Tuesday, 7 November 2017

- हमारी संसद -

संसद -

-भारतीय संसदीय व्यवस्था के इस विशेष प्रारूप का निर्माण लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति मिलकर करते हैं।
-जिसमें लोकसभा जनता का सदन,लोकप्रिय सदन कहलाता है।
-राज्यसभा अप्रत्यक्ष रूप से राज्य विधानमण्डल के सदस्यों द्वारा चुने गए सदस्यों का सदन होता है। यह उच्च सदन, वरिष्ठों का सदन कहलाता है।
-राष्ट्रपति भारतीय संसदीय व्यवस्था में अनिवार्य रूप से विधायिका का अंग होता है जो गणतांत्रिक व्यवस्था का प्रतिनिधिकर्ता होता है।
-संविधान के भाग-5 अनुच्छेद 79 से 122 तक संसद का गठन, संरचना, अवधि, प्रक्रिया, विशेषाधिकार और शक्ति के संबंध में प्रावधान किए गए हैं।
-1954 में राज्य परिषद् और जनता के सदन के स्थान पर क्रमशः राज्यसभा और लोकसभा शब्द को अपनाया गया है।
-राष्ट्रपति संसद के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता लेकिन लोकसभा का सदस्य चुने जाने की अर्हता रखता हो।
-ब्रिटेन की संसद क्राउन या राजा या रानी + उच्च सदन(House of Lords) + निम्न सदन(House of Commons) से मिलकर बनती है।
-अमेरिका में विधानमण्डल को कांग्रेस कहा जाता है इसके अंतर्गत Cenate(उच्च सदन) और house of representative(निम्न सदन) होता है।
-अध्यक्षीय या राष्ट्रपति व्यवस्था में विधायिका और कार्यपालिका का पृथक्करण किया गया है। उदाहरण के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति कांग्रेस का अंग नहीं होता।

भारत में संसदीय व्यवस्था -

•प्रथम सदन(लोकसभा):-
अधिकतम सदस्य संख्या-552
राज्यों से प्रतिनिधित्व -530
केन्द्रशासित प्रदेशों से -20
आंग्ल भारतीय(एंग्लो-इंडियन) -2(अनुच्छेद-331)

•राज्यों का प्रतिनिधित्व :-
जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित।
• केन्द्रशासित प्रदेशों से प्रतिनिधित्व:-
संसद ने संघ-राज्य क्षेत्र अधिनियम 1965 बनाया।
• नाम निर्देशित सदस्य:-
एंग्लो-इंडियन समुदाय वह समुदाय है जिनके पूर्वज यूरोपीय मूल के थे लेकिन जिनका स्थायी निवास भारतीय राज्य क्षेत्र में है। राष्ट्रपति इस समुदाय के दो लोगों को नामांकित कर सकता है।

लोकसभा की चुनाव प्रणाली :-
प्रत्यक्ष निर्वाचन हेतु सभी राज्यों को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा गया है इसके दो अर्थ हैः-
1. लोकसभा में सीटों का आबंटन ऐसी रीति से किया जायेगा कि स्थानों की संख्या से उस राज्य की जनसंख्या का अनुपात सभी राज्यों के लिए यथासंभव एक हो।
            यह उपबंध उन राज्यों के लिए लागू नहीं होता जिनकी जनसंख्या 60 लाख से कम है।
2. प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्यों में यथासाध्य एक हो।

• परिसीमन(Delimitation) :-
संसद को यह अधिकार है कि राज्यों में लोकसभा के स्थानों के आबंटन और प्रत्येक राज्य का प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन निहित रीति और कानून के माध्यम से की जायेगी।
             इसके लिए संसद ने 1952,1962,1972 और 2002 में परिसीमन आयोग अधिनियम लागू किया।
             87वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के द्वारा प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन 2001 की जनगणना के आधार पर।

लोकसभा में अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण :-
अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्य सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन सामान्य वर्ग अनुसूचित जाति/जनजाति वाले क्षेत्र में चुनाव नहीं लड़ सकते।

प्रश्न - लोकसभा के निर्वाचन के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व को क्यों नहीं अपनाया गया?
उत्तर - प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अंतर्गत विधानमंडल का प्रत्येक सदस्य एक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे निर्वाचन क्षेत्र कहा जाता है जहां से एक प्रतिनिधि निर्वाचित होता है।
-इसलिए ऐसे निर्वाचन क्षेत्र को एकल सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं।
-इस पध्दति में जिस प्रत्याशी को अधिक मत प्राप्त होते हैं उसे विजयी घोषित किया जाता है।
-इसी पध्दति को 'First pass the post system' भी कहते हैं।(ब्रिटेन से लिया गया है)
-आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का उद्देश्य क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के विभेद को हटाना होता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत सभी वर्गों को अपनी संख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व मिलता है।
इसके दो प्रकार हैं:-
1)एकल संक्रमणीय मत प्रणाली
2)सूची प्रणाली
              भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और राज्य विधानपरिषदों के निर्वाचन में एकल संक्रमणीय मत प्रणाली को अपनाया गया है।
               संविधान में आनुपातिक प्रतिनिधित्व को दो कारणों से नहीं अपनाया गया(लोकसभा के लिए):-
1)मतदाताओं के लिए मतदान प्रक्रिया को समझने में कठिनाई।
2)बहुदलीय अवस्था(इससे अस्थायित्व की स्थिति)
3)खर्चीली व्यवस्था
4)उपचुनाव का अवसर नहीं है
5)एकदलीय व्यवस्था(single party system) के महत्व को बढ़ावा।

राज्यसभा -
अधिकतम संख्या- 250 (238+12)
इनमें 229 सदस्य राज्यों से, 4 संघशासित प्रदेशों से और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत।
-चौंथी अनुसूची में जनसंख्या के आधार पर संघ/राज्य सीटों का आबंटन है।
-आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा।
-सर्वाधिक सदस्य उत्तरप्रदेश से-31 सदस्य।
-दिल्ली से 3 सदस्य और पुद्दुचेरी से 1 सदस्य।
-अंडमान, चंडीगढ़, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, लक्षद्वीप से राज्यसभा में प्रतिनिधित्व नहीं है।
-राज्यों में सबसे कम - गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा इन राज्यों से एक सदस्य।
राज्यसभा सदस्यों का निर्वाचन-
विधानसभा के सदस्यों के द्वारा एकल संक्रमणीय मत प्रणाली की खुली मतदान प्रक्रिया द्वारा अर्थात् राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से अर्थात् निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा।
कार्यकाल -दो वर्ष बाद एक तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं।
राज्यसभा के सदस्य को भी मंत्री बनाया जा सकता है।
-Red carpet(राज्यसभा) - Symbol of Eliteness
-Green Carpet(लोकसभा) - Symbol of Grass root

राज्यसभा की अवधि-
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में पहली राज्यसभा में चुने गये सदस्यों की अवधि को कम करने का अधिकार दिया। प्रथम राज्यसभा के सदस्य लाटरी पद्धति के आधार पर 2 वर्ष में सेवानिवृत्त किए गए। सामान्यतः राज्यसभा सदस्यों की अवधि 6 वर्ष होती है जिसमें राज्यसभा के एक तिहाई सदस्य प्रति 2 वर्ष बाद सेवानिवृत्त होते हैं। राज्यसभा एक स्थायी और शाश्वत सदन है। इसका विघटन नहीं होता।

लोकसभा की अवधि-
सामान्यतः आम चुनाव के बाद प्रथम बैठक से 5 वर्ष तक अवधि समाप्त होने पर स्वतः निर्धारित हो जाती है। लोकसभा को प्रधानमंत्री की सिफारिश पर समय पूर्व भी विघटित किया जा सकता है।
न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।(राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्ति के अंतर्गत)
लोकसभा की अवधि आपातकाल में एक बार में एक वर्ष और समाप्ति के बाद 6 महीने से ज्यादा विस्तार नहीं होता।

सदस्यों की अर्हताएं-
1)भारत का नागरिक हो।
2)आयु सीमा, लोकसभा(25 वर्ष), राज्यसभा (30 वर्ष)
3)तीसरी अनुसूची के मूल प्रारूप के अनुसार शपथ/प्रतिज्ञान लेना चाहिए।
4)जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के अनुसार पूर्व में निर्धारित निर्वाचन क्षेत्र या पंजीकृत मतदाता का प्रावधान जो लोकसभा या राज्यसभा दोनों के लिए या उसी वर्ष 2003 में हटा दिया गया है।
5)अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति क्षेत्र पर चुनाव लड़ने के लिए संबंधित व्यक्ति को राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या आरक्षित वर्ग का सदस्य होना चाहिए।

सदस्यों की निर्हताएं-
1)यदि वह लाभ का पद धारण कर ले।(मंत्री पद को छोड़कर)
2)चित्त विकृत
3)अनुमोचित दिवालिया
4)विदेशी नागरिकता का स्वेच्छा से अर्जन
5)संविधान के प्रति अप्रीति या अभक्ति
6)अन्य निर्हताएं( जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के अनुसार)
7)चुनाव अपराध और चुनावी भ्रष्ट आचरण का दोषी हो।
8)चुनावी खर्च की सीमा लांघ दे। लोकसभा-25 लाख, विधानसभा-16 लाख।
9)किसी अपराध में 2 वर्ष या उससे अधिक की सजा न हो।
10)निर्धारित समय में चुनावी खर्च का ब्यौरा ना दिया हो।
11)ऐसे निगम में लाभ के पद पर न हो जिसमें सरकार का हिस्सा 25% से कम हो।
12)शासकीय सेवाओं से बर्खास्त न किया गया हो।
13)भ्रष्टाचार के लिए दंडित न किया गया हो।
14)छुआछूत, अस्पृश्यता, सती जैसे सामाजिक अपराधों के प्रसार में संलिप्त न हो।
-संसद सदस्यों की निर्हता संबंधी निर्णय पर राष्ट्रपति का फैसला अंतिम होता है।(निर्वाचन आयोग के आधार पर)

दल-बदल के आधार पर निर्हताएं -
10वीं अनुसूची के उपबंधों के अनुसार किसी सदस्य को निर्हर घोषित किया जाता है यदि :-
a)स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल का त्याग करता हो।
b)अपने राजनीतिक दल द्वारा दिये निर्देशों की अवहेलना करता हो या दल के विरुद्ध मतदान करता हो या मतदान नहीं करता हो।
c)निर्दलीय सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता हो।(6महीने के बाद)
d)यदि कोई नामित या नाम-निर्देशित सदस्य 6 महीने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है तो सदन की सदस्यता में निर्हर हो जाएगा।
              दल-बदल के आधार पर संसद सदस्यों की निर्हरता का निर्णय राज्यसभा सभापति और लोकसभा अध्यक्ष करते हैं ना कि भारत का राष्ट्रपति।
              लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति के अस्वभाव की स्थिति में न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।

