संघ और राज्य क्षेत्र
भाग-1, अनुच्छेद (1-4)
अनुच्छेद- 1(Article-1)
अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि India अर्थात् भारत राज्यों का एक संघ होगा।यह व्यवस्था दो बातों को स्पष्ट करती है:-a)एक देश का नाम
b)राजव्यवस्था का प्रकार
अनुच्छेद-1 के अनुसार भारतीय क्षेत्र को तीन श्रेणियों में बांटा गया है -
a)राज्यों के क्षेत्र
b)संघ क्षेत्र
c)ऐसे क्षेत्र जिन्हें किसी भी समय भारत सरकार द्वारा अधिग्रहित किया जा सकता है।
अनुच्छेद-1 की संवैधानिक व्याख्या -
1(1)- भारत राज्यों का संघ होगा।इसमें Union परिभाषित है।Union उन इकाइयों को सम्मिलित करता है जिनके बीच शक्ति वितरित है अर्थात् संघ और राज्य के बीच संघ की संख्या 1 और राज्यों की संख्या 29 है।
1(2) राज्य और उनके राज्य क्षेत्र:-इस अनुच्छेद में राज्य और उसके क्षेत्र परिभाषित हैं।राज्य और उसके राज्य क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची(First Schedule) में उल्लिखित हैं।
1(3)भारत का राज्य क्षेत्र :- इसमें भारत का राज्य क्षेत्र परिभाषित है।सभी क्षेत्र जिस पर भारतीय संप्रभुता(sovereignty) स्थापित है।
इसके अंतर्गत तीन क्षेत्र समाविष्ट हैं:-
1(3)[a]राज्यों के राज्य क्षेत्र
1(3)[b]संघ शासित क्षेत्र
1(3)[c]अर्जित राज्य क्षेत्र
अनुच्छेद-2 (Article-2)
संघ में नये राज्यों का प्रवेश या स्थापना।
इसके दो पक्ष हैं -
1)प्रथम पक्ष- Union में नवीन राज्यों का प्रवेश।
->भारत क्षेत्र से लेकिन भारत क्षेत्र में राज्य क्षेत्र सम्मिलित नहीं होता।
->यह संसद विधि बनाकर करती है।
2)दूसरा पक्ष- नये राज्यों की स्थापना।
->Union में नये राज्यों की स्थापना।
->वैसे क्षेत्र जो भारत क्षेत्र का हिस्सा नहीं हैं।
प्रथम पक्ष उन राज्यों के प्रवेश को लेकर है जो पहले से अस्तित्व में है जबकि दूसरा पक्ष उनके गठन को लेकर है जो अस्तित्व में नहीं है।
अनुच्छेद-2 की संवैधानिक व्याख्या :-
संघशासित क्षेत्रों और अधिग्रहित क्षेत्रों में केन्द्र सरकार का प्रशासन होता है।
भारत एक संप्रभु राज्य होने के कारण अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत विदेशी क्षेत्रों का अधिग्रहण कर सकता है।उदाहरण के लिए संधि के द्वारा,खरीदकर,उपहार,लीज के द्वारा,जीतकर या हारकर।
उदाहरण के लिए भारत ने संविधान लागू होने के बाद जैसे दादरा नगर हवेली,गोवा,सिक्किम।
नोट:- बिना संविधान संशोधन के कोई राज्य क्षेत्र किसी अन्य देश को नहीं सौंपा जा सकता।
बेरूबारी राज्य क्षेत्र के भाग को(exchange of enclave matter) नौवें संविधान संशोधन द्वारा पाकिस्तान को अंतरित(सौंपा) गया।
संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य के रूप में भारत का नाम India है।सभी अंतरराष्ट्रीय समझौते India नाम पर होते हैं।
->भीमराव के सुझाव से Union शब्द का उपयोग।
अनुच्छेद-3
नये राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्य की सीमाओं में परिवर्तन।
इसके अंतर्गत अनुच्छेद-3 संसद को निम्नलिखित कार्यों के लिए अधिकृत करता है।किसी राज्य से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्य क्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नये राज्य का निर्माण कर सकेगी।
->किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा सकेगी,किसी राज्य के क्षेत्र को घटा सकेगी, राज्य की सीमाओं में परिवर्तन व नाम में परिवर्तन कर सकेगी।संबंधित प्रक्रिया साधारण बहुमत से पारित की जा सकती है।
प्रकिया :-
a)संसद के द्वारा विधि के माध्यम से विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है।
b)विधेयक के प्रस्तुतीकरण में राज्य की पूर्ण सिफारिश आवश्यक है।
c)यदि विधेयक किसी राज्य के क्षेत्र,सीमा अथवा नाम को प्रभावित करता है, तो विधेयक को उस राज्य विधायिका के पास भेजने का अधिकार है।
इसका उद्देश्य राज्य के विचार को जानना है और इसका निर्धारण राष्ट्रपति के द्वारा होता है।यह मत निश्चित सीमा समय के भीतर दिया जाना चाहिए।
{18वां संविधान संशोधन अधिनियम-1966}
राष्ट्रपति या संसद राज्य विधानमण्डल के मतों के मानने के लिए बाध्य नहीं है।और इसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है भले ही मत समय पर आ गया हो।
अमेरिकी संघीय व्यवस्था में नये राज्यों का निर्माण या उनकी सीमाओं में परिवर्तन बिना राज्यों की अनुमति के नहीं किया जा सकता।
नोट:- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संसद की शक्ति राज्यों की सीमा समाप्त करने और भारतीय राज्यों को समाप्त कर अन्य देशों को देने की नहीं है।(Article-3)
यह अनुच्छेद-368 के अंतर्गत किया जा सकता है।जो कि दक्षिण अफ्रीका से लिया गया है।
राष्ट्रपति को इस अवधि को बढ़ाने का अधिकार है।यदि विधेयक में कोई परिवर्तन होता है तो दुबारा राज्य विधायिका से विचार लेना आवश्यक नहीं है।
अनुच्छेद- 4
अनुच्छेद-2 और अनुच्छेद-3 के अंतर्गत विधि निर्माण साधारण बहुमत से होगा और यह Article-368 के अंतर्गत संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा।
अनुच्छेद-2(a) अथवा सिक्किम संबंधित प्रावधान:-
a)सिक्किम को सर्वप्रथम एक संरक्षित क्षेत्र के रूप में स्थापित किया गया।
b)राजा के अनुरोध और जनमत संग्रह से।
c)35वें संविधान संशोधन 1974 के द्वारा सिक्किम को Associate State के रूप में स्थापित किया संधि के द्वारा।
d)36वें संविधान संशोधन 1975 में सिक्किम को राज्य का दर्जा दिया गया।और 2(a) के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया।यह भारतीय संघ का 22वां राज्य बना।
भाग-2
नागरिकता(Citizenship)
अनुच्छेद(5-11)
भारतीय संविधान के भाग-2, अनुच्छेद(5-11) तक भारतीय नागरिकता संबंधी प्रावधान हैं। संविधान नागरिकता से संबंधित पूरी विधि प्रस्तुत नहीं करता, यह केवल उन लोगों की पहचान करता है जो संविधान लागू होने के समय भारत के नागरिक बने। संविधान संसद को इस बात का अधिकार देता है कि वह नागरिकता से संबंधित व्यवस्था बनाये।नागरिकता संबंधित संशोधन- 1955, 1986, 1992, 2003, 2005, 2011.
संविधान में अनुच्छेद 5 से 8 तक नागरिकता के संबंध में व्यवस्थाएं दी गई हैं, जो निम्नांकित हैं।
संविधान निर्माण के बाद संविधान के अनुसार इन चार श्रेणियों के लोग भारत के नागरिक बने-
a) एक व्यक्ति जो भारत का मूल निवासी है और तीन में से कोई एक शर्त पूरी करता है, ये शर्ते हैं :-
1/यदि उसका जन्म भारत में हुआ हो।
2/यदि उसके माता-पिता में से एक का जन्म भारत में हुआ हो।
3/संविधान लागू होने के पांच वर्ष पूर्व से भारत में रह रहा हो।
b)एक व्यक्ति जो पाकिस्तान से भारत आया हो और यदि उसके माता-पिता या दादा-दादी अविभाज्य भारत में पैदा हुए हों और दो शर्तें पूरी करता हो-
1/19 जुलाई 1948 के पहले स्थानान्तरित हुआ हो।(परमिट व्यवस्था लागू किया गया था) अपने प्रवसन(migration) की तिथि से भारत में निवास किया हो।
2/यदि उसने 19 जुलाई 1948 को या उसके बाद भारत में प्रवसन किया हो।और और भारतीय नागरिक के रूप में पंजीकृत हो। निवास के लिए छह महीने की अवधि आवश्यक हो।
c)एक व्यक्ति जो 1 मार्च 1947 के बाद भारत से पाकिस्तान स्थानान्तरित हो गया हो लेकिन बाद में पुनर्वास के लिए भारत में वापस आ जाए तो भारत का नागरिक माना जाएगा।
d)एक व्यक्ति जिसके माता-पिता या दादा-दादी अविभाज्य भारत में पैदा हुए हों और वह व्यक्ति भारत से बाहर रह रहा हो।
नोट- जो व्यक्ति भारत का मूल निवासी हो, पाकिस्तान से स्थानान्तरित हुआ हो,19 जुलाई 1948-व्यक्ति पाकिस्तान गया हो पर भारत वापस आया हो, 1 मार्च 1947- भारतीय मूल का व्यक्ति जो बाहर रह रहा हो।
अनुच्छेद 9,10,11 में नागरिकता संबंधी प्रावधान किए गए हैं:-
अनुच्छेद-9 वह व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा जो स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता ग्रहण कर ले।
अनुच्छेद-10 प्रत्येक व्यक्ति जो भारत का नागरिक है या समझा जाता है यदि संसद इस प्रकार के किसी विधान का निर्माण करे।
अनुच्छेद-11 संसद को यह अधिकार है कि वह नागरिकता की प्राप्ति, उसकी समाप्ति और उससे संबंधित सभी विषयों पर कानून बना सकती है।
भारतीय नागरिकता की विशेषताएँ :- आधुनिक राज्यों में नागरिकता से तात्पर्य राज्य की पूर्ण राजनीतिक सदस्यता प्रदान करना होता है।नागरिकों को सभी नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं जबकि विदेशी या अन्य किसी राज्य के नागरिकों को ये सिविल या राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं। विदेशी नागरिकों की दो श्रेणियां विदेशी मित्र और विदेशी शत्रु है।विदेशी मित्र वे जो भारत के साथ सकारात्मक हो तथा विदेशी शत्रु वे जिनका भारत के साथ युध्द चल रहा हो।
नोट- नागरिकता की अवधारणा गणराज्य की अवधारणा से विशेष रूप से जुड़ी है। क्योंकि निर्वाचित राष्ट्राध्यक्ष किसी देश का प्रथम नागरिक होता है।
भारतीय नागरिकता भारतीय नागरिकों को निम्न अधिकार, विशेषाधिकार प्रदान करता है जो विदेशियों को प्राप्त नहीं है।
जैसे:-
a) अनुच्छेद-15 :- धर्म, लिंग, जाति के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।
b) अनुच्छेद-16 :- लोकनियोजन के विषयों में अवसर की समानता।
c) अनुच्छेद-19 :- वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
साथ ही 19(1)a, b, c, d, e, f, g.
