Tuesday, 7 November 2017

भारतीय संविधान (article description-2nd part) नीति-निदेशक तत्व, मूल कर्त्तव्य और संघीय कार्यपालिका

भाग-4

अनुच्छेद (36-51)

राज्य के नीति-निदेशक तत्व


संवैधानिक दर्जा :-
- यह आयरलैण्ड के संविधान से लिए गए हैं।
- अंबेडकर जी ने इन तत्वों को विशेषता वाला बताया है।
- विशिष्ट निर्देश हैं जिनका स्वरूप सिध्दान्त और आदर्श जैसा है।
- यह राज्य के द्वारा शासन में मार्गदर्शी सिध्दान्त के रूप में है।
- ये राज्य के शासन में मौलिक हैं।
- इसमें राज्य का वही अर्थ बताया गया है जो मौलिक अधिकारों के लिए प्रयुक्त है, अर्थात् 'राज्य' में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के अलावा स्थानीय प्राधिकारी भी शामिल हैं। (अनुच्छेद-36)
- नीति-निदेशक तत्व न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं। (अनुच्छेद-37)

विशेषता:-
- राज्य नीतियों और कानूनों को प्रभावी बनाते समय इन तत्वों को ध्यान में रखेगा।
- नीति-निदेशक तत्व भारत शासन अधिनियम 1935 में उल्लिखित अनुदेशों के शासन हैं। ये अनुदेश ही निदेशक तत्व हैं।
- नीति-निदेशक तत्व के उद्देश्य न्याय में उच्च आदर्श, स्वतंत्रता और समानता को बनाये रखना है अर्थात् लोक कल्याणकारी राज्य का निर्माण है।
- नीति-निदेशक तत्व की प्रकृति गैर न्यायिक है अर्थात् न्यायालय द्वारा इन्हें लागू नहीं किया जा सकता।
- विधि की संवैधानिकता के अंतर्गत न्यायालय इनको देख सकता है।
श्रेणियां :-
नीति-निदेशक तत्व पर गांधीजी, अंबेडकर, नेहरू और अन्य राष्ट्रीय नेताओं के विचारों का प्रभाव दृष्टव्य है।

नीति-निदेशक तत्वों की तीन व्यापक श्रेणियां हैं-
1/ समाजवादी सिद्धांत :-
लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना।

अनुच्छेद- 38
लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय द्वारा सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करना।

अनुच्छेद- 39
राज्य अपनी नीतियां इस प्रकार संचालित करेगा कि -
a)सभी नागरिकों (पुरुष और स्त्री) को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों।
b)सामूहिक हित के लिए भौतिक संसाधनों का समान वितरण।
c)धन और उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण ना हो।
d)पुरुष और स्त्रियों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन।
e)पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और बच्चों के सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग ना हो।
f)बालकों को स्वास्थ्य विकास के अवसर।
g)अनुच्छेद-39 अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि उच्चतम न्यायालय का निर्णय है कि मूल अधिकारों के निर्वहन में इस अनुच्छेद की सहायता ली जा सकती है।
h)अनुच्छेद 39-A 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। {समान न्याय और निशुल्क विधिक सहायता}।

अनुच्छेद- 41
काम पाने की, शिक्षा पाने की, बेगारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता की दशाओं में लोक सहायता पाने का अधिकार।

अनुच्छेद- 42
कार्य की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं तथा प्रसूति सहायता प्राप्त करने का उपबंध।

अनुच्छेद- 43
कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी, अच्छा जीवन स्तर तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्रदान करना।
अनुच्छेद- 43(a)
उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों की भागीदारी सुनिश्चित करना।

अनुच्छेद- 47
पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करना तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करना।

2/ गांधीवादी सिध्दान्त :-
ये सिद्धांत राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधीजी के द्वारा स्थापित योजनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अनुच्छेद- 40
ग्राम पंचायतों का गठन और इन्हें आवश्यक शक्तियां प्रदान कर स्वशासन की ईकाई के रूप में कार्य करने की शक्ति देना।

अनुच्छेद- 43
ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों, व्यक्तिगत या सहकारिता के आधार पर इनका विकास करना।

अनुच्छेद- 46
अनुसूचित जातियाँ, जनजातियां और अन्य दुर्बल वर्गों की शिक्षा, आर्थिक हित की वृध्दि शोषण से रक्षा का प्रयास करना।

अनुच्छेद- 47
पोषण स्तर और जीवन स्तर में सुधार का प्रयास करना और मादक पेय और हानिकारक औषधियों के औषधीय प्रयोजन को छोड़कर अन्य प्रयोगों पर प्रतिबंध लगाना।

अनुच्छेद- 48
कृषि एवं पशुपालन की वैज्ञानिक प्रणालियों का विकास, दुधारू पशुओं की नस्ल में सुधार और गौ-वध का प्रतिषेध करना।
अनुच्छेद- 48(a)
पर्यावरण का संरक्षण, उसका संवर्धन और उसकी रक्षा।

उदार बौध्दिक सिद्धांत :-
उदारवादी विचारधारा से प्रेरित विचार जो राज्य को निर्देशित किए गए हैं-

•अनुच्छेद 44 - एकसमान नागरिक संहिता।
भारत में सिर्फ गोवा राज्य में लागू है।

•अनुच्छेद 45 - सभी बच्चों को 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देना।
(76वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा आयु के प्रावधान को बदला)

•अनुच्छेद 48 कृषि और पशुपालन की आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों का विकास।
•अनुच्छेद 48(a) पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1972 (42वें संविधान संशोधन के द्वारा)

•अनुच्छेद 49 राष्ट्रीय महत्व वाले विषयों, घोषित कलात्मक और ऐतिहासिक स्मारकों, स्थान और वस्तुओं का संरक्षण करना।

•अनुच्छेद 50 राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करना।

•अनुच्छेद 51 अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि करना, राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मान के संबंधों को बनाये रखना।
            अंतर्राष्ट्रीय विधि और संधि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाना तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों के मध्यस्थ द्वारा निपटाने को प्रोत्साहन करना।

नीति-निदेशक तत्वों का महत्व :-
1)जन शिक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।ये सिध्दान्त राज्य के उद्देश्यों और लक्ष्यों की जानकारी देते हैं अर्थात् यह स्पष्ट होता है कि राज्य एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए कृत संकल्पित है।
2)इन सिध्दान्तों के पीछे जनमत की शक्ति होती है अतः इस एक कारण कोई भी सरकार इनकी अवहेलना नहीं कर सकती।
3)नीति-निदेशक तत्वों का महत्व इस बात में है कि ये नागरिकों के प्रति सकारात्मक उत्तरदायित्व है।
4)राजनीतिक अस्थिरता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
5)संविधान की व्याख्या में सहायक।
संविधान के अनुसार नीति-निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं अर्थात् देश के प्रशासन में उत्तरदायी सभी सत्ताएं नीति-निदेशक तत्वों द्वारा ही निर्देशित होंगी।
6)न्यायलयों के लिए मार्गदर्शक का कार्य या मार्गदर्शी आदर्श के रूप में हैं।
7)शासन के मूल्यांकन का आधार हैं।
8)कार्यपालिका पर अंकुश लगाती है।

नीति-निदेशक तत्वों का क्रियान्वयन -

1)भूमि सुधार और कृषि के उन्नयन हेतु।
2)संविधान संशोधन 1st, 2nd, 17th, 25th, 42th, 44th, 97th(सहकारिता,2012 में जोड़ा गया, अनुच्छेद-43(b).
3)73वां संविधान संशोधन(अनुच्छेद-40), मनरेगा(अनुच्छेद-43)
4)कुटीर उद्योगों का संवर्धन (अनुच्छेद 43-खादी एवं ग्रामोद्योग), सिल्क बोर्ड, हथकरघा बोर्ड, नाबार्ड।
5)48-a, 1995 में राष्ट्रीय पर्यावरण न्यायिधिकरण और 2010 में राष्ट्रीय हरित न्यायिधिकरण, हरित क्रांति-2, जैव प्रौद्योगिकी का उन्नयन।
6)अनुच्छेद-49 ताज ट्रेपजियम योजना, सिरपुर।
7)अनुच्छेद-48(b) पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, जैव प्रौद्योगिकी, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन(NRHM), राष्ट्रीय शहरी आजीविका कार्यक्रम(NUL)
8)खाद्य सुरक्षा बिल, मिड डे मिल।
9) अनुच्छेद-50, आपराधिक संहिता का संशोधन।


