Friday, 22 May 2020

आखिरी सफर तक - लाश ढोने की कहानी

- आखिरी सफर तक -

लाशों को ढोती जिंदा लाशें -
द्वारा - अंशु कुमार गुप्ता

मैं लाशों के साथ सोती हूं, लाश तंग नहीं करती, करवट भी नहीं बदलती। - सात वर्षीया बानो।
डर कैसा? अब्बा बताते हैं, किनारे पर लाश पड़ी थी, मेरी माँ ने वहीं मुझे जन्म दिया था- कनीज बानो, उम्र 20 वर्ष। सच मानें तो मुझे लाशों से मोहब्बत है, पिछले चालीस सालों से इन्हीं की रोटी खा रहा हूं - 65 वर्षीय हबीब।


दिल्ली के एक प्रमुख जय प्रकाश नारायण अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर बसे एक परिवार के सदस्य सिर्फ लाशों की बात करते हैं। सात वर्षीया बानो से लेकर 65 वर्षीय हबीब तक। इतना ही नहीं कनीज बानो (20 वर्ष) की डेढ़-दो वर्षीया बच्ची भी यदि सवारी पर निकलती है तो 'लावारिस फुटपाथ पर पड़ी लाश' लिखे एक रिक्शा पर।

परिवार के मुखिया हबीब पिछले लगभग आधे दशक से फुटपाथ पर पड़ी लावारिस लाशों को उठाते हैं, और श्मशान तक ले जाते हैं। इतने लम्बे अर्से में कितनी लाशें ढोई हैं, इसका उन्हें अनुमान भी नहीं है, हंसते हुए कहते हैं- 'सैकड़ों की बात भूल जाईये, हजारों ढोई है।'

एक अंधी पत्नी, एक शादीशुदा लड़की, लाशों की खबर लेकर आने वाली 6 वर्षीया बानो और एक दामाद, यही है हबीब का परिवार।सब फुटपाथ पर रहते हैं। कमाई का और कोई साधन नहीं है। एक लाश ढोने के 20 रूपए मिलते हैं। सारा परिवार यही कमाई खाता है।

हबीब ने दिल्ली पुलिस का काम भले ही कितना भी हल्का कर दिया हो, एक पुलिस आॅफिसर की सिफारिश पर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी ने भले ही हबीब को 2 हजार रूपए दिए हों, लेकिन अब भी एक छप्पर हबीब का सपना है।

मुश्किल से 15 वर्ष के रहे होंगे हबीब, जब उन्हें रोजी-रोटी की तलाश में सड़क पर आना पड़ा था। माँ का निधन हो गया था। सौतेली माँ से बात नहीं बनी, हबीब को घर से निकाल दिया गया, बरेली की सड़कों पर भीख मांगले लगे। उस समय अंग्रेजों का जमाना था, लोग भिखारियों को परेशान किया करते थे, गंदी नजरों से देखते थे, हबीब ने भीख छोड़ रिक्शा चलाना शुरू किया। एक बार एक लाश ढोने के एवज में सही पैसा मिला तो हबीब ने सोचा क्यों न सिर्फ लाशें ही ढोई जाएं।

हबीब उस समय रेल्वे लाइन से लाशें उठाकर लाते थे, ट्रेन के आगे कटी-फटी लाशें ढोने से शुरूआत हुई तो लाशों से डर चला गया, कैसी भी हो, कहीं भी हो, हबीब ढोने पहुंच जाते थे। एक बार किसी महिला की लाश उठा रहे थे, रेल से कटकर महिला ने आत्महत्या की थी, वहाँ पर उनकी मुलाकात दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी से हो गई, जो किसी सिलसिले में वहां खोजबीन कर रहे थे। पुलिस अधिकारी ने कहा - 'दिल्ली चलोगे, इसी काम का अच्छा पैसा मिलेगा।' हबीब ने हामी भर दी और इस तरह हबीब दिल्ली आ गए।

सरकारी गाड़ियों की जगह हबीब का ठेलेनुमा रिक्शा लाशें ढोने लगा। आज दिल्ली पुलिस की ओर से हबीब को खाकी रंग की वर्दी दी गई है, लाशें ढोने के लिए एक रिक्शा दिया गया है। जिस पर हबीब ने बड़े-बड़े शब्दों में लाल रंग से लिख दिया है - 'लावारिस फुटपाथ पर पड़ी लाश, दिल्ली पुलिस की गाड़ी'।