d) अनुच्छेद-29,30 :- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार।
e) अनुच्छेद-326 :- लोकसभा और राज्यसभा में मत देने का अधिकार।
f) संसद और राज्य प्रतिनिधि का चुनाव प्रत्याशी।
g)सार्वजनिक पद:- राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, राज्यपाल, महान्यायवादी, महाअधिवक्ता।
नोट:- भारत में नागरिक जन्म से या प्राकृतिक रूप से राष्ट्रपति बनने की योग्यता रखता है जबकि अमेरिका में केवल जन्म से ही राष्ट्रपति बन सकते हैं।
नागरिकता का अर्जन -
नागरिकता अधिनियम 1955 भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की पांच शर्तें लागू करता है :-
1)जन्म से- भारत में 26 जनवरी 1950 को या उसके बाद परंतु 1 जुलाई 1947 से पहले जन्मा व्यक्ति अपने माता-पिता की जन्म की राष्ट्रीयता के बावजूद भारत का नागरिक होगा।
भारत में 1 जुलाई 1947 को या उसके बाद जन्म व्यक्ति तभी भारत का नागरिक माना जाएगा जब जन्म के समय माता-पिता में से कोई एक भारत का नागरिक हो।
2)वंशानुक्रम के द्वारा- कोई व्यक्ति जिसका जन्म 26 जनवरी 1950 या उसके बाद परंतु 10 दिसंबर 1992 से पहले भारत के बाहर हुआ हो, वंश के आधार पर भारत का नागरिक बन सकता है।
3)पंजीकरण के द्वारा- भारत में पंजीकरण करने के बाद पांच वर्ष से भारत में निवास कर रहा हो। भारत में जन्मा व्यक्ति भारत से बाहर सामान्य तौर से अन्य देशों में निवास कर रहा हो।
-भारतीय नागरिकों की विदेशी पत्नियां
-भारतीय नागरिकों के नाबालिक बच्चे
-प्रथम अनुसूची में वर्णित देशों के नागरिक।
4)प्राकृतिक रूप से- कोई भी विदेशी जो व्यस्क हो चुका हो और निश्चित शर्तों के आधार पर यदि केन्द्र सरकार को संतुष्ट करे तो केन्द्र सरकार आवेदनकर्ता को देशीकरण का प्रमाण पत्र दे सकती है। इसके लिए निम्न योग्यताएं पूरी करनी होती है-
-> ऐसे देश से संबंधित नहीं हो जहां भारतीय नागरिक प्राकृतिक रूप से नागरिक नहीं बन सकते।
->यदि वह किसी अन्य देश का नागरिक हो तो वह भारतीय नागरिकता के लिए अपने आवेदन की स्वीकृति पर उस देश की नागरिकता को त्याग देगा।
->आवेदन देने से पहले कम से कम 12 मह पूर्व भारत में रह रहा होना चाहिए। 12 माह की इस अवधि से 14 वर्ष पूर्व से वह भारत में रह रहा हो या भारत सरकार की सेवा में हो लेकिन कुल अवधि 11वर्ष से कम नहीं होगी।
->चरित्र अच्छा हो।
->आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं का अच्छा ज्ञाता हो।
-> प्राकृतिक रूप से नागरिकता का प्रमाण पत्र प्रदान किए जाने की स्थिति में हो।
भारत सरकार उपरोक्त शर्तों के मामलों पर दावे हटा सकती है यदि व्यक्ति विशेष सेवा, विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य, विश्व शांति या मानव उन्नति से संबद्ध हो।
5)अर्जित भू-भाग के विलयन पर- किसी विदेशी क्षेत्र को भारत क्षेत्र का हिस्सा बनाये जाने पर भारत सरकार उस क्षेत्र से संबंधित लोगों को भारत का नागरिक घोषित कर सकती है।
नागरिकता की समाप्ति-
कारण:-
a)नागरिकता का परित्याग करने से।
b)दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार करने पर।
c)वंचित किया जाना।
-1/यदि नागरिकता अविधिक(फर्जी) तरीके से प्राप्त की गई हो।
2/यदि नागरिक ने संविधान के प्रति अप्रीति, अश्रध्दा या निष्ठावान न हो।
3/यदि नागरिक ने युध्द के दौरान गैरकानूनी रूप से संबंध स्थापित किया हो या उसे कोई राष्ट्रविरोधी सूचना दी हो।
4/पंजीकरण या प्राकृतिक नागरिकता के 5 वर्ष के दौरान उस नागरिक को किसी देश में 2 वर्ष की सजा हुई हो।
5/ऐसा नागरिक जो भारत के बाहर सात वर्षों से रह रहा हो।
नागरिकता संशोधन अध्यादेश 2015
उल्लेखनीय है कि वर्तमान में भारतीय नागरिकता प्राप्त करने हेतु आवेदन करने के लिए भारत में लगातार एक वर्ष तक रहना अनिवार्य है।
लेकिन विशेष परिस्थितियों में उनका लिखित विवरण दर्ज करने के बाद उसमें अधिकतम 30 दिनों की छूट दी जा सकती है। यह छूट एक साथ या भिन्न-भिन्न अंतरालों में भी प्राप्त हो सकती है।
• भारतीय नागरिकों के नाबालिग बच्चों के प्रवासी भारतीय नागरिक(Overseas Citizen of India) के रूप में पंजीकरण की व्यवस्था।
• भारतीय नागरिकों के बच्चों या पोता-पोतियों या पर पोता-पोतियों के प्रवासी भारतीय नागरिक के रूप में पंजीकरण की व्यवस्था।
• कुछ शर्तों के द्वारा धारा-7(A) के तहत पंजीकृत प्रवासी भारतीय नागरिक के रूप में पति/पत्नी या किसी भारतीय नागरिक के पति/पत्नी के प्रवासी भारतीय नागरिक के रूप में पंजीकरण की व्यवस्था।
• उल्लेखनीय है कि अभी तक केंद्र सरकार भारतीय मूल के व्यक्तियों एवं उनके परिवारों को दो तरह की योजनाएं उपलब्ध कराती रही है।
1)भारतीय मूल के व्यक्ति (PIO-Person of Indian origin) का कार्ड।
2) प्रवासी भारतीय नागरिक(OCI-Overseas Citizen of India) का कार्ड।
• भारतीय मूल के ऐसे व्यक्ति जिनके पास पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, चीन, श्रीलंका या सरकार द्वारा निर्दिष्ट किसी अन्य देश का पासपोर्ट है, उन्हें PIO कार्ड नहीं जारी किए जाते।
• इनके अतिरिक्त किसी भी देश के पासपोर्ट का धारण करने वाले भारतीय मूल के व्यक्ति PIO कार्ड प्राप्त करने के योग्य होते हैं।
• भारतीय मूल के विदेशी (पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के अतिरिक्त) OCI कार्ड हेतु आवेदन करने के योग्य होते हैं, लेकिन उन्हें यह प्रमाण देना होता है कि वे स्वयं या उनके माता-पिता या उनके दादा-दादी, नाना-नानी :-
1) 26.01.1950 को अर्थात् भारत के संविधान के लागू होने के समय भारत के नागरिक बनने के योग्य थे, या
2) किसी ऐसे क्षेत्र से संबंध रखते हैं जो 15.08.1947 के बाद भारत का अंग बना हो, या
3) 26.01.1950 या उसके बाद भारत के नागरिक रहे हों।
• PIO कार्ड धारकों को OCI कार्ड धारक की तुलना में कम लाभ प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए PIO कार्ड धारकों को भारत में प्रवेश हेतु 15 वर्ष का वीजा प्राप्त होता है जबकि OCI कार्ड रखने वालों को भारत का आजीवन वीजा मिलता है।
• नागरिकता संशोधन अध्यादेश, 2015 को लागू कर अब PIO कार्ड योजना को समाप्त कर दिया गया है।
इस प्रकार अब 9 जनवरी 2015 तक जारी अभी PIO कार्डों को OCI कार्ड का दर्जा प्राप्त होगा।
मौलिक अधिकार
भाग-3,
अनुच्छेद (12-35)
वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान सभा द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मूल अधिकार कहलाते हैं।
अधिकार-
1)नैसर्गिक(प्राकृतिक)- जन्म से
2)मानवाधिकार- मानव
3)मूल अधिकार- संविधान
मूल अधिकार -
वर्गीकरण :-
1) समानता (अनुच्छेद 14-18)
2)स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19-22)
3)शोषण के विरुद्ध (अनुच्छेद 23-24)
4)धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25-28)
5)शिक्षा- संस्कृति (अनुच्छेद 29-30)
6)संवैधानिक उपचार (अनुच्छेद 32)
सामान्य अधिकार और मूल अधिकार में अंतर :-
सामान्य अधिकार
1)संसद द्वारा निर्मित
2)सामान्य कानूनी अधिकारों को लागू करने के लिए साधारण कानून बनाये जाते हैं।
3)यह केवल कार्यपालिका से सुरक्षा प्रदान करते हैं।
4)संसद कानून बनाकर इन अधिकारों में परिवर्तन कर सकती है।
5)सामान्य कानूनी अधिकारों के अंतर्गत न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना होता है।
मूल अधिकार
1)भाग-3 में उल्लिखित