नीति-निदेशक तत्व और मूल अधिकार में अंतर :-

नीति-निदेशक तत्व:-
1)ये सकारात्मक हैं अर्थात् राज्य के नीति निर्माण में इनका शामिल किया जाना निषेधात्मक है।
2)ये गैर न्यायोचित हैं, न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं।
3)नीति-निदेशक तत्वों का उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।
4)ये नैतिक और राजनीतिक रूप से मान्य हैं।
5)ये समुदाय के कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं, अर्थात् समाजवादी(नेहरू) हैं।
6)इनको लागू करने के लिए विधान की आवश्यकता होती है।
7)निदेशक तत्वों का उल्लंघन करने वाली किसी विधि को न्यायालय गैर संवैधानिक या अवैध घोषित नहीं कर सकता लेकिन विधि की वैधता को इस आधार पर सही ठहराया जा सकता है कि इन्हें नीति-निदेशक तत्वों को प्रभावी करने के लिए लागू किया गया था।
8)नीति-निदेशक तत्व समाजनिष्ठ हैं।
9)नीति-निदेशक तत्व राज्य को कार्य करने की प्रेरणा देते हैं।
10)नीति-निदेशक तत्व आदर्श मात्र हैं।

मूल अधिकार:-
1)ये नकारात्मक हैं राज्य पर प्रतिबंध लगाते हैं।
2)ये न्यायोचित होते हैं।इनके हनन पर न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय।
3)मूल अधिकारों का उद्देश्य लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिपादन करना है।
4)ये विधिक रूप से मान्य है।
5)ये व्यक्तिगत कल्याण को प्रोत्साहन देते हैं अर्थात् ये व्यक्तिक हैं।
6)मूल अधिकार स्वतः लागू होते हैं।
7)न्यायपालिका बाध्य है कि मूल अधिकारों के हनन पर उस विधि को गैर संवैधानिक घोषित करे।
8)मौलिक अधिकार व्यक्तिनिष्ठ है।
9)मौलिक अधिकार राज्य की शक्ति की सीमाएं निश्चित करता है।
10)मौलिक अधिकार का विधिक महत्व है।


टकराव:-
मूल अधिकारों की न्यायोचितता और नीति-निदेशक तत्वों की गैर न्यायोचितता के तत्वों ने दोनों के मध्य टकराव और संघर्ष को उत्पन्न किया है।लेकिन न्यायलयीन निर्वचनों ने दोनों के मध्य संतुलन को समय-समय पर परिभाषित किया है।
            मूल अधिकार और नीति-निदेशक तत्व आपस में सामाजिक क्रांति की विचारधारा से जुड़े हैं, ये एक रथ के दो पहिए हैं, और एक-दूसरे के पूरक हैं इन्हें एक दूसरे पर वरीयता देने से मूल भावना बाधित होगी।
मूल भावना और संतुलन संविधान के बुनियादी ढांचे की आवश्यक विशेषता है।
वर्तमान स्थिति में मूल अधिकार नीति-निदेशक तत्व पर उच्चतर है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि नीति-निदेशक तत्वों को लागू नहीं किया जा सकता।
संसद निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए मूल अधिकार में संशोधन कर सकती है लेकिन मूल ढांचा क्षतिग्रस्त नहीं होना चाहिए।


मूल अधिकार और नीति-निदेशक तत्व में समानता:-

1)दोनों ही संवैधानिक हैं।
2)दोनों ही मौलिक हैं, एक मौलिक अधिकार के रूप में तथा एक राज्य के शासन के रूप में।
3)दोनों ही राज्य के दायित्वों को निर्धारित करते हैं।
4)दोनों को संशोधित किया जा सकता है।
5)प्रस्तावना के आदर्शों को अर्थ और बल प्रदान करते हैं।(समानता और न्याय)

भारतीय संघीय व्यवस्था को प्रभावित करने वाले गैर संवैधानिक आधार -
1)नियोजन प्रक्रिया (योजना आयोग)
2)लोककल्याणकारी राजनीति(Welfare Politics)
3)दलीय राजनीति और विभिन्‍न दलों का अस्तित्व
4)संघ की विशिष्ट नीतियां जिनसे राज्य प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं।
5)शिल्पी राजनीति(Techno politics)
-संघीय स्तर पर औद्योगिक नीतियां
-विशेषज्ञ वैज्ञानिक की भूमिका और इनके माध्यम से संघ की नीतियों का निर्माण।
6)युध्द और मंदी राजनीति
7)गैर सरकारी संगठनों और दबाव समूहों की भूमिका।
8)वर्तमान में वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में आर्थिक नीतियों में परिवर्तन।


 

भाग- 4(A)

मौलिक कर्तव्य

अनुच्छेद -51(A)


अधिकार और कर्त्तव्य एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं। अधिकारों का अभिप्राय है स्वतंत्रता जबकि कर्तव्यों का अर्थ है व्यक्ति पर समाज के ऋण। समाज का उद्देश्य व्यक्ति विशेष का विकास न होकर सभी मनुष्यों का, समाज के व्यक्तित्व का विकास है इसलिए व्यक्ति के अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़े हैं।{प्रत्येक अधिकार के लिए उसके अनुरूप एक कर्त्तव्य है।}
कर्त्तव्य अधिकार का अभिन्न अंग है दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं।
              सरदार स्वर्ण सिंह समिति की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिश पर 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा मूल कर्त्तव्य शीर्षक से एक नया अध्याय 4(क) जोड़ा।
इस समिति ने आठ मूल कर्तव्यों की सिफारिश की थी।
वर्तमान में नागरिकों के मूल कर्तव्यों की संख्या ग्यारह है।
              मूल कर्त्तव्य  पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित है।
एवं जापान विश्व का पहला देश है जहां के संविधान में मूल कर्तव्यों को विश्लेषित किया गया है।

संविधान में शामिल किए जाने का मूल आधार -
1) नागरिकों के राष्ट्र के प्रति कुछ विशिष्ट उत्तरदायित्व हैं।
2) मूल संविधान में मूल कर्त्तव्य अनुपस्थित थे।
3) सम्मिलित किए जाने का मुख्य उद्देश्य अधिकारों को अर्थपूर्ण बनाना था।
4)मौलिक अधिकारों के विपरित यह नागरिकों के लिए परिभाषित है।
5)ये प्रवर्तनीय कर्त्तव्य नहीं हैं। (रामसरण बनाम भारतीय संघ 1989)
6) इनका विधि के द्वारा प्रवर्तन कराया जा सकता है। अर्थात् संसद विधि बनाकर विधि के माध्यम से इसे अर्थ और बल प्रदान कर सकती है।

मूल कर्तव्यों पर वर्मा समिति की सिफारिशें (1999) -
वर्मा समिति ने कुछ कानूनी प्रावधानों की पहचान की जो मौलिक कर्तव्यों के क्रियान्वयन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
1)PRA(public representative act):- सांसदों और विधायकों को धर्म के आधार पर गलत तरीके से मत की याचना और वैमनस्य उत्पन्‍न करने के आधार पर विधायिका की सदस्यता से अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
2)राष्ट्रीय सम्मान अधिनियम(1971):- संविधान राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान के प्रति अनादर को दंडनीय बनाता है।
3)अस्पृश्यता अधिकार अधिनियम(1976)
4)अवैधानिक विधि निवारक(UAPA Act,1967):- सांप्रदायिक संगठनों को अवैधानिक घोषित करता है।
5)वन्यजीव संरक्षण अधिनियम(1972):-विलुप्त प्रजातियों के व्यापार का प्रतिषेध।
6)वन संरक्षण अधिनियम(1980):- वन उन्मूलन और वन भूमि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाता है।