नोट:- यदि कोई सदस्य संसद के दोनों सदनों में चुन लिया जाता है तो उसे 10 दिनों के अंदर यह बताना होगा कि वह किस सदन में रहना चाहता है, सूचना ना देने पर राज्यसभा की सदस्यता समाप्त हो जाती है।
              यदि कोई व्यक्ति एक ही सदन में दो सीटों में चुना जाता है तो वह स्वेच्छा से कोई एक सीट छोड़ सकता है अन्यथा दोनों स्थान रिक्त हो जाते हैं।
              कोई व्यक्ति एक ही समय संसद या राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं हो सकता यदि ऐसा हो तो 14 दिन के अंदर राज्य विधानमंडल की सीट खाली करनी होगी अन्यथा संसद की सदस्यता समाप्त हो जाएगी।

स्थानों का रिक्त होना:-
a) स्वेच्छा से पद छोड़ना(लोकसभा में लोकसभा अध्यक्ष को)। इसका मतलब ये नहीं है कि पद खाली है, त्यागपत्र स्वीकृत होने के बाद पद रिक्त होता है।
b) यदि कोई सदस्य बिना सूचना के सदन से 60 दिन से ज्यादा की अवधि से बैठकों में अनुपस्थित रहता हो तो सदन उसका पद रिक्त कर सकता है। (स्थगन और सत्रावसान की लगातार चार दिनों की अवधि को शामिल नहीं किया जाता)।

निर्हरता संबंधी अन्य परिस्थितियां :-
-यदि न्यायालय उसके चुनाव को अमान्य घोषित करता हो।
-यदि उसे सदन द्वारा निष्कासित किया जाता हो।
-यदि वह राष्ट्रपति/उपराष्ट्रपति चुन लिया जाता हो।
-यदि उसे राज्य का राज्यपाल बना दिया जाए।

नोट- यदि कोई निर्हर व्यक्ति संसद में निर्वाचित होता है तो संविधान की किसी प्रक्रिया द्वारा उसके चुनाव को शून्य घोषित नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 द्वारा सुलझाया जाता है।मामला सबसे पहले उच्च न्यायालय जाता है, असंतुष्ट व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है।

शपथ:- राष्ट्रपति या उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति के समक्ष संविधान के प्रति निष्ठा, कर्तव्यों के निर्वहन का।
          जब तक प्रतिनिधि शपथ नहीं लेता तब तक वह सदन की किसी बैठक में हिस्सा नहीं ले सकता, ना ही मत दे सकता है।
वेतनभत्ते- सांसद वेतन भत्ते और पेंशन अधिनियम(1954)।
1976 से सांसद 5 वर्षों के लिए पेंशन पाने के हकदार हैं।


• संसद के पीठासीन अधिकारी -

• लोकसभा अध्‍यक्ष-
संसदीय सरकार प्रणाली में लोकसभा अध्यक्ष का महत्वपूर्ण एवं गरिमामय माना जाता है‌।
सामयिक अध्यक्ष(Protem Speaker)- सामयिक अध्यक्ष नयी लोकसभा के सदस्यों को शपथ दिलाने के लिए भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।(सामान्यतः वरिष्ठ सदस्य को)
-शपथ राष्ट्रपति स्वयं दिलाते हैं।
-स्थायी अध्यक्ष के समान ही शक्ति प्राप्त होती है।
-नयी लोकसभा की पहली बैठक का पीठासीन अधिकारी होता है‌।
-मुख्य कार्य - नये सदस्यों को शपथ दिलाना।
-सामयिक अध्यक्ष नये अध्यक्ष का चुनाव करने में‌ सहायता करता है।
-नये अध्यक्ष के चुने जाने के बाद सामयिक अध्यक्ष का पद स्वतः समाप्त हो जाता है।

• लोकसभा अध्यक्ष का निर्वाचन -
पहली बैठक के बाद लोकसभा के उपस्थित सदस्य अपने बीच में से अध्यक्ष का चुनाव करते हैं।
राष्ट्रपति लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव का तारीख नियत करता है और नयी लोकसभा की पहली बैठक तक पद धारण करता है।

• पद त्याग -
उपाध्यक्ष(Deputy speaker) को हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा संबोधित कर पद त्याग सकता है। यदि वह सदन का सदस्य नहीं रहता।

• पद से हटाया जाना -
प्रक्रिया- लोकसभा के तत्समय समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा पद से हटाया जाता है लेकिन 14 दिन की पूर्व सूचना देनी होती है।
- जब हटाने का संकल्प विचाराधीन हो तो पीठासीन नहीं होगा। लेकिन लोकसभा में बोलने और कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार होगा।
- मत देने का भी अधिकार होगा लेकिन निर्णायक मत नहीं दे सकता।
- लोकसभा के विघटन के बाद भी अध्यक्ष अपना पद नहीं छोड़ सकता।
- नयी लोकसभा के पहली बैठक तक पद धारण करता है।

• लोकसभा अध्यक्ष के पद की स्वतंत्रता -
- वेतन और अन्य लाभों को भारत की संचित निधि पर भारत करना।(दूसरी अनुसूची)
- यह सुनिश्चित करना कि उसके व्यवहार को लेकर संसद में किसी भी प्रकार की चर्चा नहीं होगी सिवाय तथ्यपूर्ण प्रस्ताव के।
- मत के बराबर होने की स्थिति में निर्णायक मत देने का अधिकार देना।
- अध्यक्ष को दल-बदल निरोधक कानूनों से दूर रखना।

• भूमिका, कार्य, शक्तियां :-
भूमिका:-
-अध्यक्ष लोकसभा और उसके प्रतिनिधियों का मुखिया होता है।
-सदस्यों की शक्ति और विशेषाधिकारों का पालक होता है।
-सदन का मुख्य प्रवक्ता और संसदीय मामलों में उसका निर्णय अंतिम होता है।
-लोकसभा का अध्यक्ष भारत के संविधान, लोकसभा प्रक्रिया और कार्य संचालन नियम और संसदीय परंपराओं से अपनी शक्तियां प्राप्त करता है।

कार्य:-
1)परिचालनात्मक कार्य:-
-लोकसभा की बैठक का व्यवस्थित रूप से परिचालन करना।
-कार्य सलाहकार समिति की अनुशंसा पर चर्चा के लिए।
-विश्वास और अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार।
-स्थगन, निलंबन(Sine Die) की शक्ति{ अनिश्चित काल के लिए सदन को  स्थगित करना)
स्थगन विपक्षी दल द्वारा लाया जाता है, निलंबन लोकसभा अध्यक्ष करता है।

2)निरीक्षणात्मक कार्य:-
लोकसभा अध्यक्ष कई समितियों का नेतृत्व करता है और कई समितियों के अध्यक्षों की नियुक्ति करता है।
-समिति के कार्यों का निरीक्षण करता है और नियंत्रण रखता है।
-सदन की कार्यवाई के दौरान सदन के द्रारा किए अवांछनीय व्यवहार के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाई करता है।
-विशेषाधिकार हनन के मामले में सदन द्वारा निर्धारित उपायों को लागू करता है।

3)प्रशासनिक कार्य:-
-सदन के सचिवालय पर नियंत्रण रखना।
-सदस्यों को आवास की सुविधा प्रदान करना।
-अन्य सुविधाओं को सुनिश्चित करना।

4)अन्य कार्य:-
-किसी विधेयक को धन विधेयक मानना या न मानना।
-संसद के दोनों सदनों के संयुक्‍त सदन की अध्यक्षता।
-दल-बदल विधेयक कानून 1985 के अंतर्गत किसी सदस्य की सदस्यता को समाप्त करने का निर्णय करता है।
-सदन के नेता के आग्रह पर सदन की गुप्त बैठक बुला सकता है।
-अंतर-संसदीय संघ के भारतीय संसदीय समूह का पदेन अध्यक्ष होता है।
-लोकसभा अध्यक्ष भारत के विधिक निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन का भी पदेन अध्यक्ष होता है।
-लोकसभा अध्यक्ष को "Order of Warrant" या वरीयता सूची में उच्च स्थान दिया जाता है।
-भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ 7वें स्थान पर अर्थात् लोकसभा अध्यक्ष सभी केबिनेट मंत्रियों से ऊपर होता है।

लोकसभा उपाध्यक्ष (Deputy Speaker) :-
- चुनाव लोकसभा के सदस्यों द्वारा।
- लोकसभा उपाध्यक्ष के चुनाव की तारीख लोकसभा अध्यक्ष निर्धारित करता है।
- उपाध्यक्ष भी लोकसभा के जीवनकाल तक पद धारण करता है।
- हटाने की प्रक्रिया ठीक लोकसभा अध्यक्ष के समान है।
कार्य :-
-अध्यक्ष की अनुपस्थिति में सदन के बैठक की सदस्यता ग्रहण करना।
-संयुक्‍त बैठक में लोकसभा अध्यक्ष की अनुपस्थिति में अध्यक्षता करना।
-उपाध्यक्ष अध्यक्ष के अधीन नहीं होता।प्रत्यक्ष रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होता है।
विशेष अधिकार-लोकसभा उपाध्यक्ष को जब किसी संसदीय समिति का अध्यक्ष बनाया जाता है तो वह उसका स्वतः अध्यक्ष बन जाता है।
-प्रथमत: मत नहीं दे सकता जब मतों की संख्या बराबर हो और अध्यक्ष अनुपस्थित हो।
-हटाने के संकल्प के दौरान विचाराधीन हो, तो वह पीठासीन नहीं होता लेकिन सदन में उपस्थित रहने का अधिकार होता है।
-स्थिति :- जब लोकसभा अध्यक्ष पीठासीन होता है तो उपाध्यक्ष अन्य सदस्यों की तरह ही होता है।
-उपाध्यक्ष का वेतन भारत की संचित निधि पर भारित होता है।