इतना ही नहीं हबीब को दिल्ली पुलिस की ओर से एक परिचय पत्र भी दिया गया है, जिसमें 'पद' के आगे लिखा है - 'दिल्ली पुलिस का लावारिस लाश उठाने वाला'।

इस सबके बावजूद यह सोचना गलत होगा कि हबीब दिल्ली पुलिस का एक हिस्सा हैं, या उन्हें भी महीने में तनख्वाह मिलती है। हकीकत यह है कि कई दिन ऐसे ही गुजरते हैं, जब लाशें न मिलने पर हबीब के परिवार के पास खाने के लिए भी कुछ नहीं बचता।

एक निश्चित प्रक्रिया के तहत, पुलिस की पी.सी.आर. या सिपाही आकर हबीब को सूचना देते हैं कि फलां जगह एक लावारिस लाश पड़ी है, हबीब तुरंत अपने रिक्शे पर पीछे अपनी अंधी पत्नी आमना बेगम को बैठाते हैं और उस स्थल तक पहुंच जाते हैं। आमना अंधी होने के बावजूद लाशें उठाने की अभ्यस्त हो चुकी है। दोनों मिलकर लाश उठाकर रिक्शा पर लाद देते हैं। पुलिस के सिपाही हबीब के हाथों में 20 का नोट रखते हैं और 2 मीटर सफेद कपड़ा। कपड़ा लाश पर लपेट दिया जाता है और यह बीस रूपए पारिश्रमिक है हबीब का, जिसमें वो और उनकी पत्नी, या लड़की लाश को उठाते हैं, विद्युत शवदाह गृह तक ले जाते हैं। लाश फूंकने वाले को दस रूपए प्रति शव के हिसाब से अलग मिलते हैं।

बहुत ही कम ऐसा होता है कि हबीब को मृतकों के कपड़ों से कुछ मिल जाए। हबीब कहते भी हैं - 'सिर्फ 20 रूपए ही मिलते हैं, ऊपरी कमाई की बात छोड़िए, दिन में यदि 5 लाशें ढोता हूं तो चार तो भिखारियों की होती हैं।'

हबीब सिर्फ उन्हीं मृतकों के जिम्मेदार हैं जो फुटपाथ पर भूख, उम्र या बीमारी से मरे हों। हबीब ऐसा लाश को हाथ नहीं लगाते जिसका पोस्टमार्टम होना हो।

हबीब को लाशों की खबर भले ही आधिकारिक तौर पर दिल्ली पुलिस की ओर से दी जाती हो, लेकिन अधिकतर लोग ही आकर उन्हें बता जाते हैं। खासतौर पर उनकी सात वर्षीय बेटी इस काम में बहुत माहिर हो चली है।

हबीब की पत्नी आमना कहती है कि सुबह 6 बजे ही बेटी आमना खेलने निकल जाती है, बच्चों में खेलते-खेलते ही उसे पता चलता है कि फलां जगह कोई मर गया है, बानो खेल बीच में ही छोड़ कर फुटपाथ पर पीपल के नीचे बैठे अपने परिवार को खबर करती है, हबीब के परिवार को लगता है कि 'आज रोटी मिल जाएगी।' बाद में हबीब सरकारी सूचना पर मृतक को ठिकाने लगा कर आते हैं।

हबीब के परिवार में किसी को इस काम से नफरत नहीं है। हबीब इसे समाज सेवा कहते हैं तो उनकी पत्नी यह कहती है कि 'हम पुण्य का काम करते हैं।'

हबीब के पड़ोसी चाय वाले, आॅटो चालक व अन्य फुटपाथी हैं, किसी को हबीब से गिला-शिकवा नहीं है। हबीब के बच्चे अन्य बच्चों के साथ खेलते हैं, लेकिन इस बात को हबीब का परिवार भी महसूस करता है कि उनका काम आम कामों से बिल्कुल अलग है, समाज में लोग उन्हें घृणा से तो देखते ही हैं।

हबीब का परिवार फुटपाथ पर ही जिंदगी काट रहा है, पुलिसवालों से लेकर स्थानीय नेताओं, अधिकारियों तक ने उन्हें एक झोपड़ी का आश्वासन दिया है, लेकिन अब तक यह कोरा आश्वासन ही है।

