यह उपन्यास एक बारहवीं फेल लड़के के जीवन के बारे में है जो हजारों लाखों युवाओं की तरह कलेक्टर बनने के लिए अपने छोटे से शहर ग्वालियर से दिल्ली तक का सफर तय करता है। पिता आदर्शवादी सरकारी नौकर हैं, जिनका स्वयंभू आदर्शवाद उनके परिवार के लिए किसी आपदा से कम नहीं। फिर भी अपने दो बेटों को वो जैसे-तैसे अच्छे से पढ़ा लेते हैं।
किताब का कथानक गजब का है, खासकर ग्वालियर मुरैना भिंड की ठेठ लट्ठमार बोली का खड़ी बोली हिन्दी के साथ जो सम्मिश्रण है, वह अद्भुत है, यह निस्संदेह पाठकों को बाँधकर रखती है। भारत में आंचलिकता का पुट हमेशा से भाषायी सौंदर्य का एक प्रमुख अंग रहा है।इस किताब में प्रेम से जुड़े कुछ एक पंचलाइन बहुत शानदार हैं, गूढ़ भाव लिए हुए हैं। लेकिन उपन्यास के मुख्य पात्र का जो नाम है "मनोज" वह उपन्यास की नायिका "श्रध्दा" के नाम के साथ बिल्कुल भी फिट नहीं बैठ रहा है। शायद इसमें कुछ सुधार हो सकता था, ऐसा मुझे लगा। वैसे भी उपन्यास लिखते वक्त नामकरण एक बहुत पेंचीदा काम होता है। लेकिन मुख्य पात्रों को लेकर इतनी संजीदगी बरती जा सकती थी। और अल्मोड़ा यानि पहाड़ से आने वाली लड़की का नाम श्रध्दा, यह भी अपने आप में किसी आश्चर्य से कम नहीं था। अब इस आश्चर्य के पीछे भी गजब कहानी है, आज पता चलता है कि यह तो उपन्यास और जीवनी का सम्मिश्रण है क्योंकि इसके सारे पात्र हूबहू उसी नाम से जीवित हैं नौकरी कर रहे हैं, एक तो इस कहानी के पात्र हमारे एक मास्साब भी निकल गये। शायद यह भारत में अपनी तरह का पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें जीवंत किरदारों की जीवनी को रेखांकित किया गया है।
उपन्यास में एक जगह मनोज और उसके रूम पार्टनर पाण्डे में नोंक-झोंक चल रही कि मनोज श्रध्दा से दूर रहे ताकि उसकी पढ़ाई में कोई व्यवधान न हो। वही मनोज जिससे श्रध्दा ढंग से बात तक नहीं करती है, बस पढ़ाई और काम की बातों तक ही सीमित रहती है, और वे लोग मिलने के नाम पर पार्क और कोचिंग में ही मिलते हैं। अचानक से पाण्डे का यह कहना कि "अगर श्रध्दा इस कमरे में आई तो मैं आपका रूम पार्टनर नहीं रह सकता।" यह एक वाक्य उपन्यास के प्रवाह को धीमा तो करता है साथ ही धाराप्रवाह की दिशा भी बदल देता है, पूर्व में कही गई प्रेमादर्श की तमाम बातों को एक झटके में उलट-पलट कर रख देता है।
उपन्यास में एक तरफ लड़की को उच्च आदर्शों ये युक्त दर्शाना और तिस पर लड़के का लपलपाते हुए निरंतर लगे रहना, खैर। भारत जैसे देश में एक लड़के और एक लड़की के बीच प्रेम कहानी बुनना वाकई अपने आप में एक टेढ़ी खीर है, खूब सावधानी बरतनी पड़ती है, कब कथानक हाइ पीच पर है, कब लो पीच पर है, इन सब का पाठक पर बहुत असर होता है। प्रेमचंद की बहुधा रचनाओं को पढ़ कर मैंने इस बात को बखूबी समझा है।
