का प्रयास किया।साथ ही आत्मविश्‍वास के साथ कुछ नया करने की प्रेरणा भी दी।
इन चित्रकारों में कुछ प्रमुख नाम हैं - राजा रवि वर्मा, अवनिन्द्र नाथ ठाकुर, एम.एफ. हुसैन, तैयब्ब मेहता, कृष्ण रेड्डी।

• महत्वपूर्ण शैलियाँ :-

1)मधुबनी पेंटिंग(मिथिला शैली) -इस चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना परंतु इसे ख्याति हाल के दशकों में प्राप्त हुई।इस शैली के चित्र दो प्रकार के होते हैं:-
a/भित्ति चित्र
b/अरिपन

a/भित्ति चित्र:- इसके दो रूप देखे जा सकते हैं।पहला घर की सजावट और दूसरा कोहबर घर(बाहरी हिस्से) की सजावट।प्रथम श्रेणी के चित्र धार्मिक महत्व के होते हैं :- जैसे दुर्गा, राम-सीता, लक्ष्मी आदि।
जबकि दूसरी श्रेणी में प्रतीकात्मक चित्र बनाये जाते हैं जैसे पशु-पक्षी,यक्ष-यक्षिणी।इस शैली के चित्र मुख्यतः दीवारों पर ही बनाये जाते हैं परंतु हाल में कपड़े,कागज पर भी चित्रांकन बढ़ी है।प्रयोग किये जाने वाले रंग अधिकतर वनस्पतियों से प्राप्त किये जाते हैं तथा गहरे व चमकीले रंगों की प्रधानता होती है।

b/अरिपन:- यह आंगन में या चौखट पर जमीन के सामने जमीन पर बनाये जाने वाले चित्र हैं।इसे बनाये जाने में चांवल के आटे और पानी का इस्तेमाल होता है।यह प्रायः उंगली से बनाये जाते हैं।इस शैली के चित्रकारों में लगभग 90% महिलाएँ ही हैं।यही कारण है कि इस शैली को महिलाओं की शैली भी कहा जाता है।
प्रमुख कलाकार- पद्मश्री सीतादेवी

2)पटनाकलम चित्रकला - इसमें लघुचित्रों का निर्माण करते हैं जो मुख्यतः कागज व हाथी दांत पर चित्रित किये जाते हैं।चित्रों के विषय दैनिक जीवन से लिए जाते हैं साथ ही पशु-पक्षियों तथा प्राकृतिक सौंदर्य का भी चित्रण मिलता है।

3)मैसूर चित्रकला - इसका उद्भव विजयनगर राजाओं के शासनकाल में हुआ और वाडियार वंश के राजाओं ने इसे संरक्षण दिया इन चित्रों के प्रमुख विषय हिन्दू देवी-देवता व पौराणिक कथाएं थी साथ ही पशु-पक्षी और पौराणिक गाथाओं का भी चित्रण है। इसमें प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता था जिसे खनिज, पेड़-पौधों व सूक्ष्म रेखाओं को बनाने हेतु घास का प्रयोग होता था। मैसूर के जगनमोहन पैलेस की दीवारों पर इस शैली के चित्र लगे हैं।

4) पत्ता चित्रकला - ये ओड़िसा की पारंपरिक चित्रकला है जिसमें हिन्दू पौराणिक कथाओं विशेषकर भगवान जगन्‍नाथ और वैष्णव भगवान से संबंधित चित्रण किये जाते हैं इसका शाब्दिक अर्थ कैनवास चित्रण से होता है इसमें प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है।

5)राजपूत शैली - मुगलकाल के अंतिम दिनों में भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों में अनेक राजपूत राज्यों की उत्पत्ति हो गई।जिसमें आगे चलकर विशेष प्रकार की चित्रकला शैलियों का विकास हुआ। ये शैलियां विशुद्ध रूप से हिन्दू परंपराओं पर आधारित थी।
इसके अंतर्गत निम्न शैलियां मानी जाती है:-
1/मेवाड़ शैली :-यह शैली राजस्थानी जनजीवन व धर्म का जीता जागता स्वरूप प्रस्तुत करती है। प्रसिद्ध चित्रकार श्रीरंगधर को इसका संस्थापक माना जाता है।इसका केन्द्र उदयपुर था। राधाकृष्ण की लीलाएं इसकी मुख्य विषयवस्तु रही। इस शैली के रंगों में लाल,पीला तथा केसरिया प्रमुख हैं।
मानव आकृतियों में अंडाकार चेहरा, लंबी नुकीली नाक, मीन(मछली) नयन तथा आकृतियाँ छोटे कद की हैं। प्राकृतिक दृश्यों का भी अलंकरण है कालान्तर में श्रृंगार रस का चित्रण अत्यंत सजीव तरीके से किया गया।