मूल कर्तव्यों की विशेषताएँ :-
-कुछ नैतिक कर्त्तव्य हैं तो कुछ नागरिक कर्त्तव्य हैं।
-स्वतंत्रता संग्राम के उच्च आदर्शों का सम्मान नैतिक दायित्व है और राष्ट्रगान का सम्मान राष्ट्रीय दायित्व है।
-ये मूल्य भारतीय परंपराओं, पौराणिक कथाओं, धर्म और पद्धतियों से संबंधित है ये मूलतः भारतीय जीवन पद्धति के आंतरिक कर्तव्यों का वर्गीकरण है।
-कुछ मूल अधिकार सभी के लिए है लेकिन मूल कर्त्तव्य मात्र नागरिकों के लिए है न कि विदेशियों के लिए।
-मूल कर्त्तव्य गैर न्यायोचित है।

मूल कर्तव्यों की आलोचना -
-कर्तव्यों की सूची पूर्ण नहीं है;
जैसे-मतदान, कर अदायगी, परिवार नियोजन आदि शामिल नहीं है।
-कुछ कर्तव्य अस्पष्ट, अनेकार्थी हैं जिसे समझने में आम जन कठिनाई महसूस करता है।
जैसे- उच्च आदर्श, सामासिक संस्कृति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण।
-आलोचकों द्वारा मूल कर्तव्यों को नैतिक उपदेश माना गया है।
-आलोचकों का मानना है कि संविधान के भाग-4 में इनको सम्मिलित करना मूल कर्तव्यों के महत्व को कम करना है इन्हें भाग-3 के बाद जोड़ा जाना चाहिए था ताकि ये मूल अधिकार के बराबर होते।



भाग-5

संघीय कार्यपालिका

अनुच्छेद (52-78)

इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद्, महान्यायवादी शामिल होते हैं।
            कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करती है।

कार्यपालिका के प्रकार:-
a)सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत पर आधारित:-
1/संसदीय
2/अर्धअध्यक्षात्मक

b)एकल नेतृत्व के सिद्धांत पर आधारित:-
1/अध्यक्षात्मक

• संसदीय-
1)सरकार का प्रमुख -प्रधानमंत्री
2)विधायिका में बहुमत दल का नेता होता है।
3)विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है।
4)संवैधानिक राजतंत्र या संसदीय गणतंत्र होता है।
5)उदाहरण- ब्रिटेन, कनाडा, भारत।
6)राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होता है।(De Jure)

• अर्धअध्यक्षात्मक-
1)राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है।
2)प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है।
3)प्रधानमंत्री और उसकी मंत्रिपरिषद् विधायिका के प्रति जवाबदेह होती है।
4)उदाहरण -श्रीलंका, फ्रांस, रूस।

• अध्यक्षात्मक-
1)राष्ट्रपति देश और सरकार दोनों का प्रमुख होता है।
2)राष्ट्रपति का निर्वाचन प्रत्यक्ष(Direct) रूप से होता है।
3)विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होता।
4)उदाहरण- अमेरिका, ब्राजील।

प्रस्ताव-
विधायिका के किसी सदस्य द्वारा सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाने वाला विचार जिस पर सदन का निर्णय निर्धारित किया जाता है, सदन के द्वारा स्वीकृत होने पर यह सदन के विचार के रूप में स्थापित हो जाता है इसके अंतर्गत लोकसभा महासचिव(Secretary General) को सूचना देनी होती है जिसकी कोई निर्धारित अवधि नहीं होती। यह दोनों ही प्रकार के सदस्यों द्वारा(सरकारी और गैरसरकारी) लाया जा सकता है।प्रस्ताव को स्वीकृत या अस्वीकृत करने की शक्ति लोकसभा महासचिव की होती है। सभी प्रस्तावों पर मतदान आवश्यक नहीं होता।

प्रस्ताव तीन प्रकार के होते हैं:-

1)मूल प्रस्ताव(Substensive Motion) :-
यह स्वतंत्र प्रस्ताव होता है अर्थात् यह किसी अन्य प्रस्ताव से जुड़ा नहीं होता।
उदाहरण:- स्थगन प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, धन्यवाद प्रस्ताव।
-स्पीकर को अपने पद से हटाने का प्रस्ताव।
-डिप्टी स्पीकर को हटाने का प्रस्ताव।
-स्पीकर, डिप्टी स्पीकर(लोकसभा उपाध्यक्ष), डिप्टी चेयरमेन(राज्यसभा उपसभापति) के निर्वाचन के लिए प्रस्ताव।
-संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को हटाये जाने के प्रस्ताव।
नोट:- सभी संकल्प मूल प्रस्ताव हैं।

2)सहायक प्रस्ताव(Subsidiary Motion):-
यह किसी अन्य प्रस्ताव से जुड़ा या उस पर आश्रित होता है।
जैसे:-किसी मूल प्रस्ताव को संशोधित करने वाला प्रस्ताव।

3)स्थानापन्न प्रस्ताव या वैकल्पिक प्रस्ताव(Substitute Motion):- किसी मूल प्रस्ताव के स्थान पर लाया जाने वाला प्रस्ताव।

•संकल्प:- सभी संकल्प मूल प्रस्ताव के अंतर्गत आते हैं। इसमें मतदान अनिवार्य होता है। सदन में किसी मुद्दे पर चर्चा शुरू करने के लिए लाया जाता है।

•No day yet named motion:- यह संसदीय कार्य प्रक्रिया के नियम 184 में परिभाषित है। ऐसा प्रस्ताव जो अध्यक्ष द्वारा स्वीकृत है लेकिन जिस पर चर्चा के लिए किसी तिथि का निर्धारण नहीं है।

•स्थगन प्रस्ताव(Adjournment) :- मूल प्रस्ताव है। महत्वपूर्ण सार्वजनिक मुद्दे पर विचार को प्रस्तुत करना, इस पर मतदान होता है। यदि यह पारित होता है तो यह सरकार की निंदा मानी जाती है। सदन की सामान्य प्रक्रियाओं को स्थगित कर यह प्रस्ताव लाया जाता है।

•निंदा प्रस्ताव :- सरकार की किसी नीति या कार्यवाही की विफलता पर व्यक्तिगत या मंत्री विशेष या मंत्रियों के समूह या मंत्री परिषद् के विरूध्द लाया जाता है। मतदान होता है। पारित होने पर सरकार की निंदा होती है और यह अपेक्षा की जाती है तो मंत्रिपरिषद् त्यागपत्र दे देती।निंदा प्रस्ताव में आधार को परिभाषित करना अनिवार्य होता है। निंदा प्रस्ताव अविश्वास प्रस्ताव का आधार होता है।

•अविश्वास प्रस्ताव :- संपूर्ण मंत्री परिषद् के विरुद्ध लाया जाता है। इसमें आधार परिभाषित नहीं करना पड़ता। सिर्फ लोकसभा में ही लाया जाता है। इसके लाये जाने के लिए 50 सदस्यों के हस्ताक्षर लगते हैं। मतदान होता है। मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना होता है।

•विशेषाधिकार प्रस्ताव :- मूल प्रस्ताव है। जब विधायिका के सदस्य के विशेषाधिकार का हनन होता है। जब कोई मंत्री सदन के विशेषाधिकार का हनन करता है अर्थात् उत्तर में गलत तथ्य प्रस्तुत करना या तथ्य छिपाना।

•विश्वास प्रस्ताव :- मूल प्रस्ताव है। यह सरकार द्वारा लाया जाता है।

अनुच्छेद-52
भारत का एक राष्ट्रपति होगा।

अनुच्छेद-53
संघ की कार्यपालिक शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसका प्रयोग स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करेगा।

अनुच्छेद -53(1)
संघ के द्वारा बलों का सर्वोच्च समादेश राष्ट्रपति में निहित होगा जिसका प्रयोग विधि द्वारा विनियमित होगा।