2)मूल अधिकारों और गारंटी संविधान में निहित है।(अनुच्छेद-32)
3)मूल अधिकार कार्यपालिका और विधायिका दोनों से सुरक्षा प्रदान करते हैं।
4)मूल अधिकारों में परिवर्तन के लिए संविधान संशोधन करना होता है।
5)मूल अधिकारों के उल्लंघन पर सीधे उच्चतम न्यायालय(अनुच्छेद-32) या उच्च न्यायालय(अनुच्छेद-26) की शरण ली जा सकती है।
मूल अधिकारों की विशेषताएँ -
1)कुछ नागरिकों तथा गैर नागरिकों को प्राप्त है।
2)असीमित नहीं है लेकिन वादयोग्य है, अर्थात् इन पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगाया जा सकता है।
3)इनमें से कुछ नकारात्मक विशेषताओं वाले हैं जैसे राज्य के प्राधिकार को सीमित करने वाले जबकि कुछ सकारात्मक है।
जैसे:-आरक्षण
4)ये न्यायोचित हैं अर्थात् न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं।
5)उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान की जाती है।
6)ये स्थायी नहीं है अर्थात् संसद इनमें कटौती,कमी या वृध्दि कर सकती है। (बिना मूल ढांचे को नष्ट किए- केशवानंद भारती)
7)आपातकाल के समय इन्हें निलंबित किया जा सकता है।
(अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर)
8)सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों(paramilitary), पुलिस बलों, गुप्तचर संस्थाओं से संबंधित संस्थाओं के क्रियाओं पर प्रतिबंध लगा सकती है।
9)ऐसे क्षेत्र जहां सैन्य शासन लागू हो, इनके क्रियान्वयन को प्रतिबंधित किया जा सकता है।(अनुच्छेद-34)
10)मूल अधिकार स्वयं प्रवर्तनीय हैं।
भारत में मौलिक अधिकारों की मांग -
•सर्वप्रथम 1215 में - मैग्ना कार्टा(अधिकार पत्र) , इंग्लैण्ड के राजा द्वारा।
•1789- फ्रांस की राज्य क्रांति और फ्रांस के संविधान में मानवीय अधिकारों की घोषणा को शामिल किया गया।
•1791- अमेरिका के संविधान में संशोधन करके अधिकार पत्र को सम्मिलित किया गया।
•1895- भारत में सर्वप्रथम मौलिक अधिकारों की घोषणा के लिए मांग की गई।
•1915- ऐनी वेसेंट, आयरिश नागरिक ने आंदोलन चलाया।
ऐनी वेसेंट ने इस समय प्रवर्तित होम रूल में मूल अधिकारों की मांग प्रस्तुत की गई।
•1925- The Commonwealth of India bill में मूल अधिकारों की मांग की गई।
•1927 (INC)- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मद्रास अधिवेशन। यहां संकल्प पारित करके यह घोषणा की गई कि मूल अधिकार शामिल होंगे।
•1928- मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में मूल अधिकारों की मांग।
•मार्च 1931- कराची के कांग्रेस अधिवेशन में मूल अधिकारों की मांग।
•द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी द्वारा मूल अधिकारों की मांग।
•संविधान सभा के गठन की योजना - कैबिनेट मिशन
इनका सुझाव था कि मूल अधिकारों, अल्पसंख्यक के अधिकारों की सिफारिश के लिए सरदार पटेल की अध्यक्षता में परामर्श समिति का गठन किया गया।
•1947- परामर्श समिति में 5 उपसमितियों का गठन किया गया जिनमें से एक मूल अधिकार से संबंधित थी।
मूल अधिकार समिति के सदस्य- जे.बी. कृपलानी, के.डी. शर्मा, अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर, के.एम. मुंशी, के. एम. पर्णिकर, राजकुमारी अमृत कौर(WHO, पहली महिला निदेशिका)
परामर्श समिति के सदस्य तथा उपसमिति की सिफारिश के आधार पर संविधान में मूल अधिकारों को शामिल किया गया है। भाग-3 को मैग्मा कार्टा कहा जाता है।
Article-12 राज्य की परिभाषा।
मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त अधिकार हैं। अतः अनुच्छेद 12 में राज्य को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
राज्य के अंतर्गत शामिल हैं-
a)भारत सरकार और संसद
b)राज्य सरकार और विधानमंडल
c)भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय प्राधिकारी और अन्य प्राधिकारी।
नोट:-
1)सुखदेव सिंह बनाम एयरपोर्ट अथारिटी 1979.
सुप्रीमकोर्ट का फैसला - सरकार के उपक्रम(PSUs) भी राज्य के अंतर्गत आते हैं।
मौलिक अधिकारों की सीमाएँ :-
a)निलंबन
b)संशोधन
c)आत्यांतिक नहीं है।
d)अनुच्छेद-22 में निवारक/ निरोधक(preventive detention) से संबंधित हनन की संभावना को व्यक्त करता है।
e)अनुच्छेद-33 में सैन्य बलों, पुलिस बलों आदि के मूल अधिकारों की सीमाएँ। इनके लिए इसे संशोधित किया जा सकता है।
f)इसमें आर्थिक अधिकारों को परिभाषित नहीं किया गया है। सामाजिक, राजनीतिक अधिकार परिभाषित हैं।
a)निलंबन:- मौलिक अधिकारों के निलंबन का अनुच्छेद 358,359 संवैधानिक अधिकार है। और 44वें 1978-CAA के द्वारा अनुच्छेद-359 में जोड़े गये नये प्रावधान:-
1/358 के अंतर्गत(आपातकाल के दौरान अनुच्छेद-19 के उपबंधों का निलंबन।
-a)जब घोषणा अनुच्छेद-352 के अंतर्गत हो।
-b)युध्द और बाह्य आक्रमण की स्थिति।
-c)अनुच्छेद-19 स्वतः निलंबित हो जाता है।एवं राष्ट्रीय आपातकाल की समाप्ति पर स्वतः पुनर्स्थापित हो जाता है।
2/ 359 के अंतर्गत- आपात के दौरान भाग-3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन का निलंबन।
a)राष्ट्रपति की घोषणा द्वारा निलंबन।
b)निलंबित अधिकार का उल्लेख किया जाएगा।
c)अनुच्छेद 20 और 21 निलंबित नहीं होंगे।
अनुच्छेद-352 के तहत घोषणा के तीन आधार होंगे- युध्द, बाह्य आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह।
मौलिक अधिकारों का संशोधन :-
1)शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951):-
प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम को चुनौती दी गई।इसमें कहा गया कि अनुच्छेद-13(2) के अंतर्गत विधि शब्द अनुच्छेद-366 के अंतर्गत विधि को सम्मिलित नहीं करता अर्थात् अनुच्छेद-366 के अंतर्गत निर्मित विधि 13(2) के अंतर्गत विधि नहीं है अर्थात् मौलिक अधिकारों का संशोधन किया जा सकता है।
2)सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य(1961):-
उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्ववर्ती निर्णय को ही दोहराया।
3)गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य(1967):- 17वें संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती दी गई।
न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत विचार :- 13(2) के अंतर्गत विधि शब्द अनुच्छेद-368 के अंदर विधि है अर्थात् मौलिक अधिकारों का संशोधन नहीं किया जा सकता।
4) केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य(24 अप्रैल 1973):-इसमें 24वें संविधान संशोधन को चुनौती दी गई। अनुच्छेद-368 के अंतर्गत संविधान संशोधन की विधि, विधि नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने मौलिक ढांचे को स्थापित किया, इसी संबंध में न्यायालय ने विक्षित और अंतर्निहित सीमाओं का सिध्दान्त दिया।
अनुच्छेद-13 के प्रावधान :-
अनुच्छेद-13 यह घोषित करता है कि मूल अधिकारों से असंगत या उनको सीमित करने वाली विधियाँ शून्य होगी अर्थात मूल अधिकार न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत है, यह शक्ति उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय को प्राप्त है।
अनुच्छेद-13 के अनुसार विधि शब्द में निम्न शामिल हैं:-
1)संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित स्थायी विधियाँ।
2)राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा जारी अधिनियम।(छ: महीने और सात दिन)