कुछ अन्य तथ्य :-
a)अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद का उद्भव भारत शासन अधिनियम 1915 के तहत् 1921 में हुआ, पहले राष्ट्रपति और लोकसभा उपाध्यक्ष कहलाते थे यह नामकरण 1945 तक चला।
b)1921 में फेड्रिक व्हाइट पहले राष्ट्रपति और सच्चिदानन्द सिन्हा पहले उपाध्यक्ष नियुक्त किए गए।
c)विट्ठल भाई पटेल 1925 में केंद्रीय विधान परिषद् का पहले निर्वाचित अध्यक्ष चुना गया।(प्रथम भारतीय)
d)गणेश वासुदेव मावलंकर प्रथम लोकसभा अध्यक्ष और अनंत शयनम आयंगर प्रथम उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए, बाद में हुकुम सिंह उपाध्यक्ष बने।
e)लोकसभा नियत प्रक्रिया के अंतर्गत अध्यक्ष सदस्यों में से दस को सभापति और अध्यक्ष तालिका के लिए नामांकित करता है।इनमें से कोई भी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में संसद का पीठासीन अधिकारी हो सकता है।
पीठासीन अधिकारी की शक्ति अध्यक्ष के समान होती है।

नोट:-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त हो तो सभापति तालिका का सदस्य सदन का पीठासीन अधिकारी नहीं होगा।
          वह पीठासीन होगा जिसे राष्ट्रपति ने नियुक्त किया हो।


• उपराष्ट्रपति -
भारत के उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं।
-यह राज्यसभा का पीठासीन अधिकारी होता है।
-उपराष्ट्रपति जब राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है तो राज्यसभा सभापति के रूप में कार्य नहीं करता।
-राज्यसभा के सभापति को पद से तभी हटाया जा सकता है जब उसे उपराष्ट्रपति पद से हटा दिया जाए।
-राज्यसभा सभापति , राज्यसभा का सदस्य नहीं होता।
-उपराष्ट्रपति को सभापति के पद से हटाने का संकल्प विचाराधीन हो वह पीठासीन नहीं होता। भाग ले सकता है मत नहीं दे सकता।
नोट:- लोकसभा अध्यक्ष पहली बार मत दे सकता है जब उसे हटाने का विकल्प विचाराधीन हो।
-राज्यसभा सभापति का वेतन संचित निधि पर भारित होता है और सभापति के रूप में वेतन होता है।

• उपसभापति :-
- अपने सदस्यों के बीच में से स्वयं चुना जाता है।
-लोकसभा उपाध्यक्ष के समान सब कुछ।
-उपसभापति साधारण सदस्य की तरह होता है।
-कार्यवाहियों में भाग,मत दे सकता है।
-वेतन भत्ते संचित निधि पर भारित होते हैं।

पीठासीन अधिकारियों की राज्यसभा में तालिका -
लोकसभा की तरह यथावत।
सचिवालय- संसद के दोनों सदनों के पृथक सचिवालय होते हैं, भर्ती और सेवा शर्तें अलग-अलग।
-यह स्थायी अधिकारी होता है।जिसकी नियुक्ति सदन का अध्यक्ष करता है।
-सदन का नेता लोकसभा नियमों के अंतर्गत सदन का नेता प्रधानमंत्री होता है। या प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त कोई मंत्री।

विपक्ष का नेता(नेता प्रतिपक्ष):- संसद के दोनों सदनों में एक-एक विपक्ष का नेता होता है।
मापदंड-कुल सदस्य संख्या के दसवें हिस्से के बराबर।
मुख्य कार्य- सरकार के कार्यों की उचित आलोचना और वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था।
मान्यता- 1977 में मिली विपक्ष के नेता को केबिनेट मंत्री का दर्जा होता है।
-अमेरिका में इसे अल्पसंख्यक नेता कहा जाता है।
-ब्रिटेन में इसे छाया मंत्रिमण्डल(shadow cabinet) कहते हैं।
-आइवर जेनिंग्स ने नेता प्रतिपक्ष को वैकल्पिक प्रधानमंत्री कहा है।

Whip(सचेतक) या Cheif Whip :-
हर पार्टी अपना एक चीफ व्हिप चुनती है।
-यह संविधान में परिभाषित पद नहीं है।
-संसदीय प्रक्रियाओं में भी परिभाषित नहीं है।
-यह परंपरा में विकसित पद है।
-1985 में 52वां संविधान संशोधन(दल-बदल कानून) के पश्चात् इसके महत्व में वृध्दि।
-यह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से संबद्ध होता है।
महत्व:- दलीय अनुशासन को बनाये रखने में।
-राजनीतिक दल के दिशा-निर्देशों और भूमिकाओं को परिभाषित करना और उन्हें एक सूत्र में बांधना।
-विभिन्न दलों में Common whip के माध्यम से साझे मुद्दों पर सहमति का आधार तैयार करता है।
-वर्तमान साझा सरकारों के दौर में Whip के महत्व में वृध्दि हो गई है।
-Whip का अर्थ = दिशा-निर्देश, यह कोई पद नहीं होता।
-सदन का उपनेता सदन के नेता द्वारा मनोनीत होता है। उस सदन की सदस्यता अनिवार्य होती है।

कार्य- सदन के नेता के साथ सहयोग करना। और सदन के नेता की अनुपस्थिति में कार्यों का निष्पादन करना।
संसद के सत्र - संसद के प्रत्येक सदन को राष्ट्रपति समय-समय पर आहूत करते हैं लेकिन संसद के दोनों सत्रों के बीच अंतराल 6 माह से ज्यादा नहीं होना चाहिए अर्थात् संसद को कम से कम वर्ष में दो बार मिलना चाहिए।
सत्र:-
1)बजट सत्र- फरवरी से मई।
2)मानसून सत्र- जुलाई से सितम्बर।
3)शीतकालीन सत्र- नवम्बर से दिसंबर।
-एक सत्र के सत्रावसान और दूसरे के प्रारंभ होने के बीच के समय को अवकाश कहते हैं।

-संसद की प्रत्येक बैठक में दो समय सत्र होते हैं:-
1)सुबह की बैठक-11 से 1 बजे तक।
2)भोजन अवकाश-1 से 2 बजे तक।
3)दोपहर - 2 से 5 बजे तक , सामान्यत परिवर्तित करके 2 से 6 बजे तक कर दिया गया(सन् 2009 में)
-संसद की बैठक को स्थगित या अनिश्चित काल या सत्रावसान या विघटन द्वारा समाप्त किया जा सकता है।
-स्थगन द्वारा बैठक के कार्य को कुछ घंटे, कुछ दिन या सप्ताह के लिए निलंबित किया जाता है।

• स्थगन, सत्रावसान, विघटन :-

• स्थगन-
-यह सिर्फ एक बैठक को समाप्त करता है।
-लोकसभा अध्यक्ष या पीठासीन द्वारा।
-यह किसी विधेयक या विचाराधीन विषय पर अपना प्रभाव नहीं डालता।

• सत्रावसान-
-यह न केवल बैठक बल्कि सदन के सत्र को समाप्त करता है।
-राष्ट्रपति द्वारा।
-यह किसी भी विधेयक पर प्रभाव नहीं डालता लेकिन शेष कार्य के लिए अगले सत्र में नया नोटिस देना होता है।
नोट:- ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्था में सत्रावसान से विधेयक या अन्य लंबित कार्य समाप्त माने जाते हैं।

• विघटन-
विघटन अर्थात लोकसभा के जीवनकाल का अंत अर्थात् उसके निश्चित समयावधि की समाप्ति।
-स्वयं विघटित या कार्यकाल का पूरा होना।
-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सिफारिश पर सदन को विघटित करने का प्रस्ताव रख सकता है।

लोकसभा के विघटन के प्रभाव-
1)विधेयक, प्रस्ताव, संकल्प/नोटिस, याचिका। जिन लंबित विधेयकों, लंबित आश्वासनों जिनकी जांच आश्वासन संबंधी समिति द्वारा की जानी होती है लोकसभा के विघटन पर समाप्त नहीं होते।
2)समाप्त होने वाले विधेयक-
- लोकसभा में विचारधीन विधेयक।
-लोकसभा में पारित लेकिन राज्यसभा में विचाराधीन।
3)समाप्त ना होने वाले विधेयक-
ऐसा विधेयक जो दोनों सदनों में असहमति के कारण पारित न हुआ हो और राष्ट्रपति ने विघटन से पहले संयुक्त बैठक आहूत कर दी हो।
-ऐसा विधेयक जो राज्यसभा में विचाराधीन हो लेकिन लोकसभा द्वारा पारित न हो।
-ऐसा विधेयक जो दोनों सदनों द्वारा पारित हो और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए विचाराधीन हो, समाप्त नहीं होता।
-राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए लौटाया हो तो समाप्त नहीं होता।

•संसदीय भाषा -संविधान ने हिन्दी और अंग्रेजी को सदन की कार्यवाई की भाषा घोषित किया है।
-पीठासीन अधिकारी किसी सदस्य को अपनी सदन में बोलने की स्वीकृति दे सकता है।
-दोनों सदनों में समानांतर अनुवादन की व्यवस्था होती है।
-संविधान में यह व्यवस्था थी कि संविधान लागू होने की तिथि के 15 वर्षों के बाद अंग्रेजी समाप्त हो जायेगी।

Lame Duck Session :-
नयी लोकसभा के गठन से पहले वर्तमान लोकसभा का अंतिम सत्र।
वर्तमान लोकसभा के सदस्य जो नयी लोकसभा हेतु निर्वाचित नहीं हो पाते, lame duck कहलाते हैं और यह सत्र lame duck session कहलाता है।

• गणपूर्ति-
लोकसभा-45 एवं राज्यसभा 25।
इसकी पूर्ति होने के बाद ही सदन की बैठक शुरू होती है।

• संसदीय कार्यवाहियों के साधन :-

1/प्रश्न काल-प्रथम सदन की प्रथम बैठक का प्रथम घंटा प्रश्न काल का समय होता है। इस समयकाल में माननीय संसद सदस्य प्रश्न पूछते हैं और मंत्री उत्तर देते हैं।
प्रश्न तीन प्रकार के होते हैं:-
a)तारांकित प्रश्न (Starred)- मौखिक,पूरक प्रश्न पूछे जाते हैं।
b)अतारांकित प्रश्न (Unstarred)- लिखित प्रश्न होते हैं। पूरक प्रश्न नहीं पूछे जाते।
c)अल्प सूचना प्रश्न (Short Term)- पूर्व सूचना देकर सार्वजनिक महत्व के ऐसे प्रश्नों को पीठासीन अधिकारी की सहमति से पूछना। अल्पसूचना प्रश्नों के लिए 10 दिन पहले नोटिस देना होता है।