2/किशनगढ़ शैली :- इस शैली का स्वतन्त्र विकास राजा किशनसिंह के समय हुआ जो कि नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए।कृष्ण तथा गोपियों की पीड़ा का चित्र इस शैली का प्रमुख विषय रहा है तथा 'बणीठणी' शैली इसके अंतर्गत विश्व प्रसिद्ध चित्रण रहा है।
            किशनगढ़ कला का भारतीय लघुकला में अद्वितीय स्थान है। चित्रण विशेष रूप से चेहरे पर कोमल लिए किया गया है जिसमें कहीं भी भारीपन नहीं है। स्त्री-पुरूष अनेकानेक आभूषणों से सज्जित हैं साथ ही प्रकृति चित्रण में लता, वृक्ष आदि को मनोदशा के प्रतीकात्मक रूप में चित्रित किया गया है। चित्रों में काले, सफेद, नीले तथा हरे रंगों की प्रधानता है, साथ ही भाव अभिव्यक्ति की गहराई अद्भुत है।
प्रमुख कलाकार:- भवानी दास, निहालचंद्र, सीताराम आदि हैं।


•पहाड़ी शैली :- भारत के अन्य भागों की तरह कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राचीन भारतीय चित्रकला का संशोधित रूप प्रस्तुत होता रहा है।
             ऐसी संपूर्ण शैली पहाड़ी शैली के नाम से जानी जाती है इसके प्राचीनतम चित्र वसौली शैली थी। बाद में इसका स्थान कांगड़ा शैली ने ले लिया।

a/वसौली :- इस शैली में सामाजिक तथा धार्मिक दोनों प्रकार के चित्र हैं।यह चित्रकला अपने रंगों व रेखाओं की सजीवता के लिए मानी जाती है। अधिकांश क्षेत्र आयताकार खाने में बने हैं जिसमें लाल रंग के विशेष(मार्जिन) का प्रयोग हुआ है।
      भावप्रवण आंखों का चित्रण वसौली शैली की प्रमुख विशेषता है। रंगों में गेरूआ, पीला, हरा,भूरा प्रमुख है।उसकी एक विशिष्ट तकनीक आभूषणों को सफेद रंग की बूंदों के माध्यम से दर्शाना है, इस शैली के प्रमुख विषय राधा कृष्ण की प्रेम कथाएं हैं।

b/कांगड़ा शैली - इस शैली को 18वीं सदी में राजा संसादचंद के समय प्रसिद्धि मिली। इसका भी मुख्य विषय प्रेम व भक्ति का चित्रण रहा है साथ ही प्राकृतिक दृश्यों, पशु-पक्षियों इत्यादि का भी मनोहारी चित्रण हुआ है संपूर्ण शैली में कांगड़ा शैली सर्वाधिक परिपूर्ण है।
               भागवत पुराण तथा गीत में अभिव्यक्त कृष्ण लीलाएं, हिन्दू पौराणिक कथाएं, राघमाला श्रृंखलाएं इत्यादि इस शैली के प्रमुख विषय थे।आगे चलकर इस शैली का पतन हो गया।

c/गड़वाल शैली :- उद्गम -कश्मीर


• प्रमुख जगह :-
1)भारतीय संग्रहालय - कलकत्ता
2)विक्टोरिया - कलकत्ता
3)एशियाटिक सोसायटी संग्रहालय - कलकत्ता
4)नेशनल गैलरी आफ माडर्न आर्ट - दिल्ली
5)वड़ोदा संग्रहालय एवं चित्रशाला
6)प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम - मुंबई
7)भारत भवन - भोपाल