3)प्रत्यायोजित विधायन(कार्यपालिका) की प्रकृति के संवैधानिक साधन जैसे- आदेश, उपविधि, अधिसूचना, नियम, विनियम आदि।
विधि के गैर विधायी स्त्रोत -
(कानून का बल रखने वाली प्रथा)
इस तरह अनुच्छेद-13 यह घोषित करता है कि संविधान संशोधन कोई विधि नहीं है इसलिए इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। केशवानंद भारती वाद में कहा गया कि मूल अधिकारों के संशोधन को चुनौती दी जा सकती है अगर वो अवैध हो तो।
• आच्छादन का सिध्दान्त अनुच्छेद 13 से संबद्ध है यदि संविधान पूर्व विधि मौलिक अधिकारों का हनन करती है तो उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता अर्थात् जिस मौलिक अधिकार का वह विधि हनन करती है उससे आच्छादित(overlap) हो जाएगा और निष्क्रिय स्थिति में रहेगा जब तक वह मौलिक अधिकार अस्तित्व में है।
•पृथक्करणीयता का सिद्धांत भी अनुच्छेद-13 से संबद्ध है।
मूल अधिकारों का वर्गीकरण -
• समानता का अधिकार (Article 14-18):-
अनुच्छेद-14 विधि के समक्ष समानता व विधियों का समान संरक्षण।
अनुच्छेद-15 धर्म, जाति, लिंग, मूलवंश आदि के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।
अनुच्छेद-16 लोक-नियोजन के अवसर की समानता।
अनुच्छेद-17 अस्पृश्यता का अंत और किसी भी रूप में उसका आचरण निर्षिध्द होगा।
अनुच्छेद-18 सेना या विद्या संबंधी उपाधियों को छोड़कर सभी उपाधियों का अंत।
• विधि का शासन (Rule of Law) -
यह संकल्पना अनुच्छेद-14 में निहित है जो विधि कि सर्वोच्चता को स्थापित करता है अर्थात् विधि सर्वोच्च है।
इसके दो मौलिक पक्ष हैं :-
a)विधि के समक्ष समानता
b)विधियों का समान संरक्षण
विधि के समक्ष समानता-
ब्रिटिश न्यायविद् ए.वी. डायसी का मानना है कि विधि के समक्ष समानता का विचार विधि के शासन के सिध्दान्त का मूल तत्व है।
इसके अंतर्गत तीन अवधारणाएँ शामिल हैं:-
a)किसी भी व्यक्ति को विधि के उल्लंघन के अलावा दंडित नहीं किया जा सकता।
b)विधि के समक्ष समानता आवश्यक है अर्थात् कोई भी व्यक्ति चाहे वो अमीर-गरीब,उंचा-नीचा,अधिकारी-गैर अधिकारी हो, कानून के ऊपर नहीं है अर्थात् प्रधानमंत्री से लेकर कांस्टेबल तक कानून के समक्ष सभी समान नागरिक हैं।
c)व्यक्तिगत अधिकारों की प्रमुखता अर्थात् संविधान व्यक्तिगत आधारों का परिणाम है ना कि संविधान व्यक्तिगत अधिकारों का स्त्रोत है, यह देश की संपूर्ण जनता के अभिलाषाओं का प्रतीक है।
{ पहला और दूसरा कारक ही भारतीय व्यवस्था में लागू हो सकते हैं, तीसरा नहीं।क्योंकि भारतीय व्यवस्था में संविधान व्यक्तिगत आधारों का परिणाम है।}
विधि के समक्ष समानता और विधियों के समान संरक्षण का तुलनात्मक अध्ययन -
1) विधि के समक्ष समानता (procedure established by law):-
a/ नकारात्मक अवधारणा है।
b/ ब्रिटेन के संविधान से प्रभावित है अर्थात् विधि की स्थापित प्रक्रिया।
c/ राज्य पर यह बंधन लगाया गया है कि वह सभी व्यक्तियों के लिए एक ही विधि बनाएगा और उन्हें एक समान लागू करेगा।
d/ कोई व्यक्ति विधि के ऊपर नहीं है।
2) विधियों का समान संरक्षण (Due Process of law):-
a/सकारात्मक अवधारणा है।
b/अमेरिकी संविधान से प्रभावित है अर्थात् विधि की सम्यक् प्रक्रिया।
c/समान और नैसर्गिक न्याय की अवधारणा।
d/मेनकागांधी वाद (1978)ने नैसर्गिक न्याय की अवधारणा को बल दिया अर्थात् समान परिस्थितियों वाले व्यक्तियों में कोई विभेद नहीं किया जाएगा। उन पर एक ही रीति लागू होगी लेकिन असमान परिस्थितियों में और युक्तियुक्त वर्गीकरण के आधार पर विभेद किया जा सकता है।
विधि के शासन की भारत में सीमाएँ :-
1) अनुच्छेद 22के अंतर्गत निवारक निरोधक(आंतरिक सुरक्षा के बीच)।
2) मौलिक अधिकारों का निलंबन।
3) गवर्नर+राज्यपाल, राष्ट्रपति को विशेष अधिकार (अनुच्छेद-361)
4) भारत में न्यायिक जांच और धीमी प्रक्रिया।(अनुच्छेद-21 से संबद्ध)
5) पुलिस हिरासत में अमानवीय व्यवहार।
6) न्यायिक प्रक्रिया में जटिल रूप।
7) न्यायालयों का उच्चस्तरीय शुल्क।
8) निशुल्क कानूनी सहायता का अधिक प्रचार प्रसार न होना।
9) विधिक साक्षरता की सीमाएँ।
अनुच्छेद-15
15(1) राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
15(2) कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश या सार्वजनिक समागम के स्थानों का उपयोग के संबंध में किसी भी निर्योग्यता(prohibitions), दायित्व, निर्बंधन, शर्त के अधीन नहीं होता। दुकान, भोजनालयों, मनोरंजन के साधनों, कुओं, तालाबों, स्नानागारों, सड़क आदि सार्वजनिक स्थान।
अनुच्छेद 15(3) ,15(4) ,15(5) समानता के अधिकार के अपवाद हैं।
15(3)- राज्य स्त्रियों और बच्चों के लिए विशेष उपबंध कर सकता है और कोई भी वाद इसके लिए राज्य को बाधित नहीं कर सकती।
15(4) बच्चों के लिए विशेष शिक्षा का प्रबंधन, विकास के लिए संस्थाओं की व्यवस्था।
राज्य को सामाजिक, शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के कुछ नागरिकों के कुछ वर्गों अनुसूचित जाति,जनजाति की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।
नोट:- सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ों की पहचान के लिए मानदंड तैयार करना विवादास्पद रहा है।
उच्चतम न्यायालय का निर्णय -"जाति किसी वर्ग के पिछड़ेपन को दर्शाने का एक प्रासंगिक कारण हो सकती है। न तो जाति न ही निर्धनता इसके निर्धारण की कसौटी है।
15(5) 93वां संविधान संशोधन विधेयक 2005 के द्वारा यह अनुच्छेद जोड़ा गया।
इसके अनुसार ' राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों, अनुसूचित जाति,जनजाति,अल्पसंख्यक, संस्था के अलावा किसी अन्य शिक्षण संस्थान में प्रवेश के लिए विशेष उपबंध करने का अधिकार है।
नोट:-
1) इसी प्रावधान के क्रियान्वयन के लिए केंद्र सरकार ने केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम 2006 पारित किया।
2) इसके अंतर्गत पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए सभी उच्च शैक्षणिक संस्थानों में 27% सीटें आरक्षित(शोध संस्थानों को छोड़कर) की गई हैं।
3) यहां क्रीमीलेयर के सिध्दान्त का प्रतिपादन किया जाएगा।
• क्रीमीलेयर :- पिछड़े वर्ग के विभिन्न तबकों के छात्र क्रीमीलेयर में आते हैं।
जैसे-
1) संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति ; राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, समस्त लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष आदि।
2) वर्ग-1 तथा वर्ग-2 की सेवा के 2nd क्लास अफसर जो केंद्र या राज्य सरकार की सेवा मे हों ; PSu, बीमा, बैंक कंपनियां, विश्वविद्यालयों में पदस्थ समकक्ष अधिकारी।
नोट:- यह नियम निजी कंपनियों में कार्यरत अधिकारियों पर भी लागू होता है।
सेवा में कर्नल या उससे ऊपर रैंक के अधिकारी, इनकी पुत्र-पुत्रियां।
डाक्टर, इंजीनियर, अधिवक्ता, लेखक, कलाकार, सलाहकार. इनके पुत्र-पुत्रियां।
व्यापार-वाणिज्य में कार्यरत व्यक्ति।
ऐसे लोग जिनके पास शहरी क्षेत्रों में पक्का भवन हो, निश्चित सीमा से अधिक कृषि भूमि, रिक्त भूमि, और जिनकी आय छह लाख से ऊपर हो।
विभेद,केवल :- अनुच्छेद 15 में दो शब्दों की व्याख्या की गई है 'विभेद' और 'केवल', यहां विभेद का तात्पर्य किसी के विरुद्ध विपरित मामला या अन्य के प्रति उसके पक्ष में नहीं रहना है।
केवल शब्द का तात्पर्य है कि अन्य आधारों पर मतभेद किया जा सकता है।
विभेद के तीन अपवाद- अनुच्छेद 15(3), 15(4), 15(5).