आमना बातचीत के दौरान सिर्फ यह बात ही दोहराती है- 'मुझे थोड़ी सी जगह चाहिए रहने के लिए। एक ठिकाना मिल जाए, तो बाकी जिंदगी कट जाए।'

लोग भले ही हबीब के काम को 'समाज सेवा' करार देते हों, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि समाज इसे जीवनयापन के एक साधन के रूप में मान्यता नहीं देता।

यही वजह है कि हबीब कहते हैं- 'मैंने कभी नहीं सोचा था कि कभी मेरा भी परिवार होगा।' पर हबीब की किस्मत में कुछ इस तरह होता चला गया कि आज उनका एक भरा-पूरा परिवार है।

आमना से उनकी शादी ठीक फिल्मी अंदाज में हुई। आमना अपनी कहानी भी कुछ इसी तरह बताती है कि फिल्मों के डायलाग का आभास होता है।

आमना अंधी है, गोंडा में घर है, सौतली मां ने उन्हें घर से निकाल दिया। आमना एक ट्रेन में सवार हो गई, बीच में कहीं गाड़ी रूकी तो वह उतर गई। दुर्भाग्य से प्लेटफॉर्म की ओर न उतरकर पटरियों की ओर। यह स्टेशन मुरादाबाद था, बीच में कुछ समय के लिए हबीब यहां भी लाशें उठाते थे।

पटरियों पर उस समय हबीब कोई लाश को उठा रहे थे, उनकी नजर अचानक तेजी से आती तूफान मेल और पटरी पर चल रही आमना पर पड़ी। हबीब तुरंत उधर भागे और आमना को एक ओर खींच लिया। आगे की कहानी आमना बताती है - "मैं बहुत रोयी, मैं मरना चाहती थी। मुल्ला जी(हबीब) ने मुझे समझाया, पूछा- मुझसे शादी करोगी? मैं पटरियों से लाशें उठाता हूं।' मुझे क्या? हर काम‌ पुण्य का काम है, मैं बोली - 'मुझे धंधे से क्या लेना, जो प्यार से रखेगा, दो रोटी इज्जत की देगा, उससे शादी करूंगी।'

इस तरह ठेठ हिंदी फिल्मी अंदाज में हबीब और आमना मिले और उनकी शादी हो गई। आमना भी हबीब का हाथ बंटाने लगी। आमना के अंधे होने से हबीब को कोई दिक्कत नहीं है। हबीब कहते हैं - 'जब मैं लाशों को इतना प्यार करता हूं तो ये तो जिंदा है, मेरी किस्मत में ही होगी जो उस दिन बच गई।

हबीब और आमना की संतान कनीज बानो, 10-12 साल जी उम्र से लापता थी। पता चला की वहीं का कोई आदमी चाय में कुछ मिला कर कनीज को भगा ले गया है। हबीब ने कनीज को ढूंढने में कोई कसर नहीं छोड़ी, सारी कमाई खर्च कर दी, कनीज नहीं मिली। बाद में कहीं से खबर मिली कि कनीज और उस आदमी ने शादी कर ली है। एक बच्ची भी है। सात साल बाद वे लौटे, इस बीच कनीज को पेट पालने के लिए बहुत कुछ करना पड़ा था, इसके बावजूद हबीब ने उसे स्वीकार कर लिया। अपने दामाद और नाती को भी साथ रख लिया।

हबीब के परिवार की कहानी का यही अंत नहीं है। 6-7 वर्षीया जो नन्हीं सी बच्ची बातचीत के दौरान दिल्ली गेट पर एक मृतक की खबर ले कर आई थी, उसे भी हबीब पाल रहे हैं। यह उनकी अपनी संतान नहीं है, उसके बावजूद बोलते हैं - थोड़ी और बड़ी हो जाये, तो इसे बोर्डिंग में डाल दूंगा। पढ़-लिख जाएगी, तो अच्छे घर में चली जाएगी।

इतना प्यारा सा सपना जिस बच्ची के लिए देख रहे हैं, हबीब को वह बच्ची, एक पुलिस अधिकारी ने दी थी।

बच्ची के जन्म के तुरंत बाद मां-बाप ट्रेन से कट गए थे। जो पुलिस अधिकारी छानबीन कर रहे थे, उन्होंने पास पड़ी नन्हीं बच्ची को उठाया, और हबीब को दे दिया।