अनुच्छेद -54
राष्ट्रपति का निर्वाचन।
a)संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य।
b)राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्य।
c)केंद्रशासित प्रदेशों दिल्ली और पुद्दुचेरी विधानसभा के निर्वाचित सदस्य।
(70वें संविधान संविधान 1990 एवं 1995 से प्रभावित)
इन सबसे मिलकर राष्ट्रपति का निर्वाचक मंडल बनता है।

• राष्ट्रपति का अप्रत्यक्ष निर्वाचन - राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए संविधान सभा के समक्ष दो विकल्प हैं:-
राष्ट्रपति के निर्वचन के लिए संविधान सभा के समक्ष दो विकल्प हैं :-
a)राष्ट्रपति का चुनाव सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार से।
b)संसद के दोनों सदनों के सदस्यों के द्वारा।
प्रथम स्थिति में ऐसा करने पर राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद का प्रतिद्वंद्वी हो सकता था जिससे सत्ता के अलग-अलग केन्द्र बनने की संभावना थी।
            द्वितीय स्थिति में राष्ट्रपति केन्द्र में बहुमत प्राप्त दल का समर्थन कर सकता था। ऐसी स्थिति में संविधान निर्माताओं ने मध्यम मार्ग का चयन किया और भारत के राष्ट्रपति को न ही अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह प्रत्यक्ष निर्वाचित किया और न ही ब्रिटेन के संवैधानिक प्रधान की तरह वंशानुगत।
            संविधान में यह प्रावधान है कि राष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्यों का प्रतिनिधित्व समान रूप से साथ ही राज्यों तथा संघ के मध्य समानता भी हो, इसे प्राप्त करने के लिए राज्य विधानसभाओं और संसद के प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या में समानता लायी गयी है जिसे निम्न सूत्र से प्राप्त किया जाता है :-
a) एक विधायक के मत का मूल्य =
 राज्य की कुल जनसंख्या(197){84th संविधान संशोधन 2001} * 1
/कुल निर्वाचित विधायकों की संख्या *1000
b) एक सांसद के मत का मूल्य =
सभी राज्यों के विधायकों के मतों का कुल मूल्य
/संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या(776)

• एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Single Transferable Voting System) :-
 राष्ट्रपति का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा गुप्त मतदान से अप्रत्यक्ष रीति से होता है।
             एकल संक्रमणीय मत प्रणाली का जन्मदाता ब्रिटिश विद्वान हैमर माना जाता है लेकिन ऐन्ड्रे ने इसे विकसित किया और डेनमार्क में लागू किया इसलिए इसे ऐन्ड्रे सिस्टम भी कहा जाता है इस व्यवस्था को वरीयता प्रणाली कहते हैं।
             राष्ट्रपति के चुनाव के उम्मीदवार को निर्वाचित होने के लिए मतों का एक निश्चित भाग प्राप्त करना होता है जिसका एक सूत्र है -
निश्चित मतों का भाग=  { कुल वैध मत/ 2(1+1) }  + 1
              मतों का एक निश्चित भाग,कुल वैध मतों की निर्वाचित होने वाले कुल उम्मीदवारों(एक ही उम्मीदवार राष्ट्रपति निर्वाचित होगा) की संख्या में एक जोड़कर प्राप्त संख्या द्वारा भाग देने पर भागफल में एक जोड़कर प्राप्त करते हैं।
             प्रत्येक सदस्य को केवल एक मत पत्र दिया जाता है। वरीयता 1,2,3,4 अंकित करना होता है। प्रथम चरण में प्रथम वरीयता के मतों की गणना। यदि उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त कर लेता है तो राष्ट्रपति बन जाता है। प्रथम वरीयता के न्यूनतम मत प्राप्त करने वाले के मत को रद्द कर दिया जाता है और उसके द्वितीय वरीयता के मत अन्य प्रतिनिधियों के प्रथम वरीयता में जोड़ दिया जाता है।
               यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक उम्मीदवार (न्यूनतम वोट) प्राप्त नहीं कर पाता।

सांसदों के मतों का कुल मूल्य = 549474 / 776
                                      = 708
लोकसभा(543)+ राज्यसभा(233) = 776
विधानसभा सदस्य = 4120
कुल निर्वाचित सदस्य जो राष्ट्रपति के लिए वोट देंगे = 4120+776 = 4896
प्रथम राष्ट्रपति = डा. राजेंद्र प्रसाद
वर्तमान राष्ट्रपति = प्रणव मुखर्जी ( 66.7%) वोट
        (प्रतिद्वंद्वी -पी.ए. संगमा, 30.3% वोट)
राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित विवादों की जांच सुप्रीमकोर्ट में होती है और यह फैसला अंतिम होता है।
           निर्वाचक मंडल की अपूर्णता से अर्थ यह है कि किसी विधानसभा में अगर चुनाव नहीं हुआ तो राष्ट्रपति चुनाव नहीं होगा और इसे न्यायालय में चुनौती नहीं दिया जा सकता।

राष्ट्रपति बनने के चुनाव/नामांकन की शर्तें :-
-भारत का नागरिक होना चाहिए।
-50 प्रस्तावक और  50 अनुमोदक
-जमानती राशि(25000रूपये) , आरबीआई के पास जमा होती है।
- कुल डाले गये वैध मतों का छठवां हिस्सा मिलना चाहिए ताकि जमानत राशि वापस मिले।

शपथ:- राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा या उसकी अनुपस्थिति में वरिष्ठतम न्यायाधीश द्वारा दिलाई जाती है।

नोट:- यदि कोई कार्यवाहक के रूप में जो राष्ट्रपति का कार्य करता है तो इसी प्रकार की शपथ लेनी होती है। संविधान, परिरक्षण, विधि का रक्षण, संरक्षण प्रतिरक्षण की शपथ लेते हैं।

- राष्ट्रपति को कार्यकाल के दौरान गिरफ्तारी कार्यवाई से उन्मुक्ति होती है।
- व्यक्तिगत कृत्य से भी उन्मुक्ति होती है।
- न ही गिरफ्तार किया जा सकता है न ही जेल भेज सकते हैं।
- दो महीने की नोटिस के बाद निजी कृत्य के लिए अभियोग चलाया जा सकता है।
- अवधि- 5 वर्ष(पदावधि धारण करने के दिन से 5 वर्ष तक)
- इस्तीफा उपराष्ट्रपति को देता है, जो लोकसभा अध्यक्ष को सौंपा जाता है।
- भारतीय राष्ट्रपति कितनी भी बार निर्वाचित हो सकता है।
- महाभियोग की प्रक्रिया केवल राष्ट्रपति के लिए होती है।

• राष्ट्रपति पर महाभियोग:-
संविधान के अनुच्छेद-61 में राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया को परिभाषित किया गया है।
- अर्धन्यायिक प्रक्रिया है।
- महाभियोग का अर्थ राष्ट्र के प्रमुख को उसके पद से विमुक्त करना होता है।
- महाभियोग केवल राष्ट्रपति के लिए ही होता है।
- महाभियोग की प्रक्रिया का आधार:- 'संविधान का अतिक्रमण' मात्र इसी एक आधार पर राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया संस्तुतित की जा सकती है।
इसमें संविधान के उल्लंघन को परिभाषित नहीं किया गया है।

प्रक्रिया:- महाभियोग संसद के किसी भी सदन से प्रारंभ किया जा सकता है जिस सदन ने आरोप लगाया है उस सदन के एक चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षर सहित राष्ट्रपति को 14 दिन की पूर्व सूचना दी जाएगी।
            महाभियोग का प्रस्ताव संबंधित सदन में दो तिहाई बहुमत से पारित होने के बाद दूसरे सदन को भेजा जाता है।
            दूसरा सदन लगाये गये आरोपों की जांच करता है इसी समय ही राष्ट्रपति को अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए या यदि राष्ट्रपति स्वयं उपस्थित ना हो तो अपने प्रतिनिधि द्वारा अपना पक्ष प्रस्तुत कर सकता है। यदि दूसरा सदन इन आरोपों को सही पाता है और दो तिहाई बहुमत से पारित कर देता है तो राष्ट्रपति विधेयक के पारित हो जाने से राष्ट्रपति उस तिथि से पद त्याग कर देते हैं।
नोट:- राष्ट्रपति की महाभियोग प्रक्रिया में मनोनीत सदस्य भाग लेते हैं।
- राष्ट्रपति के महाभियोग में संघीय संसद के दोनों सदनों के सदस्य(Elected+Nominated) भाग लेते हैं।
- अभी तक किसी पर महाभियोग नहीं लगा है।
      