अनुच्छेद-16
अनुच्छेद-16(1) और 16(2) भारत के सभी नागरिकों को नियोजन और नियुक्ति में अवसर की समानता की गारंटी देता है। इस संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग के आधार पर विभेद नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद 16(3), 16(4), 16(4)(क) और 16(5) इसके अपवाद हैं।
साधारण दशा में अपवाद:-
1) संसद किसी विशेष रोजगार के लिए निवास की शर्त लगा सकती है, केन्द्र स्तर पर इसे समाप्त कर दिया गया 32वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा।
2) राज्य नियुक्तियों में आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है और किसी पद को पिछड़े वर्गों के लिए बना सकता है जिसका राज्य में समान प्रतिनिधित्व नहीं है।
3) विधि के तहत् किसी संस्था या इसकी कार्यकारी परिषद् के सदस्य या किसी की धार्मिक आधार पर व्यवस्था की जा सकती है।
प्रसिद्ध मंडल वाद :- 1992 में अनुच्छेद-16(4 ) के विस्तार और पिछड़े वर्गों के पक्ष में सरकारी नौकरी में जो आरक्षण की व्यवस्था की गई उसका परीक्षण सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया।
सुप्रीम कोर्ट :-
-उच्च जातियों के खास वर्ग के लिए 10% आरक्षण को अस्वीकारा।
-OBC के लिए कुछ शर्तों के साथ 27% आरक्षण की संवैधानिक वैधता को बनाये रखा।
-OBC के 'क्रीमीलेयर्स' को आरक्षण की सुविधा से बाहर रखा जाएगा।1993 में क्रीमीलेयर की पहचान के लिए रामनंदन सहाय समिति बनी।
-प्रोन्नति में कोई आरक्षण नहीं, यह व्यवस्था केवल प्रारंभिक नियुक्ति लागू होगी।
-असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर कुछ आरक्षित कोटा 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए।
Carry Forward अर्थात् आगे ले जाने का नियम रिक्त पदों(Backlogs) के लिए वैध होगा लेकिन इसमें 50% से अधिक नहीं होगी।
सरकार द्वारा उठाये गये कदम :-
1)1993 में रामनंदन सहाय समिति को अस्वीकारा।
2)सरकार ने संसद के एक विधेयक द्वारा 1993 में एक कमीशन अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए बनाया।
3)77वां संविधान संशोधन 1995 पारित किया और अनुच्छेद-16 में एक नयी व्यवस्था जोड़ी।इसमें राज्य को यह शक्ति प्रदान हुई कि राज्य सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने की स्थिति में अनुसूचित जाति एवं जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण दिया जा सकता है।
4)2001- 85वां संविधान संशोधन:- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को सरकारी सेवा के लिए आरक्षण नियम के तहत् प्रोन्नति के मामले में परिणामिक वरीष्ठता की व्यवस्था करता है।
5)Backlog रिक्तियों के संबंध में 81वां संविधान संशोधन अधिनियम-2000 के द्वारा इसे रद्द कर दिया गया। इसके द्वारा अनुच्छेद-16 में एक नयी व्यवस्था जोड़ी। राज्य को रिक्त आरक्षित पदों को अनुवर्ती वर्ष को भरने के लिए शक्तिशाली बनाया गया अर्थात् Backlog रिक्तियों में आरक्षण की 50% की सीमा को समाप्त कर दिया।
6)76वां संविधान संशोधन,1994 तमिलनाडु में 69% आरक्षण को संविधान के, 9वीं अनुसूची में डाल दिया।
नोट:- अनुच्छेद-16(3), 16(4), 16(4){क},16(5) अनुच्छेद 1और 2 के अपवाद का सृजन करते हैं।
16(3) - राज्य को उसके अधीन नियोजन या नियुक्ति में निवास विषयक अपेक्षाविहिन करने का अधिकार प्रदान करता है।
16(4) - अगर राज्य की राय में किसी पिछड़े वर्ग के नागरिकों का राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो राज्य उनके लिए पदों के आरक्षण का उपबंध कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कि इस उपबंध को अनुच्छेद-335 के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
अनुच्छेद-335 में जोड़ा गया कि राज्य अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए पदों और प्रोन्नति परीक्षा में आवश्यक न्यूनतम अंकों को कम कर सकती है।
सुप्रीमकोर्ट - आरक्षण अनुचित नहीं होना चाहिए, आरक्षण की एक सीमा होनी चाहिए यह अनुच्छेद-16(1) में वर्णित अवसर की समानता को प्रभावहीन ना करे इसलिए आरक्षण की सीमा को 50% करना चाहिए।
सुप्रीमकोर्ट - पिछड़ेपन का आधार आर्थिक नहीं सामाजिक होगा।
अनुच्छेद16(5) - अवसर की समता के सामान्य नियम का अपवाद। किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के कार्यकलाप से जुड़ा अधिकारी किसी विशेष धर्म का हो सकता है। इसे अवसर की समता का हनन नहीं माना जाएगा।
अनुच्छेद-17
अस्पृश्यता मानवता के विरूद्ध एक अपराध है जो समतामूलक समाज की स्थापना का विरोध करता है।
- अनुच्छेद-17 समता के अधिकार का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।
- इसके द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया है।
- अस्पृश्यता का किसी भी रूप में आचरण निर्षिध्द है और अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी निर्योग्यता को लागू करना विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
- इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संसद ने अस्पृश्यता निवारण(अपराध अधिनियम 1995) पारित किया।
- 1976 में इसका नाम बदलकर नागरिक सुरक्षा अधिनियम 1976 रखा गया। और इसका विस्तार कर दांडिक अपराधों को कम किया गया।
अस्पृश्यता शब्द को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है ना ही किसी अधिनियम में है।
संदर्भ(मैसूर हाईकोर्ट) - इसका संदर्भ कुछ वर्ग के कुछ लोगों को उनके जन्म,जाति के आधार पर सामाजिक निर्योग्यता को लागू करना।
दांडिक अपराध - 6 माह कारावास ,पांच सौ रुपए या दोनों।
अस्पृश्यता के लिए जो दोषी करार दिया जाता है वो संसद विधानमंडल के चुनाव के लिए अयोग्य हो जाता है।
अयोग्यता के कारण :-
• सार्वजनिक पूजा स्थल पर किसी व्यक्ति को पूजा करने से रोकना।
• परंपरागत, धार्मिक, दार्शनिक या अन्य आधार पर अस्पृश्यता को दण्डनीय ठहराना।
• दुकान,होटल, मनोरंजन स्थान में प्रवेश से इंकार।
• किसी लोकसंस्थान तालाब, कुआं, सड़क आदि में प्रवेश से इंकार।
• प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता को बढ़ावा देना
• सुप्रीमकोर्ट के किसी सदस्य का अपमान करना।
अनुच्छेद- 18 उपाधियों का अंत
उद्देश्य :- 1)विशेषाधिकारों का उन्मूलन
2)समानता के अधिकार का उदाहरण है।
अनुच्छेद-18 से संबंधित प्रावधान:-
1) राज्य सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवा कोई उपाधि नहीं देता।
2) राज्य शासन का कोई नागरिक विदेशी राज्य से कोई उपाधि प्राप्त नहीं करेगा।
3) कोई विदेशी राज्य के अधीन राज्य के विश्वास के पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य की उपाधि राष्ट्रपति के बिना नहीं धारण कर सकता।
4)राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
5) औपनिवेशिक शासक व वंशानुगत शासक जैसे महाराजा, राजा, राजबहादुर, रायबहादुर, राजसाहब, दीवानबहादुर जैसे को अनुच्छेद-18 के तहत् प्रतिबंधित किया गया है क्योंकि ये समानता के अधिकार के विरुद्ध थे।
इसी क्रम में भारत रत्न व पद्म पुरुस्कार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
-1996 में बालाजी राघवन बनाम भारत संघ में हाईकोर्ट ने पुरूस्कारों की वैद्यता को उचित ठहराया।
पुरुस्कार उपाधि नहीं बल्कि सम्मान स्वरूप है और अनुच्छेद-18 से विरोधाभासी नहीं है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पुरुस्कार प्राप्त करने वाला अपने नाम के प्रत्यय या उपसर्ग के रूप में इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
1977 में मोरारजी ने इसको बंद कर दिया था तथा 1980 में इंदिरा गांधी ने शुरू किया।
अनुच्छेद (19-22)
स्वतंत्रता का अधिकार
स्वतंत्रता का अर्थ है - चिंतन, अभिव्यक्ति, कार्य करने की स्वतंत्रता।
लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं अनिवार्य होती है जो नागरिकों के नैतिक,भौतिक व संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास में योगदान देती है।
अनुच्छेद- 19(1){f} -> निरसित(repelled)
44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा विधिक अधिकार बना।[ अनुच्छेद-300(a) ]
अनुच्छेद 19(2) -19(6) = युक्तियुक्त निर्बंधन
अनुच्छेद 19(1){ a ,b ,c, d, e, g } = न्यायलयीन निर्वचन से विस्तार।
अनुच्छेद 19 (1) {a}
वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता:-
यह प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति दर्शाने, मत प्रकट करने, विश्वास अभियोग दिलाने की मौलिक, लिखित, और दिए गए मामलों पर स्वतंत्रता देती है।