• स्थापत्य कला-
                      भारत में स्थापत्य कला और वास्तुकला सिंधु घाटी सभ्यता की खोज से प्रकाश में आई। भारत में यह प्राचीन काल से बहुत विकसित थी। सिंधु घाटी बस्तियों के निर्माताओं का नगर नियोजन अत्यंत परिपक्व था।चौड़ी समकोण पर काटती सड़कें, सड़कों के किनारे ढकी हुई नालियां, पकी मिट्टी की ईंटों की प्रयोग जगह जगह बने वृहद स्नानागार व अन्नागार, जल-निकास की उत्तम प्रणाली इत्यादि बातों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कला और शिल्प उस समाज में नत अवस्था में थे यद्यपि उनमें किसी मंदिर, देवालय आदि के अभाव से यह अनुमान होता है कि वहां धार्मिक विचारों का कुछ विशेष स्थान न था और यदि था तो वह निराकार था।
               इसी तरह सिंधु सभ्यता के निवासियों को मूर्ति कला का भी ज्ञान था जिन्होंने धार्मिक व अधार्मिक दोनों प्रकार की मूर्तियों का निर्माण किया।इनके निर्माण की चार शैलियां प्रचलित थी। धातुओं को गलाकर, सांचे में ढालकर मूर्ति बनाना, ठप्पा लगाकर मूर्ति बनाकर तपाना, छेनी से पत्थर को तराशना।


• मौर्यकालीन कला -

मौर्यकाल में दो शैलियां थी:-
a)राजकीय कला
b)लोक कला

a)राजकीय कला :-इसका दर्शन राजभवन, पाषाण स्तम्भ तथा गुहा चैत्यों के रूप में मिलता है वहीं लोक कला मिट्टी तथा काष्ठ निर्मित है।
b)लोक कला :-मौर्य सम्राट तथा उसके पौत्र की शैल गुहाओं का प्रमाण मिला है जो कि बराबर और नागार्जुनी की पहाड़ियों में है।
        मौर्यकाल की सर्वकृष्ट कृत्तियां अशोक के एकात्मक प्रस्तर स्तम्भ थी। ये स्तम्भ देश के विभिन्‍न स्थलों में प्राप्त हुए हैं। जिनका निर्माण चुनार के बलुआ पत्थरों से किया गया।इनकी पालिश आज भी बरकरार है।


शुंग व सातवाहन कालीन स्थापत्य कला :-

इस काल में कला का काफी विकास हुआ। इमारतों के निर्माण में पत्थर का उपयोग बड़े पैमाने पर हुआ। इस काल में स्तूप कला, सांची, बोधगया, मरहुत(सतना) में हुई। साथ ही शैल में उत्तीर्ण करने की कला का भी विकास हुआ जिसके उदाहरण कार्ले, नासिक तथा अजंता की गुफाएं हैं। इस काल तक बौद्ध धर्म हीनयान ही था अर्थात् भगवान बुद्ध की स्थिति प्रतीकों द्वारा दी गई है। इस काल में कब का एकमात्र लक्ष्य मानव जीवन के ऐहिक स्वरूप का दिग्दर्शन है।


गुप्तकालीन स्थापत्य कला :-

गुप्तकाल में कला की विभिन्‍न विधाओं का सम्यक् विकास हुआ इसी युग से कला का विदेशी प्रभाव क्रमशः समाप्त हो गया एवं धर्म तथा कला का समन्वय स्थापित हुआ। कला और साहित्य के विकास की दृष्टि से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा गया। इसी काल से मंदिरों का निर्माण प्रारम्भ होता है और नागर शैली मंदिर निर्माण की प्रथम शैली के रूप में आती है। इस शैली में मंदिरों(वैष्णव) का निर्माण सामान्यतः यह ऊंचे चबूतरे पर होता था, और चढ़ने हेतु सीढ़ियां बनाई जाती थी। मंदिर के ऊपर शिखर तथा मंदिर के अंदर सबसे भीतर स्थित गर्भगृह में मूर्ति की स्थापना की जाती थी।
इस काल में बनाये गये कुछ प्रमुख मंदिर-
1)देवगढ़ का दशावतार मंदिर
2)भीतरगांव का विष्णु मंदिर
3)नचनाकुठार का पार्वती मंदिर
4)सिरपुर का मंदिर
                गुप्त राजाओं के युग में ही बौद्ध स्तूपों तथा गुहा स्थापत्य का भी विकास हुआ।