राष्ट्रपति की शक्तियां और कार्य :-
राष्ट्रपति द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियों को सामान्यत: निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है-

1)सामान्यकालीन शक्तियाँ:-
a)कार्यपालिक शक्तियां
b) सैन्य शक्तियां
c)विधायी शक्तियां
d) वित्तीय शक्तियां
e) न्यायिक शक्तियां
f) कूटनीतिक शक्तियां
g) सदस्यों को सदन में मनोनीत करने की शक्ति
h) अध्यादेश शक्तियां
i) राष्ट्रपति के राज्यों से जुड़े अधिकार

2)आपातकालीन शक्तियां:-
असामान्य और असाधारण परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समन्वित करने हेतु राष्ट्रपति को आपातकालीन शक्तियां प्रदान की गई हैं।
a) अनुच्छेद- 352 (राष्ट्रीय आपातकाल)
b) अनुच्छेद- 356 (राज्य आपातकाल)
c) अनुच्छेद- 360 (वित्तीय आपातकाल)
अनुच्छेद- 53(a) संघ की समस्त कार्यपालिक शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी जिसका प्रयोग वह संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।


• कार्यपालिक(कार्यकारी) शक्तियां -
-अनुच्छेद 77 :- भारत सरकार की समस्त कार्यपालिक कार्यवाई राष्ट्रपति के नाम से की जाएगी।
-प्रधानमंत्री की नियुक्ति(Appointed) राष्ट्रपति करता है।
-मंत्रिपरिषद् की अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर होता है।
- मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा करता है।
- राष्ट्रपति संघ के कार्यकलाप के प्रशासन संबंधी और विधान संबंधी जानकारियां प्रधानमंत्री से मांग सकता है।(अनुच्छेद-78)
- राष्ट्रपति प्रधानमंत्री से किसी ऐसे निर्णय का प्रतिवेदन भेजने के लिए कह सकते हैं जो किसी मंत्री द्वारा लिया गया हो, लेकिन मंत्रिपरिषद् ने उसका अनुमोदन न किया हो।
- केन्द्र शासित प्रदेशों का शासन/प्रशासन राष्ट्रपति प्रत्यक्ष रूप से संभालता है।
- राष्ट्रपति किसी भी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकता है।
- राष्ट्रपति अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आयोग की नियुक्ति कर सकता है।
- अंतर्राज्यीय परिषद् की भी नियुक्ति कर सकता है।(अनुच्छेद-261)
- संघ के महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की नियुक्ति करता है।
(राज्यपाल - सर्वोच्च व उच्च न्यायालय के न्यायधीशों, अन्य न्यायाधीशों, महान्यायवादी, महालेखाकार, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य, वित्त लोक सेवा आयोग के सदस्य की नियुक्ति व पदमुक्त कर सकता है।

• विधायी शक्तियां -
अनुच्छेद- 79 संघ की संसद, राष्ट्रपति और दोनों सदनों क्रमशः राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनती है।
शक्तियां :-
- दोनों सदनों के अधिवेशन को आहूत करना।
- सत्रावसान करना।
- लोकसभा को भंग/विघटित करने का अधिकार
-संयुक्त अधिवेशन का आह्वान करता है।(अनुच्छेद-108)
-संयुक्त अधिवेशन-लोकसभा अध्यक्ष
                      -लोकसभा उपाध्यक्ष
                      -राज्यसभा उपाध्यक्ष
- प्रत्येक नये चुनाव के बाद और प्रत्येक वर्ष प्रथम अधिवेशन को संबोधित करते हैं।(राष्ट्रपति का अभिभाषण +धन्यवाद प्रस्ताव, दोनों सदनों द्वारा राष्ट्रपति को)
- राष्ट्रपति संसद में लेकिन किसी विधेयक या अन्यथा किसी संबंध में संसद को संदेश भेज सकता है।
नोट - राष्ट्रपति संयुक्त बैठक को संबोधित करता है और बुलाये जाने का कारण बताता है।
-यदि लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों के पद रिक्त हों तो राष्ट्रपति लोकसभा के किसी भी सदस्य को सदन की अध्यक्षता सौंप सकता है, यही स्थिति राज्यसभा के लिए भी होगी।
- राज्यसभा आवश्यकता पड़ने पर लोकसभा के अस्थायी अध्यक्ष और राज्यसभा के कार्यकारी उपसभापति की नियुक्ति करता है।
- राष्ट्रपति साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा से जुड़े 12 सदस्यों को राज्यसभा में मनोनीत कर सकता है।
(6 का एक बार में मनोनयन-अनुच्छेद80/3)
- लोकसभा में दो आंग्ल भारतीय सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार।(अनुच्छेद -331)
- चुनाव आयोग से परामर्श कर संसद सदस्यों की निर्हरता के प्रश्न पर निर्णय करते हैं और इस संबंध में राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होता है।
- कुछ विधेयक जैसे भारत की संचित निधि से खर्च करने संबंधी परिवर्तन या नये राज्य के निर्माण संबंधी विधेयक में राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक है।
- राष्ट्रपति को किसी विधेयक के संबंध में अनुमति देने, अनुमति सुरक्षित रखने और यदि वह धन विधेयक नहीं है तो पुनर्विचार के लिए लौटाने की शक्ति देती है।
- राज्यपाल राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।
- सत्रावसान की अवधि में अध्यादेश जारी करते हैं।
- राष्ट्रपति CAG, UPSC, वित्त आयोग की रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत करवाते हैं।
- अंडमान निकोबार, लक्षद्वीप, सादर और नगर हवेली, दमन और दीव में शांति, विकास, और दुशासन के नियम बना सकता है।
-पुदुचेरी के लिए नियम बना सकता है जब वहां की विधानसभा विघटित हो।

• वित्तीय शक्तियां -
धन विधेयक(अनुच्छेद- 110) राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से ही प्रस्तुत किया जाता है। राष्ट्रपति प्रतिवर्ष बजट(वार्षिक वित्तीय विवरण-अनुच्छेद112) को संसद के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
            कोई भी वित्त विधेयक या अनुदान की मांग ग्रांट की मांग राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से ही संसद में पेश की जाती है। राज्य और केन्द्र के बीच राजस्व वितरण के लिए प्रति पांच वर्ष में वित्त आयोग का गठन(अनुच्छेद-280) करते हैं।
            भारत की आकस्मिक निधि(contingency fund) पर राष्ट्रपति का नियंत्रण होता है। आकस्मिक व्यय हेतु इस निधि से व्यय की अनुमति देते हैं जिस पर बाद में संसद की अनुमति आवश्यक होती है।
• न्यायिक शक्तियां -
राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।
               अनुच्छेद-143 राष्ट्रपति को न्यायपालिका से परामर्शकारी अधिकार प्रदान करता है।
अनुच्छेद-143(1) में सुप्रीमकोर्ट सलाह देने को बाध्य नहीं है।
अनुच्छेद-143(2) में सुप्रीमकोर्ट सलाह देगा।
              राष्ट्रपति किसी अपराध की दोष सिद्धि के किसी व्यक्ति को पूर्णतः माफी, दण्डादेश का निलंबन, स्थगित राहत प्रदान कर सकता है। (उन सभी मामलों में जिसमें सजा केंद्रीय विधि और सैन्य न्यायालय के अंतर्गत हो)।

• कूटनीतिक, वैदेशिक शक्ति -
अंतर्राष्ट्रीय संधि, समझौते राष्ट्रपति के नाम पर किए जाते हैं, राष्ट्रपति अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजदूतों, उच्चायुक्तों को प्रमाण पत्र प्रदान कर उनको शक्ति प्रदान करते हैं।