-6 अधिकारों की रक्षा केवल राज्य के खिलाफ मामलों में है न कि निजी मामलों में।
-न्यायालय ने समय-समय पर विभिन्न वादों के जरिए इसमें निम्नलिखित को सम्मिलित किया है -
1)प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता।
2)सूचना का अधिकार।
3)फोन टैपिंग के विरुद्ध अधिकार।
4)प्रसारित करने का अधिकार।
5)किसी राजनीतिक दल द्वारा आरोपित बंद के खिलाफ अधिकार
6)सरकारी गतिविधियों की जानकारी(citizen charter act,नागरिक अधिकार पत्र)
7)शांति का अधिकार।
8)प्रदर्शन एवं विरोध का अधिकार।
9)चुप रहने का अधिकार।
उच्चतम न्यायालय ने यह परिभाषित किया कि अर्थात् ये अधिकार नागरिक या कंपनी के शेयर धारकों के लिए है। ना कि विदेशी या कानूनी लोगों के लिए।
-वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निम्न आधारों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं :-
1)राष्ट्र की एकता, संप्रुभता, अखंडता, राज्य की सुरक्षा।
2)सार्वजनिक अवदेश, नैतिकता की स्थापना।
3)न्यायालय की अवमानना।
4)अपराध में संलिप्त होना।
5)नोटा-2013(सबसे पहले छत्तीसगढ़ के बस्तर,राजनांदगांव में)
अनुच्छेद- 19(1) {b}
शांतिपूर्वक सम्मेलन की स्वतंत्रता, सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने/अधिकार एवं प्रदर्शन की स्वतंत्रता।केवल इसका उपयोग सार्वजनिक भूमि पर बिना हथियार के। राज्य संगठित होने के आधार पर दो आधारों पर प्रतिबंध लगा सकता है:-
1)भारत की एकता, अखंडता का सुरक्षा उपाय।
2)यातायात सुरक्षा।
आपराधिक व्यवस्था की धारा 144 के आधार पर न्यायाधीश किसी संगठित बैठक को खतरे के अंतर्गत प्रतिबंधित कर सकता है।
19(1) {c}
संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता।
-युक्तियुक्त निर्बंधन लगाया जा सकता है।
-राष्ट्र की एकता, अखंडता के मद्देनजर।
सुप्रीमकोर्ट का निर्णय- श्रम संगठनों को मोल-भाव, हड़ताल और तालाबंदी करने का अधिकार नहीं है। औद्योगिक कानूनों के तहत् इनको नियंत्रित कर सकता है।
19(1) {d}
भारत में अबाध संचरण का अधिकार।
- भारत के राज्य क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान, एक राज्य से दूसरे राज्य जाने का अधिकार है।
- इस पर दो कारणों से युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
- अनुसूचित जनजाति की सुरक्षा।
नोट- एड्स पीड़ित व्यक्ति के संचरण को वैध ठहराया गया है।
संचरण की स्वतंत्रता के दो लाभ:-
1)आंतरिक(देश और विदेश जाने का)
2)बाह्य (विदेश से वापस आने का, सरबजीत मामला)
19(1) {e}
निवास का अधिकार।
नागरिक को देश के किसी भी भाग में बस जाने का अधिकार-
a) देश के किसी क्षेत्र में अस्थायी रूप में रहना।
b) घर बनाकर स्थायी रूप से रहना।
दो आधारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध-
1)सार्वजनिक हित में।
2)जनजातीय क्षेत्रों की संस्कृति, भाषा के अनुरक्षण हेतु।
19(1) {g}
आजीविका, व्यापार, व्यवसाय अपनाने की स्वतंत्रता।
इस अधिकार में कोई अनैतिक कृत्य शामिल नहीं है। जैसे महिलाओं व बच्चों का दुरूपयोग।
हानिकारक विस्फोटकों व रसायनों का प्रयोग-व्यक्ति राज्य इन पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा सकता है इनके संचालन के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता तय करता है।
अनुच्छेद-20
अपराधों की दोष-सिध्दि के संबंध में संरक्षण।
अनुच्छेद- 20(1) आपराधिक मामलों में भूतलक्षी प्रभावों(Ex-post facto) के विधायन पर निषेध है।
अनुच्छेद- 20(2) दोहरी गति या दोहरे जोखिम या दोहरे दंडादेश(double jeopardy) का निषेध। अर्थात् एक ही अपराध के लिए दो बार सजा नहीं दी जा सकती।
अनुच्छेद- 20(3) स्वअभिसंशन, स्वयं के विरूध्द गवाही या साक्ष्य दिए जाने के लिए बाध्य किए जाने पर निषेध(मौखिक या लिखित), मात्र आपराधिक मामलों में।
अनुच्छेद- 21
प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।
किसी भी व्यक्ति को विधि के द्वारा ही उसके प्राण और दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।
उच्चतम न्यायालय ने ए.के. गोपालन मामले(1950) में अनुच्छेद- 21 की व्याख्या की। इसमें व्यवस्था दी कि अनुच्छेद- 21 के तहत् सिर्फ मनमानी कार्यकारी प्रक्रिया के विरुद्ध सुरक्षा उपलब्ध है ना कि विधानमंडल की प्रक्रिया के विरुद्ध।इसका अर्थ यह हुआ कि प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को कानूनी अधिकार को रोका जा सकता है।
या इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद-21 की अभिव्यक्ति विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया अमेरिकी संविधान में अभिव्यक्त विधि की सम्यक् प्रक्रिया से अलग है। अर्थात् भाग-3 में उल्लिखित मूल अधिकारों को अलग-अलग समझा जाना चाहिए।
-आर.सी. कूपर बनाम भारतीय संघ 1970 में न्यायालय में ए.के. गोपालन वाद के निर्णय को पलटा और कहा कि मूल अधिकार एकीकृत है।(ए.डी.एम जबलपुर केस)
-मेनका गांधी वाद 1978:-विधि के समक्ष समानता का निर्वचन।विधि अवश्य ही निष्पक्ष, न्यायसंगत और युक्तियुक्त होनी चाहिए।
अमेरिकी संविधान की विधि की सम्यक् प्रक्रिया में सम्यक् प्रक्रिया के अंतर्गत नैसर्गिक अधिकार भी सम्मिलित है।
विधि के कुछ विशिष्ट सिद्धांत होते हैं जिसमें निष्पक्षता, न्यायसंगत, युक्तियुक्तता सम्मिलित हैं इन आधारों पर यदि कोई विधि बनाई जाती है तो वह विधि की सम्यक् प्रक्रिया होगी।
मेनका गांधी वाद के निर्वचन के पश्चात् विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक् प्रक्रिया में कोई अंतर नहीं रहा। यह संविधान की प्रगतिशीलता है।
केस-1)मेनका गांधी वाद बनाम भारतीय संघ 1978।
इसमें कहा गया कि जीवन का अधिकार केवल भौतिक जीवन नहीं है बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीवन है।
2)एम.एच. हास्काट।
अनुच्छेद-22
गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण।
अनुच्छेद-22(1) हिरासत में लिया जाना और उसके बाद हिरासत के आधार के बारे में जल्द से जल्द सूचित करना।
हिरासत में लिए गए व्यक्ति को किसी विधिवेत्ता से परामर्श करने का अधिकार और अपनी प्रतिरक्षा।
अनुच्छेद-22(2) हिरासत में लिए जाने के अंतर्गत 24 घंटे के अंदर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
अनुच्छेद-22(3) यह अनुच्छेद-22 के अपवाद हैं :-
a)किसी विदेशी शत्रु को हिरासत में लिया है तो जरूरी नहीं है।
b) यदि किसी व्यक्ति को निवारक-निरोधक( Preventive Detention) के अंतर्गत हिरासत में लिया गया है।
अनुच्छेद-22(4) निवारक-निरोधक के अंतर्गत अधिकतम अवधि तीन माह(विधि के अनुसार)
अनुच्छेद-22(5) निवारक-निरोधक के आधार और सुरक्षा उपाय का उल्लेख है।
अनुच्छेद-22(6) सार्वजनिक हित में 22(5) के प्रावधानों के अपवाद।
अनुच्छेद-22(7) निवारक-निरोधक के अंतर्गत संसद की शक्ति का उल्लेख।
Punitive Detention (दंडित करने के लिए बंदी):-
a)accusal
b)procedure
c)reason
d)judicial process
Preventive Detention (शक के आधार पर):-
a) इसके अंतर्गत हिरासत से तात्पर्य किसी व्यक्ति को किसी कार्य के लिए दंडित करना नहीं है।
b)इसका अर्थ है किसी व्यक्ति को अपराध करने से पहले हिरासत में लिया जाना।
c)इसके अंतर्गत व्यक्ति को गैरकानूनी कार्य करने से रोकने का दृष्टिकोण है। कोई आरोप लगाया नहीं जाता ना ही जांच होती है ना ही दोष सिद्धि होती है।
आधार =
1/ संदेह या शक एकमात्र आधार है।
2/ गैरकानूनी कार्य करने की संभावना है।
3/ हिरासत में लेने वाले प्राधिकरण (RAW,IB,NIA) की संतुष्टि पर आधारित है।
4/ऐसी गतिविधि से निम्न संभावनाएं:-
क)राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा।
ख)सार्वजनिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव।
ग)सामुदायिक सेवाओं पर प्रतिकूल प्रभाव।
घ)राजनीतिक, सामाजिक अशांति पर प्रभाव।
उद्देश्य:-
a) समाज विरोधी गतिविधियों को रोकना।
b) स्वतंत्रता और अधिकार के दुरुपयोग को रोकना।
Preventive Detention Act, 1950
1)MISA( maintenance of internal security act,1971)
- इसे 1978 में समाप्त कर दिया गया।
2)COFEPOSA (conservation of foreign exchange and prevention of smuggling activities,1974)
3)SAFEMA (smugglers and foreign exchange manipulators forefathers of property act,1976)
4)NSA (National security act, 1980)
5)TADA (Terrorist and disruptive activities,1987)
-1995 में समाप्त कर दिया।
6)POTO (Prevention of terrorism ordinance, 2001) - Fail.