2/शून्य काल:- यह एक अनौपचारिक साधन है जिसमें संसद सदस्य बिना पूर्व सूचना के नियमों के प्रश्नों को उठा सकते हैं।
-शून्य काल प्रश्न काल के तुरंत बाद होता है। 12:00 बजे का समय(इसलिए zero hour कहा)
इसे संसद के नियमित कार्य के साथ किया जाता है।
-यह नवाचार भारतीय संसदीय प्रक्रिया की देन है जो 1960 से निरंतर है, यह शून्यकाल शब्द मीडिया द्वारा दिया गया है।
-प्रश्न काल और शून्यकाल संसदीय प्रक्रिया के नियमों में उल्लिखित नहीं है।

कंगारू कटौती-
इस प्रकार के प्रस्ताव में केवल महत्वपूर्ण खण्डों पर बहस और मतदान होता है और शेष खण्डों को छोड़ दिया जाता है जिन्हें पारित मान किया जाए, कंगारू कटौती कहलाती है।

• विशेषाधिकार प्रस्ताव-
किसी मंत्री द्वारा संसदीय विशेषाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित है। सदस्य द्वारा लाया जाता है।
जब सदस्य यह महसूस करता है कि मंत्री महोदय सही तथ्यों को प्रकट नहीं कर रहे या गलत सूचना देकर सदन या सदन के सदस्यों के विशेषाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हों।
उद्देश्य -मंत्री की निंदा करना होता है।

• ध्यानाकर्षण प्रस्ताव-
इस प्रस्ताव द्वारा सदन का कोई सदस्य अध्यक्ष की अग्रिम अनुमति से किसी मंत्री का ध्यान लोक महत्व के मामलों पर आकृष्ट करना।
यह भी भारतीय नवाचार है, जो 1954 से अस्तित्व में है लेकिन संसदीय नियमावली में इसका उल्लेख है।

• स्थगन प्रस्ताव-
अविलम्बनीय लोक महत्व के मामले पर।
-सदन की सामान्य कार्यवाही को रोक देना।
-दोनों सदनों में प्रस्तुत किया जा सकता है।
-कोई भी प्रस्तुत कर सकता है।
-50 सदस्यों का समर्थन जरूरी है।
-चर्चा का समय ढाई घंटे का होता है।
सीमाएँ -
a)ऐसे मामले जो निश्चित हों, तथ्यात्मक हों।
b)अत्यंत जरूरी हो, लोक महत्व का हो।
c)एक ही मुद्दा शामिल होता है।
d)वर्तमान घटना के मुद्दों को ही उठाया जा सकता है।
e)विशेषाधिकार हनन का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।
f)न्यायालय में विचाराधीन विषयों को नहीं उठाया जा सकता।

• निंदा प्रस्ताव-
a)लोकसभा में इसे स्वीकार करने का कारण बताना जरूरी है।
b)यह एक मंत्री या मंत्रियों के समूह या पूरे मंत्रिपरिषद् के विरूध्द लाया जा सकता है।
c)इसके पारित होने पर मात्र निंदा होती है ना कि मंत्रिपरिषद् को त्याग पत्र देना होता है।

• अविश्वास प्रस्ताव-
a)इसमें कारण बताना जरूरी नहीं है।
b)यह लोकसभा में मंत्रिपरिषद् के विश्वास के निर्धारण हेतु लाया जाता है। इसके समर्थन में 50 सदस्यों की सहमति जरूरी है।(अनुच्छेद-75)
c)इसके पारित होने पर मंत्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना होता है।
d)एक बार अविश्वास लाने पर 6 महीने तक दुबारा नहीं लाया जा सकता।

• धन्यवाद प्रस्ताव-
प्रत्येक आम चुनाव के पहले सत्र और वित्तीय वर्ष के पहले सत्र में राष्ट्रपति सदन को संबोधित करते हैं।
अपने संबोधन में राष्ट्रपति पूर्व वर्ष और आने वाले वर्ष में सरकार की नीतियों और योजनाओं की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं।
नोट:- राष्ट्रपति के संबोधन की यह व्यवस्था ब्रिटेन के राजा के भाषण से ली गई है। दोनों सदनों में इस संबोधन पर चर्चा होती है इसी को धन्यवाद प्रस्ताव कहा जाता है।
-बहस के बाद प्रस्ताव को मत विभाजन हेतु रखा जाता है।
इस प्रस्ताव का सदन में पारित होना जरूरी है नहीं तो इसका तात्पर्य सरकार की पराजय माना जाता है जो अविश्वास प्रस्ताव का आधार तैयार करता है।

• संसद में विधायी प्रक्रिया:-
विधायी प्रक्रिया-कानून बनाने की प्रक्रिया।
यह संसद के दोनों सदनों में संपन्न होती है जिसमें सामान्य चरणों में विधेयक पारित होता है।
विधेयक दो प्रकार के होते हैं-
1)सरकारी या कार्यपालिका का विधेयक
2)गैर-सरकारी या निजी विधेयक।

प्रक्रिया के आधार पर विधेयक के प्रकार:-
a)सामान्य विधेयक
b)वित्त विधेयक
c)धन विधेयक
d)संविधान-संशोधन विधेयक

a) सामान्य विधेयक-

तीन चरणों में
1)प्रथम वाचन(First Reading) -
सदन में किसी भी सदस्य द्वारा लाये जाने से पहले अग्रिम सूचना देनी होगी।
{7 दिनों की पूर्वसूचना सरकारी सदस्यों द्वारा,
 1माह की पूर्वसूचना गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा। }
             जब सदन इस विधेयक को प्रस्तुत करने की अनुमति दे देता है तो प्रस्तुत करने वाला विधेयक का शीर्षक और उद्देश्य बताता है।
             इस चरण में विधेयक पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं होती।
             तदपश्चात इसे भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है।
नोट:- पीठासीन अधिकारी की पूर्व अनुमति से विधेयक को राजपत्र में प्रकाशित कर दिया जाए तो विधेयक को सदन में प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है।
           विधेयक का प्रस्तुतीकरण और राजपत्र में प्रकाशित होना प्रथम पाठन कहलाता है।

2)द्वितीय वाचन(Second Reading) -
इस चरण में विधेयक की विस्तृत समीक्षा की जाती है, अर्थात् विधेयक को अंतिम रूप दिया जाता है।
इसके तीन चरण हैं-
a)साधारण बहस की अवस्था- विधेयक की प्रति सभी को वितरित की जाती है। विधेयक के सिद्धान्त, उपबंधों पर चर्चा होती है लेकिन विस्तार से विचार विमर्श नहीं होता।इस चरण में सदन इन चार में से कोई एक कदम उठा सकता है:-
क)इस पर तुरंत चर्चा की जाए या कोई अन्य तिथि नियत की जाए।
ख)इसे सदन की प्रवर समिति को सौंपा जाए।जिस सदन में विधेयक प्रस्तुत किया जाए उस सदन के सदस्य प्रवर समिति में होते हैं।
ग)संयुक्त समिति-दोनों सदनों के सदस्य होंगे।
घ)दोनों सदनों की संयुक्त समिति को सौंप दिया जाये।
ण)इसे जनता के विचार पर सौंप दिया जाये।

b)समिति अवस्था- इसमें समिति विस्तारपूर्वक विधेयक पर विचार करती है लेकिन इसके मूल विषय में परिवर्तन नहीं करती।
समिति समीक्षा के बाद सदन को वापस कर दिया जाता है।

c)विचार-विमर्श की अवस्था- समिति से प्राप्त होने के बाद सदन द्वारा विधेयक के समस्त उपबंधों की समीक्षा की जाती है। विधेयक के प्रत्येक खण्ड पर चर्चा और मतदान होता है।
              इस अवस्था में सदस्य संशोधन प्रस्तुत कर सकते हैं और यदि संशोधन स्वीकार हो जाए तो विधेयक का हिस्सा बन जाते हैं।

3) तृतीय वाचन(Third Reading)-
इस चरण में विधेयक को मात्र स्वीकार या अस्वीकार करने पर चर्चा होती है। कोई संशोधन प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
सदन द्वारा बहुमत से पारित करने के पश्चात पीठासीन अधिकारी की अनुमति से दूसरे सदन में विचार विमर्श के लिए भेज दिया जाता है।
दूसरे सदन में विधेयक:- ठीक वही प्रक्रिया दुहराई जाती है।
द्वितीय सदन के पास चार विकल्प होते हैं-
a)विधेयक को उसी रुप में पारित करे।
b)संशोधन प्रस्तावित करके वापस लोकसभा में विचारार्थ हेतु भेज दे।
c)विधेयक को अस्वीकार दे।
d)किसी भी प्रकार की कार्यवाई न कर उसे लंबित कर दे।

नोट:-संशोधन हेतु लोकसभा को भेज सकता है यदि द्वितीय सदन विधेयक को पूर्णरूपेण अस्वीकृत कर दे या 6 माह से ज्यादा होने पर कोई कार्यवाई न हो तो इस गतिरोध को दूर करने के लिए माननीय राष्ट्रपति महोदय इस गतिरोध को तोड़ने के लिए संयुक्त बैठक बुला सकते हैं।जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है।
            राष्ट्रपति की स्वीकृति दोनों सदनों से पारित विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।
अब राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं:-
a)स्वीकृति देगा।
b)विधेयक को रोक सकता है।
c)सदन को वापस लौटा सकता है।(44वां संविधान संशोधन)


• धन विधेयक -
संविधान के अनुच्छेद 110 में धन विधेयक परिभाषित है। इसके अनुसार कोई विधेयक तब धन विधेयक माना जाएगा जब उसमें निम्नलिखित वर्णित, उपबंधित एक या एक से अधिक या समस्त उपबंध हो-
a)किसी कर का अधिरोपण(लगाया जाना), उत्सादन(Abolition-खत्म करना), परिहार(Remission-छूट), परिवर्तन(Alteration) या विनियमन करना, ऐसा विधेयक धन विधेयक होगा।
b)भारत सरकार द्वारा धन उधार लेना।
c)भारत की संचित निधि या आकस्मिक निधि की अभिरक्षा, इसमें धन जमा करना या निकालना।
d)भारत की संचित निधि से धन का विनियोग(Appropriation- क्रमवार सुनियोजित ढंग से खर्च का ब्यौरा).
e)किसी व्यय को भारत की संचित निधि पर भारित घोषित करना या इस प्रकार के किसी व्यय की राशि में वृध्दि।
f)भारत की संचित निधि या लोकलेखे में किसी प्रकार के धन की  प्राप्ति या अभिरक्षा या इनसे व्यय या इनका केंद्र या राज्य की निधियों का लेखा परीक्षण।
g)उपर्युक्‍त किसी विषय का अनुशांगिक विषय धन विधेयक का हिस्सा है।