• सैन्य शक्तियां -
राष्ट्रपति सैन्य बलों का सर्वोच्च सेनापति होता है। राष्ट्रपति थल,जल,वायुसेना के प्रमुखों की नियुक्ति करते हैं। राष्ट्रपति युध्द और इसकी समाप्ति की घोषणा करते हैं।

• अध्यादेश जारी करने की शक्ति -
- अनुच्छेद 123 के अंतर्गत संसद के सत्रावसान की अवधि में अध्यादेश जारी कर सकते हैं।
- अध्यादेश का वही बल,प्रभाव होता है जो सामान्य कानून का होता है।
- यह राष्ट्रपति की महत्वपूर्ण विधायी शक्ति है।
उद्देश्य:- अप्रत्याशित और अविलंबनीय मामलों के लिए।
इस शक्ति के प्रयोग की चार सीमाएं हैं-
a)अध्यादेश तभी जारी किया जा सकता है जब संसद के दोनों में किसी एक का सदन नहीं चल रहा हो।
b)अध्यादेश तब भी जारी किया जा सकता है जब संसद में एक सदन चल रहा हो क्योंकि कोई भी विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित होना चाहिए। अर्थात् अध्यादेश जारी करने की शक्ति विधायिका की समानांतर शक्ति नहीं है।
c)अध्यादेश तभी जारी किया जा सकता है जब इस बात की संतुष्टि हो कि मौजूदा परिस्थितियां ऐसी है जिसमें तुरंत कार्यवाही की आवश्यकता है।
(असद्भाव की दशा में अध्यादेश को न्यायालय में प्रश्नगत किया जा सकता है।)
d)सभी मामलों में अध्यादेश जारी करने की शक्ति की दो विवक्षाएं(समीक्षाएं) हैं। अध्यादेश उन्हीं विषयों पर जारी किया जा सकता है जिनमें केन्द्र पर कानून बना सके।राज्य के विषय पर जारी नहीं होता।
             कोई भी अध्यादेश मौलिक अधिकारों का लघुकरण(न्यून) नहीं कर सकता।
- अध्यादेश का कुल समय 6 महीने, 6 हफ्ता होती है। साथ ही दोनों सदनों द्वारा अनुमोदन।
- कोई अध्यादेश सदन के पटल के रखने से पहले ही समाप्त हो जाता है तो इसके अंतर्गत किये गये कार्य वैध होते हैं।
- अध्यादेश एक विधेयक की भांति पूर्ववर्ती भी हो सकता है अर्थात् इसे पूर्व लिपि से भी लागू किया जा सकता है।
- संशोधन के लिए अध्यादेश नहीं लिया जाता।
- अमेरिका, ब्रिटेन में अध्यादेश नहीं होता।
- अनुच्छेद-352 और अनुच्छेद-123 में कोई संबंध नहीं है।
- सदनों द्वारा विधेयक पारित करने का प्रयास न करके अध्यादेशों का पुनः प्रकाशन संविधान का उल्लंघन है। इन्हें रद्द होना चाहिए अर्थात् अध्यादेश द्वारा विधि बनाने की वैकल्पिक शक्ति को राज्य विधायिका की विधायी शक्ति का विकल्प नहीं बनना चाहिए।

• राज्यों से संबंधित अधिकार -
- राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका के साथ-साथ राज्य का भी प्रतिनिधि होता है। उसके कुछ दायित्व हैं।
जैसे:- राज्य के प्रधान के रूप में राज्यपाल की नियुक्ति  करते हैं। राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की सलाह के लिए सुरक्षित रख सकता है।(अनुच्छेद-200)
- राष्ट्रपति इन विधेयकों को स्वीकार/अस्वीकार/पुनर्विचार कर सकता है।
- राष्ट्रपति राज्य पालिकाओं को ऐसे क्षेत्र सौंप सकता है जो संघ के कार्यक्षेत्र के अधीन हैं।

• वीटो शक्तियां -
वीटो का शाब्दिक अर्थ - निषेधाधिकार
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-111 के तहत् राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी स्वीकृति देते हैं।
- राष्ट्रपति विधेयक पर स्वीकृति को सुरक्षित रखते हैं।
- विधेयक को पुनर्विचार हेतु लौटा सकते हैं।
इस संबंध में राष्ट्रपति को वीटो शक्ति प्राप्त होती है अर्थात राष्ट्रपति विधेयक को अपनी स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।
कारण - a)संसद को जल्दबाजी में विधान बनाने से रोकना।
b)किसी असंवैधानिक विधान को रोकना।

विश्व में लोकतांत्रिक देशों में राष्ट्रों के कार्यकारी प्रमुख को चार प्रमुख को चार प्रकार के वीटो पावर होते हैं-

1/ आत्यांतिक(Absolute) वीटो-
 इसका संबंध राष्ट्रपति की उस शक्ति से है जिसमें वह संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को अपनी पास सुरक्षित रखता है, जिससे विधेयक समाप्त होता है और अधिनियमित नहीं हो पाता।
-गैर सरकारी सदस्यों के विधेयक के संबंध में वीटो इस्तेमाल कर सकता है।(अनौपचारिक-Informal)
-जब मंत्रिमंडल त्यागपत्र दे दे( विधेयक पारित हो गया हो और राष्ट्रपति की अनुमति मिलना शेष हो और नया मंत्रिमंडल ऐसे विधेयक पर अपनी सहमति न देने की सलाह दे।
उदाहरण- राजेंद्र प्रसाद द्वारा पेप्सू विनियोग विधेयक को रोका।
-आर. वेंकट रमण द्वारा पेंशन विधेयक को रोका गया।

• निलंबन(Suspension) वीटो -
राष्ट्रपति इस वीटो का प्रयोग तब करता है जब वह पुनर्विचार के लिए विधेयक को लौटाता है। यदि संसद विधेयक को दुबारा भेजती है तो राष्ट्रपति बाध्य है।
राष्ट्रपति धन विधेयक पर पुनर्विचार नहीं करा सकता।

• जेबी (pocket) वीटो-
इस मामले में राष्ट्रपति विधेयक को न तो स्वीकृत करता है न ही अस्वीकृत करता है न ही लौटाता है लेकिन वह निश्चित काल के लिए विधेयक को लंबित कर सकता है।
      किसी विधेयक पर निर्णय देने के लिए समय सीमा नहीं है।
अमेरिका में बाध्यता होती है कि राष्ट्रपति विधेयक को दस दिन में वापस करे।
इस तरह भारतीय राष्ट्रपति को अमेरिकी राष्ट्रपति से अधिक शक्ति प्रदान है।
उदाहरण - ज्ञानी जैल सिंह द्वारा भारतीय डाक संशोधन।

• राज्य विधायिका द्वारा राष्ट्रपति का वीटो -
अनुच्छेद 220 के अंतर्गत राज्य विधायिका पर राष्ट्रपति को वीटो प्राप्त है।
राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं -
1)स्वीकृति देना
2)सुरक्षित रखना
3)पुनर्विचार के लिए लौटाना
4)राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित।

राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं -(अनुच्छेद-201)
1)स्वीकृति दे सकता है
2)सुरक्षित रख सकता है
3)राज्यपाल को निर्देश दे सकता है कि पुनर्विचार के लिए लौटा दे।
नोट:- राज्यपाल के द्वारा लौटाते गये विधेयक पर राष्ट्रपति निर्णय देने के लिए बाध्य नहीं है अर्थात् राज्य विधायिका राष्ट्रपति के वीटो को निरस्त नहीं कर सकता। राज्य विधायिका के संबंध में जेबी वीटो का प्रयोग कर सकता है।

राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति(अनुच्छेद-72) -
-यह शक्ति न्यायपालिका से स्वतंत्र है।
-यह राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्ति है।
-इस शक्ति के दो रूप हैं:-
1)कानून के प्रयोग में हुई न्यायिक गलती को सुधारने के लिए।
2)पुनर्विचार याचिका और उपचारी याचिका।
-यदि राष्ट्रपति को दण्ड का स्वरूप अधिक कड़ा लगे तो उसके बचाव के लिए।