आलोचनाएं :-
लोकतांत्रिक संविधान में इस प्रकार का प्रावधान आलोचना का विषय है-
1)यह सामान्य परिस्थितियों में भी लागू होता है इसलिए आलोचना का विषय है।
2)यह कार्यपालिका को निरंकुशवादी शक्ति प्रदान करता है।
3)इस प्रकार के कानूनों से मौलिक अधिकारों के हनन की संभावना होती है।
अनुच्छेद-23
शोषण के विरुद्ध अधिकार
अनुच्छेद- 23(1) मानव दुर्व्यवहार, बेगार तथा बलात श्रम प्रतिष्ध्दि(निषेध) किया जाता है और इसका उल्लंघन विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
अनुच्छेद-23(2) यह 23(1) का अपवाद है।
राज्य सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा बिना किसी भेदभाव के आरोपित कर सकता है।
अनुच्छेद-24
कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध।
14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य संकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।
उच्चतम न्यायालय ने बिना पारिश्रमिक दिए कैदियों से काम करवाने को अनुच्छेद-23 का उल्लंघन माना है, बंधुआ मजदूरी और बलात् श्रम से मुक्त कराना सरकार का कर्त्तव्य हो जाता है।
मानव दुर्व्यव्यापार में शामिल हैं:-
1) पुरूष, महिला,बच्चों की वस्तु की तरह खरीद फरोख्त।
2) महिलाओं और बच्चों का अनैतिक उपयोग( इसमें देह व्यापार भी शामिल है)।
3)देवदासी प्रथा और दास।
{ 1843 में भारत में दास प्रथा बंद हुई -विश्व में सर्वप्रथम }
कुछ प्रगतिशील जुड़ते आयाम:-
1) उज्जवला योजना = केंद्र सरकार की पहल
यह अधिकार नागरिक और गैर नागरिक दोनों को प्राप्त है।
2)न्यूनतम मजदूरी अधिनियम ,1956
3)ठेका मजदूरी अधिनियम ,1966
4)समान पारिश्रमिक अधिनियम
5)बाल श्रम प्रतिषेध एवं नियमन अधिनियम, 1986
उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर बाल श्रम पुनर्वास कल्याण कोष की स्थापना की गई।
6)बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005
इसके द्वारा बच्चों के अधिकार के संरक्षण के लिए एक राष्ट्रीय आयोग और राज्य आयोग की स्थापना का प्रावधान।
वर्ष 2006 में बच्चों के घरेलू नौकर, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के यहां काम करने पर रोक लगाई।
अनुच्छेद (25-28)
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार।
अनुच्छेद (25-1)- व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता, अपने धर्म को बिना किसी बाधा के मानने, उसका आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता होगी।
-लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है।
अनुच्छेद (25-2)- राज्य को धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक और अन्य लौकिक(पृथ्वी पर) क्रियाकलापों को विनियमित करने का अधिकार।
•राज्य सामाजिक कल्याण या सुधार के लिए या हिन्दुओं के मंदिरों को हिन्दुओं के सभी वर्गों के लिए खोलने का उपबंध कर सकती है।
•कृपाण धारण करना और उसे लेकर चलना सिख धर्म का अंग माना जाएगा।
•हिन्दुओं से तात्पर्य है कि सिख, बौद्ध ,जैन धर्म को मानने वाले।
•उच्चतम न्यायलय का निर्णय है कि धर्म के प्रचार में बलपूर्वक धर्मांतरण शामिल नहीं है। इसीलिए यदि धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए कोई कानून बनाया जाता है तो वह संवैधानिक और विधि मान्य होगा।
•संविधान एक मौलिक अधिकार के द्वारा दूसरे मौलिक अधिकार के हनन की अनुमति नहीं देता, अतः प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता के तहत् अंतःकरण की स्वतंत्रता को बाधित नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद-26
धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता।
प्रत्येक धार्मिक धार्मिक संप्रदाय या अनुभाग को निम्न अधिकार होंगे:-
1/धार्मिक प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और उनके पोषण का अधिकार।
2/धर्म विषयक कार्यों के प्रबंध का अधिकार।
3/चल और अचल संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार।
4/अर्जित संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार।
अनुच्छेद-26 सामूहिक, धार्मिक रूप से धार्मिक अधिकारों की रक्षा करता है।
हाईकोर्ट का निर्णय - धार्मिक संप्रदायों को तीन शर्तें पूरी करनी चाहिए-
a)यह व्यक्तियों का समूह होना चाहिए जिसका विश्वास तंत्र उनके अनुसार उनकी आत्मिक तुष्टि के अनुकूल हो।
b)इनका एक सामान्य संगठन होना चाहिए।
c)इनका एक विशिष्ट नाम होना चाहिए।
उदाहरण:- रामकृष्ण मिशन।
अनुच्छेद-27
किसी विशिष्ट धर्म की वृध्दि के लिए कर न देने की स्वतंत्रता।
• किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि में व्यय करने या कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
• यह अनुच्छेद पंथनिरपेक्षता और सर्वधर्मसंभाव को सुनिश्चित करता है।
कि यदि करों का इस्तेमाल होता है तो सभी धर्मों पर होना चाहिए।
• यह व्यवस्था केवल कर आरोपण पर रोक लगाती है न कि शुल्क पर।
शुल्क लगाने का उद्देश्य धार्मिक संस्थानों पर धर्मनिरपेक्ष प्रशासन पर नियंत्रण लगाना है।
जैसे:- तीर्थयात्रियों से शुल्क की वसूली की जा सकती है ताकि उन्हें विशेष सुविधाएं मुहैया कराई जा सके।
इसी तरह धार्मिक क्रियाकलापों और उनके खर्च के नियमितीकरण पर शुल्क लगाया जा सकता है।
अनुच्छेद- 28 धार्मिक शिक्षण संस्थानों में धर्म विशेष की उपासना नहीं दी जाएगी ऐसी शिक्षण संस्था जो किसी न्यास (ट्रस्ट) के अंदर स्थापित हो और जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है।
अनुच्छेद-28 चार प्रकार के शैक्षणिक संस्थानों में विभेद करता है:-
a)ऐसे संस्थान जिनका पूर्णरूपेण रखरखाव राज्य करता है।
b)जिनका प्रशासन राज्य करता है लेकिन जिनकी स्थापना किसी ट्रस्ट के तहत गई।
c)राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थान।
d)ऐसी संस्थान जो राज्य द्वारा वित्तपोषित हों।
अनुच्छेद (29-30) संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार:-
अनुच्छेद-29 भारत के नागरिकों को भारत के राज्य क्षेत्र के अंदर अपनी विशेष भाषा,लिपि या संस्कृति को बनाये रखने का अधिकार देता है।
यह अधिकार अल्पसंख्यकों एवं बहुसंख्यकों को है।
अनुच्छेद-29(2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाली किसी शिक्षण संस्थान में प्रवेश से किसी भी नागरिक को धर्म,मूलवंश,जाति,लिंग,भाषा इनमें से किसी आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।
नोट:- भारत में अल्पसंख्यकों को दो आधारों पर माना गया है- 1) भाषायी 2) धार्मिक
अनुच्छेद-30 धर्म और भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि अपनी इच्छा की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना।
अनुच्छेद-30(1){a} यदि अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाओं की संपत्ति अर्जित की जाती है तो उन्हें उचित मुआवजा दिया जाएगा।
कुप्रशासन के आधार पर शिक्षा संस्थानों को चलाने का अधिकार नहीं है।
सुप्रीमकोर्ट ने 30(1) के अंतर्गत प्रशासन के अधिकार को पूर्ण अधिकार कर राज्य हस्तक्षेप कर सकता है।प्रशासन का अधिकार कुप्रशासन नहीं हो सकता, अतः अल्पसंख्यकों के हित में इसका नियमन किया जा सकता है।
सुप्रीमकोर्ट ने 30(2) के अंतर्गत बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक संस्थानों के बीच विभेद को पूर्ण समर्थन दिया है।
अनुच्छेद-31 संपत्ति का अधिकार।{ अनुच्छेद 300(a) में निरसित(repelled) }
संपत्ति का अधिकार अब मूल अधिकार का अंग नहीं रहा बल्कि अब एक संवैधानिक विधिक अधिकार के रूप में है अर्थात् अनुच्छेद-32 और अनुच्छेद-226 के द्वारा इसके प्रवर्तन के अधिकार की समाप्ति।
लेकिन 31(a), 31(b), 31(c) मूल अधिकारों के अंग हैं।
अनुच्छेद- 31(a) प्रथम संविधान संशोधन 1951 के समय लाया गया।
उद्देश्य:- जमींदारी प्रकार के अधिकारों की समाप्ति को वैधता प्रदान करना।
31(a) के तहत् निम्न कानूनों को सुरक्षा दी गई-
1/ राज्य के द्वारा किसी जागीर का अधिग्रहण।
2/ किसी संपत्ति के प्रबंधन का अधिग्रहण।
3/ दो या दो से अधिक निगमों का विलय।
4/ सभी प्रकार के प्रबंधकों के अधिकारों का संशोधन अथवा समाप्ति।
5/ खनिज या खनिज तेल से संबंधित किसी समझौते से उभरे किसी अधिकार का संशोधन।
अनुच्छेद- 31(b) प्रथम संविधान संशोधन 1951 से जोड़ा गया।
-इसके अंतर्गत 9वीं अनुसूची में उल्लिखित अधिनियमों और नियम को सुरक्षा प्रदान की गई।
-9वीं अनुसूची में यह प्रावधान है कि इस अनुसूची में कोई विधि या नियम इस आधार पर इस आधार पर शून्य नहीं होगा कि यह भाग-3 के किसी मूल अधिकार का हनन करती है।
I.R. cohelo vs. tamilnadu state, 2007
सुप्रीमकोर्ट का निर्णय- नौवीं अनुसूची में सम्मिलित की गई विधि के द्रारा यदि किसी मौलिक अधिकार का हनन हो और जो मौलिक ढांचे को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है उसका न्यायिक पुनर्विलोकन किया जा सकता है।
सुप्रीमकोर्ट का विचार यह भी था कि नौवीं अनुसूची में व्यापक स्तर पर विधियों को शामिल किया गया है और इससे संसदीय प्रभुत्व स्थापित होता है। जिससे संविधान के लिए चुनौतियां उत्पन्न करने की संभावनाएँ बनी है और इस संदर्भ में अनुच्छेद- 31(b) मौलिक ढांचे को सुरक्षा प्रदान करने के अंतर्गत बाधा नहीं बन सकता।
नौवीं अनुसूची में शामिल कुछ प्रमुख अधिनियम -
1) monopoly restrictions for trade and practice, MRTP Act
2)COFEPOSA Act
3)Essential Commodity Act
4)labour law, बंधुआ मजदूरी व्यवस्था।
1973 तक 284 थे, 1973 के बाद इसमें 218 नियम, अधिनियम शामिल किए गए।
अनुच्छेद- 31(c) 25वें संविधान संशोधन अधिनियमों 1971 द्वारा जोड़ा गया।
प्रावधान:- कोई भी विधि यदि भाग-4 के अनुच्छेद 39-b, 39-c को लागू करती है तो उसे इस आधार पर शून्य घोषित नहीं किया जा सकता कि वह भाग-3 के अनुच्छेद 14 और 19 का हनन करती है।
-25वें संविधान संशोधन की न्यायिक समीक्षा- केशवानंद भारती वाद।
- न्यायालय में चुनौती वाले प्रावधान को रद्द कर दिया गया।
(मिनरवा मिल्स केस,1980)
-42वें संविधान संशोधन की समीक्षा की गई तथा कोई भी प्रावधान शब्दावली को समाप्त किया गया।
अनुच्छेद-32
संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
अनुच्छेद 32 से संबध्द कुछ शब्दावलियां :-
• विशेषाधिकार प्रलेख(writ) {226} :-
-इसकी उत्पत्ति ब्रिटिश काल में हुई।
-हाईकोर्ट के विशेषाधिकार शक्ति से संबंधित है।
-अधीनस्थ न्यायालयों और इसके अधिकारियों पर नियंत्रण से संबंधित है।
• Suo Motto (स्वतः संज्ञान) :- न्यायपालिका द्वारा स्वतः संज्ञान लेकर पहल करना Suo Motto कहलाता है।
• In-Junction(निषेधाज्ञा) :- यह गैरसरकारी अधिकारियों को किसी काम को करने या नहीं करने का आदेश है।
• Res Judicata(सार्वजनिक नीति का नियम) :-
code of civil procedure :-
दीवानी संहिता की धारा 11में निहित है।
इस सिद्धांत के अंतर्गत किसी भी क्षेत्र में पूर्ण अधिकारिता रखने वाले न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय होता है और यह सिद्धांत Article-32 और Article-226 में लागू होता है।
इसके अंतर्गत अनुच्छेद-32 के तहत् दिए गए निर्णय अंतिम निर्णय है।
बंदी प्रत्यक्षीकरण इसका अपवाद है। इसकी सुनवाई सुप्रीमकोर्ट में हो सकती है।
• Locus Standy (Who can file a writ?)