हबीब भले ही तंगी में गुजर बसर कर रहे थे, लेकिन उन्हें उस नन्हीं जान पर तरस आ गया, आमना भी अपनी लड़की कनीज को खोने से दु:खी थी। दोनों से उस बच्ची को स्वीकार लिया और पाला।

आज यह बच्ची उनके परिवार का अंग है, लाशों के बीच ही पली है। कई बार जब मजबूरीवश मृतक को श्मशान तक नहीं पहुंचाया जाता, तो रिक्शा को वहीं रख दिया जाता है, बच्ची मृतक से ही खेलती रहती है।

मृतक उसके लिए कोई अलग चीज नहीं है। यह पूछने पर कि 'बेटा, आपको लाशों से डर नहीं लगता' जवाब मिलता है, 'डर कैसा? जाड़ों में जब मुझे ठंड लगती है तो मैं इससे चिपक कर सो जाती हूं। मेरी ठंड दूर हो जाती है।

'हबीब बच्ची की बात पर हामी भरते हैं- 'इसे क्या पता, मरना क्या होता है? इसके लिए तो खिलौना है ये, बचपन से देख रही है।

कभी शाम को कोई शाम मिलती है तो उसे श्मशान तक नहीं ले जा पाते, मजबूरी में लाश को रिक्शा में डालकर पास ही रखना पड़ता है, पूरी रात उसके साथ काट कर सुबह उसे श्मशान ले जाते हैं। हबीब के परिवार के लिये तो यह नयी बात नहीं है लेकिन हबीब के पड़ोसियों को विशेषकर महिलाओं और बच्चों को इससे काफी परेशानी होती है। बरसातें भी हबीब के लिए एक समस्या होती है।

दिल्ली पुलिस ने मृतकों को ले जाने के लिए जो गाड़ी दी है, वह ठेलेनुमा रिक्शा है, ऊपर से खुला। हबीब बताते हैं कि मृतक को श्मशान तक ले जाने में जो रास्ता तय करते हैं, उसमें भी लोगों को काफी परेशानी होती है।

जीवन यापन के इस अनोखे तरीके का एक घृणित पक्ष भी सामने आया। छानबीन पर पता चला कि आसपास के अस्पतालों से मानसिक रूप से विक्षिप्त लावारिस बच्चों को हबीब के पास भेज दिया जाता है कि- 'इसे पालो'। हबीब इतना भार उठाने में अक्षम हैं। परिणामस्वरूप इन लोगों को सड़कों पर लावारिस छोड़ दिया जाता है, 5-6 दिन में भूख-प्यास से इनकी मौत हो जाती है, तो पुलिस की गाड़ी हबीब को सूचना देती है, और हबीब उसे भी श्मशान पहुंचा आते हैं।

पिछले लंबे अरसे से एक मृतक पर उन्हें 20 रूपए की राशि दी जा रही है। हबीब का परिवार पूरी तरह इसी बात पर निर्भर है कि दिन में कितने भिखारियों या लावारिस लोगों की मौत हुई है? सुबह 6 बजे से देर रात तक हबीब का परिवार किसी मृतक की सूचना का इंतजार करता है, एक लाश की खबर मिलते ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं, अंधी आमना को हबीब ने इस काम का अभ्यस्त बना दिया है, मृतक को रिक्शे तक लाने के लिए एक ओर से यदि हबीब पकड़ते हैं तो दूसरी ओर से आमना।

पिछले लगभग पचास वर्षों से जिंदगी इसी तरह चल रही है। पुलिस हबीब को खुश रखने का पूरा प्रयत्न करती है। हबीब अपने काम से संतुष्ट हैं, बाकी जिंदगी भी यूं ही गुजारना चाहते हैं।

उनके पड़ोसी स्वीकारते हैं कि 'यह बहुत बड़ी समाज सेवा है।' पुलिस स्वीकारती है कि हबीब ने उनका काम बहुत हल्का कर दिया है।

इसके बावजूद हबीब का परिवार खुले में गुजर-बसर कर रहा है। हबीब फिर भी यही कर संतुष्ट हैं - लावारिसों को उठाते हैं, यहां जगह भले ही न मिले, पर स्वर्ग में तो मिलेगी।'

प्रस्तुति : अंशु कुमार गुप्ता


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