-क्षेत्राधिकार:-
1)संघीय कानून के विरुद्ध किए गए अपराध के विरोध में।
2)सैन्य न्यायालय द्वारा किए गए दण्डों में।
3)यदि दण्ड का स्वरूप मृत्युदण्ड हो।

राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति में निम्नांकित बातें सम्मिलित होती है:-
1)क्षमा- इसमें दण्ड और बंदीकरण दोनों को हटा दिया जाता है। सभी दंड और निर्हताओं से मुक्त कर दिया जाता है।
2)लघुकरण(commute)- दण्ड के स्वरूप को कम करना जैसे मृत्युदण्ड को कठोर कारावास में बदला।
3)परिहार(Remission)- दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन किए बिना उसकी अवधि को कम कर देना।
4)विराम( Respite)- दी गई सजा को विशेष परिस्थिति में कम करना। विशेष परिस्थिति-अपंगता, गर्भवती महिला।
5)प्रविलम्बन(Reprive)- मृत्यु-दण्ड पर अस्थायी रोक लगाना।

अनुच्छेद-161 राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति।
-सैन्य न्यायालय द्वारा किए गए दण्ड को माफ नहीं कर सकता।
-मृत्युदण्ड को माफ नहीं कर सकता।
उच्चतम न्यायालय का निर्णय - दया की याचना करने वाले व्यक्ति को राष्ट्रपति से मौखिक सुनवाई का अधिकार नहीं है।
- राष्ट्रपति तथ्यों का पुनर्विचार कर सकते हैं।
- राष्ट्रपति शक्ति का प्रयोग केबिनेट के परामर्श पर ही करेंगे।
- राष्ट्रपति आदेश का कारण बताने के लिए बाध्य नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय द्वारा कोई दिशा-निर्देश नहीं दिया जा सकता।
- राष्ट्रपति की शक्ति पर कोई न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती जहां राष्ट्रपति का निर्णय, भेदभावपूर्वक, विवेकरहित, दुर्भावना से ग्रस्त, स्वेच्छाचारी हो तो इसकी समीक्षा कर सकते हैं।
- एक बार क्षमादान की याचिका के बाद दुबारा दायर नहीं कर सकते।

आपातकालीन शक्तियां और संविधान के आपातकालीन उपबंध :-
भाग-18
अनुच्छेद (352-360)
उद्देश्य - संघ को किसी भी असामान्य स्थिति से प्रभावी रूप से निपटने में सक्षम बनाना।
-देश की संप्रभुता,  एकता, अखंडता, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की सुरक्षा करना।
-जर्मनी के वाइमर(vimer) संविधान का प्रभाव।
-द्वैध शासन के प्रभाव का अनुभव।
-आपातकालीन स्थिति में संघीय कार्यपालिका सर्वशक्तिशाली हो जाती है। सभी राज्य केन्द्र के पूर्ण नियंत्रण में आ जाते हैं।
-यह संघीय ढांचे को एकात्मक ढांचे में परिवर्तित कर देती है।
-संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल को निर्दिष्ट किया गया है।

1) अनुच्छेद- 352 राष्ट्रीय आपातकाल (युध्द, बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह के कारण आपातकाल).
2)अनुच्छेद- 356 राज्य आपातकाल (राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण राष्ट्रपति शासन)
3)अनुच्छेद- 360 वित्तीय आपातकाल ( राज्य की वित्तीय साख को खतरा)

1) राष्ट्रीय आपातकाल -
-यह उपबंध 1975 में 38वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया।
-जब राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा युध्द और बाह्य आक्रमण के आधार पर की जा जाती है तो इसे बाह्य आपातकाल के नाम से जाना जाता है और सशस्त्र विद्रोह के आधार पर आंतरिक(Insurgency) आपातकाल कहा जाता है।
-राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा संपूर्ण देश अथवा इसके किसी एक भाग पर लागू होती है।(42वां संविधान संशोधन 1976)
-सशस्त्र विद्रोह शब्द के स्थान पर 1978 से पहले आंतरिक अशांति शब्द था। जिसे 44वें संविधान संशोधन में प्रतिस्थापित कर दिया।
-1975 के 38वें संविधान संशोधन द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया था लेकिन 44वें संविधान संशोधन में संशोधित कर दिया।
- मिनवरा मिल्स वाद:- कार्यपालिका की हठधर्मिता, विवेक शून्यता और असंबद्ध तथ्यों के आधार पर लगाये गये आपातकाल को चुनौती दी जा सकती है।

राष्ट्रीय आपातकाल में संसद की अनुमति,समय सीमा( अनुच्छेद 122) :-
एक माह की समय सीमा है जिसे दोनों सदनों में अनुमोदित होना आवश्यक है।
राज्य आपातकाल एवं वित्तीय आपातकाल में यह सीमा दो माह की है।
- जब लोकसभा का विघटन हो गया हो अथवा लोकसभा का विघटन एक माह के समय में बिना उद्घोषणा के अनुमोदन के हो गया हो तो उद्घोषणा लोकसभा के पुर्नगठन के बाद पहली बैठक से एक माह तक जारी रहेगी जब अनुमोदन राज्य सभा ने कर दिया हो।
- अनुमोदन के बाद आपातकाल 6 माह तक जारी रहता है और प्रत्येक सदन के अनुमोदन से अनंत काल तक बढ़ा सकती है।
- आपातकाल की उद्घोषणा के बाद अथवा इसके जारी रहने का प्रत्येक प्रस्ताव दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित होना चाहिए।

विशेष बहुमत:-
a)सदन के कुल सदस्यों का बहुमत।
b)उस सदन में उपस्थित और सदन में मतदान करने वाले सदस्यों का दो तिहाई।

उद्घोषणा की समाप्ति - राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की उद्घोषणा किसी भी समय एक दूसरी उद्घोषणा से समाप्त की जा सकती है ऐसी उद्घोषणा को संसद के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती।
          44वें संविधान संशोधन के अनुसार यदि लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 1/10वें सदस्य स्पीकर या राष्ट्रपति को(जब लोकसभा सत्र नहीं चल रही हो) लिखित रूप में नोटिस दे तो 14 दिन के अंदर उद्घोषणा के जारी रहने के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए सदन की विशेष बैठक बुलाई जा सकती है।

प्रभाव :-
1)केन्द्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव -
a.कार्यपालक प्रभाव
b.विधायी प्रभाव
c.वित्तीय प्रभाव
               केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य की विधायी शक्तियों तक हो जाता है, किसी भी विषय में निर्देश देने की कार्यकारी शक्ति प्राप्त हो जाती है।(राज्य सरकार को भंग(dissolve) नहीं कर सकती।
-> संसद को राज्य सूची में वर्णित सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। केंद्र राज्य के सामान्य विधायी शक्तियों के वितरण का निलंबन हो जाता है।
                राज्य विषयों पर संसद द्वारा बनाये गये कानून आपातकाल की समाप्ति के बाद भी 6 महीने तक प्रभावी होते हैं।

42वां संविधान संशोधन - कार्यकारी और विधायी परिणामों को केवल आपातकाल लागू होने वाले राज्य तक ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों में भी होता है।
->राष्ट्रपति केन्द्र और राज्यों के बीच करों के संवैधानिक वितरण को संशोधित कर सकता है अर्थात् केन्द्र से राज्यों को दिए गए धन को कम या समाप्त कर सकता है और ऐसे संशोधन उस साल के अंत तक लागू रहते हैं।

2)लोकसभा और राज्य विधानसभा के कार्यकाल पर प्रभाव:-
लोकसभा के 5 साल के कार्यकाल, जिसे संसद द्वारा विधि बनाकर एक बार में एक वर्ष के लिए कितने भी समय तक बढ़ाया जा सकता है। यदि आपातकाल की उद्घोषणा वापस ले ली गई तो यह विस्तार 6 माह से अधिक नहीं होगा।
            5वीं लोकसभा (1971-77), लोकसभा के कार्यकाल को दो बार दो साल के लिए बढ़ाया गया।(यही स्थिति राज्यसभा के लिए भी)

3) मूल अधिकारों पर प्रभाव :-
राष्ट्रीय आपातकाल अब तक तीन बार लगाया जा चुका है-
a. 1962
NEFA- north east frontier agency
-चीन के आक्रमण की वजह से लगाया गया।
-यह 1968 तक जारी रहा।
-इसलिए 1965 में पाकिस्तान से युध्द में अलग से उद्घोषित नहीं किया।
b. 1971
दिसंबर 1971 में पाकिस्तान के आक्रमण के कारण।
c. 1975
चूंकि 1971 का आपातकाल लागू था किन्तु एक तीसरा आपातकाल 1975 में आंतरिक अशांति(MISA Act) लागू हुआ।
-1971 और 1975 की घोषणाएं 1977 में समाप्त हुई।
-1975 में घोषित आंतरिक आपातकाल के लिए शाह आयोग की नियुक्ति की गई।😊
-1999, कारगिल युध्द--H.O.R./dissolved.