•राजपूतकालीन स्थापत्य कला :-

राजपूतकाल में मंदिर निर्माण की तीन शैलियाँ प्रचलित थीं -
1)नागर शैली - यह शैली समस्त उत्तर भारत में तथा हिमालय से लेकर विंध्दय तक के क्षेत्र में प्रचलित थी जिसमें उड़ीसा के मंदिर शुध्द नागर शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।
2)बेसर शैली - इसे चालुक्य शैली भी कहा जाता है इसका प्रयोग अंतिम चालुक्य शासकों ने किया सातवीं और आठवीं शताब्दी में इन क्षेत्रों में(कर्नाटक) नागर तथा द्रविड़ शैलियों के मंदिरों का निर्माण होता था। इसने आगे चलकर मिश्रित होकर बेसर शैली का रूप ले लिया। इस शैली के बने मंदिर गुजरात राजस्थान और कर्नाटक में पाये जाते हैं।
उदाहरण:- विरूपाक्ष मंदिर (कर्नाटक)
               मोठेरा मंदिर (राजस्थान)
               दिलवाड़ा मंदिर (राजस्थान)
3)द्रविड़ शैली - इस शैली का प्रसार कृष्णा नदी और कुमारी अंतरिम के मध्य था तथा आधुनिक तमिलनाडु प्रदेश में था। यह शैली धीरे-धीरे पल्लव तथा चोल शासकों के द्वारा विकसित की गई। इस शैली के मंदिर आयताकार शिखर पिरामिड के आकार के होते हैं बाद में मंदिरों में विशाल प्रवेश द्वार(गोपुरम) अनेक स्तम्भयुक्त मंडप तथा गलियारे जोड़ दिए।


• सल्तनतकालीन स्थापत्य कला (तुर्क-अफगान संस्कृति) -

             भारतीय एवं इस्लामी प्रभावों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाली संश्लेषित संस्कृति का अत्यंत महत्वपूर्ण उदाहरण सल्तनतकालीन स्थापत्य कला में देखा जा सकता है। तुर्क-अफगान शासकों के संरक्षण में एक नयी शैली का विकास हुआ जो हिन्द इस्लामी शैली कहलाती है जिसमें भारतीय क्षैतिज रैली और इस्लाम मेहराब(arcuate) धरनी शैली का सुंदर सम्मिश्रण था।
             शुरूआत में तुर्क शासकों द्वारा अनेक भवनों का निर्माण कराया गया परंतु यह कार्य कठिन सिध्द हुआ। इसका मूल कारण यह था कि इस इस्लामिक शैली से तुर्क शासक परिचित थे वह भारतीयों के लिए नई थी। दूसरी ओर जिस भारतीय परंपरा से यहां के कारीगर परिचित थे वह तुर्कियों के लिए उपयुक्त नहीं थे फलतः इस काल में दोनों परंपराएं न एक दूसरे के निकट आई और एक दूसरे में विलीन हो गई और एक नयी स्थापत्य शैली का विकास हुआ जो हिन्द स्थापत्य शैली कहलाया।

इसका विकास तीन चरणों में हुआ -
प्रथम चरण - यह ममूलक शैली के नाम से विख्यात है इसे प्रयोगात्मक एवं कामचलाऊ कहा गया। प्रमुख उदाहरण है दिल्ली की कुवत-उल-इस्लाम मस्जिद एवं अजमेर का अढ़ाई दिन का झोपड़ा तथा दिल्ली का कुतुबमीनार।
द्वितीय चरण - तुर्क अफगान स्थापत्य शैली के विकास का दूसरा चरण खिलजी शासनकाल में संपन्न हुआ जिसका उदाहरण दिल्ली स्थित अलाई दरबार में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, यहां पहली बार गुंबद का निर्माण सफल ढंग से किया गया और सजावट में इस्लामी शैली के अनुकूल थी। एक अन्य महत्वपूर्ण इमारत दिल्ली स्थित जमातखाना मस्जिद है।
तृतीय चरण - अंतिम चरण तुगलक काल में देखा जा सकता है इस काल के आरंभ में अलंकार और सजावट की परंपरा बनी रही, उदाहरण स्वरूप दिल्ली में गयासुद्दीन तुगलक का मकबरा। बाद के काल में बनी इमारतें अत्यंत सरल व साधारण प्रकार की है जिनमें अलंकार नहीं के बराबर है यद्यपि तुगलक शैली में कुछ नयी विशेषताएं भी देखी जा सकती है जैसी सलामी दीवारें, अष्टकोणीय मकबरे और किलेबंद बस्तियां। 1398 में तैमूर के आक्रमण के साथ तुगलक साम्राज्य का अंत हुआ। और एक केंद्रीय शैली के स्थान पर अनेक क्षेत्रीय शैली का विकास हुआ जो आगे चलकर मुगल शैली में विलीन हो गई।


