A - जो हुआ सो हुआ अब उसमें पीछे जाकर देखने का क्या प्रयोजन हो सकता है?
B - बात प्रयोजन की नहीं है। असल में मैंने जब पीछे देखा कि कुछ ऐसा जो दबा/छुपा दिया गया है जहाँ कुछ गलतियों की परत जमी हुई है उसे यथासंभव ठीक करना मुझे अपना कर्तव्य लगा तो मैंने खुद को उस मार्फत बराबर यातनाएँ दी। कठिन से कठिन परिस्थिति में ले जाकर खुद को छोड़ दिया। जो लगा जितना महसूस हुआ लगभग सारा कुछ प्रायश्चित हेतु झोंक दिया। कुछ भी पीछे छोड़ा नहीं।
A - अगर मैं कहूं कि मुझे इसके लिए प्रमाण चाहिए तो?
B - तुम्हें स्मरण होगा मैं अपने बैग स्टेशन पर खुला छोड़कर कहीं भी घूमने चला जाता, भाग्य के भरोसे खुद को छोड़ देता कि क्या सच में ये अमुक वस्तु आज चोरी होगी। कभी कभी ठीक ऐसा मैं अपनी किताबों के साथ और अपनी खुद की गाड़ी के साथ भी कर लेता। ये सब कुछ मैं अपने पूरे होशो-हवास में करता।
मुझे नहीं पता कि मुझमें ऐसा करने की हिम्मत कैसे आई, पर मैंने ये दर्जनों बार आजमाया हुआ है। मैं इंतजार में रहता कि अब कोई अनहोनी हो जाए,कोई आए मेरा सब कुछ चुरा कर ले भागे पर ऐसा हुआ नहीं।
A - ये असंभव है, इसे भाग्य की तुला में तौलना मुझे उचित नहीं लगता। ऐसा भी हो सकता है कि ये महज संयोग मात्र हो।
B - मैंने पहले ही कहा, मैंने दर्जनों बार आजमाया है, आज भी आजमाने को तैयार हूं। वैसे भी व्यक्तिक और भौतिक स्तर पर आधारित सारी किलेबंदी मैंने पहले ही हटा दी थी, मन और शरीर के सारे कपाट खोल दिए कुछ भी अपने लिए छोड़ा नहीं। पर किसी ने दरवाजे तक आने की भी हिम्मत नहीं की। सब कुछ जस का तस बचा रहा। इसे आप संयोग कहेंगे, भाग्य भी कोई चीज होती है।
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