अनुच्छेद-360 राष्ट्रपति शासन

अनुच्छेद 355 द्वारा केन्द्र सरकार यह दायित्व निर्धारित करती है कि प्रत्येक राज्य सरकार संविधान के अनुरुप ही कार्य करेगी। इस कर्त्तव्य के अनुपालन हेतु केन्द्र अनुच्छेद 356 के अंतर्गत संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर राज्य सरकार को अपने नियंत्रण में ले लेता है जो सामान्यतः राष्ट्रपति शासन, सामान्य आपातकाल या संवैधानिक आपातकाल कहलाता है।

अनुच्छेद-356 को लगाने के दो आधार हैं:-
a)राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता।(राष्ट्रपति राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या दूसरे ढंग से प्रतिक्रिया कर सकता है।
b)दूसरा आधार अनुच्छेद 365 में निहित है।
    
अनुच्छेद-365 के अनुसार यदि कोई राज्य केंद्र द्वारा दिए गये निर्देशों का पालन या उसे प्रभावी करने में असफल होता है तो राष्ट्रपति राज्य आपातकाल लगा सकता है।

समयावधि और अनुमोदन :-
-दोनों संसद के दोनों सदनों द्वारा दो माह के भीतर अनुमोदन होना चाहिए।
-दोनों सदनों द्वारा अनुमोदन पश्चात् एक बार में 6माह के लिए, अधिकतम 3 वर्ष हेतु।
-यदि 3 वर्ष से ज्यादा समयावधि तक आपातकाल लगाना हो तो संविधान में संशोधन की आवश्यकता होगी।
उदाहरण- पंजाब(5 वर्ष से ज्यादा)
-सर्वाधिक बार केरल और उत्तरप्रदेश(9 बार) में आपातकाल।
-पंजाब में 8 बार।
-1951 में पहली बार पंजाब में लगा।
-दोनों सदनों में सामान्य बहुमत (सदन में उपस्थित सदस्यों का मत) से पारित होना चाहिए।

- राज्य आपातकाल को 6 माह से ज्यादा बढ़ाये जाने की दो परिस्थितियां पूर्ण होना जरूरी है:-
a)यदि पूरे भारत या पूरे राज्य या उसके किसी भाग में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई हो।
b)चुनाव आयोग यह प्रमाणित करे कि संबंधित राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए कठिनाइयाँ हैं।
-राष्ट्रपति शासन को दूसरी घोषणा द्वारा वापस लिया जा सकता है, अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती।

• Suspended Elimination( विधानसभा को भंग किए बिना निलंबित करना) :-
-राष्ट्रपति शासन के बाद राज्य सरकार की संपूर्ण शक्ति राष्ट्रपति के नियंत्रणाधीन हो जाती है।
-राष्ट्रपति राज्य द्वारा शासन राज्यपाल या उसके अधीनस्थ सदस्यों द्वारा संचालित करते हैं।
-राष्ट्रपति घोषणा कर सकते हैं कि संसद राज्य विधायिका की शक्तियों का प्रयोग करेगी।
-राष्ट्रपति मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद् को भंग कर देते हैं।
-संसद राज्य के विधेयक और बजट प्रस्ताव को पारित करती है।
-जब लोकसभा नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति संसद की अनुमति के बिना राज्य की संचित निधि के प्रयोग को अधिकृत कर सकता है।
-जब संसद का सत्रावसान हो तो राष्ट्रपति राज्य के लिए अध्यादेश जारी कर सकता है।
-राष्ट्रपति शासन के दौरान बनाये गये कानून आगे भी प्रभावी रहते हैं लेकिन इसे राज्य विधायिका द्वारा प्रवर्तित किया जा सकता है।
-राज्य विधायिका में राष्ट्रपति, उच्च न्यायालय संबंधी कोई बदलाव नहीं कर सकता।
अंबेडकर का कथन- मैं आशा करता हूं कि अनुच्छेद-356 की यह उग्र शक्ति एक मृत पत्र की भांति ही रहेगी और इसका प्रयोग अंतिम साधन के रूप में होना चाहिए।
एच. वी. कामथ का कथन- डा. अंबेडकर तो अब जीवित नहीं है लेकिन ये अनुच्छेद अभी भी जीवित है।
न्यायिक समीक्षा- बोहमई केस(1994) में राष्ट्रपति शासन लागू करने के संबंध में निम्न निर्णय दिए-
1)राष्ट्रपति की घोषणा समीक्षा के अधीन है।
2)केन्द्र की जिम्मेदारी होगी कि वह राष्ट्रपति शासन को न्यायोचित सिध्द करने के लिए तर्कसम्मत कारणों को प्रस्तुत करे।
3)यदि न्यायालय राष्ट्रपति की घोषणा को असंवैधानिक पाता है तो विघटित राज्य सरकार को पुनः बहाल करने का अधिकार है।
4)राज्य विधानसभा केवल तभी विघटित किया जा सकता है जब संसद की अनुमति मिल जाए।(समय- 2 माह)
5)यदि संसद मंजूरी ना दे तो वह पुनः बहाल हो जाती है।
6)उद्घोषणा के बाद राज्य विघटित नहीं निलंबित होता है।
7)केन्द्र में यदि कोई नया राजनैतिक दल सत्ता में आता है तो केन्द्र को अन्य दलों को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं होगा।

• वित्तीय आपातकाल(अनुच्छेद-360):-
यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हो कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिससे भारत अथवा उसके किसी क्षेत्र की वित्तीय साख,स्थिति खतरे में हो।
अनुमोदन- संसद द्वारा दो माह के अन्दर स्वीकृति आवश्यक है।
-वित्तीय आपातकाल की अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं है इसे जारी रखने के लिए संसद की पुनः मंजूरी आवश्यक नहीं है।
-सदन द्वारा सामान्य बहुमत से पारित।
-राष्ट्रपति द्वारा अनुवर्ती घोषणा से वापस लिया जा सकता है।

प्रभाव :-
1)केन्द्र की अधिकारिक कार्यकारिणी का विस्तार वित्तीय मामलों में निर्देश देने तक।
2)केन्द्र राज्य की सेवा में किसी भी अथवा सभी वर्गों के सेवकों के वेतन और भत्तों में कटौती।
3)राज्य विधायिका द्वारा पारित सभी धन विधेयक और वित्तीय विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखा जाएगा।
4)उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के वेतन भत्तों में कमी।
5)वित्तीय आपातकाल भारतीय संविधान में संयुक्त राष्ट्र संघ के National Recovery Law की तरह है।
6)अब तक भारत में नहीं लगा है।

आलोचना :-
1)संविधान का संघीय प्रभाव नष्ट होना और केन्द्र का सर्वशक्तिमान हो जाना।
2)राष्ट्रपति के तानाशाह बनने की स्थिति उत्पन्‍न हो सकती है।
3)मूल अधिकार निरर्थक हो जाते हैं।(अनुच्छेद20,21)
4)लोकतांत्रिक भावना के विपरित प्रावधान है।
5)राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता खत्म हो जाती है।
6)राज्यों की एकल और संघीय शक्तियां मंत्रिमण्डल के हाथ में आ जाती है।

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