-1981 में पहली बार परिभाषित किया।
-सार्वजनिक भावना से संबद्ध होना चाहिए।
-1982 में यह आया कि पर्याप्त हित होना चाहिए।
-यह PIL, SIL (Social) से जुड़ता है।
• मार्शल ला :-
यह सिर्फ मूल अधिकारों को प्रभावित करता है।
- यह सरकार और सामान्य न्यायालयों को निलंबित करता है।
- यह 'कानून व्यवस्था' के भंग होने पर इसे दोबारा निर्धारित करता है।
- कुछ विशेष क्षेत्रों में ही लागू किया जा सकता है।
- मार्शल ला अव्यक्त है, संविधान में कोई विशेष व्यवस्था नहीं है।
- मार्शल ला= सैन्य शासन
- ऐसी स्थिति का परिचायक जहां सेना द्वारा सामान्य प्रशासन को अपने नियम कानूनों के तहत् संचालित किया जाता है।(AFSPA)
उद्देश्य :-
- समाज में व्यवस्था बनाये रखना।
- मार्शल ला के समय सैन्य प्रशासन को असाधारण अधिकार मिल जाता है।
- मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध, मृत्युदंड भी।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय - मार्शल ला प्रतिक्रियावादी परिणाम के तहत् बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका को निलंबित नहीं कर सकता।
प्रलेख (Writ):- न्यायालय की जिस आज्ञा के अनुसार किसी व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित होने या कार्य करने के लिए बुलाया जाये, उसे आदेशलेख, प्रलेख कहते हैं।
इन्हें परमाधिकार प्रलेख भी कहते हैं और ये इंग्लैण्ड के common law की अभिव्यक्ति हैं।
प्रलेख के प्रकार:-
1) Habeus Carpus (बंदी प्रत्यक्षीकरण) :-
लैटिन भाषा से उद्धृत(Adopted) का शाब्दिक अर्थ सशरीर प्रस्तुत करना। यह उस व्यक्ति के संबंध में न्यायालय द्वारा जारी आदेश है जिसे दूसरे द्वारा हिरासत में रखा गया है।
-न्यायालय द्वारा मामले की जांच और अविधिक पाये जाने पर उसे मुक्त कर दिया जाता है।
- सार्वजनिक प्राधिकरण हो या व्यक्तिगत दोनों के विरुद्ध जारी की जा सकती है।
- जब गिरफ्तारी विधि सम्मत है तब जारी नहीं होगी।
- जब न्यायालय या विधानमंडल की अवमानना से जुड़ा हो तब जारी नहीं होगी।
- जब गिरफ्तारी या हिरासत न्यायालय के न्याय क्षेत्र से बाहर हो।
2) Mandemus (परमादेश):-
शाब्दिक अर्थ - हम आदेश देते हैं।
यह एक नियंत्रण है या उच्च आदेश है जिसे न्यायालय द्वारा सार्वजनिक अधिकारियों को जारी किया जाता है ताकि उनसे उनके कार्यों और उसके नकारे जाने के संबंध में पूछा जा सके।
निजी व्यक्ति या संस्था के विरुद्ध गैर संवैधानिक निकायों के विरुद्ध जारी नहीं कर सकते।
जब सार्वजनिक अधिकारियों ने अपने विवेक का प्रयोग किया हो, संविदात्मक कार्यों को लागू करने में इस्तेमाल नहीं कर सकते।
राष्ट्रपति और राज्यपाल के विरुद्ध, हाईकोर्ट चीफ जस्टिस के विरुद्ध जारी नहीं कर सकते।
3) Prohibition (प्रतिषेध) :-
शाब्दिक अर्थ - रोकना या मना करना।
यह एक न्यायिक प्रलेख है अर्थात् यह प्रलेख न्यायिक और अर्धन्यायिक अधिकरणों के विरुद्ध ही जारी की जा सकती है अर्थात् प्रशासनिक अधिकरणों, विधायी निकायों और निजी निकायों के लिए उपलब्ध नहीं है।
उच्चतम न्यायालय, हाईकोर्ट द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों को अपने न्यायिक क्षेत्र से उच्च न्यायिक कार्य को करने से रोकने के लिए जारी की जाती है।
नोट:- यह प्रलेख निवारक प्रकार की है अर्थात् उस समय जारी की जाती है जब किसी मामले में कार्यवाही चल रही हो।
4) Certioteri (उत्प्रेषण) :-सूचना देना या प्रमाणित होना।
यह एक Judicial writ है। जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार के बाहर या देश के विधि के उल्लंघन में कोई निर्णय दे दे तो उत्प्रेषण प्रलेख जारी की जाती है।
यह निवारक और सहायक दोनों प्रकार का है।
1991 सुप्रीमकोर्ट का फैसला- प्रशासनिक अधिकरणों(323-a) के विरुद्ध भी जारी की जा सकती है।
5) Quo- Warranto(अधिकार पृच्छा):-
शाब्दिक अर्थ- किस अधिकार से।
न्यायालय सार्वजनिक पद पर कार्य कर रहे लोकसेवक से यह पूछ सकता है कि वह किस अधिकार से कार्य कर रहा है और उसके दावे के औचित्य के सिध्द न होने से उसे उसके पद से हटा सकता है।
मंत्री के कार्यालय निजी कार्यालयों में जारी नहीं किया जा सकता।
किसी भी व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है ना कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा।
अनुच्छेद-33
संसद को यह अधिकार है कि वह सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों,पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों और अन्य के मूल अधिकारों पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगा सकती है।
उद्देश्य:- समुचित कार्य करने और अनुशासन बनाये रखना।
सैन्य अधिनियम, नौसेना अधिनियम, वायुसेना अधिनियम 1950.
a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
b) संगठन बनाने का अधिकार।
c) श्रमिक संघों और राजनीतिक संगठनों का सदस्य।
d) प्रेस को सूचना देना।
e) सार्वजनिक बैठक और संगठन।
f) ये प्रतिबंध सेना के बावर्ची, डाक्टर आदि पर लागू होते हैं।
अनुच्छेद-34
मूल अधिकारों पर यह तब प्रतिबंध लगाता है जब भारत में कहीं मार्शल ला लगाया हो।(संसद+राज्य)
अनुच्छेद-35
केवल संसद को कुछ विशेष मूल अधिकारों को प्रभावी बनाने के लिए कानून बनाने की शक्ति देता है।
-निवास विषयक संबंधी उपबंध।
-अनुच्छेद 32 प्रलेख जारी करना।
-मार्शल ला के दौरान क्षतिपूर्ति (अनुच्छेद- 34)
-अनुच्छेद 33 से प्रतिबंध।
-अस्पृश्यता से दंड देने की शक्ति (अनुच्छेद- 17)
-अनुच्छेद 23(बलात् श्रम, मानव दुर्व्यव्यापार) दंड देना।
NICE WORK SIR, WOULD U PLEASE POST ARTICLE O PRESIDENTIAL POWER , I MEAN 52-151
ReplyDeletedoubt - shankari banam indian union case me article 368 ki vidhi ko samilit nahi karta hoga , na ki 366
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