लड़के द्वारा पैसों की कमी होने पर कुत्ते घुमाने वाली बात और उसमें उसकी प्रेमिका का भी रोज साथ-साथ घूमने जाना। यह सब कुछ थोड़ा ओवररेटेड सा लगा, सच भी हो सकता है क्या मालूम। खैर सफलता की कहानी और खासकर सरकारी नौकर बन जाने और उसमें भी कलेक्टर की हनक पाने की दास्तान अगर लिखी जा रही है तो उसमें कुत्ता घुमाना क्या रिक्शा चलाना भी जायज है, भीख माँगना भी तर्कसंगत है। क्योंकि जिस देश की परंपरा में ही श्रम का निरंतर अपमान होता आया हो वहाँ ऐसी सामान्य चीजें एक बड़ा फैशन होती है, जो कि उल्टे युवाओं के लिए मोटिवेशन की तरह काम करती हैं।
एक ऐसे देश में जिसने लम्बे समय तक परतंत्रता झेली हो, वहाँ की युवापीढ़ी के लिए सफलता और संघर्ष के मायने बहुत-बहुत अलग होते हैं, उसके लिए सुविधाएँ और हनक अर्जित कर लेना ही सम्मान का पर्याय हो जाता है, और इस पूरी प्रक्रिया में उसे पता ही नहीं चल पाता है कि वह खोखलेपन में आकंठ डूब चुका है। ऐसे में निरंतर वर्षों तक घिसकर सरकारी नौकरी पा लेना ही सफलता है, और यह प्रक्रिया ही संघर्ष है, इसके अलावा और कोई दूसरा संघर्ष इसके समकक्ष टिक ही नहीं पाता है क्योंकि समाज का पैटर्न ही ऐसा है कि इसके अलावा भी जीवन में और संघर्ष हो सकते हैं, इसकी संभावना ही मर जाती है। सब कुछ इस प्रचलित फैशनेबल संघर्षगाथा के सामने गौण हो जाते हैं, इसलिए सफलता की एक वृहद परिभाषा भी सीमित होकर रह जाती है। इस एक भाव को ऐसी किताबें पुरजोर तरीके से भुनाती हैं।
अंत में कहानी का सार यह है कि नायक मनोज भयंकर संघर्ष कर आईपीएस बन जाता है और श्रध्दा को उत्तराखण्ड में उप जिलाधीश का पद मिल जाता है। लेकिन मनोज के द्वारा डी. पी. अग्रवाल के बोर्ड में आईएएस इंटरव्यू में जाते-जाते कहा गया आखिरी जवाब सोचने पर विवश करता है। जब उससे पूछा जाता है कि यह आखिरी अटेम्प्ट है, नहीं हुआ तो? इस पर वह कहता है कि यह जीवन का कोई एकमात्र लक्ष्य नहीं, इसमें चयन नहीं भी हुआ तो वह देश की सेवा जारी रखेगा। पता नहीं क्यों आज भी देश सेवा वाली बात सुनते ही दिमाग चक्कर खाने लगता है, मनोज के नीयत पर शक नहीं है लेकिन एक बात समझ नहीं आती कि भारत में हर किसी को आखिर क्यों इतनी देश सेवा करने की पड़ी है, और जब इतने अधिक मात्रा में लोग देशसेवा को लेकर तत्पर हैं, तो देश की इतनी माली हालत क्यों है? खैर वास्तविकता और जमीनी यथार्थ से कोसों दूर यह वाक्य आज भी कई सरकारी प्राइवेट नौकरियों को पाने का मूलमंत्र है, और यह खोखला आदर्शवाद तब तक जारी रहेगा जब तक भारत में ढोंग है, श्रृंखलाबध्द तरीके से शोषण है, जातिवाद है, धार्मिक जड़ता है, मानसिक परतंत्रता है, सामाजिक पिछड़ापन है।
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