स्थिति-
कोई विधेयक कब धन विधेयक नहीं माना जाता।
-जुर्माना या अन्य शास्तियों का अधिरोपण कर्ता हो तो वह वित्त विधेयक हो।
-अनुव्यापतियों के लिए ली गई फीस या दी गई सेवाओं के लिए फीस की मांग।
-किसी स्थानीय प्राधिकारी या स्थानीय निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए कर का अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, विनियमन।
-धन विधेयक के संबंध में लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता है।
-धन विधेयक केवल लोकसभा, केवल राष्ट्रपति की सिफारिश से ही प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रकार के विधेयक को सरकारी विधेयक माना जाता है, और इसे केवल मंत्री ही प्रस्तुत कर सकता है।
-राज्यसभा के पास धन विधेयक के संबंध में सीमित शक्ति है।(केवल 14 दिन रोक सकती है).
-जब धन विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है।
दो विकल्प-
1)स्वीकृति देगा।
2)या फिर रोककर रख सकता है लेकिन विचार के लिए वापस नहीं भेज सकता।

• साधारण विधेयक और धन विधेयक में अंतर :-

•साधारण विधेयक-
1)किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है।
2)सरकारी और गैर-सरकारी दोनों सदस्यों द्वारा प्रस्तुत।
3)राष्ट्रपति की पूर्व सहमति आवश्यक नहीं।
4)राज्यसभा द्वारा संशोधित कर सकता है।
5)राज्यसभा 6 महीने तक लंबित कर सकती है।
6)साधारण विधेयक को राज्यसभा में भेजने के लिए अध्यक्ष के प्रमाणन की आवश्यकता नहीं होती।
7)दोनों सदनों में पारित होने के बाद राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा जाता है।
8)असहमति में सर्वदलीय बैठक का प्रावधान।
9)इसे अस्वीकृत, पारित या राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए भेजा जा सकता है।

• धन विधेयक-
1)केवल लोकसभा में।
2)सरकारी सदस्यों में सिर्फ मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत(वित्त)
3)राष्ट्रपति की संस्तुति द्वारा ही स्वीकृत।
4)संशोधित नहीं कर सकते।
5)केवल 14 दिन तक लंबित कर सकती है।
6)इसमें अध्यक्ष से प्रमाणित करने की आवश्यकता होती है।
7)इसे सिर्फ लोकसभा से पारित होने के बाद राष्ट्रपति की मंजूरी हेतु भेजते हैं।
8) असहमति में सर्वदलीय बैठक का प्रावधान नहीं है।
9)अस्वीकृत, पारित हो सकता है, लेकिन पुनर्विचार नहीं।

• वित्त विधेयक -
वित्तीय विधेयक- अनुच्छेद 117(a), अनुच्छेद 117(3).
धन विधेयक-110(a)

वित्तीय विधेयक के दो भाग:-

1/ वित्तीय विधेयक प्रथम श्रेणी-
a)अनुच्छेद 117(a)
b)अनुच्छेद 110 और अन्य मुद्दे शामिल
c)केवल लोकसभा में प्रस्तुत
d)राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिश पर
e)दोनों सदनों की समान शक्ति
f)अनुच्छेद-108 लागू(संयुक्त बैठक होगा)
g)पुनर्विचार के लिए राष्ट्रपति भेज सकता है।

2/वित्तीय विधेयक द्वितीय श्रेणी-
a)अनुच्छेद 117(3)
b)संचित निधि के व्यय से संबंधित
c)किसी भी सदन में प्रस्तुतीकरण
d)राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिश अनिवार्य नहीं
e)दोनों सदनों की समान शक्ति
f)अनुच्छेद 110की विषयवस्तु नहीं होती
g)पुनर्विचार के लिए भेजा जा सकता है
h)अनुच्छेद 108 का प्रावधान लागू होता है
I)भारत की संचित निधि पर भारित व्यय संबंधी उपबंध नहीं होते।

नोट:- इस वर्गीकरण के अनुसार सभी धन विधेयक वित्त विधेयकों की श्रेणी में आते हैं किंतु सभी वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होते।
केवल वे वित्त विधेयक धन विधेयक होते हैं जिनका उल्लेख अनुच्छेद-110 में है।

• विनियोग विधेयक(Appropriation Bill) - अनुच्छेद 114
-बजटीय प्रक्रिया का अंग।
-संसद से पारित व्यय जिसे संचित निधि से निकाला जाता है,दो प्रकार का होता है:-
1)अनुदान की मांगे।
2)संचित निधि पर भारित व्यय।
- विनियोग विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तुत होता है।
- अध्यक्ष द्वारा धन विधेयक का प्रमाण पत्र देकर राज्यसभा में भेजा जाता है, इसके बाद राष्ट्रपति को भेजा जाता है।
- स्वीकृत होने के बाद विनियोग विधेयक बन जाता है।
- अब संचित निधि से धन निकाला जा सकता है।

• संचित निधि(consolidated fund) पर भारित व्यय ,अनुच्छेद-112(3):-
-राष्ट्रपति, राज्यसभा सभापति, उपसभापति, लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश. इन सब के वेतन भत्ते, पेंशन।
-भारत सरकार पर ऋण और ब्याज।
-किसी न्यायालय या मध्यस्थ अभिकरण के निर्णय या पंचार्ट, Decree(type of installment-एकमुस्त) को लागू करने के लिए अपेक्षित उपाय।
-अन्य कोई व्यय जो संसद संचित निधि पर भारित करे।


• वार्षिक वित्तीय विवरण(Annual Financial Report,बजट)

आय + व्यय = बजट

•आय के प्रकार :-

1)कर राजस्व(Tax):-
                 a)प्रत्यक्ष कर(Direct tax)
                 b)अप्रत्यक्ष कर(Indirect Tax)
2)गैर कर राजस्व(Non-Tax)

व्यय के प्रकार:-
1)योजनागत व्यय (Planned Expenditure), पंचवर्षीय योजना, नीति आयोग।
2)गैर योजनागत व्यय (Non-planned Expenditure), अन उत्पादी लाभ।

•प्रत्यक्ष कर- income tax, corporate tax, wealth tax, capital gain tax.
•अप्रत्यक्ष कर- जिस पर लगाया जाता है और वो किसी और पर थोप देता है।
Ex. - service tax, excise duty, custom duty, Vat.

•गैर-कर राजस्व- RTI, Fees collection-driving license passport, fine and penalties, income from PSu's(public sector unit), gifts, grants by world bank Asian development bank international monetray fund(info) and other foriegn help.

•योजनागत व्यय- पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से।
मनरेगा,NRHM.

•गैर-योजनागत व्यय- जो किसी योजना से नहीं जुड़ी है।
सरकारी, नौकरशाही, सब्सिडी-पेट्रोल,डीजल,केरोसिन, खाद्यान्न। रक्षा सेवाएं-गोलाबारूद, टैंक आदि।

• बजट:-
बजट को वार्षिक वित्तीय विवरण कहा जाता है। फ्रांसिसी भाषा के शब्द 'बूजट' से बना है अर्थात चमड़े का थैला। बजट शब्द का संविधान में कहीं भी उल्लेख नहीं है। वार्षिक वित्तीय विवरण का उल्लेख अनुच्छेद-112 में है।बजट में वित्तीय वर्ष के दौरान सरकार की अनुमानित प्राप्तियों और खर्च का विवरण होता है जो 1 अप्रैल से प्रारम्भ होकर 31 मार्च तक होता है।
            बजट में राजस्व और पूंजी की अनुमानित प्राप्तियां, राजस्व बढ़ाने के उपाय और साधन, खर्च का अनुमान(व्यय) वास्तविक प्राप्तियां और खर्च का विवरण, आने जाने वाले साल के लिए आर्थिक और वित्तीय नीति, कर व्यवस्था और खर्च की योजना और नयी परियोजनाएं शामिल होती है।
भारत सरकार के दो बजट होते हैं:-
1)रेल्वे बजट
2)आम बजट
पहले सिर्फ आम बजट होता था लेकिन रेल्वे बजट को आम बजट से एकवर्थ समिति की सिफारिश से अलग कर दिया।

संवैधानिक उपबंध:-
1)राष्ट्रपति प्रत्येक वित्त वर्ष संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत करवाते हैं।
2)राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना कोई अनुदान की मांग प्रस्तुत नहीं की जा सकती।
3)बिना अधिकृत विधि के किसी कर का संग्रहण और अधिरोपण नहीं किया जा सकता।(अनुच्छेद-265)
4)संसद किसी कर को कम या समाप्त कर सकती है लेकिन इसे बढ़ा नहीं सकती।
5)धन विधेयक या वित्त विधेयक को राज्यसभा में पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता।
6)राज्यसभा को अनुदान मांग पर कोई शक्ति प्राप्त नहीं है।
7)राज्यसभा को 14 दिन में धन विधेयक को लोकसभा में लौटाना होता है।
8)बजट में व्यय अनुमान को भारत की संचित निधि पर भारित व्यय और भारत की संचित निधि से किए गए व्यय को पृथक पृथक दिखाना चाहिए।
9)बजट प्रस्ताव खाते से व्यय और अन्य व्यय को पृथक दिखाएगा।

• बजट का प्रस्तुतीकरण -
दो रूपों में प्रस्तुत:-
1)रेल्वे बजट
2)आम बजट
-दोनों के लिए समान प्रक्रिया।
-रेल्वे बजट पहले प्रस्तुत(रेल मंत्री द्वारा-फरवरी तीसरे सप्ताह में)
-आम बजट- फरवरी माह के अंतिम कार्य दिवस को वित्त मंत्री द्वारा पेश किया जाता है।
वित्त मंत्री का भाषण बजट भाषण कहलाता है।
-भाषण के अंत में बजट प्रस्तुत किया जाता है।

• बहस-
सदन इस पर तीन-चार दिन बहस करता है।
-संबंधित प्रश्नों को उठाया जा सकता है,जिसका जवाब वित्त मंत्री देते हैं।
-बहस पूरी होने के बाद सदन तीन-चार सप्ताह के लिए स्थगित हो जाती है।
-इस समय अंतराल में संसद की विभागीय स्थायी समितियाँ अनुदान की मांगों की विस्तार से जांच करती है।


संसद की विभागीय स्थायी समितियाँ -

1) लोकसभा की विभागीय स्थायी समितियाँ -
a)कार्य संबंधी समिति
b)सूचना प्रौद्योगिकी
c)रक्षा प्रौद्योगिकी
d)ऊर्जा प्रौद्योगिकी
e)विदेशी मामलों संबंधी समिति
f)वित्त संबंधी
g)खाद्य नागरिक आपूर्ति
h)सार्वजनिक वितरण संबंधी
I)श्रम संबंधी
j)पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस संबंधी
k)रेल्वे संबंधी
L)शहरी विकास
m)जल संसाधन
n)रसायन एवं ऊर्वरक
o)ग्रामीण विकास
p)कोयला एवं इस्पात संबंधी
q)सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण।