•विजयनगर की स्थापत्य कला -

उदाहरण - 1)हजार स्तम्भ का मंदिर(देवराय द्वितीय के द्वारा
             2)विठ्ठलस्वामी का मंदिर(कृष्णदेव राय)
             3)कांचीपुरम का एकाग्रनाथ मंदिर
    इस काल के मंदिरों में मंडप रहता था जहां पूजा होती थी उसके बाद गर्भगृह और शिखर(विमान) रहता है।ये मुख्यतः दक्षिण भारत के मंदिरों में होता है जहां एक गोपुरम(प्रवेश द्वार) होता है तथा दक्षिण के मंदिरों में सीढ़ियां नहीं होती।


•मुगल स्थापत्य कला -

तैमूर के आक्रमण और मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत में अनेक क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ जिसके अधीनस्थ क्षेत्रीय शैलियां विकसित हुई। मुगल सम्राटों ने इन विभिन्‍न क्षेत्रीय शैलियों का एकीकरण किया और इसमें ईरानी शैली की नई विशेषताओं का समावेश किया। फलतः एक नई और अधिक सुसंपन्न और सुसंस्कृत शैली का विकास संभव हुआ। भारत में मुगल स्थापत्य का विकास वास्तव में अकबर के बाद ही आरंभ हो सका।
             यद्यपि बाबर हुमायूँ और शेरशाह सूरी के द्वारा भी कुछ इमारतों का निर्माण कराया गया तथापि अकबर के काल में ही एक नई शैली का पूर्ण विकास हो सका, जिसकी आर्थिक उन्नति जहांगीर और शाहजहाँ के काल में हुई।शाहजहां के अधीन मुगल स्थापत्य कला अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची। इसलिए इसे स्वर्णयुग कहते हैं। परन्तु इसके बाद ही पतन की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो गई और औरंगजेब के मरणोपरांत मुगल साम्राज्य के साथ मुगल स्थापत्य कला का भी पतन हो गया।
              मुगल स्थापत्य कला का विकास तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है -
1)अकबर और जहांगीर का काल (1556-1627)
2)शाहजहां का काल (1627-1656)
3)औरंगजेब का काल (1657-1707)
            प्रथम काल में निर्मित मुगल भवनों में हुमायूँ का मकबरा अत्यंत महत्वपूर्ण है। चारबाग शैली का यह प्रथम मकबरा है जिसका निर्माण भारत में हुआ। अकबर के शासनकाल में आगरा, लाहौर और फतेहपुर सीकरी में अनेक भवनों का निर्माण हुआ। निर्माण मुख्य रूप से लाल पत्थरों से किया गया, कहीं-कहीं संगमरमर की पच्चीकारी(जुड़ा हुआ) का भी प्रयोग किया गया है।
अकबर के काल में निर्मित इमारतें - लाल किला, बुलंद दरवाजा, जामा मस्जिद, दीवान-ए-खास, शेख सलीम चिश्ती का मकबरा, पंचमहल आदि।
           इन भवनों के निर्माण में भारतीय और ईरानी शैलियों का सुंदर समन्वय हुआ।अकबर कालीन भवनों की सबसे बड़ी विशेषता इनमें शक्ति और शौर्य का बोध होता है।
          जहांगीर के समय की स्थापत्य शैली भी अकबर के काल जैसी ही है। अंतर केवल इतना है कि इस समय सजावट पर थोड़ा ज्यादा ध्यान दिया गया। वस्तुतः जहांगीर के काल को अकबर और शाहजहाँ की शैली को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में देखा जाता है।इस काल के कुछ महत्वपूर्ण भवन हैं:-
सिकंदरा में निहित अकबर का मकबरा, एतमाद्दुदौला का मकबरा।इसी काल में कश्मीर और लाहौर में अनेक उद्यानों का निर्माण कराया गया।
            शाहजहाँ के काल में मुगल स्थापत्य कला अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची। आगरा और दिल्ली में उसके द्वारा अनेक भवनों का निर्माण कराया गया जो अपनी सुंदरता और सजीवता के लिए प्रसिद्ध है।इसका काल संगमरमर के भवनों का काल है।साथ ही भवनों की सजावट कला में भी परिवर्तन आया।अब संगमरमर के रंगीन पत्थरों को भरकर सजावट का काम किया गया जिसे पिथत्रादुरा कहते हैं। जिसका पहला उपयोग एतमाद्दुदौला के मकबरे में हुआ। इसी काल में गुंबद की कलाकारी भी सुंदर हो गई और लघु मेहराबों का निर्माण भी प्रारम्भ हुआ।
शाहजहां के काल की कुछ प्रमुख इमारतें - ताजमहल, एतमाद्दुदौला का मकबरा, शीशमहल, नगीना मस्जिद, लालकिला, जामा मस्जिद, मोती मस्जिद।
            मुगल स्थापत्य कला का स्वर्णयुग शाहजहाँ के साथ ही समाप्त हो जाता है। औरंगजेब के शासनकाल में न तो भवनों की संख्या अधिक है न ही वे इतने सुंदर एवं आकर्षक हैं।
इमारतें -बीवी का मकबरा, लाल किले(रतियाँ दुर्रानी)की मोती मस्जिद आदि।