2) राज्यसभा की विभागीय स्थायी समितियाँ -
a)वाणिज्य संबंधी समिति
b)गृह मामले
c)मानव विकास संबंधी
d)उद्योग विकास संबंधी
e)विज्ञान, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन संबंधी समिति
f)परिवहन, पर्यटन और संस्कृति संबंधी 😘
g)स्वास्थ्य और परिवार कल्याण
h)कार्मिक, लोक शिकायत
i)विधि और न्याय संबंधी।
ये समितियाँ संसद को बजट पर प्रभावी तरीके से चर्चा में सहायता देती है।

मुख्य उद्देश्य- संसद के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करना।
प्रत्येक स्थायी समिति से- 31 सदस्य( लोकसभा-21 + राज्यसभा-10)
-लोकसभा के सदस्यों को अध्यक्ष मनोनीत करता है।
-राज्यसभा के सदस्यों को सभापति अपने सदस्यों के बीच से मनोनीत करता है।
-कोई मंत्री समिति का सदस्य नहीं हो सकता।
-कार्यकाल = 1 वर्ष

• स्थायी समिति के कार्य-
-अनुदान मांगों को लोकसभा में प्रस्तुत करने से पहले उन पर चर्चा करना।
-संबंधित मंत्रालयों/विभागों से संबंधित विधेयकों की जांच।
- मंत्रालयों/विभागों के वार्षिक रिपोर्ट की जांच।
-इन समितियों की सिफारिशें मात्र परामर्शकारी होती हैं।
लाभ-
-इनकी कार्य प्रक्रिया दलीय भावना से पृथक होती है।
-इनकी प्रक्रिया लोकसभा की प्रक्रिया से ज्यादा लचीली होती है।
-इससे संसदीय नियंत्रण अधिक विस्तृत,सतत् और गहरा होता है।
-लोक व्यय से मितव्ययिता सुनिश्चित होती है।
-विपक्षी दल और राज्यसभा कार्यपालिका पर वित्तीय नियंत्रण में ज्यादा सक्रिय भूमिका का नियंत्रण कर सकती है।
-ये समितियाँ एक रिपोर्ट तैयार करती हैं और इन रिपोर्टों को दोनों सदन में विचारार्थ रखा जाता है।
-ये प्रक्रिया मंत्रालयों पर संसदीय नियंत्रण हेतु।

• अनुदान की मांगों पर मतदान-
-लोकसभा में अनुदान की मांगों के लिए मतदान होता है।
-ये मांगें मंत्रालय वार प्रस्तुत की जाती है।
मतदान के बाद मांग अनुदान बनती है।
-आम बजट में 109 अनुदान की मांगें।
-इसी समय अनुदान की मांगों पर कटौती प्रस्ताव।

कटौती प्रस्ताव तीन प्रकार के हैं:-

1) नीतीगत कटौती (Policy cut)-
-मांग की राशि 1 रुपए कर दी जाए।
-नीतियों पर कटौती करने हेतु।
-पूरी राशि को कम कर 1 रुपए कर दे।

2) आर्थिक कटौती (Economic Cut)-
इस बात का उल्लेख कि प्रस्तावित व्यय से अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ सकता है।

3) सांकेतिक कटौती (Token Cut)-
मांग में 100 रुपए से कम कर दे।

कटौती प्रस्ताव के आवश्यक बिन्दु:-
1)स्पष्ट उल्लेख हो।
2)एक प्रकार की मांग से जुड़ा हो
3)संघ सरकार के बाहर क्षेत्र से न हो
4)इस पर पुर्नचर्चा का कोई प्रावधान नहीं होता
5)विशेषाधिकार का कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।
महत्व:-
-अनुदान मांगों पर चर्चा का अवसर प्राप्त करना।
-उत्तरदायी सरकार के सिध्दान्त को स्पष्ट करना।
-सरकार के कार्यकलापों की जांच करना।
-सरकार के बहुमत होने के कारण पास नहीं किया जा सकता।
-कटौती प्रस्ताव के स्वीकृत हो जाने से सरकार के विरुद्ध अविश्वास का आधार तैयार होता है।
-अनुदान की मांगों के लिए मतदान के कुल नियत दिन 28 निर्धारित किए गए हैं।
-जिन अनुदान की मांगों पर चर्चा या बहस नहीं हो पाती उन्हें अंतिम दिन अर्थात् 26वें दिन एक साथ प्रस्तुत कर पारित किया जाता है।
-इस व्यवस्था को 'गिलोटिन'(फ्रांस में इसे सर काटना कहते हैं) कहते हैं।

• विनियोग विधेयक को पारित करना-
-भारत की संचित निधि से धन के विनियोग के लिए एक विनियोग विधेयक पुनः स्थापित किया जाता है।
-विनियोग विधेयक के लागू होने तक संचित निधि से किसी भी प्रकार के धन की निकासी नहीं हो सकता।

• लेखानुदान (Vote on Account)-
-सरकार को अपने आवश्यक खर्चों की प्रति-पूर्ति के लिए आम बहस के बाद पारित किया जाता है।
-कुल अनुमानित आय का 1/6 वां भाग, जो दो माह के व्यय हेतु स्वीकृत होता है।

• वित्त विधेयक पारित होना-
वित्त विधेयक सरकार के वित्तीय प्रस्तावों को प्रभावी करने के लिए पुनः स्थापित किया जाता है।
-वित्त विधेयक को 75 दिनों के अंदर प्रभावी हो जाना चाहिए।
-अतः प्रक्रिया गत बजट सदन से पारित हो जाता है।

• अतिरिक्त अनुपूरक अनुदान-
विनियोग विधेयक में स्वीकृत मांगें अनुमानित होती है। अतः किसी वित्तीय वर्ष में किसी विशिष्ट सेवा या नयी सेवा के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है या किसी सेवा पर अनुदान दी गई रकम से अधिक धन व्यय हो जाता है तो राष्ट्रपति की अनुमति से संसद में अनुपूरक अनुदान की मांग रखी जाती है।

• प्रत्यानुदान-
किसी सेवा के अनिश्चित स्वरूप के कारण मांग का ब्यौरा बजट में वर्णित करना संभव हो तो ऐसी मांगों हेतु संसद संचित निधि से अनशन दे सकती है, इसे ही प्रत्यानुदान कहते हैं।

• अपवादानुदान-
ऐसा अनुदान जो बजट में शामिल नहीं है। इस प्रकार के अनुदान की संसद से अनुमति अपवादानुदान कहलाती है।


• संसद की बहुक्रियात्मक प्रक्रिया-
• प्राथमिक कार्य -
देश के संचालन के लिए विधियों का निर्माण संघ सूची के विषय(100 वर्तमान में) और अवशिष्ट विषयों में कानून बनाने की शक्ति।
-समवर्ती सूची(Concurrent List) पर कानून बनाने की शक्ति।
-राज्यसभा की विशेष सूची के अंतर्गत (अनुच्छेद-249) राज्य सूची के विषय पर कानून बनाने की शक्ति।
-अध्यादेश के अनुमोदन करने की शक्ति(समय-6 सप्ताह)-अनुच्छेद- 123.
-अधीनस्थ विधायन और प्रत्यायोजित विधायन के माध्यम से कार्यपालिका को विधि बनाने की शक्ति देना।

• कार्यकारी शक्तियां एवं कार्य-
कार्यपालिका अपनी नीतियों और कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होती है।
-प्रश्न काल, शून्य काल, आधे घंटे की चर्चा, ध्यानाकर्षण और स्थगन, अविश्वास प्रस्ताव द्वारा कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण।
-विभिन्‍न समितियों जैसे आश्वासन संबंधी समिति, अधीनस्थ विधायन संबंधी समिति, याचिका समिति के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का अधीक्षण।
-मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी।
लोकसभा सरकार के प्रति निम्न माध्यमों से अविश्वास प्रस्ताव ला सकती है-
1)धन विधेयक को अस्वीकार कर।
2)निंदा प्रस्ताव और स्थगन प्रस्ताव पारित कर।
3)कटौती प्रस्ताव पास कर।
4)राष्ट्रपति के धन्यवाद प्रस्ताव को पास न कर।
5)प्रमुख मुद्दों पर सरकार को हटाकर(मतदान की व्यवस्था में).

• वित्तीय शक्तियां एवं कार्य-
1)बिना संसद की अनुमति की न तो किसी कर का संग्रहण किया जा सकता है न ही कोई कर लगाया जा सकता है।
2)बजट बिना संसद की स्वीकृति के पारित नहीं हो सकता।
3)विभिन्‍न संसदीय विभागीय समितियों के माध्यम से सरकार के खर्चों की जांच और नियंत्रण।
4)लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति और PSU के माध्यम से अनियमित, अमान्य, अवैधानिक सार्वजनिक खर्चों के दुरूपयोग को सामने लाती है।
5)संसद का वित्तीय मामलों में दोहरा नियंत्रण होता है।
-बजटीय नियंत्रण(अनुदान की मांगों के रूप में)
-उत्तर बजटीय नियंत्रण(तीन मुख्य समितियों के माध्यम से, PAC,PSU etc)

• संवैधानिक शक्तियां एवं कार्य-
1)संविधान संशोधन की शक्ति संसद में निहित है।
तीन प्रकार से संशोधन होता है:-
a)साधारण बहुमत
b)विशेष बहुमत
c)विशेष+ आधे से अधिक राज्य विधानमंडल के सदस्य।
2)राज्य विधान परिषदों का गठन।
3)संसद संविधान के मूल ढांचे के अतिरिक्त( केशवानंद भारतीवाद) किसी भी व्यवस्था को परिवर्तित कर सकती है।

• न्यायिक एवं अर्धन्यायिक शक्तियां एवं कार्य-
1)संविधान के उल्लंघन पर राष्ट्रपति को पदमुक्त करने की शक्ति।
2)हाईकोर्ट,सुप्रीमकोर्ट,निर्वाचन आयोग, CAG को हटाने के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश कर सकती है।
3)संसद सदस्यों, बाहरी लोगों को अपनी अवमानना के लिए दण्ड निंदा/प्रताड़ना के रूप में होती है।(न्यूनतम -1 माह(निंदा), 3 माह(प्रताड़ना).
4)विशेषाधिकारों के उल्लंघन के लिए भी सदन दंडित कर सकता है।