• गायन शैली -

1)ध्रुपद शैली:- यह गायन की प्राचीनतम शैली है। इसका आरंभ 15वीं-16वीं शताब्दी में उत्तर भारत में हुआ।
ग्वालियर के राजा मानसिंग तोमर ने इसे विशिष्ट पद रचना और गेय शैली में ढालने का काम किया। इस शैली में गाये जाने वाले प्रमुख राग हैं - राग भीमपलासी, तीव्र लक्ष्मी आदि। इस शैली के अंतर्गत ईश्वर व राजाओं की प्रशंसा, पौराणिक व्याख्यान विवाह और सामाजिक समारोह, प्रकृति चित्रण आदि विषयवस्तु होते हैं और ब्रजभाषा की प्रधानता होती है।

2)ठुमरी शैली:- अर्थ शास्त्रीय संगीत की गायन शैली ठुमरी एवं श्रृंगारिक रचना है जिसमें शास्त्रीय और लोक दोनों संगीतों के तर्क प्रस्तुत होते हैं। यह एक प्रकार का नृत्य गीत है, जिसमें शब्दों को भाव और कल्पनाशीलता से गाते हैं। साथ की विभिन्‍न अंगों के द्वारा अनुभावों को अभिनय के माध्यम से भी प्रकट करते हैं।
            कभी-कभी इसमें कई-कई रागों का मिश्रण करके भी गाया जाता है। गायन शैली की विषयवस्तु नायक-नायिका की अभिव्यक्ति और रामकृष्ण की क्रीड़ाएं आदि हैं। ठुमरी की तीन शैलियां प्रचलित हैं:-
a/पूर्वी शैली
b/फदवारी
c/पंजाबी शैली
              ठुमरी गायन शैली 19वीं शताब्दी में लखनऊ में नवाब वाजिद अली शाह के समय अत्यधिक लोकप्रिय हुई। वर्तमान में इसका गायन लखनऊ और बनारस में अधिक किया जाता है।

3)धमार शैली:- इसे होली के अवसर पर गाया जाता है। जिसमें अक्सर कृष्ण और गोपियों के होली खेलने का चित्रण होता है इस शैली में परवावज का उपयोग किया जाता है।इसकी शैली लयप्रधान होती है।

4)खयाल शैली:- खयाल शैली ध्रुपद की तुलना में बहुत नाजुक होती है, जिसमें किसी रचना में काफी छूट और ढील की गुंजाइश है।13वीं शताब्दी में जौनपुर के सुल्तान मोहम्मद शर्की की कोशिशों से इसे प्रसिध्दि मिली। हिन्दुस्तानी संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय गायनशैली खयाल एक स्वरप्रधान गायन शैली है। गायन में तबले का प्रयोग किया जाता है। मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् यह शैली कई घरानों में विभक्त हो गई।
वर्तमान में इसके चार घराने  प्रमुख हैं:-
a/ग्वालियर घराना
b/आगरा
c/किराना
d/पटियाला

No comments:

Post a Comment