• निर्वाचन संबंधी  शक्तियां एवं कार्य-
1)संसद राष्ट्रपति के निर्वाचन में, उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेती है।
2)स्पीकर, डिप्टी स्पीकर आदि का चुनाव करती है।
3)संसद राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन हेतु नियम बना सकती है।
-राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम 19
-जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951

• अन्य शक्तियां एवं कार्य-
1) देश के विचार-विमर्श की सर्वोच्च ईकाई।
2)राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस।
3)तीनों तरह के आपातकाल की संस्तुति।
4)राज्यों के क्षेत्र,नाम,सीमा में परिवर्तन।
5) हाईकोर्ट,सुप्रीमकोर्ट के गठन और न्याय क्षेत्र को निर्धारित करती है।

• संसद की संवैधानिक शक्तियां, भूमिका एवं कार्य -
a)विधि निर्माण
b)कार्यपालिका पर नियंत्रण
c)वित्त पर नियंत्रण
d)न्यायपालिक शक्ति
e)संविधान संशोधन की शक्ति
f)निर्वाचन संबंधी शक्ति
g)पदों से हटाए जाने की शक्ति
h)अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन
I)नये राज्यों का गठन
j)राज्यों में विधानपरिषद् का निर्माण(अनुच्छेद-169)
k)सूचना प्रदान करना(प्रश्नकाल,समितियों की रिपोर्ट)
l)राष्ट्रीय एकीकरण को बल
m)नेतृत्व का प्रोत्साहन (राजनीतिक प्रशिक्षण का एक मंच)
n)अन्य कार्य

• E- संसदीय व्यवस्था-
- यह संसदीय व्यवस्था का महत्वपूर्ण पक्ष है जहां ऊपर के स्तर से नीचे के स्तर पर सूचनाएं और नीचे के स्तर से ऊपर के स्तर तक जन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का होना है।
-यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वस्थ विकास का महत्वपूर्ण आधार है।
-लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में जन-सहभागिता का विशेष महत्व है लेकिन परंपरागत संस्थानों की व्यवस्था इसमें ज्यादा सफल नहीं हो पाई है।
-इससे सरकार और नागरिकों के मध्य दूरी को बल मिला।
-शासकीय प्रणाली और इसकी क्रियाविधि के बारे में नागरिकों का ज्ञान सीमित हैं। सरकार की ओर से भी इस क्षेत्र में कमोवेश उदासीनता दर्शाई गई।
* ICT(information and communication technology) के माध्यम से लोकतांत्रिक व्यवस्था को नवीन रूप देने का दृष्टिकोण।
-विभिन्न देशों और संगठनों द्वारा इस दिशा में विशेष पहल OECD(organization of economic corporation) के द्वारा निम्न चीजों को परिभाषित किया है-
a)सरकार से सूचनाओं का प्रवाह
b)नागरिकों का नीति-निर्धारण में विचार का प्रवाह(अग्र-सक्रिय नीति)
c)सरकार और नागरिकों के मध्य प्रभावी संपर्क
d)ब्राजील, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, स्विट्जरलैंड जैसे देशों में 'New EVM' पद्धति का क्रियान्वयन।
e)स्काटलैण्ड की संसद द्वारा E-आवेदन की व्यवस्था।
f)यूरोपीय संघ(EU) के द्वारा Interactive Policy Making व्यवस्था।

- E-Democracy के विभिन्न पक्ष हैं
-इसका तात्पर्य लोकतांत्रिक व्यवस्था को सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से एक सूत्र में बांधना और इसे आनलाइन करना है।
-इसके माध्यम से Two way communication की स्थापना--
a)सरकार की ओर से सूचना
b)नागरिकों की ओर से विचार
-विभिन्‍न साधन और माध्यम के अंतर्गत प्रगतिशील आधारों का निर्माण।
जैसे:- E-application, नागरिक शिकायत निवारण प्रणाली, Google hangout, video confrencing,
सूचना राजपथ(internet) के माध्यम से सूचनाओं का प्रकटीकरण और विचारों की प्राप्ति।
-E-प्रशासन की दिशा में EVM के साथ पहल. (सबसे पहले केरल में लोकसभा चुनाव,2004)
-नागरिकों को संसदीय व्यवस्था से जोड़े जाने के प्रयास।

• अधीनस्थ विधायन-
इसका प्रतिनिधित्व कार्यपालिका करती है, यही विधान का निर्माण करती है।
-यह कोई विधि, उपविधि, नियम आदि का रूप होता है।
-यह संसद के द्वारा प्राप्त शक्तियों के आधार पर होता है।
-इसके अंतर्गत संसद के द्वारा विधि निर्माण और विधान की  शक्ति को परिभाषित किया जाता है अर्थात् विधि निर्माण के वृहद दायरे को निर्धारित किया जाता है।
-पुनः कार्यपालिका द्वारा इसका प्रत्यायोजन हो सकता है अर्थात् कार्यपालिका द्वारा किसी अन्य को सौंपा जाना।
(Essential Commodity Act, 1955)

विकास का आधार-
-संसद के कार्यों का विस्तार और समयाभाव।
-विधि निर्माण की जटिलता।
-सामान्य संसदीय विधायन बनाने में ज्यादा समय लगता है जिससे तात्कालिक विधायन के अंतर्गत एक सीमा बन जाती है।
-कार्यपालिका की बढ़ती भूमिका, परिवर्तित सामाजिक आकांक्षाओं को।

संवैधानिक सीमाएं-
-मौलिक विधायन का कार्य नहीं सौंपा जा सकता अर्थात् कार्यपालिका स्वयं विधायन के दायरे का निर्धारण नहीं कर सकती।
-विधायन की कोई असीमित शक्ति नहीं है।
-विधायन कार्य से संबंधित अनुसंगी शक्तियां।

न्यायिक अंकुश-
न्यायिक पुनर्विलोकन के तीन आधार:-
1)मूल विधि का उल्लंघन।
2)Ultravires(सत्ता के क्षेत्र से बाहर का कार्य करना) का सिध्दान्त या युक्तियुक्तता का सिद्धांत।
3)नैसर्गिक न्याय का सिद्धान्त।
-भूतलक्षी प्रभाव(Ex past post factor) लागू नहीं होगा.
आलोचना- विधायिका के मूल कार्य का अतिक्रमण।
-कार्यपालिका के कार्य की निरंकुशता की संभावना।
-नौकरशाही का सशक्तिकरण जो प्रत्यक्ष रूप से न ही संसद न ही जनता के प्रति उत्तरदायी है।
-अधीनस्थ विधायन संसद के कार्यों में विपथ गमन को भी बल प्रदान करता है।
महत्व- विकास के आधार।

• संसदीय नियंत्रण की अप्रभाविता-
भारत में सरकार और प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण व्यवहारिक की तुलना में सैद्धान्तिक ज्यादा है। इसके लिए कई कारक उत्तरदायी हैं:-
-प्रशासन की विशालता और जटिलता के कारण और संसद के समयाभाव और विशेषज्ञता की कमी के कारण प्रभावी नियंत्रण स्थापित नहीं हो पाता।
-विधायी नेतॄत्व कार्यपालिका पर निर्भर करता है और कार्यपालिका की नीति-निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
-अनुदान की मांगों की तकनीकी प्रवृति के कारण विधायिका या संसद का प्रभावी नियंत्रण स्थापित नहीं हो पाता।(गिलोटिन)
-कार्यपालिका के साथ संसद में बहुमत का समर्थन होता है फलतः प्रभावी आलोचना की संभावना नगण्य हो जाती है।
-लोक लेखा समिति जैसी वित्तीय संस्थाएँ कार्यपालिका द्वारा किए गए व्यय की राशि की जांच बाद में करती है। अतः यह प्रक्रिया पोस्टमार्टम कहलाती है।(नियंत्रण-अप्रभावी)
-प्रत्यायोजित विधायन की संख्या बढ़ने से संसद का कार्यपालिका पर नियंत्रण अप्रभावी हो जाता है।
-राष्ट्रपति द्वारा अत्यधिक अध्यादेश के निर्माण से संसद के विधान बनाने की शक्ति कम हो जाती है।
-संसदीय नियंत्रण अपनी प्रकृति में राजनीतिक स्वरूप का होता है।

• संसदीय समितियाँ -
जिसकी नियुक्ति या चुनाव सदन द्वारा की गई हो। यह संस्थान के कार्यों के विस्तार का परिणाम है। यह अध्यक्ष या सभापति के दिशानिर्देश में कार्य करती है।

संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं:-
1)स्थायी समिति(Standing Committee-24 सदस्य, 17+1+6)
2)तदर्थ समिति(adorf committee- अस्थायी)
यह समिति समय-समय पर बनायी जाती है।

अस्थायी समिति के प्रकार:-
1)जांच समितियाँ- समय-समय पर गठन।
2)सलाहकारी समितियाँ-
सलाहकारी समितियां किसी विधेयक पर प्रवर या संयुक्त समिति शामिल होती है।
कार्य-विधेयक पर अनुशंसा करना।

• लोक लेखा समिति (Public account Committee,PAC)-
स्थापना- 1921 में भारत सरकार अधिनियम-1919 के तहत् की गई थी।
सदस्य संख्या -22(लोकसभा-15, राज्यसभा-7)
-PAC का अध्यक्ष विपक्ष का होता है।
-चुनाव एकल संक्रमणीय सिध्दान्त के आधार पर हस्तांतरणीय मतों से प्रतिवर्ष होता है और सभी दलों का प्रतिनिधित्व होता है। (कार्यकाल- 1 वर्ष)
-मंत्री को इसका सदस्य नहीं बनाया जाता।
-अध्यक्ष का चुनाव लोकसभा अध्यक्ष द्वारा।
-वर्ष 1966-67 तक समिति का अध्यक्ष सत्ता पक्ष से होता था। वर्ष 1967 से यह परंपरा रखी गई कि PAC का अध्यक्ष विपक्षी दल से चुना जाए।

PAC के कार्य-
-नियंत्रक और महालेखा परीक्षक(CAG) के रिपोर्ट की जांच करना। इसकी रिपोर्ट को राष्ट्रपति संसद के समक्ष प्रस्तुत करवाते हैं।
-PAC न केवल विधिक दॄष्टि से सार्वजनिक व्यय की जांच करती है बल्कि तकनीकी गलतियों का भी आकलन करती है।

CAG तीन रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपता है:-
1)विनियोग लेखाओं से संबंधी लेखा परीक्षा(audit)
2)वित्त लेखाओं संबंधी
3)सरकारी उपक्रम संबंधी।

• प्राक्कलन समिति-
उद्भव-1921, स्थायी वित्तीय समिति के रुप में।
-वित्त मंत्री जान मथाई की सिफारिश पर 1950 में ऐसी पहली समिति बनाई गई।
-उस समय 25 सदस्य थे, 1956 में सदस्य संख्या बढ़ाकर 30.
-सभी सदस्य लोकसभा से।
-एकल संक्रमणीय हस्तांतरणीय मत प्रणाली से चुनाव।
-कार्यकाल-1 वर्ष।
-मंत्री समिति का सदस्य नहीं हो सकता।
-लोकसभा स्पीकर अध्यक्ष का चुनाव करते हैं।
-अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल(सरकार) का होता है।
मुख्य कार्य- बजट में सम्मिलित अनुमानों की जांच करना और लोक व्यय में मितव्ययिता का सुझाव देना।
कार्य-
1)अनुमान संबंधी नीति के अनुरूप संगठन में मितव्ययिता, सुधार, प्रभाविता, और प्रशासनिक सुधार के संबंध में रिपोर्ट देना।
2)संसद में प्रस्तुत किए जाने वाले अनुमानों का प्रारूप सुझाना।
3)प्रशासन में मितव्ययिता और प्रभाविता लाने का सुझाव।
4)यह जांच करना कि नीति अनुमानों के अनुसार धन, धनराशि अपनी सीमाओं में ही हो।
5)अपव्यय के विरुद्ध आरक्षक होने के कारण इसे तृतीय सदन का भी नाम दिया जाता है।(स्थायी मितव्ययिता समिति भी कहते हैं।

• सार्वजनिक उपक्रम संबंधी समिति:-
-कृष्ण मेनन समिति के सुझाव पर 1964 में बना।
-सदस्य संख्या-15(लोकसभा-10+ राज्यसभा-5)
-1974 में सदस्य संख्या-22(15+7)
-चुनाव-एकल संक्रमणीय हस्तांतरणीय मत प्रणाली।
-सभी राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व।
-कार्यकाल- 1 वर्ष।
-मंत्री समिति का सदस्य नहीं होता।
-सभापति का लोकसभा अध्यक्ष द्वारा चुनाव।
-अध्यक्ष(सभापति) लोकसभा से ही होगा।
कार्य:- PSU की लेखा और रिपोर्ट की जांच।
-PSU के व्यवसाय के सिद्धांतों और वाणिज्यिक प्रयोगों के तहत् कार्य का परीक्षण।
-सरकारी लेखा समिति और प्राक्कलन संबंधी समिति से संबंधित अन्य कार्य जो लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सौंपे जाएं।
-सार्वजनिक उपक्रमों पर CAG के रिपोर्ट की जांच करना।

• परामर्शकारी समिति-
यह संसदीय समिति नहीं होती।
- संसदीय कार्य मंत्रालय के मंत्री द्वारा इसका गठन किया जाता है।
- इस विभाग का मंत्री ही इसका सदस्य होता है।
- सांसद इसके सदस्य होते हैं।
- संसद और कार्यपालिका के बीच समन्वय और वार्ता का मंच प्रदान करने के लिए।

• रेल्वे संबंधी समिति-
18 सदस्य(12लोकसभा+ 6 राज्यसभा)
-नियुक्ति अध्यक्ष और सभापति दोनों द्वारा।
-अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा।
-इसमें रेलमंत्री और वित्तमंत्री हिस्सा लेते हैं।
-यह रेल मंत्रालय को संसद से जोड़ने का एक मंच है।

• शासकीय आश्वासन संबंधी समिति-
-मंत्रियों के वादों और इनकी जांच कर रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी जाती है।
-सदस्य-संख्या 25 (15 लोकसभा+10 राज्यसभा)
-गठन 1953

• अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति कल्याण समिति-
- सदस्य 30 (20लोकसभा + 10राज्यसभा)
-कार्य(ST,SC कमीशन की जांच)
- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के रिपोर्ट की जांच तथा संबंधित सभी मामले।
-संवैधानिक सुरक्षा उपायों, क्रियान्वयन, कल्याण कार्यक्रमों का वर्गीकरण आदि का परीक्षण करना।

• विशेषाधिकार समिति-
-इसकी प्रकृति अर्धन्यायिक है।
-यह सदन और इसके सदस्यों के विशेषाधिकार के हनन का परीक्षण करती है और उचित कार्यवाही की सिफारिश करती है।
-सदस्य (लोकसभा15 + राज्यसभा 10)

• महिला सशक्तिकरण समिति(1997)-
30 सदस्य(लोकसभा15 + राज्यसभा 10)
-राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट पर विचार।
-महिलाओं की सुरक्षित स्थिति।
-सभी क्षेत्रों में समानता और सम्मान के संदर्भ में उठाये गये कदमों का परीक्षण।

• संसदीय विशेषाधिकार -
इसका अभिप्राय वे उनमुक्तियां, छूटें, स्वतंत्रता है जो संसद के दोनों सदनों इसकी समितियों और इसके सदस्यों को प्राप्त होते हैं।
-कार्यों की स्वतंत्रता और प्रभाविता के लिए।
-सदन की स्वायत्तता, महानता और सम्मान का संरक्षण।
-संसदीय उत्तरदायित्वों के उचित निर्वहन हेतु।
-संविधान ने संसदीय अधिकार उन व्यक्तियों को भी दिए हैं जो संसद के सदन की किसी भी समिति की कार्यवाई में भाग ले सकते हैं।(महान्यायवादी, attorney general को भी विशेषाधिकार प्राप्त होता है)
-राष्ट्रपति को संसदीय विशेषाधिकार नहीं होते क्योंकि वह संसद का अंतरिम सदस्य होता है।
-संसदीय विशेषाधिकारों को दो भागों में बांटा गया है:-
a)वे अधिकार जिन्हें दोनों सदन को सामूहिक रूप से प्राप्त है।
b) वे अधिकार जो व्यक्तिगत रूप से प्राप्त हैं।

• सामूहिक विशेषाधिकार-
-अपनी रिपोर्ट,वाद,विवाद को प्रकाशित करने , न करने का अधिकार।
-सदन की गुप्त बैठक के मामले में यह लागू नहीं होता।
-अपनी कार्यवाही से अतिथियों को बाहर कर सकती है।
-अपनी कार्यवाही के संचालन, प्रबंध एवं निर्णय हेतु नियम बना सकती है।
-अपने सदस्यों के साथ-साथ बाहरी लोगों को विशेषाधिकार हनन और सदन की अवमानना करने पर निंदा/चेतावनी, कारावास द्वारा दंडित कर सकती है।
-सदस्यों के मामले में बर्खास्तगी और निस्कासन भी शामिल होता है।
-किसी सदस्य को बंदी बनाये जाने, उसे अवरोधित करने, अपराध सिद्धि, कारवास या मुक्ति संबंधी तात्कालिक सूचना प्राप्त करने का अधिकार।
-न्यायालय सदन या समिति की कार्यवाहियों की जांच नहीं कर सकता।
-सदन क्षेत्र में बिना पीठासीन अधिकारी की अनुमति के सदस्य और बाहरी लोगों को बंदी नहीं बनाया जा सकता और कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती।

• व्यक्तिगत विशेषाधिकार-
-सदन की कार्यवाही के दौरान कार्यवाही चलने से 40 दिन पहले और कार्यवाही बंद होने के 40 दिन बाद तक बंदी नहीं बनाया जा सकता, यह अधिकार केवल सिविल मामलों में ना कि आपराधिक मामलों में है।
-सदन में भाषण देने की स्वतंत्रता।
-सदस्यों के व्यक्तव्य या मत के लिए किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता।
-संसद सदस्य, न्याय निर्णयन सेवा से मुक्त है, संसद के सत्र में किसी न्यायालय में लंबित मुकदमें में प्रमाण प्रस्तुत करने या उपस्थित करने के लिए मना कर सकते हैं।

• विशेषाधिकारों का हनन एवं अवमानना -
-जब कोई व्यक्ति या प्राधिकारी संसद सदस्य की व्यक्तिगत और संयक्त क्षमता में इसके विशेषाधिकारों, उन्मुक्तियों का अपमान या उन पर आक्रमण करता है तो इस अपराध को विशेषाधिकार हनन कहा जाता है। यह सदन द्वारा दंडनीय होता है।
-किसी भी तरह का कार्य या गलती जो सदन इसके सदस्यों या अधिकारियों के कार्य संपादन में बाधा उत्पन्न करे। जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सदन की मर्यादा, शक्ति और सम्मान के विपरित परिणाम दे सदन की अवमानना माना जाता  है।
-विशेषाधिकार हनन सदन की अवमानना हो सकती है और इसी प्रकार सदन की अवमानना में विशेषाधिकार शामिल हो सकता है।
-सदन की अवमानना के वृहद परिप्रेक्ष्य हैं विशेषाधिकार हनन के बिना भी सदन की अवमानना हो सकती है।
उदाहरण- सदन के विधायी आदेश को न मानना विशेषाधिकार हनन नहीं है लेकिन अवमानना है।
-संविधान के अनुच्छेद-105 में दो विशेषाधिकारों का उल्लेख है:-
a)संसद में भाषण देने की स्वतंत्रता और
b)सदन की कार्यवाई के प्रकाशन का अधिकार।
- संसद ने विशेषाधिकारों को संहिताबध्द नहीं किया है, ये स्त्रोतों पर आधारित है-
a)संवैधानिक उपबंध
b)सदन के नियम
c)संसदीय परंपराएं
d)न्यायिक व्याख्याएं

• राज्यसभा के गैर-संसदीय लक्षण:-
राज्यसूची के विषय में कानून बनाने की शक्ति।
-राज्यों का हित और विभिन्न संसदीय लक्षणों का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन इसकी संरचना और कार्यों से संबंधित कई ऐसे लक्षण हैं जो इसके संघीय स्वरूप से मेल नहीं खाते।
जैसे:-
1)राज्यों का समान प्रतिनिधित्व नहीं है।
2)मनोनीत किए जाने का प्रावधान।
3)अप्रत्यक्ष निर्वाचन अर्थात् राज्य के लोगों की प्रत्यक्ष सहभागिता नहीं है।
4)अन्य राज्यों से प्रत्याशियों का चुना जाना।
5)सभापति के निर्वाचन में राज्यों की भूमिका नहीं है।
6)अनुच्छेद 249- राज्य सूची के किसी विषय पर 1 वर्ष के लिए कानून बना सकती है।
7)अनुच्छेद312- नयी अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन। Ex:- Indian forest services 1967.


 

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